*14. चौबीस ठाणा-काय मार्गणा-२४ स्थान- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु जीव*
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https://youtu.be/kL5jDXdd94E?si=4ULOrJLSYll3R8lS
✍️ काय मार्गणा :-
आत्मा की प्रवृति द्वारा संचित किये गये पुदग्ल पिण्ड को काय कहते है।
जाति नामकर्म के उदय से अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न आत्मा को त्रस तथा स्थावर रूप पर्याय को काय कहते हैं।
कर्म आठ होते है, उसमे से एक नामकर्म है जिसके 93 भेद है और इन मे एक कर्म है जाति नामकर्म, जाति यानि इन्द्रिया–जो पाँच इन्द्रिय है वे पाँच जातियाँ है।
अविनाभावी यानि इसके होने पर इसका होना और इसके ना होने पर इसका नही होना यह अविनाभावी कहलाता है। *जैसे* धुए के होने पर अग्नि का होना और अग्नि के नही होने पर धुए का नही होना।
जाति होगी तो त्रस या स्थावर तो होगा ही या जहाँ पर त्रस या स्थावर है वहा कोई ना कोई जाति होगी। यानि एक के होने पर दुसरे का होना अविनाभावी है
*त्रस और स्थावर पर्याय आत्मा की होती हैं*
व्यवहार नय से त्रस और स्थावर इस प्रकार कहना काय है। पुद्गल स्कन्धों के द्वारा जो पुष्टि को प्राप्त हो वह काय है। इसमे हर समय अनंत परमाणु आते है और हर समय अनंत परमाणु चले जाते है। इस प्रकार यह शरीर पुष्ट होता रहता है।
काय की अपेक्षा जीवों का परिचय करना (खोज करना) काय मार्गणा है। *(गोम्मटसार जीवकांड १८२)*
✍️ काय मार्गणा के प्रकार :-
काय मार्गणा छह प्रकार की है- पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय। *(द्र.स. टीका १३)*
पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक तथा कायातीत जीव भी होते हैं। *(गो. जी.१८)*
✍️ स्थावर जीव :-
स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है, उसका स्वामीपना करता है इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है। *(धवला ०१/२४१)*
स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर कहलाते हैं
स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषता के कारण ये पाँचों ही स्थावर कहलाते हैं। *(ध.०१/२६७)*
✍️ त्रसकायिक जीव :-
त्रस नामकर्म के उदय से उत्पन्न वृत्तिविशेष वाले जीव त्रस कहे जाते हैं। *(राजवार्तिक ०१)*
वृत्तिविशेष यानि विशेष कार्य *जैसे* रसना इन्द्रिय से रस को चखते है, घ्राण इन्द्रिय से गंध सुंधते है, चक्षु इन्द्रिय से वर्ण को देखते है, कर्ण इन्द्रिय से शब्दों को सुनते है, इस तरह से ये उनके कार्य है।
लोक में जो दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय से सहित जीव दिखाई देते हैं उन्हें वीर भगवान के उपदेश से त्रसकायिक जानना चाहिए *(पंच संग्रह)*
✍️ अकाय जीव :-
जिस प्रकार सोलह ताव के द्वारा तपाये हुए सुवर्ण में बाह्य किट्टिका और अभ्यन्तर कालिमा इन दोनों ही प्रकार के मल का बिल्कुल अभाव हो जाने पर फिर किसी दूसरे मल का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार महाव्रत और धर्मध्यानादि से सुसंस्कृत एवं सुतप्त आत्मा में से एक बार शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा बाह्य मल काय और अंतरंग मल कर्म के सम्बन्ध के सर्वथा छूट जाने पर फिर उनका बन्ध नहीं होता और वे सदा के लिए काय तथा कर्म से रहित होकर सिद्ध हो जाते हैं, वे अकाय है। *(गोम्मटसार जीवकाण्ड २०३)*
बाहय मल मे शरीर और अंतरंग मे कर्म (भावकर्म और द्रव्यकर्म)
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*२४ स्थान पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु जीव*
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*०१) गति ०१/०४* तिर्यंचगति,
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु की तिर्यंचगति
*०२) इन्द्रिय ०१/०५* एकेन्द्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय)
*०३) काय स्वकीय/०६* स्थावरकाय
सबकी अपनी-अपनी काय (स्वकीय)
*०४) योग ०३/१५*
औदारिकद्विक काययोग, कार्मण काययोग
*०५) वेद ०१/०३* नपुंसकवेद
*०६) कषाय २३/२५* कषाय १६ नोकषाय ०७
स्त्रीवेद नोकषाय और पुरुषवेद नोकषाय नही होता
*०७) ज्ञान ०२/०८* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान
*०८) संयम ०१/०७* असंयम
*०९) दर्शन ०१/०४* अचक्षुदर्शन
*१०) लेश्या ०३/०६* कृष्ण, नील, कापोत
*११) भव्यक्त्व ०२/०२* भव्य और अभव्य।
*१२) सम्यक्त्व ०२/०६* मिथ्यात्व,सासादन
अग्निकायिक, वायुकायिक में सासादन नहीं है।
*१३) संज्ञी ०१/०२* असंज्ञी।
*१४) आहारक ०२/०२* आहारक ,अनाहारक
*१५) गुणस्थान ०२/१४* मिथ्यात्व,सासादन
सासादन पृथ्वी और जल जीवो मे विग्रहगति अपेक्षा
*१६) जीवसमास ०८/१९*
प्रत्येक के सूक्ष्म बादर की अपेक्षा दो-दो जीवसमास
*१७) पर्याप्ति ०४/०६*
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास पर्याप्ति।
*१८) प्राण ०४/१०*
स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा ०४/०४* सभी संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग ०३/१२*
कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञानापयोग, अचक्षुदर्शनोपयोग
*२१) ध्यान ०८/१६* आर्त ०४, रौद्र ४
*आर्त* इष्टवियोगज,अनिष्टसंयोगज,वेदना,निदान
*रौद* हिंसानन्दी,मृषानन्दी,चौर्यानन्दी,परिग्रहानन्दी
*२२) आस्रव ३८/५७*
मिथ्यात्व ०५, अविरति ०७, कषाय २३, योग ०३
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति ०७* स्पर्शन इन्द्रिय को वश नही करना तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २३* १६ अनन्तानुबन्धी आदि ०९नोकषाय
*योग ०३* औदारिकद्विक तथा कार्मण काययोग
*२३) जाति ५६ लाख/८४ लाख*
सूक्ष्म-बादर प्रत्येक की सात-सात लाख जातियाँ
*२४) कुल–स्वकीय/१९९.५ लाख करोड*
१२१.५ लाख करोड कुल*
*पृथ्वीकायिक* २२ लाख करोड़,
*जलकायिक* ०७ लाख करोड़,
*अग्निकायिक* ०३ लाख करोड़,
*वायुकायिक* ०७ लाख करोड़
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*प्रश्न ०६) पृथ्वी कितने प्रकार की है?*
उत्तर-पृथ्वी चार प्रकार की है –
पृथ्वी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक, पृथ्वी जीव ।
*पृथिवी (पृथ्वी)* जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनों से बनी है और कठोर व मृदु गुणवाली है वह पृथिवी है। यह पृथिवी आगे के तीनों भेदों में पायी जाती है ।
*पृथिवीकाय* काय का अर्थ शरीर है, अत:
पृथ्वीजीव के द्वारा छोड़ा गया शरीर पृथ्वीकाय है अर्थात् मुर्दा शरीर की तरह अचेतन पृथ्वीकाय है।
*पृथिवीकायिक* जिस जीव के पृथ्वी को काय रुप मे ग्रहण कर लिया है उसे पृथिवी कायिक कहते है।
*पृथ्वी जीव* विग्रहगति का जीव, जो पृथ्वी मे जन्म लेने जा रहा है वह पृथ्वी जीव है। *(सर्वा. २८६)*
*प्रश्न ०७) पृथिवीकायिक जीव कौन-कौन से हैं?*
उत्तर-मिट्टी,बालू शर्करा,स्फटिकमणि,चन्द्रकांतमणि, सूर्यकान्तमणि, गेरू, चन्दन (एक पत्थर होता है, कारंजा में इस पत्थर की प्रतिमा है) हरिताल,हिंगुल, हीरा, सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा आदि छत्तीस प्रकार के पृथिवीकायिक जीव हैं। *(मूलाचार २०६/०९)*
*प्रश्न ०८) जल कितने प्रकार का है?*
उत्तर-जल चार प्रकार का है-
जल, जलकाय, जलकायिक, जलजीव।
*जल* जो जल आलोड़ित हुआ है उसे एवं कीचड़ सहित जल को जल कहते हैं ।
*जलकाय* काय का अर्थ शरीर है, अत:
जलजीव के द्वारा छोड़ा गया शरीर जलकाय है
*जैसे* गर्म पानी जलकाय
*जलकायिक* जलजीव ने जिस जल को शरीर रूप में ग्रहण किया है, वह जलकायिक है।
*(छ्ना हुआ जल भी जलकायिक है)*
*जलजीव* विग्रहगति में स्थित जीव जो एक, दो या तीन समय में जल को शरीर रूप में ग्रहण करेगा, वह जल जीव है। *(सि.सा.दी. ११/१४-१५)*
*प्रश्न ०९) जलकायिक जीव कौन-कौन से हैं?*
उत्तर-ओस, हिम (बर्फ), कुहरा, मोटी बूँदें, शुद्ध जल, नदी, सागर, सरोवर, कुआ, झरना, मेघ से बरसने वाला जल, चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न जल, घनवात आदि का पानी जलकायिक जीव है।
*(मूलाचार २१० आ.)*
*प्रश्न १०) अग्नि कितने प्रकार की होती है?*
उत्तर- अग्नि चार प्रकार की होती है–
अग्नि, अग्निकाय, अग्निकायिक, अग्निजीव।
*अग्नि* प्रचुर भस्म से आच्छादित अग्नि अर्थात् जिसमें थोड़ी उष्णता है वह अग्नि है।
*अग्निकाय* अग्नि जीव द्वारा छोड़ा गया शरीर अग्निकाय है। जैसे भस्म आदि
*अग्निकायिक* अग्नि जीव ने जिस अग्नि को शरीर रुप से धारण किया वह अग्निकायिक है
*अग्निजीव* विग्रहगति में स्थित जीव जो अग्नि रूप शरीर को धारण करने के लिए जा रहा है अग्नि जीव है । *(सि. सा. दी. ११/१७-१८)*
*प्रश्न ११) अग्निकायिक जीव कौन- कौन से हैं?*
उत्तर-अंगारे, ज्वाला, लौ, मुर्मुर, शुद्धअग्नि, धुआँ सहित अग्नि, बढ़वाग्नि, नन्दीश्वर द्वीप के मंदिरों में रखे हुए धूप घटों की अग्नि, अग्निकुमार देवों के मुकुटों से उत्पन्न अग्नि आदि सभी अग्निकायिक जीव हैं। *(मूलाचार २११ आ.)*
*प्रश्न १२) वायु कितने प्रकार की है?*
उत्तर-वायु चार प्रकार की है –
वायु, वायुकाय, वायुकायिक, वायुजीव।
*वायु* धूलि का समुदाय जिसमें है ऐसी भ्रमण करने वाली वायु, वायु है ।
*वायुकाय* जिस वायुकायिक में से जीव निकल चुका, ऐसी वायु का पौद्गलिक वायुदेह वायुकाय है
*वायुकायिक* प्राण (जीव) युक्त वायु को वायुकायिक कहते हैं।
*वायुजीव* वायु रूपी शरीर को धारण करने के लिए जाने वाला ऐसा विग्रहगति में स्थित जीव वायु जीव है। *(सि. सा. दी. ११/२०-२१)*
*प्रश्न १३) वायुकायिक जीव कौन-कौनसे हैं?*
उत्तर-घूमती हुई वायु, उत्कलि रूप वायु,मण्डलाकार वायु, गुंजावायु, महावायु, घनोदधि और तनु वात वलय की वायु से सब वायुकायिक जीव हैं।
*( मूलाचार २१२ आ.)*
*प्रश्न १४) पृथ्वी आदि वनस्पति पर्यन्त कौनसी गति के जीव हैं?*
उत्तर-पृथ्वी आदि वनस्पति पर्यन्त सभी तिर्यंचगति के जीव हैं। ये पाँचों स्थावर कहलाते है लेकिन स्थावर कोई गति नहीं है। कहा भी है– औपपादिक मनुष्येभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय: ” *(त.सू. ०४/२७)*
अर्थात् उपपाद जन्म वाले देव, नारकी और मनुष्यों को छोड्कर शेष सभी तिर्यंच हैं।
*प्रश्न १५) स्थावर जीवों के कृष्ण लेश्या कैसे सिद्ध होती है?*
उत्तर-तीव्रक्रोध, वैरभाव, क्लेश संताप, हिंसा से युक्त तामसी भाव कृष्ण लेश्या के प्रतीक है। तस्मानिया के जंगलों में "होरिजन्टिल-स्कन" नामक वृक्षों की डालियाँ व जटायें जानवरों या मनुष्यों के निकट आते ही उनके शरीर से लिपट जाती हैं। तीव्र कसाव से (कस जाने के कारण) जीव उससे छुटकारा पाने की कोशिश करते हुए अन्तत: वहीं मरण को प्राप्त हो जाता है, इस क्रिया से उनकी हिंसात्मक प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से समझ में आती है, यह कृष्ण लेश्या की प्रतीक है।
*प्रश्न १६) स्थावरों में नील लेश्या कैसे समझ में आती है?*
उत्तर-आलस्य, मूर्खता, भीरुता, अतिलोलुपता आदि नील लेश्या के प्रतीक हैं।
कई वनस्पतियाँ आलसी एव हठी होती है। उनके बीज सुषुप्तावस्था में पड़े रहते है। शंख पुष्पी, बथुआ, बैंगन आदि के बीजों को अंकुरित कराने के लिए उपचारित करना पड़ता है उन्हें उच्चताप, निम्नताप, प्रकाश, अम्ल, पानी या रासायनिक पदार्थों से सक्रिय किया जाता है तभी वे अंकुरित होते हैं। इसी प्रकार तंबाखू गोखरु, सिंघाड़ा आदि की भी स्थिति है।
कलश, पादप, सनडयू आदि पौधे गध, रंग, रूप आदि से कीड़ों को आकर्षित करते है। उन्हें खाने की लोलुपता इनमें विशेष रहती है। युटीकुलेरियड का पौधा स्थिर पानी में उगता है। इसकी पत्तियाँ सुई के आकार की होती हैं और पानी में तैरती हैं। पत्तियों के बीच में छोटे-छोटे हरे रग के गुब्बारे के आकार के फूले अंग रहते हैं। पौधा इन्हीं गुब्बारों से कीड़ों को पकड़ता है। गुब्बारे की भीतरी दीवारों से पौधा एक रस छोड़ता है कीड़ों को नष्ट करता है इसे इसकी अतिलोलुपता अर्थात् नील लेश्या का प्रतीक माना जा सकता है।
*प्रश्न १७) स्थावरों में कापोत लेश्या को कैसे समझा जा सकता है?*
उत्तर-निन्दा, ईर्षा, रोष, शोक, अविश्वास आदि कापोत लेश्या के लक्षण हैं।
इस लेश्या वाले दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले होते हैं। नागफनी, काकतुरई, क्रौंच, चमचमी आदि वनस्पतियाँ काँटे, दुर्गन्ध या खुजली पहुँचाने वाले होते हैं। इनको छूने से या इनके निकट जाने से कुछ कष्ट अवश्य होता है। इसे कापोत लेश्या के रूपमें स्वीकार किया जा सकता है।
अशुभ लेश्या के उदाहरण वनस्पति में स्पष्ट रूपसे समझ में आते हैं। पृथ्वी आदि में इनका स्पष्टीकरण नहीं होता है फिर भी पानी में भँवर आना, वायु में चक्रवात, अग्नि में बड़वानल, दावानल, ज्वालामुखी आदि प्रवृत्तियों से अशुभ लेश्याओं का अनुमान लगाया जा सकता है।
*प्रश्न १८) क्या पृथ्वीकायिकादि पाँचों स्थावरों में सासादन गुणस्थान होता है?*
उत्तर-पृथ्वीकायादि पाँचों स्थावरों में सासादन गुणस्थान सम्बन्धी दो विचार हैं –
*०१)* इन्द्रिय मार्गणा की अपेक्षा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त जीवों में सासादन गुणस्थान निर्वृत्यपर्याप्त दशा में ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं; क्योंकि पर्याप्त दशा में तो वहाँ एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है।
*(पंच. संग्रह. प्राकृत)*
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असैनी पंचेन्द्रिय में तो अपर्याप्त तथा सैनी के पर्याप्त- अपर्याप्त अवस्था में सासादन गुणस्थान होता है।
*(गो. जी. जी. ६९५)*
एकेन्द्रियों में जाने वाले सासादन गुणस्थान वाले जीव बादर पृथिवीकायिक बादरजलकायिक, बादर वनस्पतिकायिक (प्रत्येक वनस्पति) पर्याप्तको में ही जाते हैं, अपर्यातकों में नहीं। *(धवला ०६/४६०)*
*०२)* कौन कहता है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में होते है? किन्तु वे उस एकेन्द्रिय में मारणान्तिक समुद्धात करते हैं ऐसा हमारा निश्चय है, न कि वे अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं; क्योंकि उनमें आयु के छिन्न होने के समय सासादन गुणस्थान नहीं पाया जाता है।
*(धवला ०४/१६२)*
सासादन सम्यग्दृष्टियों की एकेन्द्रियों में उत्पत्ति नहीं है। *(धवला ०७/४५७)*
*प्रश्न १९) पृथ्वीकायिकादि में कितनी व कौन-कौन सी अविरतियों होती हैं?*
उत्तर-पृथ्वीकायिकादि में सात अविरतियाँ होती हैं – षट्कायिक जीवों की हिंसा के अत्यागरूप छह तथा स्पर्शन इन्द्रिय को वश में नहीं करने रूप एक = कुल सात अविरतिया होती है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
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