*05. चौबीस ठाणा से नरकगति मार्गणा*
https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC
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*✍️ नरकगति मे 24 ठाणा*
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*०१) गति ०१/०४* नरक गति
*०२) इन्द्रिय ०१/०५* पंचेन्द्रिय जीव
*०३) काय ०१/०६* त्रसकाय
*०४) योग ११/१५*
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग,
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०३* वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग, कार्मण काययोग
*०५) वेद ०१/०३* नपुंसक वेद।
*०६) कषाय २३/२५* स्त्रीवेद, पुरुषवेद नही होता
*०७) ज्ञान ०६/०८*
*कुज्ञान ०३* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
*सुज्ञान ०३* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान
*०८) संयम ०१/०७* असंयम
*०९) दर्शन ०३/०४* चक्षु, अचक्षु,अवधिदर्शन
*१०) लेश्या ०३/०६* कृष्ण, नील, कापोत
*११) भव्यक्त्व ०२/०२* भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व ०६/०६*
मिथ्यात्व,सासादन,मिश्र,उपशम,क्षयोपशम,क्षायिक
*१३) संज्ञी ०१/०२* संज्ञी
*१४) आहारक ०२/०२* आहारक, अनाहारक
*१५) गुणस्थान ०४/१४*
मिथ्यात्व,सासादन,सम्यग्मिथ्यात्व,अविरतसम्यग्दृष्टि
*१६) जीवसमास ०१/१९* संज्ञी पंचेन्द्रिय।
*१७) पर्याप्ति ०६/०६* आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा मन:पर्याप्ति।
*१८) प्राण १०/१०*
*इन्द्रिय ०५* स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण
*बल ०३* कायबल, वचन बल और मनोबल प्राण
आयु प्राण और श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा ०४/०४*
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग ०९/१२*
मति, श्रुत, अवधि, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन
*२१) ध्यान ०९/१६*
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी। *धर्मध्यान ०१* आज्ञाविचय,।
*२२) आस्रव ५१/५७*
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति १२* ०५ इन्द्रिय और मन को वश में करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २३* अनन्तानुबन्धीआदि १६ नोकषाय ०७
*योग ११* मनोयोग-०४, वचनयोग-०४,
काययोग ०३ (वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग, कार्मण काययोग)
*२३) जाति –८४ लाख* नारकी ०४ लाख
*२४) कुल–१९९.५ लाख करोड* २५ लाख करोड़
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*प्रश्न ०१) अधोलोक मे कितनी नरक पृथ्वीया है?*
अधोलोक मे सात नरक पृथ्वीया है–रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमःप्रभा। ये गुण नाम है।
*(ति.प.01/152)* *(त्रिलोकसार 144)*
घम्मा (धर्मा), वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा, माघवी ये रुढी नाम है गोत्र नाम है। *(ति.प. 1/153)* *(त्रिलोकसार 145)*
*प्रश्न ०२) नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं तो वहाँ कीड़ों से भरी नदी कैसे बताई गई है?*
यह सत्य है कि नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव तिर्यंचगति में ही पाये जाते हैं। नरकों में जो वैतरणी नदी को कीड़ों से भरी हुई बतलाया है वे कीड़े स्वय नारकी अपनी विक्रिया के बल से बनते है। उनका कीड़ों का आकार आदि होने पर भी वे नारकी ही होते हैं क्योंकि उनके नरकगति, नरकायु आदि प्रकृतियों का उदय होता है।
*जैसे* नारकी हांडी, वसूला, करीत, भाला आदि रूप विक्रिया कर लेने से अजीव नहीं हो जाते, गाय आदि की विक्रिया कर लेने से गाय आदि के समान दूध देने में समर्थ नहीं हो जाते हैं वैसे ही कीड़ों के बारे में भी समझना चाहिए।
*(ति.प. 02/318 - 322 के आधार से)*
*प्रश्न ०३) क्या नरक में स्थावर जीव नहीं पाये जाते हैं?*
सूूूूक्ष्म स्थावर जीव सर्व लोक में ठसाठस भरे हुए हैं । *(गो. जी.184)* अत: यदि नरकों में स्थावर जीव होवे तो कोई आश्चर्य नहीं है, लेकिन वे स्थावर जीव नरक की भूमि में रहने मात्र से नारकी नहीं हो जाते और न वे नरकगति के जीव ही कहला सकते हैं, क्योंकि नारकी तो वही होता है जिसके नरकायु आदि का उदय होता है।इन स्थावरों के इन प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। अत: वे नरक भूमि में रहकर भी नारकी नहीं कहलाते हैं।
*जैसे* असुरकुमार आदि देव भी नरक में जाते हैं। कुछ समय तक वहाँ रुकते भी है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे नारकी हो जाते हैं क्योंकि उनके देवगति नामकर्म का उदय है ।
*प्रश्न ०४) नारकियों के कार्मण-काययोग में कौन- कौन सा गुणस्थान हो सकता है?*
नारकियों के कार्मण काययोग में 02 गुणस्थान हो सकते है - मिथ्यात्व और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
जब कोई जीव मनुष्यगति या तिर्यंचगति से मरण करके नरक मे जन्म लेने जा रहा हो तो विग्रहगति मे कार्मण काययोग ही हो सकता है।
यहा कार्मण शरीर से ही कर्मो का ग्रहण होता है, इसे अनहारक भी कहते है। क्योकि इस समय कर्मों द्वारा ही आत्मा के प्रदेशो मे कंपन हो रहा है इसलिए यह कार्मण काय योग है।
जब जीव नरक मे पहुच जाता हैं उस समय आहार वर्गणाओ का ग्रहण शुरु करता है उस समय जीव आहारक कहलाता है।
*मिथ्यात्व* यहा से जो मिथ्याद्रष्टि मरण करके नरक जा रहे हैं उनके विग्रहगति (कार्मण काययोग) में पहला मिथ्यात्व गुणस्थान होता है
*सासादन* वाला नरक मे नही जा सकता, क्योकि जो नरक मे जा रहा है उसको सासादन गुणस्थान नही होता, तथा जिसको सासादन होता है उसके नरक गति नही होती *(धवला पुस्तक 01)*
*मिश्र* मे मरण ही नही होता तो कार्मण काययोग मे हो ही नही सकता
*अविरत* सम्यग्द्रष्टि जीव जिसने मिथ्यात्व अवस्था मे नरकायु का बंध कर लिया हो बाद मे सम्यक्त्व हो जाए वह जीव सम्यक्त्व सहित नरक मे जा सकता है और कार्मण काययोग (विग्रहगति) मे चौथा अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान हो सकता है। यह मात्र प्रथम नरक की कार्मण काय अवस्था में ही होता है, अन्य नरकों में नहीं।
*प्रश्न ०५) नारकियों के निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में सासादन गुणस्थान क्यों नहीं होता?*
सासादन गुणस्थान वाला नरक में उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि सासादन गुणस्थान वाले के नरकायु का बन्ध नहीं होता है। जिसने पहले नरकायु का बन्ध कर लिया है, ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि नरकायु का बन्ध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण नहीं होता है।
*(धवला 02/325-326)*
*✍️ नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में योग*
नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में 01योग ही होता है वह है वैकियिकमिश्रकाय योग। क्योंकि कार्मण-काययोग विग्रहगति में तथा शेष योग पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं।
*✍️ नारकियों के आहारक अवस्था मे योग :-*
नारकियों के आहारक अवस्था में 10 योग होते हैं – मनोयोग- 04, वचनयोग- 04, काययोग- 02 (वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग)
*प्रश्न ०८) नारकियों के नपुंसक वेद ही क्यों होता है?*
नरकगति पाप के उदय से प्राप्त होती है। वहाँ जीवों को दुःख ही दुःख होते है। स्त्रीवेद वाला पुरुष के साथ तथा पुरुषवेद वाला स्त्री के साथ रमण करके सुख प्राप्त कर लेता है। नपुंसकवेद वाले की वासना स्त्री-पुरुष वेद वालों की अपेक्षा कई गुणी होती है, लेकिन वह न पुरुष के साथ रम सकता है और न स्त्री के साथ इसलिए वह वासनाओं से संतप्त रहता है। नरकों में यदि स्त्री-पुरुष वेद होगा तो उन्हें सुख मिल जायेगा। परन्तु वहाँ पंचेन्द्रिय जनित विषयों से उत्पन्न कोई सुख नहीं होता है, शायद इसीलिए उनके नपुंसक वेद ही होता है।
निरन्तर दुःखी होने के कारण उनके दो (स्त्री-पुरुष) वेद नहीं होते हैं। *(धवला 01/347)*
*✍️ चतुर्थ नरक के नारकियों के कषायें :-*
चतुर्थ नरक के नारकियों के अधिक से अधिक 23 कषायें होती है।
अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, संज्वलन चतुष्क तथा स्वीवेद-पुरुषवेद के बिना हास्यादि सात नोकषाय।
∆ कम-से-कम 19 कषायें होती हैं
उपरिम 23 मे से अनन्तानुबन्धी चतुष्क का अभाव होने से जीव के 19 कषायें होती हैं। ये सम्यग्दृष्टि जीव के होती है।
*नोट* इसी प्रकार सभी नरकों में जानना चाहिए
*प्रश्न १०) क्या कोई ऐसा सम्यग्दृष्टि नारकी है जिसके अवधिज्ञान नहीं होता है?*
हाँ है, जो सम्यग्दृष्टि जीव (मनुष्य) अवधिज्ञान लेकर नरक में नहीं जाता है, उस सम्यग्दृष्टि नारकी के विग्रहगति में निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तथा पर्याप्त अवस्था में जब तक अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता तब तक उस सम्यग्दृष्टि नारकी के अवधिज्ञान नहीं होता है ।
*✍️ नारकियो में ज्ञान :-*
नारक के छहों ज्ञान होते है - सम्यग्दृष्टि नारकी के तीन सुज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान होते है तथा मिथ्यादृष्टि तथा सासादन सम्यग्दृष्टि के तीन कुज्ञान होते है - कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
*∆ मिश्र गुणस्थानवर्ती* नारकी के तीनों ही ज्ञान मिश्र रूप होते हैं।
*✍️ नारकियो में लेश्याएँ ;-*
सभी नरकों में अलग- अलग लेश्याएँ होती हैं –
*क्रम नरक लेश्या*
*०१)* रत्नप्रभा जघन्य कापोत
*०२)* शर्कराप्रभा मध्यम कापोत
*०३)* बालुकाप्रभा उत्कृष्ट कापोत-जघन्य नील
*०४)* पंकप्रभा मध्यम नील
*०५)* धूमप्रभा उत्कृष्ट नील–जघन्य कृष्ण
*०६)* तमःप्रभा मध्यम कृष्ण
*०७)* महातमःप्रभा उत्कृष्ट कृष्ण
*प्रश्न १३) नारकियों के अशुभ लेश्या ही क्यों होती है?* नारकियों के नित्य संक्लेश परिणाम ही होते हैं, इसलिए उनके अशुभ लेश्याएँ ही होती हैै।
*प्रश्न १४) क्या नारकियों के द्रव्य और भाव से अशुभ लेश्या ही होती है?*
हाँ, नारकियों मे द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या अशुभ ही होती है। नारकियों के शरीर नियम से हुण्डक संस्थान वाले ही होते हैं, सभी नारकियों के पर्याप्त अवस्था में द्रव्य से कृष्ण लेश्या ही होती है।
*(धवला 02/450)*
*नारकानित्याशुभ (त. सू 3/3)* के अनुसार उनके भाव भी हमेशा अशुभतर ही रहते हैं इसलिए उनके भाव से भी अशुभ लेश्या ही होती है।
*✍️ नारकियों की अपर्याप्त-अवस्था में सम्यक्त्व मार्गणा*
नारकियों की अपर्याप्त-अवस्था में तीन सम्यक्त्व होते हैं - मिथ्यात्व, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व
मिथ्याद्रष्टि मरण करके नरक जा रहा है तो अपर्याप्त-अवस्था मे *मिथ्यात्व गुणस्थान* होगा।
क्षायिक सम्यक्त्व वाला भी मरण करके नरक जा रहा है तो उसके भी अपर्याप्त-अवस्था मे *क्षायिक सम्यक्त्व* होता है।
*क्षायोपशमिक सम्यक्त्व* भी कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा समझना चाहिए
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*∆ कृतकृत्यवेदक जीव* जो क्षयोपशम सम्यक्त्व वाला है वह क्षायिक की प्रोग्रेस के लगा हुआ है, उसने मिथ्यात्व का नाश कर दिया, फिर सम्यक मिथ्यात्व को भी नष्ट कर दिया अब उसके एकमात्र सम्यक प्रकृति शेष रही इस जीव को शास्त्रो मे *कृतकृत्यवेदक क्षायोपशमिक जीव* कहा है। यह क्षायिक तो तब बनेगा तब वह सम्यक प्रकृति को भी नष्ट कर देगा। इस अपेक्षा से भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाला भी नारकियो की निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे पाया जाता है।
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*∆ ०१)* धर्मा नरक की अपर्याप्त अवस्था में तीनों सम्यक्त्व होते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा समझना चाहिए। वंशा आदि माघवी पर्यन्त नरकों की अपर्याप्त अवस्था में केवल एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता हैं।
*विशेष* जो दूसरी तीसरी नरक पृथ्वी मे तीर्थंकर वाले जीव जाते है उनका सम्यक्त्व एक अंतरमुहूर्त तक के लिए छूट जाता है और मिथ्यात्व अवस्था मे वे दूसरी या तीसरी पृथ्वी मे जाते है, फिर एक अंतरमुहूर्त बाद वे पर्याप्तक होकर उनको सम्यक्त्व हो जाता है। *निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे तो मिथ्यात्व ही रहता है दूसरी से सातवी पृथ्वी तक*
*∆ ०२)* बद्धायुष्क तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला जीव भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को लेकर प्रथम नरक में नहीं जा सकता है। *क्योंकि बद्धायुष्क कृतकृत्य वेदक तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि को छोड्कर शेष कोई भी जीव सम्यग्दर्शन को लेकर नरक में नहीं जा सकता है।*
*∆ ०३)* प्रथमोपशम सम्यक्त्व तथा मिश्र सम्यक्त्व में मरण नहीं होता और सासादन को लेकर जीव नरक में नहीं जाता इसलिए नारकियों की अपर्याप्त अवस्था में ये तीनों सम्यक्त्व नहीं होते हैं ।
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*✍️निष्कर्ष*
*०१) निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे पहली नरक पृथ्वी* मे सम्यकत्व मार्गणा के तीन भेद मिथ्यात्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कृतकृत्यवेदक, क्षायिक है।
*०२) निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे दूसरी से सातवी पृथ्वी* मे सम्यकत्व मार्गणा का एक भेद मिथ्यात्व है
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*✍️ नारकियो मे उत्पन्न करने योग्य सम्यक्त्व :-*
नारकी दो सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकते हैं– प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन।
नारकी क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं कर सकते; क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही करते हैं। कृतकृत्य वेदक वहाँ जाकर सम्यक् प्रकृति का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दर्शन का निष्ठापन कर सकता है।
*नोट* सम्यक्त्व मार्गणा में से नारकी मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, प्रथमोपशम, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते है।
*✍️ प्रतिष्ठापन-निष्ठापन*
प्रतिष्ठापन य़ानि शुरुवात क्षायिक सम्यक की शुरुवात, यह कर्मभूमि का मनुष्य ही करता है केवली या श्रुतकेवली के पादमूल मे लेकिन बीच मे ही मरण हो जाए और अगर नरकायु बांधी हुई है तो नरक जाकर अंतरमुहूर्त मे वह उसी प्रक्रिया को पूर्ण कर लेता है उसे कहते है निष्ठापन पूर्णता
*✍️ नारकियों की पर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्व*
*∆ प्रथम नरक के* नारकियों की पर्याप्त अवस्था में सभी सम्यक्त्व यानि छहो भेद होते है।
*∆ दूसरे से सातवें नरक तक* क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नरक से आगे नहीं जाता है। *अर्थात* प्रथम नरक में सभी सम्मयक्तव होते हैं और शेष नरकों में क्षायिक सम्यक्त्व के बिना पाँच ही सम्यक्त्व होते हैं।
*प्रश्न १८) नारकियों में पंचमादि गुणस्थान क्यों नहीं होते?*
अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित हिंसा में आनन्द मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दुःखों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दस गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं।
*(नि.प. 02/275-276)*
प्रथमादि चार गुणस्थानों के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्भाव नहीं है; क्योंकि संयमासंयम और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है। *(धवला 1/208)*
*✍️ नारकियों में आर्तध्यान का कारण*
*इष्ट वियोगज* नारकी जब अपनी विक्रिया से शस्रादि बनाते हैं, उसको यदि दूसरे नारकी छीन ले, ध्वस्त (नष्ट) कर दे तो इष्ट वियोग हो जाता है। तीसरे नरक तक कोई देव किसी को सम्बोधन करने गया। वह जब संबोधन करके चला जाता है उसके वियोग में नारकी को इष्टवियोग आर्त्तध्यान हो सकता है।
*अनिष्ट संयोगज* एक नारकी को जब दूसरे नारकी मारते हैं, दुःख देते हैं तो उन्हें दूर करने के लिए बार- बार विचार उत्पन्न होते हैं तब उस नारकी के अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान हो सकता है ।
*वेदना आर्तध्यान* नारकियों के शीत-उष्ण आदि वेदनाओं को दूर करने की भावनाओं से वेदना आर्त्तध्यान संभव है।
*निदान आर्तध्यान* नारकी जातिस्मरण से भोगों को जानकर भावी भोगों की आकांक्षा कर सकते हैं।
तीसरे नरक तक आये हुए देवों के वैभव को देखकर निदान कर सकते हैं। नारकियों में ऐसे ही और भी आर्त्तध्यान हो सकते हैं।
*प्रश्न २०) नारकी जीव भगवान के दर्शन, पूजा, स्वाध्याय, गुरुओं की भक्ति, आहारदान आदि कुछ नहीं कर सकता है, तो उसके धर्मध्यान कैसे हो सकता है?*
∆ भगवान की पूजा,दर्शनादि कार्य एकान्त से धर्मध्यान नहीं हैं। पूजा आदि कार्य धर्मध्यान प्राप्त करने की पूर्व भूमिका है। इन सब कार्यों को करते हुए भी मिथ्यादृष्टि जीव के धर्मध्यान नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि नारकी के ”जो जिनेन्द्र भगवान ने सच्चे देव-शास्त्र -गुरु, तत्त्व, द्रव्य, मोक्षमार्ग आदि का स्वरूप बताया है वही सच्चा है,उसी से मेरा कल्याण अर्थात् मुझे शाश्वत सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है " इस प्रकार की श्रद्धा (आज्ञा सम्यक्त्व) होती है और इसी रूप में नारकी के एक आज्ञाविचय धर्मध्यान होता है।
*✍️ सम्यग्दृष्टि नारकी के आस्रव के प्रत्यय*
*∆ प्रथम नरक में सम्यग्दृष्टि नारकी के आस्रव के 42 प्रत्यय हैं* 12 अविरति, 19 कषाय (अनन्तानुबन्धी चतुष्क तथा स्त्रीवेद पुरुषवेद रहित) तथा 11 योग (औदारिकद्विक तथा आहारकद्विक बिना)।
*∆ प्रथम नरक में मिथ्याद्रष्ठि* के 52 आस्रव के प्रत्यय है *(12 अविरति + 23 कषाय + 11 योग=51)*
∆ दूसरे आदि नरकों में वैक्रियिक मिश्र तथा कार्मण काय योग सम्बन्धी आसव के प्रत्यय भी निकल जाने से ४० प्रत्यय ही होते हैं। ये सम्यग्द्रष्टि नारकी है इन्होने नरक जाकर ही सम्यक प्राप्त करा है।
∆ पहली नरक पृथ्वी मे सम्यक्त्व मार्गणा के सभी छहो भेद हो सकते है।
∆ दूसरी नरक पृथ्वी सातवी नरक पृथ्वी मे सम्यक्त्व मार्गणा के क्षायिक सम्यक्त्व को छोडकर पाँचो भेद हो सकते है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
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