*✍️ मनुष्यगति में चौबीस ठाणा*
https://youtu.be/zC4edAGojCs?si=w9wU8fxsCnEIxFEt
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जिनके मनुष्य गति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं। उनकी गति को मनुष्य गति कहते है। *(गो.जी.149)*
01) जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे वे मनुष्य है। हेय=छोडने योग्य, उपादेय=ग्रहण करने योग्य, हमे क्या चीज छोडनी चाहिए क्या ग्रहण करना चाहिए इसका पता चलता है।
तत्त्व=वस्तु स्वरुप का, अतत्त्व=जैसा स्वरुप नही है उसे अच्छे से जानता है।
आप्त=इष्ट देव का पता होना, अनाप्त=जो इष्टदेव नही है का पता होता है।
धर्म मे क्या है, अधर्म मे क्या है का विचार होता है उसको मनुष्य कहते है।
02) जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके वे मनुष्य है।
03) जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो वे मनुष्य है।
04) शिल्प-कला आदि में कुशल हो वे मनुष्य है।
05) जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं।
*(गो. जी. 149)*
*✍️मनुष्य गति मे 24 स्थान*
*01) गति* 04 मे से 01 मनुष्य गति,
*02) इन्द्रिय* 05 मे से 01 पंचेन्द्रिय जीव
*03) काय* 06 मे से 01 त्रसकाय
*04) योग* 15 मे से 13 योग
◆ मनोयोग 04 – सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग,
◆ वचनयोग 04 – सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
◆ काययोग 05 – औदारिकद्विक काययोग, आहारकद्विक काययोग, कार्मण काययोग
( वैक्रियिकद्विक काययोग नही होता है )
*05) वेद* 03 मे से 03 स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद
*06) कषाय* 25 मे से 25 कषाय होती है
अनन्तानुबन्धी 04 क्रोध-मान-माया-लोभ
अप्रत्याख्यानावरण 04 क्रोध-मान-माया-लोभ
प्रत्याख्यानावरण 04 क्रोध-मान-माया-लोभ
संज्वलन 04 क्रोध-मान-माया-लोभ
नोकषाय 09 हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद।
*07) ज्ञान* 08 मे से 08 भेद
◆ कुज्ञान 03 - कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
◆ सुज्ञान 05 - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान
*08) संयम* 07 मे 07 भेद - असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय, यथाख्यात संयम
*09) दर्शन* 04 मे 04 भेद - चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन, केवलदर्शन
*10) लेश्या* 06 मे 06 भेद - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम, शुक्ल लेश्या
*11) भव्यक्त्व* 02 मे से 02 भेद - भव्य और अभव्य
*12) सम्यक्त्व* 06 मे से 06 - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक
*13) संज्ञी* 02 मे से 01 भेद - संज्ञी होते है
*14) आहारक* 02 मे से 02 - आहारक, अनाहारक
*15) गुणस्थान* 14 मे 14 भेद - सभी गुणस्थान
*16) जीवसमास* 19 मे से 01 संज्ञी पंचेन्द्रिय
*17) पर्याप्ति* 06 मे 06 - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा, मन:पर्याप्ति
*18) प्राण* 10 मे से 10 भेद-
इन्द्रिय 05 - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण
बल 03 - कायबल, वचनबल और मनोबल प्राण, आयुप्राण और श्वासोच्छवास प्राण
*19) संज्ञा* 04 मे से 04 भेद - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञा
*20) उपयोग* 12 मे 12 भेद - मति, श्रुत, अवधिज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन
*21) ध्यान* 16 मे से 16
◆ आर्तध्यान 04 - इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान ध्यान।
◆ रौद्रध्यान 04 - हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।
◆ धर्मध्यान 04 - आज्ञाविचय,अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय।
◆ शुक्ल 04 - पृथक्त्ववितर्क वीचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति
*22) आस्रव* 57 मे से 55 भेद
◆ मिथ्यात्व 05 विपरीत, एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान
◆ अविरति 12- पाँचो इन्द्रिय और मन को वश में नही करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
◆ कषाय 25 - अनन्तानुबन्धी आदि 16, नोकषाय की 07 कषाय
◆ योग 13 - मनोयोग 04, वचनयोग 04, काययोग 05
*23) जाति* 84 लाख मे से 14 लाख जाति मनुष्यो मे होती है।
*24) कुल* - 199–01/02 लाख करोड मे से 14 लाख करोड़ कुल मनुष्यो के होते है।
✍️ मनुष्य :-
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- आर्य मनुष्य, म्लेच्छ मनुष्य *(त. सू. ०३/३६)*
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- कर्मभूमिज मनुष्य, भोग भूमिज मनुष्य ( *नि. सा. 96)*
मनुष्य तीन प्रकार के हैं- पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्यातक, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य *(ति. प. 4/2979)*
मनुष्य चार प्रकार के हैं-कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तरद्बीपज, सम्मूर्च्छन *(भ.आ. 780 क्षेपक)*
✍️ आर्य आदि मनुष्य किसे कहते हैं।?
*∆ आर्य मनुष्य* गुण और गुणवानों से जो सेवित हैं वे आर्य कहलाते हैं। *(रा. वा. 3/36)*
*∆ म्लेच्छ मनुष्य* पाप क्षेत्र में जन्म लेने वाले म्लेच्छ कहलाते हैं। उनका आचार खान- पान आदि असभ्य होता है। *(नि. सा. 96)*
*∆ कर्मभूमिज* जहाँ शुभ और अशुभ कर्मों का आस्रव हो उसे कर्मभूमि कहते हैं। वहाँ उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्मभूमिज कहलाते हैं *(स.सि. 3)*
*∆ भोगभूमिज* भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों को भोगभूमिज कहते हैं। *(भ. आ.)*
*∆ पर्याप्तक* जिन जीवो की अपनी अपनी पर्याप्तिया पूर्ण हो गई है वे जीव पर्याप्तक कहलाते है।
*∆ निर्वृत्यपर्यातक* जो जीव अपनी पर्याप्तिया पूर्ण करेगा, लेकिन जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नही होती है तब तक उस जीव को निर्वत्यापर्याप्तक कहते है।
*∆ लब्ध्यपर्याप्तक* जो जीव श्वास के अठारहवें भाग में मर जाते है वे लब्ध्यपर्याप्तक जीव हैं *(गो. जी. १२२)*
*∆ अंतर्द्वीपज* जो मनुष्य अंतर्द्वीपों में उत्पन्न होते हैं अंतर्द्वीपज मनुष्य कहलाते हैं *(सर्वा.सि.3/39)*
*∆ सम्मूर्च्छनज* जो मनुष्य सब और से वातावरण से उत्पन्न होते है वे सम्मूर्च्छनज मनुष्य है।
*विशेष नोट* सभी सम्मूर्च्छन जीव लब्ध्यपर्याप्तक नही होते है लेकिन जो मनुष्यो मे सम्मूर्च्छन मनुष्य होते है वे सभी लब्ध्यपर्याप्तक होते है तथा संज्ञी होते है।
✍️ मनुष्य के पेट में जो कीड़े पाये जाते हैं वे भी मनुष्य हैं?*
नहीं, वे मनुष्य नही होते है वे तो द्वीन्द्रिय त्रस जीव है और तिर्यंच जीव है।
मनुष्य के पेट, घाव आदि में पड़ने वाले कीड़े मनुष्य नहीं हैं यद्यपि मनुष्य के पेट में पड़ने वाले कीड़े, पटार आदि औदारिक शरीर, मल-मूत्र, भोजन आदि में उत्पन्न होते हैं लेकिन वे द्विन्द्रिय ही होते हैं इसलिए वे तिर्यंचगति के जीव ही हैं, मनुष्य गति के जीव नहीं ।
*✍️ किन-किन मनुष्यों को केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है?*
*०१)* लब्ध्यपर्यातक मनुष्य
*०२)* आठ वर्ष अंर्तमुहूर्त से कम उम्र वाले मनुष्य
*०३)* 126 भोगभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य
*०४)* पाँचवें व छठे नरक से आये हुए जीव जो मनुष्य तो बने है, लेकिन वे भी केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते
*०५)* सूक्ष्म निगोद से आये हुए जीव जो मनुष्य तो है लेकिन वे भी केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते।
यह जीव दीक्षा तो ले सकता है लेकिन मोक्ष प्राप्त नही कर सकता, तथा बादर निगोद से भी जीव मनुष्य बन सकता है तथा वह केवलज्ञान को प्राप्त करते मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
*०६)* अभव्य तथा अभव्यसम भव्य जीव (दूरानुदूर भव्य) भी केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते
*०७)* वज्र वृषभनाराच संहनन को छोड्कर शेष पाँच सहनन वाले जीव केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते
*०८)* बद्धायुष्क मनुष्य भी केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते है। बद्धायुष्क यानि अगले भव की आयु का बंध करना
*०९)* द्रव्य स्त्री और द्रव्य नपुंसक वेद वाले भी केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते
*विशेष* भोगभूमि की स्त्रीयो मे एकमात्र वज्र वृषभ नाराच संहनन ही होता है।
*✍️ एक सौ छब्बीस भोगभूमियाँ :-
10 जघन्य भोगभूमि (5 हैमवत, 5 हैरण्यवत क्षेत्र)
10 मध्यम भोगभूमि (5 हरिवर्ष, 5 रम्यक क्षेत्र)
10 उत्तम भोगभूमि (5 देवकुरु, 5 उत्तरकुरु)
96 अन्तरद्वीपज में पाई जाने वाली कुभोगभूमियाँ
*(10 + 10 + 10 + 96 = 126 भोगभूमियाँ)*
इनमें मनुष्य भी रहते हैं।
शेष ढाई द्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में जघन्य भोगभूमियाँ हैं,वहाँ केवल तिर्यंच ही रहते है। ये स्थाई भोगभूमियाँ है।
◆ 126 भोगभूमि मे इनमे 1 से 4 तक गुणस्थान हो सकते है।
◆ तिर्यंचों की जघन्य भोगभूमि अंतिम स्वयम्भूरमण द्वीप के आधे भाग तक पाई जाती है। इन तिर्यंचो की भोगभूमि मे दो गति के जीव तिर्यंचगति और देवगति के जीव रहते है।
✍️ क्या कुभोगभूमियों में तिर्यंच भी पाये जाते हैं?*
हाँ पाए जाते है, *(ति.प. 4/2595)*
यद्यपि इन भोगभूमियो मे किस-किस आकृति वाले तिर्यंच रहते हैं, क्या खाते हैं आदि वर्णन जिस प्रकार मनुष्यों के बारे में आता है, वैसा तिर्यंचो के बारे में नहीं मिलता है, फिर भी वहाँ तिर्यंच पाये जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है क्योंकि आचार्य यतिवृषभ महाराज तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ के चौथे अध्याय की 2515 वीं गाथा में कहते हैं कि इन द्वीपों में जिन मनुष्य-तिर्यंचो ने सम्यग्दर्शन रूप रत्न को ग्रहण किया है वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं तथा मिथ्याद्रष्टि मरण करके भवनत्रिक मे उत्पन्न होते है। इससे सिद्ध है वहाँ तिर्यंच भी पाये जाते हैं।
✍️ क्या अंधे, काने, लूले-लँगड़े मनुष्य को भी केवलज्ञान हो सकता है?*
हाँ हो सकता है, अंधे, काले, लूले, लँगड़े आदि मनुष्यों को भी केवलज्ञान हो सकता है। यद्यपि अंधा, काणा, लूला, लँगड़ा व्यक्ति दीक्षा की पात्रता नहीं रखता और दीक्षा लिये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, लेकिन यदि कोई मनुष्य दीक्षा लेने के बाद अर्थात् मुनि बनने के बाद आँख फूटने के कारण से काना, मोतियाबिन्द आदि के कारण अंधा हो जावे, लकवा आदि के कारण लूला-लँगडा हो जावे तो केवलज्ञान होने में कोई बाधा नहीं है। कभी कभी उपसर्गादि के कारण भी ऐसा हो सकता है। केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए तो वज्रवृषभ नाराच संहनन, द्वितीय शुक्ल ध्यान, चार घातिया कर्मों का क्षय होना आवश्यक है। केवलज्ञान होने पर शरीर सांगोपांग हो जाता है।
*✍️ क्या कुबड़े-बौने आदि को भी केवलज्ञान हो सकता है?*
हाँ हो सकता है, कुबड़े-बौने आदि बेडौल शरीर वाले को भी केवलज्ञान हो सकता है, 13 वे गुणस्थान तक छहों संस्थानों का उदय पाया जाता है *(गो. क.)* फिर भी मुनि बनने योग्य संस्थान होना आवश्यक है
✍️ किन मनुष्यों के कौन-कौन सी लेश्याएँ :-*
*०१) कर्मभूमि पर्याप्तक* सभी छहो लेश्या
*०२) कर्मभूमि निवृत्यापर्याप्तक* सभी छहो लेश्या
*०३) लब्ध्यपर्याप्तक* कृष्ण, नील, कापोत
*०४)भोगभूमि सम्यक्तव निवृत्यापर्याप्तक* कापोत
*नोट* जो जीव भोगभूमि मे सम्यग्द्रष्टि बनेगा वह कर्मभूमि का ही मनुष्य होगा तिर्यंच नही, जो तिर्यंच होगा सम्यग्द्रष्टि कर्मभूमि का वह मरण करके देवगति मे ही जाता है।
*०५) भोगभूमि मिथ्याद्रष्टि निवृत्यापर्याप्तक*
तीनो अशुभ लेश्या–कृष्ण, नील, कापोत
*०६) भोगभूमि सासादन निवृत्यापर्याप्तक*
तीनो अशुभ लेश्या–कृष्ण, नील, कापोत
*०७) भोगभूमि पर्याप्तक* पीत, पदम, लेश्या*
*नोट* यहा जीव के निवृत्यपर्याप्तक अवस्था मे तीनो अशुभ लेश्या थी तथा शरीर पर्याप्ति पूर्ण करने के बाद लेश्या शुभ हो जाती है। निवृत्यपर्याप्तक अवस्था मे सम्यग्द्रष्टि होगा तो कापोत लेश्या होगी, सासादन अथवा मिथ्याद्रष्टि होगा तो तीनो अशुभ लेश्या होगी।
*०८) कुभोगभूमि निवृत्यपर्याप्तक*
तीनो अशुभ लेश्या–कृष्ण, नील, कापोत
*नोट* यहा जीव मिथ्यात्व सहित ही जन्म लेता है।
*०९) कुभोगभूमि पर्याप्तक* पीत लेश्या
*१०) अन्तरद्वीपज मल्लेच्छ*
कृष्ण, नील, कापोत,पीत
*११) कर्मभूमि मल्लेच्छ* (पाँच मल्लेच्छ खण्ड)
*सभी छहो लेश्या*
*१२) विद्याधरो पर्याप्तापर्याप्त* सभी छहो लेश्या
✍️ म्लेच्छ खण्ड के मनुष्यों को सम्यग्दर्शन ? :-
हाँ हो सकता है, दिग्विजय के लिए गये हुए चक्रवर्ती के स्कन्धावार (कटक सेना) के साथ जो म्लेच्छ राजा आदिक आर्यखण्ड में आ जाते हैं, और उनका यहाँ (आर्यखण्ड) वालों के साथ विवाहादि सम्बन्ध हो जाता है, तो उनके संयम धारण करने में कोई विरोध नहीं है।
अथवा चक्रवर्ती आदि को विवाही गई म्लेच्छ कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न हुई सन्तान की मातृपक्ष की अपेक्षा यहाँ ‘अकर्मभूमिज’ पद से विवक्षा की गई है, क्योंकि अकर्मभूमिज सन्तान को दीक्षा लेने की योग्यता का निषेध नहीं पाया जाता है *(ध.पु)*
अन्तर्द्वीपों में रहने वाले म्लेच्छों को भी सम्यग्दर्शन होता है, वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। *(ति. प. 4/2595)*
✍️ पाँच वर्ष के कर्मभूमि बच्चे को सम्यक्त्व मार्गणा का कौन-कौन सा स्थान हो सकता है?*
पाँच वर्ष के कर्मभूमि बच्चे को सम्यक्त्व मार्गणा के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मिथ्यात्व, क्षयोपशम और क्षायिक ये चार सम्यक्त्व हो सकते है।
*मिथ्यात्व हो सकता है* क्योकी जन्म मिथ्यात्व सहित ही होता है।
*सासादन नही हो सकता* क्योकि औपशमिक नही हो सकता तो सासादन भी नही होगा।
*औपशमिक सम्यक्त्व नही होगा* क्योकी आठ वर्ष अंतरमुहूर्तं मे ही होता है, तथा साथ लेकर भी नही आया हो सकता क्योकी औपशमिक का अधिकत्तम काल अन्तरमुहूर्त है।
*प्रथमोपशम सम्यक भी नही हो सकता है*
*द्वितीयोपशम सम्यक भी नही हो सकता है*
*सम्यक्त्व मिथ्यात्व हो सकता है* जैसे देवगति का जीव क्षायोपशमिक लेकर यहा आए और पाँच वर्ष का होने पर क्षायोपशमिक छुटकर तीसरे सम्यक्त्व मिथ्यात्व गुणस्थान मे आ सकता है।
*क्षयोपशम सम्यक्त्व* उत्पत्ती अपेक्षा नहीं होता, लेकिन साथ लेकर आने की अपेक्षा हो सकता है।
*क्षायिक सम्यक्त्व* हो सकता है क्योकि साथ लेकर आया हो सकता है।
*✍️ यदि पाँच वर्ष का बालक स्त्री या नपुंसक है तो उसके सम्यक्तव मार्गणा का कौन सा भेद होगा*
पाँच वर्ष का बालक स्त्री या नपुंसक है तो उसके मात्र मिथ्यात्व ही होगा, क्योकि सम्यग्द्रष्टि स्त्री तथा नपुंसक नही बनते।
◆ यादि पाँच वर्ष का बालक सादि मिथ्यादृष्टि है तो उसके सम्यक मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आने पर वह सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान तथा सम्यक प्रकृति का उदय आ जावे वह क्षयोपशम सम्यग्द्रष्टि बन सकता है, लेकिन उपशम सम्यग्द्रष्टि नही बन सकता, क्योकि उपशम सम्यग्द्रर्शन की प्राप्ति के लिए कम से कम आठ वर्ष अंतरमुहूर्त की उम्र होना जरुरी है।
इसी प्रकार सासादन सम्यग्द्रष्टि भी नही बन सकता क्योकी उपशम सम्यक्त्व के काल मे से ही उत्कृष्ठ छ्ह आवली जघन्य एक समय रहने पर ही सासादन सम्यक्त्व होता है।
*इसी प्रकार आठ वर्ष अंतरमुहूर्त की आयु वाले कर्म भूमि मनुष्यो को जानना चाहिए।*
*विशेषता* यह है कि इनके निर्वत्यपर्याप्तक अवस्था मे सासादन सम्यक्त्व हो सकता है, क्योकि सासादन मे मरण करके नरक को छोडकर बाकी तीन गतियो मे जीव जा सकता है।
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*◆ भोगभूमि के पाँच वर्ष के बालक-बालिका के सम्यक मार्गणा कौन कौन से स्थान हो सकते है*
भोगभूमि का पाँच वर्ष के बालक या बालिका के क्षायिक सम्यक्त्व को छोडकर शेष पाँचो स्थानों हो सकते है। तथा केवल बालक के साथ लेकर आने की अपेक्षा से क्षायिक सम्यक्त्व भी हो सकने के कारण सभी छहो भेद भी हो सकते है।
*◆ पाँच सम्यक्त्व होने का विश्लेषण :-*
मिथ्यात्व के साथ तो जन्म होता ही है। तथा उत्कृष्ठ भोगभूमि मे 21 दिन मे, मध्य भोगभूमि मे 35 दिन मे तथा जघन्य भोगभूमि मे 49 दिन मे प्रथमोपश्म सम्यक्त्व उत्पन्न करने की योग्यता आ जाती है।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व छुटने के बाद जीव सासादन मे भी आ सकता है, तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व बदलकर क्षायोपशमिक भी हो सकता है।
क्षायोपशमिक से गिरकर जीव सम्यग्मिथ्यात्व हो सकता है। अगर जीव सादि मिथ्याद्रष्टि है तो भी सम्यग्मिथ्यात्व हो सकता है।
*विशेष* भोगभूमि के बालक के साथ लेकर आने की अपेक्षा से क्षायिक सम्यक्त्व भी हो सकता है।
*✍️ पंचम काल के पुरुष अथवा स्त्रीयो को सम्यक्त्व मार्गणा के भेद :-
*मिथ्यात्व* हो सकता है
*सासादन* हो सकता है
*सम्यग्मिथ्यात्व* हो सकता है।
*औपशमिक* हो सकता है।
*क्षायोपशमिक* हो सकता है।
*क्षायिक सम्यक्त्व* नही हो सकता
*✍️ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य सैनी होते है?*
हॉ सैनी होते है। *(द्रव्यसंग्रह टीका 12 वी गाथा)*
मनोबल प्राण द्रव्यमन और भावमन दो प्रकार का होता है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य के भावमन तो है क्योकी *नोइन्द्रियवरण कर्म का क्षयोपशम* रुप भावमन पाया जाता है इसलिए सैनी कहा गया है, लेकिन द्रव्यमन के अभाव मे वे अपना मनः संवंधी काम करने मे समर्थ नही होते है। मनःपर्याप्ति पूर्ण होने पर ही द्रव्यमन की पूर्णता होती है।
*✍️ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य कहाँ कहाँ पाए जाते है?*
*(गो.जी.जी-92)* *(भ.आ.विजयोदिया टीका)*
कर्मभूमियाँ स्त्रीयो की कांख, योनि स्थान, स्तनो के मूल मे तथा चक्रवर्ती की पटरानी के सिवाए अन्य स्त्रीयो के मूत्र, विष्टा आदि अशुचि स्थानो मे लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य उत्पन्न होते है। अर्थात स्त्रीयो के गुप्तांगो मे उत्पन्न होते है।
चक्रवर्ती, बलभद्र आदि बडे-बडे राजाओं की सेना जहाँ मल मूत्र क्षेपण करती है ऐसे स्थानो पर वीर्य, नाक का मल, कफ, कान और दांत का मल तथा अत्यन्त अपवित्र प्रदेश इनमे तत्काल सम्मूर्च्छन मनुष्य उत्पन्न होते है।
∆ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य यदि वे पर्याप्त होकर कबूतर के आकार के बराबर अपना शरीर बना ले तो तीन लोक मे भी नही समाएगे (असंख्यात है)
*विशेष*
*०१)* भोगभूमि तथा म्लेच्छ खण्ड मे लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य नही होते है।
*०२)* लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य का पल्य के असंख्यात वे भाग प्रमाण काल तक अंतर भी पडता है। अर्थात इतने समय तक कोई लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य ना हो *(गो.जी.143)*
*०३)* गति अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्तक जीव देव और नारक गति मे भी उत्पन्न नही होते है।
*✍️ क्या सभी मनुष्यो के दस प्राण होते है?*
नही, सभी मनुष्यो के दस प्राण नही होते है।
पर्याप्ति पूर्ण होने पर ही दस प्राण पाए जाते है। चाहे वो गर्भ मे स्थित मनुष्य हो
∆ चाहे कोई गुंगा व्यक्ति हो तो भी उसके वचनबल होता है, क्योकि उसके स्वर नामकर्म का उदय तो होता ही है। स्वर नामकर्म का उदय दो इन्द्रिय जीवो के शुरू हो जाता है।
∆ पागल व्यक्ति के भी मनोबल प्राण होता है क्योकि उसके अनिइन्द्रियवरण कर्म का क्षयोपशम पाय जाता है।
∆ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य के सात प्राण ही पाए जाते है, क्योकि वे पर्याप्ति पूर्ण होने से पहले मरण को प्राप्त हो जाते है। (मनबल, वचनबल, श्वासोच्छवास प्राण नही होते है)
∆ निवृत्यापर्याप्तक मनुष्यो के सात प्राण पाए जाते है, क्योकी श्वासोच्छवास आदि पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना श्वासोच्छवास प्राण आदि प्राण नही होते है।
*नोट* गूंगे, पागल आदि व्यक्तियो के इन्द्रियो की विकलता (सही रचना नही) होने के कारण वे अपना काम नही कर पाती है।
*✍️ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य के इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नही होती है अतः उनके इन्द्रिय प्राण कैसे हो सकते है*
पाँच इन्द्रिय प्राण द्रव्येन्द्रिय अपेक्षा नही होते,आपितु भावेन्द्रिय अपेक्षा होते है। इसलिए लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य के पाँचो इन्द्रियवरण का क्षयोपशम होता है इसलिए पाचो इन्द्रिय प्राण होते है।
(आयु और काय प्राण उदय होने से होते है)
*नोट* इसी प्रकार सभी लब्ध्यपर्याप्तक / निवृत्यापर्याप्तक तथा कार्मण काययोग जीवो के जानना चाहिए।
*✍️ मनुष्यो में ध्यान :-
*मनुष्यो मे ध्यान*
*1. कर्मभूमि पर्याप्तक* सभी 16 ध्यान
*2. कर्मभूमि निवृत्यापर्याप्तक* 12 ध्यान (आर्त 4, रौद्रध्यान 4, धर्मध्यान 4)
आहारक मिश्न की अपेक्षा तीसरा चौथा धर्मध्यान
*3. भोगभूमियाँ* 10 ध्यान (आर्त 4, रौद्रध्यान 4, धर्मध्यान 2)
*4. विद्याधर (विद्या सहित)* 11 ध्यान (आर्त 4, रौद्रध्यान 4, धर्मध्यान 3)
*5. विद्याधर (विद्या छोड़कर)* सभी 16 ध्यान
*6. म्लेच्छ मनुष्यो के* 8 ध्यान (आर्तध्यान 4, रौद्रध्यान 4)
*7. लब्ध्यपर्याप्तक* 8 ध्यान (आर्तध्यान 4, रौद्रध्यान 4)
*✍️ भोगभूमिया जीवो मे गुणस्थान अपेक्षा से आस्रव के कितने प्रत्यय :-
*भोगभूमि मिथ्यात्व मे 52 आस्रव प्रत्यय*
मिथ्यात्व 5,
अविरति 12,
कषाय 24 (नपुंसक वेद छोडकर),
योग 11 प्रत्यय हैं (मन 4, वचन 4 काय के 3)
*◆ भोगभूमि सासादन मे 47 आस्रव प्रत्यय*
मिथ्यात्व के भेद नही होते,
अविरति के 12 हाते है,
कषाय के 24 प्रत्यय होते हैं (नपुंसक वेद नही होता)
योग के 11 प्रत्यय होते है (वैक्रियिकद्विक और आहारकद्विक नही होते)
*◆ भगभूमि मिश्न गुणस्थान मे 41 आस्रव प्रत्यय*
मिथ्यात्व 00,
अविरति सभी 12 होगे,
कषाय 20 होगे (अनंतानुबंधी चतुष्क और नपुंसक वेद को छोडकर),
योग के 9 प्रत्यय होगे (मन 4, वचन 4, औदारिक काययोग)
*◆ भोगभूमि चौथे गुणस्थान मे 43 आस्रव प्रत्यय*
मिथ्यात्व 00,
अविरति 12,
कषाय 20,
योग 11 (मन 4, वचन 4, अगर सम्यक्त्व लेकर आ रहा है तो काय के 3 आस्रव के प्रत्यय होते है)
*✍️ सामान्य मनुष्यो की अपेक्षा भोगभूमि मनुष्यो मे क्या विशेषता :-
*सामान्य मनुष्य भोगभूमि मनुष्य*
1. योग/15 आहारकद्विक नही होता
2. वेद/3 नपुंसकवेद नही होता
3. कषाय/25 नपुंसकवेद नोकषाय नही है।
4. ज्ञान/8 ज्ञान 6 होते है।
(मनःपर्यय,केवलञान नही होता)
5. संयम/7 असंयम ही होता है
6. दर्शन/4 दर्शन 3 (केवलदर्शत नही)
7. लेश्या/6 पर्याप्त अवस्था मे शुभ लेश्या
(निर्वत्यापर्याप्तक मे कापोत)
8. गुणस्थान/14 आदि के चार गुणस्थान
9. उपयोग/12 उपयोग 9 होते है।
(मनःपर्ययज्ञान,केवलदर्शन, केवलज्ञान नही)
10. ध्यान/16 ध्यान 10 भेद होते है।
(धर्म 2, शुक्ल 4 नही होते)
11. आस्रव/57 आस्रव 54 प्रत्यय होते है।
(आहारकद्विक और नपुंसक नही होते)
*✍️ भोगभूमि जीवो को पर्याप्तक अवस्था मे अशुभ लेश्या क्यो नही होती हैं ?*
तीव्र कषाय का अभाव होने से भोगभूमियाँ जीवो के पर्याप्तक अवस्था मे अशुभ लेश्या नही होती है।
*(तत्त्वार्थसार २० टीका)*
*✍️ सामान्य मनुष्यो से लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यो मे क्या विशेषता है ?*
*लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य*
*०१) योग 2*
कार्मण काययोग और औदारिक मिश्न काययोग
*०२) वेद 1*
नपुंसक वेद (स्त्रीवेद और पुरुषवेद नही होता)
*०३) कषाय 23*
स्त्रीवेद नोकषायऔर पुरुषवेद नोकषाय नही होती
*०४) ज्ञान 2* कुमतिज्ञान–कुश्रुतज्ञान होता है
(कुअवधिज्ञान और पाँचो सम्यक ज्ञान नही होते)
*०५) संयम 1* असंयम ही होता है।
*०६) दर्शन 2* चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन होता है
*०७) लेश्या 3* कृष्ण,नील,कापोत लेश्या होती है
*०८) सम्यक्त्व 1* मिथ्यात्व ही होता है।
*०९) गुणस्थान 1* मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।
*१०) पर्याप्ति ००* पर्याप्तियाँ एक भी नही होती
*११) प्राण 7* पाँचो इन्द्रिय प्राण, कायबल आयु प्राण होता है।
*१२) उपयोग 4* कुमति, कुश्रुत, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन होता है।
*१३) ध्यान 8* आर्तध्यान 4, रौद्रध्यान 4 है।
*१४) आस्रव 2* कार्मणकाययोग, औदारिक मिश्र काययोग होता है।
*✍️ सामान्य मनुष्यो से विद्याधरो मे विशेषताऍ*
विद्या छोडने के बाद विद्याधर मनुष्यो का सब कथन सामान्य मनुष्यो के समान ही जानना चाहिए।
*◆ अगर विद्याधर विद्या सहित हो तो–*
*०१) योग 11* आहारकद्विक और वैक्रियकद्विक योग नही है।
*०२) ज्ञान 6* मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान नही होता।
*०३) संयम 2* असंयम और संयमासंयम है, बाकी पाँच नही है।
*०४) दर्शन 3* चक्षु, अचक्षु,अवधिदर्शन होता है (केवलदर्शन नही)
*०५) गुणस्थान 5* 1 से 5गुणस्थान तक होते है।
*०६) उपयोग 9* मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान केवलदर्शन नही होते है।
*०७) ध्यान 11* आर्तध्यान 4, रौद्रध्यान 4, धर्मध्यान 3 होते है। (संस्थान विचय धर्मध्यान और चारो शुक्ल ध्यान नही होते है)
*०८) आस्रव 53* मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कषाय 25, योग 11 कुल 53 आस्रव के प्रत्यय है।
(योग मे आहारकद्विक व वैक्रियकद्विक नही होते)
अब चौबीस ठाणा मे मनुष्य गति मार्गणा पूर्ण हुआ
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
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