गुरुवार, 1 मई 2025

11. चौबीस ठाणा-एकेन्द्रिय मार्गणा

 *11. चौबीस ठाणा-एकेन्द्रिय मार्गणा*

https://youtu.be/EA8u9p5bpGM?si=luA9UQCw5d7Ltl08

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*✍️ एकेन्द्रिय मे २४ स्थान*

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*०१) गति       ०१/०४*   तिर्यंचगति

*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   स्पर्शन इन्द्रिय

*०३) काय       ०१/०६*   स्थावर काय

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक

*०४) योग        ०३/१५*  

कार्मणकाययोग, औदारिकद्विक काययोग

*०५) वेद       ०१/०३*   नपुंसकवेद

*०६) कषाय  २३/२५*  

स्त्रीवेद,पुरुषवेद नोकषाय को छोडकर बाकी सभी

*०७) ज्ञान     ०२/०८*  कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान

*०८) संयम       ०१/०७*  असंयम

*०९) दर्शन       ०१/०४*  अचक्षुदर्शन

*१०) लेश्या      ०३/०६*  कृष्ण, नील, कापोत

*११) भव्यक्त्व  ०२/०२*  भव्य और अभव्य

*१२) सम्यक्त्व   ०२/०६* मिथ्याद्रष्टि, सासादन

*सासादन सम्यक्त्व निर्वत्यपर्याप्तक अवस्था मे है*

*१३) संज्ञी        ०१/०२*  असंज्ञी 

*१४) आहारक   ०२/०२*  आहारक, अनाहारक

*१५) गुणस्थान   ०२/१४*  मिथ्यात्व, सासादन

*१६) जीवसमास  १४/१९*   

*१७) पर्याप्ति        ०४/०६* 

भाषा और मनः पर्याप्ति नही होती है

*१८) प्राण           ०४/१०*  

स्पर्शन, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास प्राण

*१९) संज्ञा         ०४/०४*  

आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा।

*२०) उपयोग      ०३/१२*  

कुमति, कुश्रुत, अचक्षुदर्शन

*२१) ध्यान         ०८/१६*  

*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।

*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।  

*२२) आस्रव       ३८/५७*  

*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान

*अविरति ०७* स्पर्शन इन्द्रिय और षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना की अविरति होती है

*कषाय २३* अनन्तानुबन्धीआदि १६ नोकषाय ०७

*योग ०३* औदारिकद्विक काययोग, कार्मण काययोग

*२३) जाति   –८४ लाख*    ५२ लाख जाति

विकलत्रय एवं पंचेन्द्रिय सम्बन्धी जाति नही होते है।

*२४) कुल–१९९.५ लाख करोड* ६७ लाख करोड़

विकलत्रय एवं पंचेन्द्रिय सम्बन्धी कुल नही होते है। 

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✍️ एकेन्द्रिय जीव :-

जिन जीवों का चिह्न स्पर्शन विषयक ज्ञान है, वे जीव एकेन्द्रिय हैं। 

जिन जीवों के एक ही इन्द्रिय होती है, वे एकेन्द्रिय हैं *जैसे* पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, इतर निगोद, नित्यनिगोद आदि   *(गो. जी. १६६)*


*प्रश्न - एकेन्द्रिय जीवों के द्रव्यवेद नहीं पाया जाता है, इसलिए उनके नपुंसकवेद का अस्तित्व कैसे बतलाया है?*

उत्तर-एकेन्द्रियों में द्रव्यवेद मत होओ; क्योंकि उसकी यहाँ प्रधानता नहीं है। अथवा द्रव्यवेद की एकेन्द्रियों में उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए उसका अभाव सिद्ध नहीं होता है । किन्तु सम्पूर्ण प्रमेयों को जानने वाले केवलज्ञान से उसकी सिद्धि हो जाती है। किन्तु यह ज्ञान छद्‌मस्थों में नहीं पाया जाता है।

*(धवला ०१/३४६)*

इनके द्रव्यवेद और भाववेद दोनो नपुंसक होता है। भाववेद क्योकी उनके नपुंसकवेद नामकर्म का उदय है तथा द्रव्यवेद भी नपुंसक है वह बाहर से नही दिखता है लेकिन केवलज्ञानी के ज्ञान मे उनके नपुंसक दिखाई देता है।


*प्रश्न - एकेन्द्रिय जीव स्त्रीभाव व पुरुषभाव नहीं समझते, उनके स्त्री-पुरुष विषयक अभिलाषा कैसे बन सकती है?*

उत्तर-नहीं; क्योंकि जो पुरुष स्त्रीवेद से सर्वथा अनजान है और भृगृह के भीतर वृद्धि को प्राप्त हुआ है, ऐसे पुरुष के भी वासना देखी जाती है। इसलिए एकेन्द्रिय जीवों के स्त्री-पुरुष भाव में नहीं समझने पर भी (नपुंसक) वेद होने में कोई बाधा नहीं है।

*(यहा मैथुन संज्ञा है तथा मैथुन संज्ञा होने पर यह भाव उत्पन्न होते है)*      *(धवला ०१/३४६)*


*प्रश्न १४) एकेन्द्रियों के कषायों का सद्‌भाव कैसे पाया (सिद्ध होता है) जाता है?*

उत्तर- क्वीन्स और न्यू साउथवेल्स के जंगलों में डंक मारने वाले वृक्ष होते हैं। इन वृक्षों पर नुकीले काँटे होते हैं। इनकी पत्तियाँ घने बालों वाली होती हैं। इन वृक्षों के समीप जाने पर पत्तियाँ शरीर से चिपक जाती हैं और अपने रोंयें छोड़ देती हैं, यह उनकी क्रोध कषाय कही जा सकती है।

बरगद आदि वृक्ष अपनी डालियों से शाखाएँ निकालकर भूमि तक पहुँचा देते हैं तथा उन्हें ही अपने जड़ और तने के रूप में परिवर्तित कर लेते हैं। यूकेलिप्टस कुछ ही दिनों में २००–३०० फुट ऊँचाई तक सीधा-सीधा बढ्‌कर एक प्रकार से अपने अभिमान को ही प्रगट करता है।

कीट-भक्षी पौधे स्पष्टरूप से मायावी दिखाई देते हैं। ये अपने रूप, रस, गंध से कीट, पतंगों आदि को अपनी ओर आकर्षित करके नष्ट कर देते हैं। इसी प्रकार अमरबेल भी धीरे- धीरे बढ्‌कर उसी वृक्ष को नष्ट कर देती है।

कई वनस्पतियाँ अपना भोजन जमीन के भीतर अपनी जड़ों/तनों में संचित कर लेती हैं। यूकेलिप्टस अपनी अबू- बाजू का इतना पानी इकट्ठा करके रख लेता है कि ०४ – ०५ वर्ष तक अकाल पड़ने पर भी वह नहीं सूखता है। यह उसकी लोभ कषाय का परिणाम है।


*प्रश्न १५) एकेन्द्रिय जीवों के मिथ्यात्व कैसे सिद्ध होता है?*

उत्तर-एकेन्द्रिय जीवों के गृहीत- अगृहीत आदि सभी मिथ्यात्व सम्भव हैं, क्योंकि जिनका हृदय सात प्रकार के मिथ्यात्वरूपी कलक से अंकित है, ऐसे मनुष्यादि गति सम्बन्धी जीव पहले ग्रहण की हुई मिथ्यात्व पर्याय को न छोड्‌कर जब स्थावर पर्याय को प्राप्त करते हैं, तो उनके सातों’ ही प्रकार का मिथ्यात्व पाया जाता है। इस कथन में कोई विरोध नहीं है।    *(धवला ०१/२७७)*


*प्रश्न १६) क्या सभी एकेन्द्रिय जीवों के सभी मिथ्यात्व हो सकते हैं?*

उत्तर-नहीं, जो एकेन्द्रिय अथवा द्वीन्द्रिय आदि जीव जिन्होंने आज तक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय को प्राप्त नहीं किया है उनके पाँचों गृहीत मिथ्यात्व नहीं हो सकते हैं, क्योंकि मन के अभाव मे जीव में किसी के उपदेश को ग्रहण करने की क्षमता नहीं हो सकती है। उपदेश को ग्रहण किये बिना गृहीत मिथ्यात्व नहीं हो सकता है।   *(धवला पुस्तक ०४)*


*प्रश्न १७) एकेन्द्रिय जीवों के कम- से- कम कितने प्राण होते हैं?*

उत्तर-एकेन्द्रिय के निर्वृत्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्यातक  अवस्था मे कम-से-कम तीन प्राण होते हैं- स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु प्राण। श्वासोच्छास पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले श्वासोच्छास प्राण नहीं होता है। इसलिए निर्वृत्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्यातक जीवों के तीन प्राण होते हैं।


*प्रश्न १८) एकेन्द्रिय जीवों के आहारादि संज्ञाएँ कैसे सिद्ध होती ईं?*

उत्तर- *आहार संज्ञा* सम्पूर्ण रूप से छाल को उतार देने पर वृक्ष वनस्पति का मरण हो जाता है और जल, वायु आदि के मिलने से वे हरे- भरे हो जाते हैं इसलिए आहार संज्ञा स्पष्ट है।

*भय संज्ञा* स्पर्श कर लेने पर लाजवन्ती आदि वनस्पतियाँ संकुचित हो जाती हैं यह भय संज्ञा है।

*मैथुन संज्ञा* स्त्रियों के कुल्ले के जल से सिंचित होने से कुछ लताएँ आदि हर्षित (पुष्पित) हो जाती हैं तथा स्त्रियों के पैरों के ताड़न से कुछ वनस्पतियों में पुष्प, अंकुर आदि प्रादुर्भूत हो जाते हैं इसलिए मैथुन संज्ञा भी स्पष्ट है।

*परिग्रह संज्ञा* वृक्ष की जड़ें निधान-खजाने आदि की दिशा में फैल जाती हैं इसलिए परिग्रह संज्ञा भी स्पष्ट है ।     *(मू आ. २१७)*

लगभग पूरी बुझी हुई अग्नि भी थोड़ा वायु का झोंका लग जाने पर या रुई आदि अनुकूल ईधन मिलने पर सचेत (पुनर्जीवित हुई) देखी जाती है, इसको उनकी *आहार संज्ञा* कह सकते है।

अग्नि से अग्नि आगे-आगे बढ़ती हुई देख कर *परिग्रह संज्ञा* कही जा सकती है। इसी प्रकार पृथ्वी आदि में भी संज्ञाएँ पाई जाती हैं।

*सिद्धान्त की दृष्टि से वेद कर्म के बन्ध का कारण वेद का उदय कहा गया है। एकेन्द्रिय जीवों के वेद का बन्ध होता है इसलिए उनके  *मैथुनसंज्ञा*  होती ही है, ऐसे ही अपकायिक आदि के उदय के साथ समझना चाहिए।*


*प्रश्न १९) एकेन्द्रिय जीवों के वचनयोग नहीं होता है, फिर उनके मृषानन्दी रौद्रध्यान कैसे हो सकता है?*

उत्तर:-एकेन्द्रिय जीवों के भी स्पर्शन इन्द्रिय के माध्यम से झूठ बोलने में आनन्द की तथा झूठ बोलने वाले की अनुमोदना सम्बन्धी कल्पनाएँ हो सकती हैं।

दूसरी बात, रौद्रध्यान के लिए बोलने की या वचन योग की अतिआवश्यकता भी नहीं है। अत: उनके मृषानन्दी रौद्रध्यान होने में कोई बाधा नहीं है ।


*प्रश्न २०) एकेन्द्रिय जीवों के अपर्याप्त अवस्था में कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?*

उत्तर:- एकेन्द्रिय जीवों के अपर्याप्त अवस्था में छत्तीस (३६) आसव के प्रत्यय होते हैं –

मिथ्यात्व-०५, अविरति-०७, कषाय-२३, योग-०१ (औदारिक मिश्र काययोग)


*प्रश्न २१) एकेन्द्रिय जीवों की बावन (५२) लाख जातियाँ कौन- कौनसी हैं?*

उत्तर-एकेन्द्रिय जीवों की जातियाँ- 

पृथ्वीकायिक ०७ लाख,  जलकायिक ०७ लाख  अग्रिकायिक  ०७ लाख,  वायुकायिक ०७ लाख

नित्यनिगोद   ०७ लाख,   इतर निगोद  ०७ लाख

वनस्पति कायिक १० लाख जातियाँ मिलाकर एकेन्द्रिय जीवों की बावन (५२) लाख जातियाँ है।


*प्रश्न २२) एकेन्द्रिय के कितने कुल हैं?*

उत्तर:-एकेन्द्रिय जीवों के ६६ लाख करोड़ कुल हैं-

पृथ्वीकायिक २२ लाख करोड़ 

जलकायिक  ०७ लाख करोड़

अग्निकायिक ०३ लाख करोड़

वायुकायिक   ०७ लाख करोड़  

वनस्पतिकायिक २८ लाख करोड़ कुल मिलाकर 

सडसठ (६७) लाख करोड़ कुल हो जाते है।

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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

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