12. चौबीस ठाणा-विकलेन्द्रिय मार्गण*
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*✍️ विकलेन्द्रिय मे २४ स्थान*
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*०१) गति ०१/०४* तिर्यंचगति
*०२) इन्द्रिय ०१/०५* स्वकीय
द्वीन्द्रिय मे ०२, त्रीन्द्रिय मे ०३, चतुरिन्द्रिय ०४
*०३) काय ०१/०६* त्रसकाय
*०४) योग ०४/१५*
अनुभय वचनयोग, कार्मणकाययोग,औदारिकद्विक
*०५) वेद ०१/०३* नपुंसकवेद
*०६) कषाय २३/२५*
स्त्रीवेद, पुरुषवेद नोकषाय नही होती है।
*०७) ज्ञान ०२/०८* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान
*०८) संयम ०१/०७* असंयम
*०९) दर्शन ०२/०४* चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन
दो और तीन इन्द्रिय जीवो मे अचक्षुदर्शन, चार इन्द्रिय के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन है।
*१०) लेश्या ०३/०६* कृष्ण, नील, कापोत
*११) भव्यक्त्व ०२/०२* भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व ०२/०६* मिथ्याद्रष्टि, सासादन
*सासादन सम्यक्त्व निर्वत्यपर्याप्तक अवस्था मे है*
*१३) संज्ञी ०१/०२* असंज्ञी
*१४) आहारक ०२/०२* आहारक, अनाहारक
*१५) गुणस्थान ०२/१४* मिथ्यात्व, सासादन
*१६) जीवसमास ०३/१९* स्वकीय
द्वीन्द्रिय मे ०१, त्रीन्द्रिय मे ०१, चतुरिन्द्रिय ०१
*१७) पर्याप्ति ०५/०६* मनः पर्याप्ति नही है
*१८) प्राण ०८/१०*
द्वीन्द्रिय के ०६, त्रीन्द्रिय के ०७, चतुरिन्द्रिय के ०८
*१९) संज्ञा ०४/०४*
आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा।
*२०) उपयोग ०४/१२*
कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, अचक्षुदर्शन, चक्षुदर्शन
द्वीन्द्रिय के ०३, त्रीन्द्रिय के ०३, चतुरिन्द्रिय के ०४
*२१) ध्यान ०८/१६*
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।
*२२) आस्रव ४०, ४१, ४२/५७* स्वकीय
*द्वीन्द्रिय ४०*
मिथ्यात्व ०५, अविरति ०८, कषाय २३, योग ०४
*त्रीन्द्रिय ४१*
मिथ्यात्व ०५, अविरति ०९, कषाय २३, योग ०४
*चतुरिन्द्रिय ४२*
मिथ्यात्व ०५, अविरति १०, कषाय २३, योग ०४
*२३) जाति स्वकीय/८४ लाख*
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय प्रत्येक ०२-०२ लाख
*२४) कुल–१९९.५ लाख करोड* स्वकीय
द्वीन्द्रिय के ०७ लाख करोड, त्रीन्द्रिय के ०८ लाख करोड, चतुरिन्द्रिय के ०९ लाख करोड कुल
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जिनके पाँचो इन्द्रिय ना हो वह विकलेन्द्रि कहलाते है तथा यहा एकेन्द्रिय का ग्रहण नही होता हैं उन्हे अलग से स्थावर कह देते है। झसलिए इनके लिए नया शब्द दे दिया विकलत्रय
*विकलत्रय* यानि विकल= कम इन्द्रि, त्रय=तीन
द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय ओर चतुरिन्द्रिय जीव विकलत्रय हैं।
*प्रश्न ०१) द्वीन्द्रिय जीव किसे कहते हैं?*
जिनका चिह्न स्पर्श और रस विषयक ज्ञान है वे द्वीन्द्रिय जीव हैं।
जिन जीवों के दो इन्द्रियाँ पाई जाती हैं वे द्वीन्द्रिय जीव हैं। *जैसे* शंख, कृमि, लट (कँचुआ), सीप, गिजाई, जौंक, कौड़ी आदि *(गो. जी.१६६)*
*प्रश्न ०२) त्रीन्द्रिय जीव किसे कहते हैं ?*
जिनका चिह्न स्पर्श, रस तथा गन्ध विषयक ज्ञान है वे जीव त्रीन्द्रिय हैं।
जिन जीवों के तीन इन्द्रियाँ होती हैं त्रीन्द्रिय जीव हैं।
*जैसे* कुन्धु, पिपीलिका, चींटा, जूँ, बिच्छू, लीखें, कनखजूरा, खटमल आदि। *(गो. जी.१६६)*
*प्रश्न ०३) चतुरिन्द्रिय जीव किसे कहते हैं?
जिनका चिह्न स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण विषयक ज्ञान है वे चतुरिन्द्रिय जीव हैं, जिनके चार इन्द्रियाँ हैं वे चतुरिन्द्रिय जीव हैं। *जैस* झिंगुर, डाँस, मच्छर, पतंगा, भ्रमर आदि। *(गो. जी. १६६)८
*प्रश्न ०४) विकलत्रयों में चींटा-चींटी, भ्रमर-भ्रमरी आदि स्त्री-पुरुष देखे जाते हैं, अत: उनके भी स्त्री- पुरुष वेद मानने में क्या बाधा है?*
विकलत्रयों में भी स्त्री-पुरुष लिंग वाले नाम देखे जाते है। लोक में नपुसक लिंग वाले शब्दों का उच्चारण भी स्त्री या पुरुषवेद के रूप में ही होता है। *जैसे* पुस्तक शब्द नपुसक लिङ्ग का है फिर भी, पुस्तक रखी है, ऐसा ही बोला जाता है यानि स्त्रिलिंग की भाषा मे बोलते है।
दूध शब्द नपुंसक लिङ्ग का है फिर भी पुल्लिंग में बोला जाता है, दुध चुल्ले पर रखा है यह बोला जाता है, यानि पुल्लिंग में बोला जाता है।इसी प्रकार से विकलत्रय, एकेन्द्रिय आदि में भी बोला जाता है। एकेन्द्रियों में भी कमल-कमलिनी आदि।
इसका अर्थ उनके स्त्री-पुरुष वेद हो गया, ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो अजीवों में भी चमचा- चमची, भगोना-भगोनी, कटोरा-कटोरी आदि सभी मे कोई भी लिंग नही है, लेकिन लिंग के अनुसार बोलते है। अजीवों के तो वेद ही नहीं हो सकता है।
अत: आगम में एकेन्द्रिय तथा विकलत्रयों के नपुसक वेद ही कहा गया है, सो सत्य है ।
*प्रश्न ०५) क्या ढाई द्वीप के बाहर के विकलत्रय जीवों में भी नपुंसक वेद ही होता है?*
नहीं, ढाई द्वीप के बाहर विकलत्रय जीव नहीं होते हैं। विकलत्रय जीव तो मात्र कर्मभूमिया तिर्यंचों में ही होते हैं ।
*प्रश्न ०६) क्या ढाई द्वीप के बाहर कहीं पर भी विकलत्रय जीव नहीं होते हैं?*
नहीं, ढाई द्वीप के बाहर असख्यात द्वीप समुद्रो में मात्र पंचेन्द्रिय तिर्यंच होते हैं लेकिन अन्त के स्वयम्भूरमण द्वीप तथा स्वयम्भूरमण समुद्र में विकलत्रय जीव भी पाये जाते हैं। उनके भी नपुंसक वेद ही पाया जाता है। *(धवला ०४/२४३)*
*प्रश्न ०७) क्या कर्मभूमिया मनुष्य-तिर्यंचों के समान विकलत्रय जीवों के भी वेद की विषमता हो सकती है?*
नहीं,कर्मभूमियाँ मनुष्य-तिर्यंचोंके समान विकलत्रय जीवों के वेद की विषमता नहीं हो सकती है, कहा है – *नारकसम्हर्च्छिनो नपुंसकानित।। सु.०२/५०*
विकलत्रय जीव भी सम्मूर्च्छन जन्म वाले होते हैं इसलिए उनके वेद की विषमता नहीं हो सकती है।
*प्रश्न ०८) चींटी आदि के अण्डे देखे जाते हैं, अत: उनके नपुंसक वेद ही कैसे हो सकता है?*
चींटी आदि जीवों के अण्डों की उत्पत्ति गर्भ से नहीं होती है। चींटियाँ आदि केवल यहाँ- वहाँ के मल-मूत्र आदि गन्दे स्थानों से सड़े-गले पुद्गलों को लेकर विशेष स्थानों में रख लेती है। कालान्तर में वे ही पुद्गल पिण्ड चींटी आदि के शरीर बन जाते हैं।
*(श्लो.०५/२५२)*
◆इसी प्रकार सिर की जुएँ भी जो लीख के रूप में अण्डों जैसी दिखाई देती हैँ, उनकी उत्पात्ती भी ऐसे ही जानना चाहिए। इसलिए अण्डाकार दिखाई देने पर भी ये सब नपुंसक वेद वाले ही होते है।
*प्रश्न ०९)विकलत्रय जीवों के कितने प्राण होते हैं?*
विकलत्रय जीवों के प्राण-
*दो इन्द्रिय पर्याप्तावस्था में ०६ प्राण*
०२ इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना) ०२ बल (वचन, काय) आयु और श्वासोच्चवास
*तीन इन्द्रिय पर्याप्तावस्था में ०७ प्राण*
०३ इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना, घ्राण), ०२ बल (वचन, काय), आयु और श्वासोच्चवास
*चतुरिन्द्रिय पर्याप्तावस्था में ०८ प्राण*
०४ इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु), ०२ बल (वचन, काय), आयु और श्वासोच्चवास
◆इन सबके निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में श्वासोच्छवास तथा वचन बल नहीं होता है अत: इनके क्रमश: ०४, ०५, ०६ होते हैं। *(गो. जी. १३३)*
*प्रश्न १०) विकलत्रयो के कितने उपयोग होते हैं?* ◆द्वीन्द्रिय तथा त्रीन्द्रिय जीवों के ०३ उपयोग होते हैं- कुमतिज्ञानो, कुश्रुतज्ञानो, अचक्षुदर्शनोपयोग
◆चतुरिन्द्रिय जीवों के ०४ उपयोग होते हैं- कुमति ज्ञानो, कुश्रुतज्ञानो, चक्षुदर्शनो, अचक्षुदर्शनो
*नोट* द्वीन्द्रिय ओर त्रीन्द्रिय जीवों के चक्षुइन्द्रिय के अभाव में चक्षुदर्शन नहीं होता हैं।
*प्रश्न ११) विकलत्रय जीवों के कितने आस्रव के प्रत्यय होते हैं?*
विकलत्रय जीवों के आस्रव के प्रत्यय-
*द्वीन्द्रिय जीवों के ४० आसव के प्रत्यय*
मिथ्यात्व ०५, अविरति ०८ (षट्कायिक जीव एवं दो इन्द्रिय सम्बन्धी), कषाय २३ (स्त्रीवेद,पुरुषवेद नही) योग ०४ (अनुभय वचनयोग, औदारिक काययोग,
औदारिक मिश्न काययोग, कार्मण काय योग)
*त्रीन्द्रिय जीवों के ४१ आस्रव के प्रत्यय*
मिथ्यात्व ०५, अविरति ०९ (षट्कायिक जीव एवं तीन इन्द्रिय सम्बन्धी), कषाय २३ (स्त्रीवेद,पुरुषवेद नही) योग ०४ (अनुभय वचनयोग, औदारिक काय योग,औदारिक मिश्न काययोग, कार्मण काययोग)
*चतुरिन्द्रिय जीवों के ४२ आस्रव के प्रत्यय*
मिथ्यात्व ०५, अविरति १० (षट्कायिक जीव एवं चार इन्द्रिय सम्बन्धी), कषाय २३ (स्त्रीवेद,पुरुषवेद नही) योग ०४ (अनुभय वचनयोग, औदारिक काय योग,औदारिक मिश्न काययोग, कार्मण काययोग)
*इन्हीं जीवों के निर्वृत्यपर्याप्तक–लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में चार योगो मे से तीन योग (औदारिक काययोग, कार्मण काययोग तथा वचनयोग) कम हो जाते है, तथा औदारिक मिश्र काययोग ही होता है, क्रमश: ३७, ३८, ३९ आस्रव के प्रत्यय हो जाते है।*
*इन्हीं जीवों के विग्रहगति में तीन योग (औदारिक काययोग, औदारिक मिश्न काययोग, वचनयोग) कम करने पर क्रमश: ३७, ३८, ३९ आस्रव के प्रत्यय है। यहा कार्मण काययोग रहता है*
*प्रश्न १२) एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय जीवों के षट्कायिक जीवों की हिंसा सम्बन्धी आस्रव के प्रत्यय कैसे हो सकते हैं?*
उत्तर:-मकड़ी के समान कुछ विशेष जाति की झाड़ियाँ मनुष्य जैसे बड़े-बड़े जीवों को भी पकड़ती हुई देखी जाती हैं। चींटियाँ लट आदि को पकड़कर ले जाते हुए प्रत्यक्ष देखी जाती हैं, गाय, भैंस, मनुष्य आदि को कीड़े-मकोड़े आदि काटते हुए देखे जा सकते हैं अत: उनके भी षट्कायिक जीवों सम्बन्धी आस्रव होता ही है क्योंकि हिंसा का त्याग किये बिना यदि कोई हिंसा नहीं भी करता है या किसी के निमित्त से हिंसा नहीं भी होती है तो भी उसे हिंसा का पाप लगता ही है।अत: एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय जीवों के भी षट्कायिक जीवों की हिंसा सम्बन्धी आस्रव के प्रत्यय होते ही हैं।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
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