*✍️ मध्यलोक*
https://youtu.be/HM7UgD_e6Vo?si=dQb_g8Met2NMaHAU
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अनंत अलोकाकाश के मध्य मे लोकाकाश स्थित है। यह 343 धन राजू का है। लोकाकाश के तीन भाग उर्ध्वलोक, मध्यलोक व अधोलोक है। उर्ध्वलोक और अधोलोक के मध्य में स्थित होने के कारण इसे मध्यलोक कहते है। तिरछा फैला हुआ होने के कारण इसे तिर्यग्लोक भी कहते है। इसकी स्थिति त्रस लोक की मुख्यता से यह एक राजू लम्बा, एक राजू चौड़ा और ऊँचाई सुमेरु पर्वत समान एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। विशेष रुप से पूर्व पश्चिम एक राजू तथा उत्तर दक्षिण सात राजू है। यह झालर के समान है।
मध्यलोक में द्वीप समुद्रो की संख्या 25 कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों (अढाई उद्धार सागर) के रोमों के समय प्रमाण संख्या है अर्थात असंख्यात द्वीप और असख्यात समुद्र है। सब द्वीप-समुद्र एक दूसरे को वेष्टित (घेरे) किए हुए हैं, वलयाकार (चूड़ी के समान आकार के) गोलाकार तथा दूने-दूने विस्तार वाले है। इनमें सबसे पहला जम्बूद्वीप और अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र है। इनमें से जो पहला द्वीप वह थाली के समान आकार का तथा अन्य सभी द्वीप और समुद्र चूडी के आकार के है। सभी द्वीप चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित है और सभी समुद्र चित्रा पृथ्वी को खंडित कर वज्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित हैं अर्थात् 1000 योजन गहरे हैं।
*✍️ 32 द्वीप 32 समुद्रो के नाम*
इस मध्यलोक मे द्वीप और समुद्र तो असंख्यात है, लेकिन हमारे पास नाम केवल संख्यात ही है इसलिए एक ही नाम के कई द्वीप और कई समुद्र भी है। आगम मे कुछ 32 द्वीप और 32 समुद्रो के नाम मिले है वे इस प्रकार से है–
*✍️ प्रथम द्वीप और समुद्र से प्रारम्भ करके*
01) जम्बूद्वीप लवण समुद्र
02) घातकीखण्ड द्वीप कालोद समुद्र
03) पुष्करवर द्वीप पुष्करवर समुद्र
04) वारुणीवर द्वीप वारुणीवर समुद्र
05) क्षीरवर द्वीप क्षीरवर समुद्र
06) घृतवर द्वीप घृतवर समुद्र
07) क्षौद्रवर द्वीप क्षौद्रवर समुद्र
08) नंदीश्वर द्वीप नंदीश्वर समुद्र
09) अरुणवर द्वीप अरुणवर समुद्र
10) अरुणाभास द्वीप अरुणाभास समुद्र
11) कुण्डलवर द्वीप कुण्डलवर समुद्र
12) शंखवर द्वीप शंखवर समुद्र
13) रुचकवर द्वीप रुचकवर समुद्र
14) भुजगवर द्वीप भुजगवर समुद्र
15) कुशवर द्वीप कुशवर समुद्र
16) क्रौंचवर द्वीप क्रौंचवर समुद्र
*✍️अन्तिम समुद्र से प्रारम्भ करके 16 द्वीप समुद्रों के नाम*
01) स्वयंभूरमण समुद्र स्वयंभूरमण द्वीप
02) अहीन्द्रवर समुद्र अहीन्द्रवर द्वीप
03) देववर समुद्र देववर द्वीप
04) यक्षवर समुद्र यक्षवर द्वीप
05) भूतवर समुद्र भूतवर द्वीप
06) नागवर समुद्र नागवर द्वीप
07) वैडूर्य समुद्र वैडूर्य द्वीप
08) वज्रवर समुद्र वज्रवर द्वीप
09) कांचन समुद्र कांचन द्वीप
10) रुपयवर समुद्र रुप्यवर द्वीप
11) हिंगुल समुद्र हिंगुल द्वीप
12) अंजनवर समुद्र अंजनवर द्वीप
13) श्याम समुद्र श्याम द्वीप
14) सिंदूर समुद्र सिंदूर द्वीप
15) हरितालसमुद्र हरिताल द्वीप
16) मन:शिल समुद्र मन:शिल द्वीप
*✍️समुद्रो के जल का स्वाद*
लवण समुद्र, वारुणीवर समुद्र, घृतवर समुद्र और क्षीरवर समुद्र इन चारों का जल अपने नामों के अनुसार है अर्थात लवण का जल खारा, वारूणी का जल मद्य के समान, घृतवर का जल घी के समान, क्षीरवर का जल दूध के समान है। इसी क्षीरवर समुद्र के जल से तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है।
◆ कालोदधि समुद्र, पुष्करवर समुद्र और स्वयम्भूरमण समुद्र इन तीनों के जल का स्वाद सामान्य जल के सदृश ही होता है।
◆ शेष सभी समुद्रो (असंख्यात समुद्रो) का जल इक्षुरस यानि गन्ने के रस के समान मधुर है।
◆ जलचर जीव केवल लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र में ही हैं अन्य किसी समुद्र में जलचर जीव नहीं है।
*✍️पहला जम्बूद्वीप*
मध्यलोक के बिल्कुल बीचोंबीच एक लाख योजन विस्तार वाला पहला जम्बूद्वीप है। यह थाली के आकार वाला द्वीप है। यहा अनादिनिधन जम्बू (जामुन) का वृक्ष है, जिसके कारण ही इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा। यह वृक्ष पृथ्वीकायिक है। यहा नाभी के समान सुमेरु पर्वत है। जम्बूद्वीप छ्ह कुलाचल से सात क्षेत्र हो जाते है।
जम्बूद्वीप मे 02 सूर्य और 02 चन्द्रमा है।
जम्बूद्वीप के स्वामी अनादर और सुस्थित व्यंतर देव है।
*✍️ लवण समुद्र*
जम्बूद्वीप को चारों तरफ से घेरे हुए पहला लवण समुद्र है, जो जम्बूद्वीप से दूने विस्तार यानि दो लाख योजन का है। यह सर्वत्र 1000 योजन गहरा है। यहा पर 1008 पाताल है जिसके जल के कारण ही यहा का जल हवा मे उठता रहता है। यही पर रावण वाली राक्षस नगरी है। यहा 96 कुभोगभूमि मे से 48 कुभोगभूमि है।
◆ लवण समुद्र के जम्बूद्वीप के समान 24 खंड हो सकते हैं। इस समुद्र मे 04 सूर्य और 04 चन्द्रमा है।
लवण समुद्र के स्वामी अनादर और सुस्थित व्यंतर देव है।
*✍️दूसरा घातकी खंड द्वीप*
मध्यलोक का दूसरा द्वीप घातकीखंड है जिसका विस्तार 04 लाख योजन है। यहा 02 इश्वाकार पर्वत हैं जिससे घातकीखंड के दो हिस्से पूर्व घातकी खंड और पश्चिम घातकी खंड हो जाते हैं। दोनों ही घातकी खण्डों में जम्बूद्वीप की तरह भरत, ऐरावत आदि क्षेत्र, हिमवान, महाहिमवान आदि कुलाचल पर्वत, गंगा-सिंधु आदि नदियां की रचना है।
पूर्व घातकीखण्ड में विजय मेरु, पश्चिम घातकीखंड में अचल-मेरु स्थित है।
◆ घातकीखंड में जंबूद्वीप के समान 144 खंड हो सकते है। घातकीखण्ड में 12 सूर्य 12 चंद्रमा है। घातकीखण्ड के प्रभास और प्रियदर्शन व्यंतर देव स्वामी है।
*✍️ कालोद-समुद्र*
घातकीखण्ड को चारों तरफ से घेरे हुए 08 लाख योजन विस्तार वाला कालोद समुद्र है। यह सर्वत्र 1000 योजन गहरा है। यहा 96 कुभोगभूमि मे से 48 कुभोगभूमि है।
इसके जम्बूद्वीप के समान 672 खंड हो सकते है।
कालोद समुद्र मे 42 सूर्य और 42 चंद्रमा है।
कालोद-समुद्र के स्वामी काल और महाकाल व्यंतर देव है।
*✍️तीसरा पुष्करवर द्वीप*
कालोद-समुद्र को घेरे हुए 16 लाख योजन विस्तार वाला मध्यलोक का तीसरा पुष्करवर द्वीप है। इसके बीचो-बीच चूड़ी के आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। कालोद-समुद्र से मानुषोत्तर पर्वत तक के आधे क्षेत्र को "पुष्करार्द्ध द्वीप" कहते हैं जो 08 लाख योजन है।
इसमे घातकीखंड द्वीप की तरह ही उत्तर और दक्षिण में 02 इश्वाकार-पर्वत हैं। जिससे पुष्करार्द्ध द्वीप के दो हिस्से हो जाते हैं पूर्व पुष्करार्ध द्वीप और पश्चिम पुष्करार्द्ध द्वीप। पूर्व पुष्करार्द्ध द्वीप में मंदर मेरु, पश्चिम पुष्करार्द्ध द्वीप में विद्युन्माली मेरु स्थित है।
इसमे 72 सूर्य और 72 चन्द्रमा है।
पुष्करार्द्ध द्वीप के स्वामी पदम और पुण्डरीक व्यंतर देव है।
*✍️अढ़ाई-द्वीप*
जम्बू-द्वीप, लवण-समुद्र, घातकीखंड द्वीप, कालोद समुद्र, पुष्करवर-द्वीप के मानुषोत्तर पर्वत तक का भाग (पुष्करार्द्ध द्वीप) अढ़ाई-द्वीप कहलाता है इसका विस्तार 45 लाख योजन है। यहाँ मुक्ति के योग्य 15 कर्मभूमियाँ तथा 30 भोगभूमियाँ है। यहा 05 मेरु, 05 उत्तरकुरु, 05 देव कुरु, 20 गजदंत पर्वत, 30 कुलाचल, 170 विजयार्ध पर्वत, 04 इष्वाकार पर्वत, 01 मानुषोत्तर पर्वत, 170 आर्य खण्ड, 850 म्लेच्छ खण्ड आदि है। इन अढ़ाई-द्वीपों से आगे कोई ऋद्धिधारी विद्याधर या सामान्य मनुष्य भी नहीं जा सकता है। इसके आगे के असंख्यात द्वीपों में जघन्य भोगभूमि हैं, जिनमे त्रिर्यच-युगल रहते हैं। अढाई द्वीप तक 132 सूर्य 132 चन्द्रमा है।
*✍️आंठवा नंदीश्वर द्वीप*
मध्यलोक का आंठवा नंदीश्वर द्वीप है, इसका विस्तार 163 करोड़ 84 लाख योजन है। यहा 52 अकृत्रिम जिनालय है। हर जिनालय में 500 धनुष ऊँची 108-108 अनादिनिधन पद्मासन मुद्रा में अरिहंत भगवान की कुल 5616 प्रतिमाएं विराजमान हैं। तीनो अष्टानिका पर्व के अंतिम आठ दिनों में (अष्ठमी से पूर्णिमा तक) चारो निकाय के देव भक्ति भाव से आठ दिनों तक अखंड रूप से पूजा करते हैं।
इस द्वीप मे 147456 सूर्य, 147456 चन्द्रमा है।
नंदीश्वर द्वीप के स्वामी नन्दि और नन्दिप्रभ व्यंतर देव है।
*✍️ 11 वा कुण्डलवर द्वीप*
मध्यलोक का 11वा कुंडलवर द्वीप है। इसका वलय विस्तार 10485 करोड 76 लाख योजन है। इस द्वीप के मध्य मे एक सुवर्णमई गोलाकार कुण्डलवर पर्वत है। जिसकी ऊँचाई 75000 योजन, नीव 1000 योजन है। इस पर्वत पर स्थित 20 कूटो मे से 04 कूटो पर अकृत्रिम जिन चैत्यालय और बाकी 16 पर व्यंतर देव-देवी के निवास स्थान है।
इस द्वीप मे 9437184 सूर्य और 9437184 ही चन्द्रमा स्थित है।
कुण्डलवर द्वीप के स्वामी कुण्डल और कुण्डलप्रभ व्यंतर देव है।
*✍️ 13 वा रुचकवर द्वीप*
मध्यलोक के 13 वे द्वीप का नाम रुचकवर द्वीप है जो सुवर्ण वर्ण का है। इस का वलय विस्तार 167772 करोड 16 लाख योजन है। इसके मध्य वलयाकार रुचकवर पर्वत स्थित है। यह 84000 योजन ऊँचा, 84000 योजन चौड़ा और 1000 योजन गहरा गोलाकार सुवर्णमई पर्वत है। इस पर्वत के ऊपर स्थित 44 कूटो मे से चारो दिशाओ मे एक एक करके कुल 04 कूटो पर 04 अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं।
इस द्वीप मे 150994944 सूर्य 150994944 ही चंद्रमा हैं।
*✍️अकृत्रिम जिनमंदिर*
जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवर द्वीप तक ही अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, आगे नहीं हैं। इन सब मंदिरों की संख्या 458 है। इसमे से 398 जिनमन्दिर तो मनुष्यलोक मे है। 52 जिनमन्दिर नन्दीश्वर द्वीप मे, 4 जिनमन्दिर कुण्डलवर द्वीप, 04 जिनमन्दिर रुचकवर द्वीप मे है।
*✍️ असंख्यात द्वीपो ने जघन्य भोगभूमि*
मानुषोत्तर पर्वत से लेकर स्वयम्भूरमण द्वीप मे बने कुण्डलाकार स्वयंप्रभ पर्वत तक असंख्य द्वीपो मे जघन्य भोगभूमि है। यहा पर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का निवास स्थान है। ये युगल ही उत्पन्न होते हैं युगल ही मरण को प्राप्त होते है। एक पल्य की उत्कृष्ट आयु, दो हजार धनुष ऊँचे, सुकुमार, कोमल अंगो वाले, फल भोजी, मंद कषायी हैं। अन्त में मरकर देवगति को प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ विकलत्रय जीव नहीं होते हैं।
*✍️अंतिम स्वयम्भूरमण द्वीप*
मध्यलोक का सबसे अंतिम द्वीप स्वयम्भूरमण द्वीप है। इसकी वलय चौडाई राजू के आठवे भाग प्रमाण है। इस स्वयंभूरमण द्वीप के मध्य में चूड़ी के समान आकार वाला स्वयंप्रभ पर्वत है। इस पर्वत के अंतरवर्ती भाग (अन्दर के भाग मे) अन्य द्वीपो के समान तिर्यंच की जघन्य भोगभूमि है। बाहरी भाग मे तिर्यंचो की कर्मभूमि है। यहा दुषमा काल (पंचम काल) है। यहा असंख्यात सूर्य और असंख्यात चन्द्रमा है।
*✍️ सबसे अंतिम स्वयम्भूरमण समुद्र*
मध्यलोक का सबसे अंतिम समुद्र स्वयम्भूरमण समुद्र है। यहा भी कर्मभूमि है, हमेशा पंचम काल (दुषमा काल) ही रहता है। स्वयम्भूरमण समुद्र का वलय विस्तार चौथाई राजू हैं।
यहा असंख्यात सूर्य और असंख्यात चन्द्र है।
*✍️ बाहय के चार कोने*
मध्यलोक मे स्वयम्भूरमण समुद्र के बाद जो चार कोने बचते है वहा हमेशा पंचम काल (दुषमा काल) है, यहा कर्मभूमि मे तिर्यंच पाए जाते है।
*✍️ ज्योतिष देव*
चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारे ये पांच प्रकार के असंख्यात ज्योतिष्क देव इसी मध्यलोक में 790 योजन से 900 योजन तक की ऊँचाई कुल 110 योजन के बीच में रहते हैं।
◆ मध्यलोक का सामान्य वर्णन पूर्ण हुआ
।।जिनवाणी माता की जय।।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
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