गुरुवार, 12 जून 2025
14. चौबीस ठाणा-काय मार्गणा 24 स्थान- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु जीव
गुरुवार, 29 मई 2025
13. चौबीस ठाणा-पंचेन्द्रिय मार्गण*
गुरुवार, 15 मई 2025
12. चौबीस ठाणा-विकलेन्द्रिय मार्गण*
गुरुवार, 1 मई 2025
11. चौबीस ठाणा-एकेन्द्रिय मार्गणा
*11. चौबीस ठाणा-एकेन्द्रिय मार्गणा*
https://youtu.be/EA8u9p5bpGM?si=luA9UQCw5d7Ltl08
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*✍️ एकेन्द्रिय मे २४ स्थान*
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*०१) गति ०१/०४* तिर्यंचगति
*०२) इन्द्रिय ०१/०५* स्पर्शन इन्द्रिय
*०३) काय ०१/०६* स्थावर काय
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक
*०४) योग ०३/१५*
कार्मणकाययोग, औदारिकद्विक काययोग
*०५) वेद ०१/०३* नपुंसकवेद
*०६) कषाय २३/२५*
स्त्रीवेद,पुरुषवेद नोकषाय को छोडकर बाकी सभी
*०७) ज्ञान ०२/०८* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान
*०८) संयम ०१/०७* असंयम
*०९) दर्शन ०१/०४* अचक्षुदर्शन
*१०) लेश्या ०३/०६* कृष्ण, नील, कापोत
*११) भव्यक्त्व ०२/०२* भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व ०२/०६* मिथ्याद्रष्टि, सासादन
*सासादन सम्यक्त्व निर्वत्यपर्याप्तक अवस्था मे है*
*१३) संज्ञी ०१/०२* असंज्ञी
*१४) आहारक ०२/०२* आहारक, अनाहारक
*१५) गुणस्थान ०२/१४* मिथ्यात्व, सासादन
*१६) जीवसमास १४/१९*
*१७) पर्याप्ति ०४/०६*
भाषा और मनः पर्याप्ति नही होती है
*१८) प्राण ०४/१०*
स्पर्शन, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा ०४/०४*
आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा।
*२०) उपयोग ०३/१२*
कुमति, कुश्रुत, अचक्षुदर्शन
*२१) ध्यान ०८/१६*
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।
*२२) आस्रव ३८/५७*
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति ०७* स्पर्शन इन्द्रिय और षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना की अविरति होती है
*कषाय २३* अनन्तानुबन्धीआदि १६ नोकषाय ०७
*योग ०३* औदारिकद्विक काययोग, कार्मण काययोग
*२३) जाति –८४ लाख* ५२ लाख जाति
विकलत्रय एवं पंचेन्द्रिय सम्बन्धी जाति नही होते है।
*२४) कुल–१९९.५ लाख करोड* ६७ लाख करोड़
विकलत्रय एवं पंचेन्द्रिय सम्बन्धी कुल नही होते है।
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✍️ एकेन्द्रिय जीव :-
जिन जीवों का चिह्न स्पर्शन विषयक ज्ञान है, वे जीव एकेन्द्रिय हैं।
जिन जीवों के एक ही इन्द्रिय होती है, वे एकेन्द्रिय हैं *जैसे* पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, इतर निगोद, नित्यनिगोद आदि *(गो. जी. १६६)*
*प्रश्न - एकेन्द्रिय जीवों के द्रव्यवेद नहीं पाया जाता है, इसलिए उनके नपुंसकवेद का अस्तित्व कैसे बतलाया है?*
उत्तर-एकेन्द्रियों में द्रव्यवेद मत होओ; क्योंकि उसकी यहाँ प्रधानता नहीं है। अथवा द्रव्यवेद की एकेन्द्रियों में उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए उसका अभाव सिद्ध नहीं होता है । किन्तु सम्पूर्ण प्रमेयों को जानने वाले केवलज्ञान से उसकी सिद्धि हो जाती है। किन्तु यह ज्ञान छद्मस्थों में नहीं पाया जाता है।
*(धवला ०१/३४६)*
इनके द्रव्यवेद और भाववेद दोनो नपुंसक होता है। भाववेद क्योकी उनके नपुंसकवेद नामकर्म का उदय है तथा द्रव्यवेद भी नपुंसक है वह बाहर से नही दिखता है लेकिन केवलज्ञानी के ज्ञान मे उनके नपुंसक दिखाई देता है।
*प्रश्न - एकेन्द्रिय जीव स्त्रीभाव व पुरुषभाव नहीं समझते, उनके स्त्री-पुरुष विषयक अभिलाषा कैसे बन सकती है?*
उत्तर-नहीं; क्योंकि जो पुरुष स्त्रीवेद से सर्वथा अनजान है और भृगृह के भीतर वृद्धि को प्राप्त हुआ है, ऐसे पुरुष के भी वासना देखी जाती है। इसलिए एकेन्द्रिय जीवों के स्त्री-पुरुष भाव में नहीं समझने पर भी (नपुंसक) वेद होने में कोई बाधा नहीं है।
*(यहा मैथुन संज्ञा है तथा मैथुन संज्ञा होने पर यह भाव उत्पन्न होते है)* *(धवला ०१/३४६)*
*प्रश्न १४) एकेन्द्रियों के कषायों का सद्भाव कैसे पाया (सिद्ध होता है) जाता है?*
उत्तर- क्वीन्स और न्यू साउथवेल्स के जंगलों में डंक मारने वाले वृक्ष होते हैं। इन वृक्षों पर नुकीले काँटे होते हैं। इनकी पत्तियाँ घने बालों वाली होती हैं। इन वृक्षों के समीप जाने पर पत्तियाँ शरीर से चिपक जाती हैं और अपने रोंयें छोड़ देती हैं, यह उनकी क्रोध कषाय कही जा सकती है।
बरगद आदि वृक्ष अपनी डालियों से शाखाएँ निकालकर भूमि तक पहुँचा देते हैं तथा उन्हें ही अपने जड़ और तने के रूप में परिवर्तित कर लेते हैं। यूकेलिप्टस कुछ ही दिनों में २००–३०० फुट ऊँचाई तक सीधा-सीधा बढ्कर एक प्रकार से अपने अभिमान को ही प्रगट करता है।
कीट-भक्षी पौधे स्पष्टरूप से मायावी दिखाई देते हैं। ये अपने रूप, रस, गंध से कीट, पतंगों आदि को अपनी ओर आकर्षित करके नष्ट कर देते हैं। इसी प्रकार अमरबेल भी धीरे- धीरे बढ्कर उसी वृक्ष को नष्ट कर देती है।
कई वनस्पतियाँ अपना भोजन जमीन के भीतर अपनी जड़ों/तनों में संचित कर लेती हैं। यूकेलिप्टस अपनी अबू- बाजू का इतना पानी इकट्ठा करके रख लेता है कि ०४ – ०५ वर्ष तक अकाल पड़ने पर भी वह नहीं सूखता है। यह उसकी लोभ कषाय का परिणाम है।
*प्रश्न १५) एकेन्द्रिय जीवों के मिथ्यात्व कैसे सिद्ध होता है?*
उत्तर-एकेन्द्रिय जीवों के गृहीत- अगृहीत आदि सभी मिथ्यात्व सम्भव हैं, क्योंकि जिनका हृदय सात प्रकार के मिथ्यात्वरूपी कलक से अंकित है, ऐसे मनुष्यादि गति सम्बन्धी जीव पहले ग्रहण की हुई मिथ्यात्व पर्याय को न छोड्कर जब स्थावर पर्याय को प्राप्त करते हैं, तो उनके सातों’ ही प्रकार का मिथ्यात्व पाया जाता है। इस कथन में कोई विरोध नहीं है। *(धवला ०१/२७७)*
*प्रश्न १६) क्या सभी एकेन्द्रिय जीवों के सभी मिथ्यात्व हो सकते हैं?*
उत्तर-नहीं, जो एकेन्द्रिय अथवा द्वीन्द्रिय आदि जीव जिन्होंने आज तक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय को प्राप्त नहीं किया है उनके पाँचों गृहीत मिथ्यात्व नहीं हो सकते हैं, क्योंकि मन के अभाव मे जीव में किसी के उपदेश को ग्रहण करने की क्षमता नहीं हो सकती है। उपदेश को ग्रहण किये बिना गृहीत मिथ्यात्व नहीं हो सकता है। *(धवला पुस्तक ०४)*
*प्रश्न १७) एकेन्द्रिय जीवों के कम- से- कम कितने प्राण होते हैं?*
उत्तर-एकेन्द्रिय के निर्वृत्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्यातक अवस्था मे कम-से-कम तीन प्राण होते हैं- स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु प्राण। श्वासोच्छास पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले श्वासोच्छास प्राण नहीं होता है। इसलिए निर्वृत्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्यातक जीवों के तीन प्राण होते हैं।
*प्रश्न १८) एकेन्द्रिय जीवों के आहारादि संज्ञाएँ कैसे सिद्ध होती ईं?*
उत्तर- *आहार संज्ञा* सम्पूर्ण रूप से छाल को उतार देने पर वृक्ष वनस्पति का मरण हो जाता है और जल, वायु आदि के मिलने से वे हरे- भरे हो जाते हैं इसलिए आहार संज्ञा स्पष्ट है।
*भय संज्ञा* स्पर्श कर लेने पर लाजवन्ती आदि वनस्पतियाँ संकुचित हो जाती हैं यह भय संज्ञा है।
*मैथुन संज्ञा* स्त्रियों के कुल्ले के जल से सिंचित होने से कुछ लताएँ आदि हर्षित (पुष्पित) हो जाती हैं तथा स्त्रियों के पैरों के ताड़न से कुछ वनस्पतियों में पुष्प, अंकुर आदि प्रादुर्भूत हो जाते हैं इसलिए मैथुन संज्ञा भी स्पष्ट है।
*परिग्रह संज्ञा* वृक्ष की जड़ें निधान-खजाने आदि की दिशा में फैल जाती हैं इसलिए परिग्रह संज्ञा भी स्पष्ट है । *(मू आ. २१७)*
लगभग पूरी बुझी हुई अग्नि भी थोड़ा वायु का झोंका लग जाने पर या रुई आदि अनुकूल ईधन मिलने पर सचेत (पुनर्जीवित हुई) देखी जाती है, इसको उनकी *आहार संज्ञा* कह सकते है।
अग्नि से अग्नि आगे-आगे बढ़ती हुई देख कर *परिग्रह संज्ञा* कही जा सकती है। इसी प्रकार पृथ्वी आदि में भी संज्ञाएँ पाई जाती हैं।
*सिद्धान्त की दृष्टि से वेद कर्म के बन्ध का कारण वेद का उदय कहा गया है। एकेन्द्रिय जीवों के वेद का बन्ध होता है इसलिए उनके *मैथुनसंज्ञा* होती ही है, ऐसे ही अपकायिक आदि के उदय के साथ समझना चाहिए।*
*प्रश्न १९) एकेन्द्रिय जीवों के वचनयोग नहीं होता है, फिर उनके मृषानन्दी रौद्रध्यान कैसे हो सकता है?*
उत्तर:-एकेन्द्रिय जीवों के भी स्पर्शन इन्द्रिय के माध्यम से झूठ बोलने में आनन्द की तथा झूठ बोलने वाले की अनुमोदना सम्बन्धी कल्पनाएँ हो सकती हैं।
दूसरी बात, रौद्रध्यान के लिए बोलने की या वचन योग की अतिआवश्यकता भी नहीं है। अत: उनके मृषानन्दी रौद्रध्यान होने में कोई बाधा नहीं है ।
*प्रश्न २०) एकेन्द्रिय जीवों के अपर्याप्त अवस्था में कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?*
उत्तर:- एकेन्द्रिय जीवों के अपर्याप्त अवस्था में छत्तीस (३६) आसव के प्रत्यय होते हैं –
मिथ्यात्व-०५, अविरति-०७, कषाय-२३, योग-०१ (औदारिक मिश्र काययोग)
*प्रश्न २१) एकेन्द्रिय जीवों की बावन (५२) लाख जातियाँ कौन- कौनसी हैं?*
उत्तर-एकेन्द्रिय जीवों की जातियाँ-
पृथ्वीकायिक ०७ लाख, जलकायिक ०७ लाख अग्रिकायिक ०७ लाख, वायुकायिक ०७ लाख
नित्यनिगोद ०७ लाख, इतर निगोद ०७ लाख
वनस्पति कायिक १० लाख जातियाँ मिलाकर एकेन्द्रिय जीवों की बावन (५२) लाख जातियाँ है।
*प्रश्न २२) एकेन्द्रिय के कितने कुल हैं?*
उत्तर:-एकेन्द्रिय जीवों के ६६ लाख करोड़ कुल हैं-
पृथ्वीकायिक २२ लाख करोड़
जलकायिक ०७ लाख करोड़
अग्निकायिक ०३ लाख करोड़
वायुकायिक ०७ लाख करोड़
वनस्पतिकायिक २८ लाख करोड़ कुल मिलाकर
सडसठ (६७) लाख करोड़ कुल हो जाते है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
गुरुवार, 24 अप्रैल 2025
10. चौबीस ठाणा-इन्द्रिय मार्गणा
10. चौबीस ठाणा-इन्द्रिय मार्गणा
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जिससे जीवो की पहचान हो उसे इन्द्रिय कहते हैं।
शरीर के चिन्ह विशेष जो आत्मा को ज्ञान कराने मे निमित्त होते है वे इन्द्रिय है, या आत्मा का ज्ञान कराने मे निमित्त होते है वे इन्द्रिय है।
जीव मे जो क्षयोपशम रुप शाक्ति पाई जाती है उस शाक्ति का नाम इन्द्रिय है।
जो इन्द्र की भाँती हो उसे इन्द्रिय कहते है।
जो आज्ञा ऐश्वर्य वाला है उसे इन्द्र कहते है।
*जैसे* अहमिन्द्र होते है एक दुसरे की अपेक्षा नही रखते उसी प्रकार इन्द्रिय एक दुसरे की अपेक्षा नही रखती अपना-अपना काम करती है इस प्रकार इन्द्र की भाँती चीजो को परिणामो को इन्द्रिय कहते है।
तथा आत्मा का चिन्ह इन्द्र है इस आत्मा को जानने मे जिससे मदद लेता है उस आत्मा के चिन्ह को इन्द्रिय कहते है। *(गो. जी.१६४)*
जो सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान कराता है उसे लिंग यानि चिन्ह कहते है।
जिस लिंग के द्वारा आत्मा का अस्तिव जाना जाता है उसे इन्द्रिय कहते है।
जैसे---धुए से अग्नि का ज्ञान होता है उसी प्रकार दिखने वाली चीजो से न दिखने वाली चीजो का ज्ञान कर लेते है।धुआ कहलाता है लिंग साधु हेतु उसके द्वारा जाना जाता है सूक्ष्म पदार्थ अग्नि जैसा
✍️ इन्द्रिय के प्रकार :-
इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती हैं –द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय *द्रव्येन्द्रिय* शरीर के चिन्ह विशेष को द्रव्येन्द्रि कहते है। या पुद्गल द्रव्य रूप इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय है अथवा निर्वृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं
*भावेन्द्रिय* मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई विशुद्धि को भावेन्द्रिय कहते है। ड्सके
लब्धि और उपयोग दो भेद है। *(त.सू ०२/१८)*
*लब्धि* =शक्ति, मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विशुद्धि लब्धि है।
*उपयोग* लब्धि का प्रयोग होना अर्थात लब्धि से प्राप्त जानने की शक्ति को उपयोग कहते है
✍️ निर्वृत्ति के प्रकार :-
निर्वृत्ति दो प्रकार की है- बाह्य निर्वृत्ति, आभ्यंतर निर्वृत्ति।
*◆ बाह्म निर्वृत्ति :-
इन्द्रियकार रचना विशेष को निर्वृत्ति कहते हैं। चक्षु आदि में मसूर आदि के आकार रूप बाह्य निर्वृत्ति है *(सु. बो. ९४)*
इन्द्रिय नाम वाले आत्मप्रदेशों में प्रतिनियत आकार रूप और नामकर्म के उदय से विशेष अवस्था को प्राप्त जो पुद्गल प्रचय होता है, उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं. *(सर्वा. २९४)*
◆ आभ्यन्तर निर्वृत्ति :-
आत्म प्रदेशो का आकार अभ्यंतर निर्वृत्ति है।
उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण विशुद्ध आत्मप्रदेशों की चक्षुरादि के आकाररूप से रचना होना आभ्यन्तर निर्वृत्ति है। *(रा. वा. ०३)*
✍️ उपकरण :-
जिसके द्वारा निर्वृत्ति का उपकार किया जाए उसे उपकरण कहते है। यह निर्वृत्ति मे उपकारी है।
उपकरण दो प्रकार के होते हैं –बाह्य उपकरण और अभ्यन्तर उपकरण।
*बाह्य उपकरण* इन्द्रियो की रक्षा करते है उसे बहिरंग उपकरण कहते हैै।
*जैसे* आँखो के लिए पलके, दोनों बरौनी आदि बाह्य उपकरण हैं ।
*अभ्यन्तर उपकरण* जो इन्द्रियो के बहुत नजदीक हो उसे अभ्यंतर उपकरण कहते है। *जैसे* नेत्र मे काला सफेद मण्डल का होना *(श्लो. ०५/१३९)*
✍️ इन्द्रियाँ (द्रव्येन्द्रि) :-
इन्द्रियाँ पाँच होती हैं– स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन्द्रियाँ
✍️ इन्द्रिय मार्गणा किसे कहते हैं?*
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि सत्व, भूत और प्राणियों’ में जीवों की खोज करने को इन्द्रिय मार्गणा कहते हैं।
*भूत= वनस्पतिकायिक भूत है, प्राण= विकलत्रय प्राण है, सत्व=पृथ्वी आदि वायु पर्यंत सत्व है*
✍️ इन्द्रिय मार्गणा के प्रकार :-
इन्द्रिय मार्गणा पाँच प्रकार की है-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय *(बृ.द्र.सं.१३ टीका)*
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तथा अनीन्द्रिय जीव होते हैं। *(धवला ०१/२३३ )*
*प्रश्न ०८) यहाँ इन्द्रिय मार्गणा में कौनसी इन्द्रिय को ग्रहण करना चाहिए?*
यहाँ आस्रव के कारण प्राण आदि स्थानों पर भावेन्द्रिय को ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, यहाँ पर भावेन्द्रियों की अपेक्षा पंचेन्द्रियपना स्वीकार किया है । *(धवला ०१/२६५)*
✍️ अनीन्द्रिय जीव :-
जो नियम से इन्द्रियों के उन्मीलन (खुलाना) आदि व्यापार से रहित है’ वे अशरीरी हैं, उनके इन्द्रिय व्यापार का कारण जाति नामकर्म आदि कर्मों का अभाव है, इसी से अवग्रह आदि क्षायोपशमिक ज्ञानों के द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते हैं। तथा इन्द्रिय और विषय के सम्बन्ध से होने वाले सुख से भी युक्त नहीं हैं, वे जिन और सिद्ध नामधारी जीव अनीन्द्रिय अनन्तज्ञान और सुख से युक्त होते हैं, क्योंकि उनका ज्ञान और सुख शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि से उत्पन्न हुआ है। *(गो. जी. १७४ टीका)*
✍️ अनीन्द्रिय जीव :-
तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान वाले तथा सिद्ध भगवान अनीन्द्रिय होते हैं । यद्यपि तेरहवें- चौदहवें गुणस्थान वाले जीवों के द्रव्येन्द्रियाँ पाई जाती हैं परन्तु उनके भावेन्द्रियाँ नहीं पाई जाती हैं, क्योंकि उनके मति ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षयोपशम नहीं पाया जाता
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
बुधवार, 23 अप्रैल 2025
9. गति अपेक्षा सम्यक्तव की गमन स्थिति*
9. गति अपेक्षा सम्यक्तव की गमन स्थिति*
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*किस गति के जीव सम्यग्दर्शन सहित किस गति मे जा सकते है*
*क्षायिक अथवा कृतकृत्य वेदक सम्यक्तव* ऐसा है जो एक गति से दुसरी गति मे साथ जा सकता है। इससे चारो गति में जा सकता है।
जिसने मिथ्यात्व अवस्था मे किसी भी आयु का बंध कर लिया है फिर क्षयिक या कृतकृत्य वेदक सम्यक्तव प्राप्त करा हो तो इनसे सहित वह चारो गति मे जा सकता है। नरकायु बांधी हो तो नरकगति मे, तिर्यंचायु या मनुष्यायु बांधी हो तो भोगभूमि का मनुष्य या तिर्यंच, नही तो देव मे।
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*✍️ ०१) मनुष्यगति*
मनुष्यगति मे तीनो सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकते है उपशम (प्रथमाेपशम–द्वितीयोपशम), क्षयोपशम (कृतकृत्य वेदक) और क्षायिक सम्यक।
*प्रथमाेपशम सम्यक्त्व* के साथ मनुष्य किसी भी गति मे नही जा सकता, क्योकी प्रथमाेपशम मे मरण नही होता।
*द्वितीयोपशम सम्यक्त्व* के साथ मनुष्य केवल देवगति मे जाता हैं इसके अलावा कई और नही जा सकता। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के काल मे मुनिराज का मरण होता है तथा वे नियम से देवगति के देव बनेगे, थोडी देर के लिए द्वितीयोपशम वहा पर रहेगा उसके बाद बदलकर क्षयोपशमिक हो जाएगा।
*क्षायोपशमिक सम्यक्त्व* के साथ मनुष्य केवल देवगति मे ही जाता है अन्य तीन गति मे नही जाता
*कृतकृत्य वेदक* के साथ मनुष्य चारो गति मे जा सकता है।
*क्षायिक सम्यक्त्व* के साथ मनुष्य चारो गति मे जा सकता है।
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*✍️ ०२) तिर्यंचगति*
तिर्यंचगति का जीव दो ही सम्यक उत्पन्न कर सकता है–प्रथमोपशम और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व।
तिर्यंच क्षायिक या कृतकृत्य वेदक की शुरुवात नही कर सकता चाहे भोगभूमि का हो या कर्मभूमि का तिर्यंच। क्षायिक या कृतकृत्य वेदक की शुरुवात कर्मभूमि का मनुष्यगति का जीव ही कर सकता है अन्य किसी भी गति का जीव नही।
*प्रथमाेपशम सम्यक्त्व* के साथ तिर्यंच किसी भी गति मे नही जा सकता, क्योकी प्रथमाेपशम मे मरण नही होता।
*द्वितीयोपशम सम्यक्त्व* के साथ तिर्यंचो के होता ही नही है। यह केवल मुनियो के होता है।
*क्षायोपशमिक सम्यक्त्व* के साथ तिर्यंच देवगति मे जा सकता है अन्य किसी गति मे नही।
*कृतकृत्य वेदक* के साथ तिर्यंच जीव कई नही जा सकते क्योकि ये तिर्यंचो के होता ही नही। कोई भी तिर्यंच क्षायिक की शुरुवात करता ही नही है तो कृतकृत्य वेदक होता ही नही है।
*क्षायिक सम्यक्त्व* क्षायिक सम्यक्त्व कर्मभूमि के तिर्यंचो के होता नही है लेकिन कर्मभूमि के मनुष्यो को साथ ले जाने की अपेक्षा भोगभूमि के तिर्यंचो को निष्ठापन की अपेक्षा से क्षायिक सम्यक्त्व होता है और वे नियम से देवगति मे जाएगे
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*✍️ ०३) नारकगति*
नारकी जीव दो ही सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकता है- उपशम और क्षयोपश्म सम्यक्त्व लेकिन नरक मे तीनो सम्यक्त्व होते है– उपशम, क्षयोपश्म और क्षायिक सम्यक्त्व। यहा क्षायिक सम्यक मनुष्यगति के जीव के साथ मरण होने पर आता है और प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी मे जन्म लेता हैं अन्य मे नही।
*प्रथमाेपशम सम्यक्त्व* के साथ नारकी जीव कई नही जाता क्योकी प्रथमाेपशम मे मरण ही नही है।
*द्वितीयोपशम सम्यक्त्व* के साथ नारकी जीव कई नही जाता क्योकी यह नारकी के होता ही नही है।
*क्षायोपशमिक सम्यक्त्व* के साथ नारकी जीव एक मात्र मनुष्य गति मे जा सकते है।
*कृतकृत्य वेदक* के साथ नारकी जीव कई नही जाते क्योकि वहा उत्पन्न ही नही होता।
*क्षायिक सम्यक्त्व* के साथ नारकी जीव एक मात्र मनुष्य गति मे जा सकते है।
✍️ लेकिन नारकियो मे सम्यक्त्व मार्गणा के छ्हो भेद होते है। कुछ साथ ले जाने की अपेक्षा से कुछ उप्पन्न होने की अपेक्षा से
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*✍️ ०४) देवगति*
देवगति मे जीव दो ही सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकता है- उपशम और क्षयोपश्म सम्यक्त्व लेकिन देवो मे तीनो सम्यक्त्व होते है– उपशम, क्षयोपश्म और क्षायिक सम्यक्त्व। यहा क्षायिक सम्यक मनुष्यगति के जीव के साथ मरण होने पर आता है।
*प्रथमाेपशम सम्यक्त्व* के साथ देव कई नही जाते क्योकी इसमे मरण ही नही होता।
*द्वितीयोपशम सम्यक्त्व* साथ देव कई नही जाते क्योकि मनुष्यगति से लेकर गया तो होता है लेकिन वह थोडी देर ही रहता है फिर खत्म हो जाता है।
*क्षायोपशमिक सम्यक्त्व* के साथ देव मनुष्य गति मे जाते है।
*कृतकृत्य वेदक* के साथ देव कही भी नही जाते क्योकि यहा उत्पन्न होता भी नही है।
*क्षायिक सम्यक्त्व* के साथ देव मनुष्यगति मे ही जाएगा।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
गुरुवार, 20 मार्च 2025
8 चौबीस ठाणा से देवगति मार्गणा*
*08 चौबीस ठाणा से देवगति मार्गणा*
https://youtu.be/Ypo6qz88Qkg?si=0c0Y-yrC-qZ_jxb5
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✍️ देवगति मे २४ स्थान
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1) गति ०१/०४* देवगति
2) इन्द्रिय ०१/०५* पंचेन्द्रिय जीव
3) काय ०१/०६* त्रसकाय
4) योग ११/१५*
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग,
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०३* कार्मण काययोग, वैक्रियिकद्विक
5) वेद ०२/०३* स्त्रीवेद, पुरुषवेद
6) कषाय २४/२५* नपुंसकवेद नोकषाय नही
7) ज्ञान ०६/०८* ०३ कज्ञान, ०३ सुज्ञान
*कुज्ञान ०३* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
*सुज्ञान ०३* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान
मिथ्याद्रष्ठियो को कुज्ञान, सम्यग्द्रष्टि को सुज्ञान
8) संयम ०१/०७* असंयम
9) दर्शन ०३/०४* चक्षु, अचक्षु,अवधिदर्शन
10) लेश्या ०६/०६* सभी लेश्या
शुभ लेश्या वैमानिक देवो, अशुभ भवनत्रिक देवो में
11) भव्यक्त्व ०२/०२* भव्य और अभव्य
12) सम्यक्त्व ०६/०६*
मिथ्यात्व,सासादन,मिश्र,उपशम,क्षयोपशम,क्षायिक
13) संज्ञी ०१/०२* संज्ञी
14) आहारक ०२/०२* आहारक, अनाहारक
15) गुणस्थान ०४/१४* ०१ से ०४ तक
मिथ्यात्व,सासादन,सम्यग्मिथ्यात्व,अविरतसम्यग्दृष्टि
16) जीवसमास ०१/१९* संज्ञी पंचेन्द्रिय।
17) पर्याप्ति ०६/०६* आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा मन:पर्याप्ति।
18) प्राण १०/१०*
*इन्द्रिय ०५* स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण
*बल ०३* कायबल, वचन बल और मनोबल प्राण
आयु प्राण और श्वासोच्छवास प्राण
19) संज्ञा ०४/०४*
आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा।
20) उपयोग ०९/१२*
मति,श्रुत,अवधि, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञानोपग चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन
21) ध्यान १०/१६*
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।
*धर्मध्यान ०२* आज्ञाविचय, अपायविचय
22) आस्रव ५२/५७*
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति १२* ०५ इन्द्रिय और मन को वश में करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २४* अनन्तानुबन्धीआदि १६ नोकषाय ०८
*योग ११* मनोयोग-०४, वचनयोग-०४,
काययोग ०३ (वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग, कार्मण काययोग)
23) जाति –८४ लाख* देवगति ०४ लाख
24) कुल–१९९.५ लाख करोड* २६ लाख करोड़
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*प्रश्न 01) देवों के कितने भेद हैं?*
देव चार प्रकार के होते हैं–भवनवासी, व्यन्तरदेव, ज्योतिष और वैमानिक
*भवनवासी देव* भवनो मे रहना जिनका स्वभाव है
*व्यन्तरदेव* जिनका नाना देशो मे निवास है।
*ज्योतिष देव* जो ज्योतिमर्य होते है, वे ज्योतिषक देव है। ज्योतिष देव 790 योजन से 909 योजन तक के क्षेत्र मे निवास स्थान है।
*वैमानिक* जो विमानो मे रहते है, वे वैमानिक देव
*(सर्वा. ४६१–४३)*
*प्रश्न 02) देवो के कितने कुल (उत्तर भेद) है?*
*भवनवासी देव -10* असुरकुमार, नागकुमार, विद्युतकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिककुमार, द्वीपकुमार,दिक्कुमार
*व्यन्तरदेव - 08* किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच।
*ज्योतिष देव - 05* सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारे।
*वैमानिक देव* 02 प्रकार के होते है-कल्पोपपन्न और कल्पातीत
*कल्पोपपन्न* सौधर्मादि सोलहवे स्वर्ग पर्यन्त के देव कल्पोपपन्न कहलाते है।
*कल्यातीत* नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर कल्यातीत विमान है
*प्रश्न 03) सम्यग्दृष्टि भूत-पिशाच के कितने योग हो सकते हैं?*
सम्यग्दृष्टि भूत-पिशाच के नौ योग हो सकते हैं।
मनोयोग 04, वचनयोग 04, वैक्रियिक काययोग।
वैक्रियिक मिश्र और कार्मण काययोग नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव भवनत्रिक में उत्पन्न नहीं होते हैं। *(आराधना समुच्चय 34)*
*प्रश्न 04) देवगति में ऐसे कौन से स्थान है जहां स्त्रीवेद नहीं पाया जाता है?*
सोलहवें स्वर्ग से ऊपर नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानो में तथा लौकांतिक देवों में स्त्रीवेद नहीं पाया जाता है। *(त.सू.04/09)*
*प्रश्न 05) देवो मे नपुंसक देव क्यो नही होता है?*
संसार मे विषयभोग की द्रष्टि से सबसे ज्यादा सुख देवगति में है। वहा यदि नपुंसकवेद होगा तो वे दुख़ी हो जावेगे। फिर पुण्यशाली जीव ही देवो मे जाते है। अनके नपुंसक देव कैसे हो सकता है, नही होता है।
*(देवायु का बंध संक्लेश परिणामो से नही होता है इसलिए पुण्यशाली को ही देव-गति प्राप्त होती है)*
*प्रश्न 06) सर्वार्थसिद्धि देवों की अनाहारक अवस्था (विग्रहगति) में कितने ज्ञानोपयोग होते हैं?*
सर्वार्थ सिद्धि के देवों की अनाहारक अवस्था में तीन ज्ञानोपयोग हो सकते है-मतिज्ञानोपयोग, श्रुत ज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग। तीनो कुज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानोपयोग नही होता है क्योंकि सर्वार्थसिद्धि विमान मे सम्यग्दृष्टि जीव ही जाते हैं।
*(सौधर्मकल्प मे ज्ञानोपयोग के छह भेद हो सकतेहै मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञानोपयोग नही होता है)*
*प्रश्न: 07) देवों के छहों लेश्या किस अपेक्षा से कही गई है?*
देवों के पर्याप्त अवस्था में तीन शुभ लेश्या ही होती है और भवनत्रिक देवों के अपर्याप्त अवस्था यानि निवृत्यापर्याप्तक में तीन अशुभ लेश्या होती है।
इस अपेक्षा से देवों के छहों लेश्या कही है।
*सर्वार्थसिद्धि के देवो की निवृत्यापर्याप्तक अवस्था मे शुक्ल लेश्या ही होती है।*
*प्रथम और द्वितीय गुणस्थानवर्ती देव भी मरण के समय शुभ लेश्या से च्युत होकर अशुभ लेश्या मे आ जाते है।* *(धवला ०२/६५६)*
*प्रश्न ०८) देवो में कौन कौन सी लेश्या होती है?*
*देव पर्याप्तापर्याप्त*
*सौधर्म-ईशान पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त* पीत
*सानत-माहेन्द्र पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*
उत्कृष्ट पीत और जघन्य पदम लेश्या
*ब्रह्मब्रह्मोत्तर,लान्तवकापिष्ठ पर्याप्त निर्वृत्यार्याप्त* मध्यम पदम लेश्या
*शुक्रमहाशुक्र,शतार-सहस्रार पर्याप्तनिर्वृत्यपर्याप्त* उत्कृष्ट पदम और जघन्य शुक्ल लेश्या
*आनत आदि चारो कल्प पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*
मध्यम शुक्ल लेश्या
*नवग्रैवेयक पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*
मध्यम शुक्ल लेश्या
*नव अनुदिश पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*
उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या
*पांच अनुत्तर पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*
उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या
*भवनत्रिक देवों निर्वृत्यपर्याप्त*
तीनो अगुभ (कृष्ण नील कापोत) लेश्या
*भवनत्रिक देवों पर्याप्तक* पीत लेश्या *(रा.वा. 04/22)*
*प्रश्न ०९) देवियो मे कौन सी लेश्या होती है?*
*भवनत्रिक देवियाँ निर्वृत्यपर्याप्त* तीनो अशुभ
*भवनत्रिक देवियाँ पर्याप्तक* पीत लेश्या
*सौधर्म से सोलहवें स्वर्ग पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त*
मध्यम पीत लेश्या होती है।
क्योंकि वैमानिक देवियों का उपपाद सौधर्म ऐशान स्वर्ग में ही होता है। सोलहवें स्वर्ग से आगे देवियां नहीं होती है। *(त.सा.20 टीका)*
*प्रश्न १०) देवों की अपर्याप्त अवस्था में कौन सा सम्यक्त्व हो सकता है?*
*01)* भवनत्रिक देव, भवनत्रिक देविया तथा वैमानिक देविया की अपर्याप्तक अवस्था मे दो सम्यक्त्व हो सकते है–मिथ्यात्व और सासादन। क्योकि सम्यग्द्रष्टि जीव इन पर्यायो मे उत्पन्न नही होता अर्थात सम्यग्द्रष्टि की देव दुर्गति नही होती है
*02)* वैमानिक देवो मे सौधर्म स्वर्ग से नव ग्रैवेयक पर्यन्त देवो को अपर्याप्त अवस्था मे पाँच सम्यक्त्व हो सकते है। *मिथ्यात्व, सासादन, उपशम, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व।* क्योकि नव ग्रैवेयक तक मिथ्याद्रष्टि उत्पन्न हो सकता है।
*03)* नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर देवो की अपर्याप्तक अवस्था मे तीन सम्यक्त्व द्वितीयोपशम, क्षायोपश्म और क्षायिक सम्यक्त्व।
*द्वितीयोपशम सम्यक्त्व उपशम श्रेणी मे मरण अपेक्षा से होता है*
*04)* लौकान्तिक देवो मे सभी सम्यग्द्रष्टि ही उत्पन्न होते है इसलिए उनकी अपर्याप्तक अवस्था मे भी तीन सम्यक्तव द्वितीयोपशम, क्षयोपशम और क्षायिक सम्यक्त्व होते है।
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*देवो की पर्याप्तक अवस्था मे छहो सम्यक्त्व के भेद होते सकता है*
*मिथ्यात्व* हो सकता है। यहा से लेकर जाने की अपेक्षा से भी और देवगति मे भी उत्पन्न होता है।
*सासादन* हो सकता है।यहा औपशमिक सम्यक्त्व हो और अनंतानुबंधी का उदय आने से सासादन भी हो सकता है। यहा से साथ लेकर जा सकता है।
*सम्यग्मिथ्यात्व* हो सकता है, देवगति मे उत्पन्न होता है। साथ जाने की अपेक्षा से नही होता।
*औपशमिक सम्यक्त्व* हो सकता है।प्रथमोपशम की अपेक्षा देवगति मे उत्पन्न हो सकता है, तथा द्वितीयोपशम अपेक्षा यहा से भी ले जा सकता है।
*क्षायोपशमिक* हो सकता है। यह साथ लेकर भी जा सकते है तथा देवगति मे भी हो सकता है।
*क्षायिक सम्यक्त्व* हो सकता है लेकर देवगति मे उत्पन्न नही होता है। यहा से साथ लेकर जाने की अपेक्षा से होता है। जीव ने यहाँ (कर्मभूमि) क्षायिक की शुरुवात करी और बीच मे मरण हो जाता है तो देवगति मे उसका निष्ठापन हो सकता है।
*प्रश्न:11) वैमानिक देवों के अपर्याप्त अवस्था में उपशम सम्यक्त्व कैसे हो सकता है क्योकि उपशम मे तो मरण नही होता?*
हाँ, प्रथमोपश्म मे मरण नही होता लेकिन द्वितीयोपशम मे मरण होने मे कोई बाधा नही है क्योकि उपशम श्रेणी मे चढने वाले और उतरने वाले जीवो का आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग को छोड़कर अन्य समय तथा अन्य गुणस्थानों में जब मरण होता है तो वे नियम से वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होते हैं। वहां उनके निवृत्यपर्याप्त अवस्था में उपशम सम्यक्त्व का सद्भाव बन जाता है। इसलिए देवो की अपर्याप्तक अवस्था मे उपशम सम्यक्त्व कहॉ है।
*प्रश्न 12) क्या भूत, राक्षस, चंद्रमा, शानि आदि देवो को भी सम्यग्दर्शन हो सकता है*
हो सकता है, यद्यपि भवनत्रिक देवो को देवदुर्गति माना गया है इसलिए वहा कोई भी सम्यग्दर्शन सहित उत्पन्न नही हो सकता है, फिर भी वहा जाकर जाति स्मरण, जिनमहिमा दर्शन, देवऋद्धि दर्शन, धर्मोपदेश रुप निमित्तो से प्रथमोपशम सम्यक्तव प्राप्त कर सकते है। यहाँ सादि मिथ्याद्रष्टि क्षयोपशम भी प्राप्त कर सकता है लेकिन क्षायिक सम्यग्दर्शन किसी भी रुप मे नही हो सकता है।
*भवनत्रिक मे सम्यक्तव मार्गणा के छह भेदो मे से पाँच स्थान प्राप्त कर सकता है–मिथ्यात्व,सासादन, मिश्र, उपशम, क्षयोपशम*
*नोट* इसी प्रकार सभी देवियो मे जानना चाहिए।
*प्रश्न 13) देवदुर्गति किसे कहते हैं?*
देवो मे जो स्थान अच्छे नही माने जाते उन स्थानो मे जन्म होना देवदुर्गति है।
वैमानिक देवों में भी कन्दर्प,आभियोग्य, किल्विष, सम्मोहत्व आदि नीच योनि मे उत्पन्न होने वाले जो देव है उनकी गति को देवदुर्गति कहते हैं *(मू.प्र.)*
भवनत्रिक तो देवदुर्गति में है ही लेकिन वैमानिक देवों में भी कन्दर्प,आभियोग्य आदि नीच जाति भी देवदुर्गति मे आती है।
*प्रश्न 14) ऐसा कौन सा जीव हैं जो देवगति में जाकर नियम से सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है?*
शची इन्द्राणी मिथ्यात्व सहित उत्पन्न होती है क्योकि सम्यग्द्रष्टि जीव स्त्रीयो मे उत्पन्न नही होता है लेकिन वहा स्वर्ग में जाकर तीर्थंकर के जन्मकल्याणक आदि के निमित्त से तीर्थंकर बालक को देखकर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेती है।
*प्रश्न 15) किन-किन देवो मे प्रथमोपशम सम्यक्त्व नही हो सकता है?*
जिनको प्रथमोपशम सम्यक्त्व नही हो सकता है वे देव है –
*1)* लौकान्तिक देव, *2)* नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानो *3)* सभी क्षायिक सग्यग्दृष्टि देव मे प्रथमोपशम सम्यक्त्व नही हो सकता है।
क्योकि इन तीन स्थानो मे सम्यग्द्रष्टि जीव ही उत्पन्न होते है। क्षयोपशम सम्यग्द्रष्टि जीव सम्यक्त्व छोडकर मिथ्याद्रष्टि होकर(उद्वेलना काल बीतने पर) प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते है।
*01) लौकान्तिक देव* भी सभी मनुष्यगति के मुनिराज होते है तथा मरण करके लौकान्तिक देव बनते है तथा वो पहले से ही सम्यक्त्व सहित होते है और साथ लेकर जन्मते है इसलिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त नही करते है।
*02) नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानो* के देवो को प्रथमोपशम सम्यक्त्व नही होता है, क्योकि वे वहा सम्यक्त्व सहित जाते है। सभी नियम से सम्यक्त्व सहित होते है और जीवन भर के लिए जो क्षयोपशम सहित गये उनके जीवन भर क्षयोपशम रहता है। जो द्वितीयोपशम सहित गये है उनका सम्यक्त्व बदलकर क्षयोपशम हो जाएगा। जो क्षायिक को लेकर जाते है वे क्षायिक सम्यक्त्व सहित रहते है। लेकिन प्रथमोपशम के लिए कोई स्थान नही है नव अनुदिश और पाँच अनुत्तरो मे।
इन तीन स्थानो पर रहने वाले जीव सम्यक्त्व से च्युत नही होते है। *(धवला 02/566 के आधार से)*
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*कौन कौन प्रथमोपशम उत्पन्न कर सकता हैं*
*01)* सातो नरक पृथ्वी के नारकी प्रथमोपशम उत्पन्न कर सकता हैं।
*02)* तिर्यंचगति के संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव चाहे गर्भज हो या सम्मूर्च्छन जीव लेकिन पर्याप्तक हो तो उसके भी प्रथमोपशम हो सकता हैं।
*03)* मनुष्यगति के पर्याप्तक जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं।
*०४)* देवगति मे भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते हैं।
*प्रश्न १६) किन-किन देवो (जीव) के क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है?*
*01)* सर्व देवियाँ तथा भवनत्रिक देवो मे क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है।
*02)* अभियोग, कल्विषक प्रकीर्णक वैमानिक देवो मे क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है। क्योकी एक तो दर्शनमोह की क्षपणा नही होती है, दुसरे जिन्होने पूर्व पर्याय मे दर्शनमोह का क्षय कर दिया है उनकी भवनवासी आदि अधम देवो मे और सभी देवियो मे उत्पत्ती नही होती है। *(धवला ०१/३३९, ४०८)*
*◆नारकी* नारकियो मे दूसरी नरक पृथ्वी से सातवी नरक पृथ्वी तक के नारकी को क्षायिक सम्यक्त्व नही होता, पहली नरक पृथ्वी मे केवल या तो मनुष्यलोक से लेकर गया हो या कृत्यकृतवेदक होकर गया हो तो पहली नरक पृथ्वी मे होता है।
*◆तिर्यंच* कर्मभूमि के किसी भी तिर्यंच को क्षायिक सम्यक्त्व नही हो सकता, भोगभूमि के तिर्यंच मे हो सकता है अगर वह यहा से लेकर गया हो।भोगभूमि के मनुष्यो मे भी निष्ठापन की अपेक्षा से होता है, कोई यहा से लेकर गया हो।
*◆कर्मभूमि मनुष्यो* मे क्षयिक सम्यक्त्व हो सकता है, लेकिन यहा भी काल भी अपेक्षा लगेगी, अवसर्पिणी के चौथे काल मे तथा उत्सर्पिणी के तीसरे काल मे हो सकता है
*03)* प्रथमोपशम सम्यग्द्रष्टि, क्षयोपशम सम्यग्द्रष्टि (कृतकृत्यवेदक को छोडकर), मिथ्याद्रष्टि, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व वालो को भी क्षयिक नही होता है।
*प्रश्न 17) देवगति उत्तम मानी गयी है वहाँ पंचमादि गुणस्थान क्यो नही होते है?*
अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय सहित, विषयो मे आनंद से युक्त, नाना प्रकार की राग क्रियाओ मे निपुण उन देवो के देशविरत आदिक उपरितन दस गुणस्थान के हेतुभूत जो विशुद्घ परिणाम है वे कदापि नही होते है। *(ति.प. ०३/१८५-१८६)*
*नोट* इसी प्रकार अन्य देव-देवियो के भी पंचमादि गुणस्थान नही होते है।
*प्रश्न 18) ऐसा कौन सा गुणस्थान है जो चारो गतियों की अनहारक अवस्था मे नही पाया जाता*
तीसरा सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थान अनहारक अवस्था मे नही होता क्योकि इस गुणस्थान मे मरण नही होता तो अनहारक अवस्था कैसे होगी*
*प्रश्न 19) देवांगनाओ के कितने आस्रव के प्रत्यय होते है?*
*मिथ्यात्व गुणस्थान - 51*
मिथ्यात्व ०५, अविरति १२, कषाय २३ (पुरुषवेद, नपुंसकवेद नही होते), योग ११ (आहारकद्विक और औदारिकद्विक नही होते)
*सासादन - 46*
मिथ्यात्व ००, अविरति १२, कषाय २३ (पुरुषवेद, नपुंसक वेद नही होते), योग ११ (आहारकद्विक और औदारिकद्विक नही होते)
*मिश्र - 40*
मिथ्यात्व ००, अविरति १२, कषाय १९ (पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अनंतानुबंधी चतुष्क नही होते), योग ०९ (मन ०४, वचन ०४, वैक्रियक काययोग)
(कार्मण काययोग, वैक्रियक मिश्र, आहारकद्विक और औदारिकद्विक नही होते)
*अविरत - 4०*
मिथ्यात्व ००, अविरति १२, कषाय १९ (पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अनंतानुबंधी चतुष्क नही होते), योग ०९ (मन ०४, वचन ०४, वैक्रियक काययोग)
(कार्मण काययोग, वैक्रियक मिश्र, आहारकद्विक और औदारिकद्विक नही होते)
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
24) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*
*२४) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *जहाँ कार्मण काययोग समाप्त होगा उसके अगले ही क्षण से ही मिश्र काययोग प्रारम्भ हो ...
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*05. चौबीस ठाणा से नरकगति मार्गणा* https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *✍️ नरकगति मे 24 ठाणा*...
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*✍️ मनुष्यगति में चौबीस ठाणा* https://youtu.be/zC4edAGojCs?si=w9wU8fxsCnEIxFEt 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 जिनके मनुष्य गति नामकर्म का उदय पाया जाता ...
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*✍️ एक जीव अपेक्षा गुणस्थानो का काल* https://youtu.be/0J0qMbTMdGY?si=4VNNjjiY-kh7wVb2 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 मोह और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति ...