Friday, 25 August 2023

✍️भरतक्षेत्र

मध्यलोक मे असंख्यात द्वीप व समुद्र है। सभी द्वीप व समुद्र एक दुसरे को घेरे हुए है। द्वीप समुद्रो के सबसे मध्य में जम्बूद्वीप नामक एक लाख योजन का एक द्वीप है। जम्बूद्वीप के सात क्षेत्रो मे से एक भरतक्षेत्र है जो जम्बूद्वीप की दक्षिण दिशा मे स्थित हैं। यह भरत क्षेत्र लवण समुद्र और हिमवान पर्वत के मध्य स्थित है। 100 योजन ऊँचे हिमवान पर्वत के ऊपर स्थित पदम सरोवर से निकलने वाली गंगा, सिंधु नदी और विजयार्ध पर्वत के कारण भरत क्षेत्र के छह भाग हो जाते है जिसमे पाँच म्लेच्छ तथा एक आर्य खण्ड है। इस आर्य खण्ड क्षेत्र से ही अघातिया कर्मो के क्षय से मोक्ष प्राप्त होता है। आर्य खण्ड मे ही वृद्धि और ह्रास के द्वारा षटकाल परिवर्तन होता रहता है।

✍️गंगा-सिंधु नदी
हिमवान पर्वत के पदम सरोवर से तीन नदी गंगा, सिंधु, रोहितास्या निकलती है। इनमे से गंगा-सिंधु नदी भरत क्षेत्र मे बहती है। गंगा व सिंधु नदी पदम सरोवर से 500 योजन बहने के बाद गंगा व सिंधु कुट से आधा योजन पहले अर्ध परिकर्मा करती हुई दक्षिण की ओर मुड़कर 523–28/152 योजन आकर हिमवान पर्वत के दक्षिण तट की और बहती हुई जिव्हिका प्रणालिका को प्राप्त होती है।

✍️वृषभांचल पर्वत
भरत क्षेत्र के उत्तर मे जो म्लेच्छ खण्ड है उसके बहुमध्य भाग में रत्नों से निर्मित वृषभगिरि पर्वत है। इस पर ही चक्रवर्ती अपनी विजय प्रशस्ति लिखने के लिए जाते है। पर्वत अतीत काल के चक्रवर्तीयो के नामो से भरा हुआ है। पर्वत 100 योजन ऊँचा, मूल में 100 योजन, मध्य में 75 योजन, शिखर 50 योजन विस्तृत है। इस पर्वत पर  वृषभ नाम का देव  अपने परिवार सहित रहता है जिसके भवन में अनादिनिधन जिनमंदिर है। वृषभदेव के रहने के कारण इसका नाम वृषभगिरी भी पर्वत भी है।

✍️जिव्हिका प्रणालिका
जिव्हिका प्रणालिका दो कोस लम्बी, दो कोस ऊँची और सवा छ्ह योजन चौडी वृषभाकार अर्थात गोमुखाकार है। इस प्रणालिका के मुख, कान जीभ, नेत्र का आकार सिंह के समान और भौहे मस्तक आदि आकार गाय के समान है इसीलिये रत्नमय जिव्हिका को ‘वृषभ’ कहते हैं। यहा से दोनो नदियाँ बहती हुई गंगा सिंधु कुण्ड को प्राप्त होती है।

✍️गंगा-सिंधु कुण्ड
गंगा-सिंधु नदी जिव्हिका प्रणालिका से निकलकर हिमवान पर्वत से नीचे गिरती है। यह हिमवान को 25 योजन दूर छोडकर 10 योजन चौडी होकर गंगा सिंधु कुण्ड मे स्थित जिनेन्द्र प्रतिमा के मस्तक पर गिरती है मानो अभिषेक ही कर रही हो।  यह कुण्ड 60 योजन व्यास 10 योजन गहरा गोल है। इसके मध्य मे जल से आधा योजन ऊँचा और 8 योजन चौडा एक गोल टापू, जिस पर 10 योजन ऊँचा वज्रमय पर्वत है। इसी पर्वत के ऊपर कमलासन पर जिनेन्द्र प्रतिमा पदमासन से स्थित हैं।

✍️विजयार्ध पर्वत की गुफा
गंगा-सिंधु नदी कुण्डो से निकलकर दक्षिण की ओर बहती हुई 08 योजन चौडी होकर विजयार्ध पर्वत की गुफा में प्रवेश करती है। गंगा नदी खण्डप्रपात मे सिंधु नदी तिमिस्र गुफा मे प्रवेश करती है। दोनो गुफाए की ऊँचाई 08 योजन, चौडाई 12 योजन और लम्बाई 50 योजन है। इसी प्रकार गुफा द्वार की ऊँचाई 08 योजन और चौडाई 12 योजन है।

✍️उन्मगना और निमग्ना नदी
दोनो गुफाओ के मध्य मे अर्थात 25 योजन पर पूर्व और पश्चिम मे दो कुण्ड है। इन कुण्डो से निकलने वाली नदी उन्मगना और निमग्ना है जो दो दो योजन चौडी होकर बहते हुए गंगा और सिंधु नदी मे मिल जाती है। उन्मग्ना नदी का स्वभाव है कि यह अपने जल प्रवाह मे गिरे हुए भारी से भारी द्रव्य को ऊपर ले आती है एवं निमग्ना नदी हल्के से हल्के द्रव्य को नीचे ले जाती है। गुफा से निकलते हुए नदी का विस्तार 8 योजन होता है।

✍️अयोध्या (विनीता) नगरी
भरत क्षेत्र के छह खण्डो मे एक आर्यखण्ड है। इसकी उत्तर-दक्षिण लम्बाई 238–03/19 योजन है। इस आर्यखण्ड मे लवण समुद्र से उत्तर और गंगा-सिंधु नदियों के मध्य भाग में 12 योजन लंबी 09 योजन चौड़ी अयोध्या नगरी है जिसे विनीता नगरी भी कहते है। इसी अयोध्या नगरी मे प्रथम चक्रवर्ती भरत जी हुए थे जिसके नाम से इस क्षेत्र का नाम भरतवर्ष पड़ा है।

✍️गंगा-सिंधु का लवण मे मिलना
गुफा से निकलकर दोनो नदी दक्षिण की ओर बहती हुई गंगा नदी पूर्व और सिंधु नदी पश्चिम की ओर मुड जाती है। वहा पर म्लेच्छ खण्डो मे बहने वाली अपनी अपनी 14 -14 हजार परिवार नदियो को लेकर साढे बासठ (62–01/02)योजन विस्तार के साथ गंगा नदी मागध द्वार से और सिंधु नदी प्रभास द्वार से  लवण समुद्र मे समा जाती है।

✍️भरत क्षेत्र का विस्तार
यह जम्बूद्वीप का 190 वा भाग है अर्थात 526 पूर्णाकं 06/19 योजन है। यह भरत क्षेत्र की उत्तर से दक्षिण चौडाई है। भरत क्षेत्र पूर्व से पश्चिम मे 14471 पूर्णांक 05/19 योजन है। इसकी जगती 08 योजन ऊँची, मूल मे 12 योजन चौड़ी घटते घटते ऊपर में 04 योजन चौड़ी होती है। इसकी दाक्षिण दिशा में लवण समुद्र मे जिन प्रतिमओ से युक्त एक राक्षसद्वीप है।*
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
          ।। जिनवाणी माता की जय।।
         ।। आचार्य भारतभूषणाय नम:।।
 

Monday, 21 August 2023

✍️कुलकर

कुलकर उन बुद्धिमान लोगों को कहते है जो लोगों को जीवन निर्वाह के श्रमसाध्य को करना सिखाते है। आर्य पुरुषों को कुल की भाँति इकट्ठे रहने का उपदेश देने से कुलकर कहलाते है। प्रजा के जीवन का उपाय जानने से मनु तथा युग के आदि में होने से युगादि पुरुष भी कहे जाते है।
अवसर्पिणी के तृतीय काल में पल्य का आठवा भाग शेष रहने पर कुलकर उत्पन्न होते है। ये सभी विदेह क्षेत्र मे सत्पात्र दान से मनुष्यायु बंध कर क्षायिक होकर कुलकर बनकर उत्पन्न हुए। ये जाति स्मरण और अवधिज्ञान सहित थे। अभी हम अवसर्पिणी काल मे हुए 14 कुलकरो के बारे मे जानेगे।

◆01) प्रतिश्रुति कुलकर की ऊँचाई 1800 धनुष, आयु पल्य का दसवा भाग, वर्ण स्वर्ण था 
भोगभूमि के अंत मे जब ज्योतिरांग कल्पवृक्ष का प्रकाश कम होने लगा। सूर्य चन्द्र दिखने से लोगो के मन मे उत्पन्न भय को दूर करने वाले प्रतिश्रुति जी थे

◆02) सन्मति कुलकर की ऊँचाई 1300 धनुष आयु पल्य का सौवा भाग वर्ण स्वर्ण था।
कुछ काल बाद दिपांग कल्पवृक्षो का भी प्रकाश कम होने लगा था। तब सूर्य चन्द्र के साथ तारे भी दिखाई देने से लोगो के मन मे उत्पन्न भय का निवारण सन्मति जी ने किया ।

◆03) क्षेमंकर कुलकर की ऊँचाई 800 धनुष आयु पल्य का हजार वा भाग वर्ण स्वर्ण था।  
कुछ काल बाद पशु क्रुर होने लगे उनके उत्पन्न शब्दो को सुनकर प्रजा मे उत्पन्न भय का निवारण क्षेमंकर कुलकर ने किया। इन्होने घरेलू और जंगली जानवरो का अंतर भी बताया ।

◆04) क्षेमंधर कुलकर की ऊँचाई 775 धनुष आयु पल्य का दस हजार वा भाग स्वर्ण वर्ण था ।
आगे चलकर पशु ओर भी क्रुर होने लगे, उत्पात मचाने लगे, मनुष्यो को भी परेशान करने लगे। क्षेमंधर जी ने जानवरो को भगाने के लिए लकडी, पत्थर आदि के हथियार उपयोग करके उन्हे भगाना सिखाया ।

◆05) सीमंकर कुलकर की ऊँचाई 750 धनुष, आयु पल्य का एक लाख वा भाग, वर्ण स्वर्ण था।
इस समय तक कल्पवृक्ष और उनके द्वारा मिलने वाले फल अल्प होने लगे जिससे लोगो मे झगड़ा होने लगा। यह देखकर सीमंकर जी ने वचनो से कल्पवृक्षो की सीमा निर्धारित की, सीमा निर्धारण के कारण ही सीमंकर नाम पड गया।

◆06) सीमंधर कुलकर की ऊँचाई 725 धनुष, आयु पल्य का दस लाख वा भाग, वर्ण स्वर्ण था।
कुछ समय बाद कल्पवृक्षो की वचनो द्वारा सीमा के बाद भी लोगों मे तीव्र झगडे होने लगे। सीमंधर जी ने झाडी आदि चिन्हो के द्वारा कल्पवृक्षो के स्वामित्व का निर्धारण कर दिया।

◆07) विमलवाहन कुलकर की ऊँचाई 700 धनुष, आयु पल्य का एक करोड वा भाग, वर्ण स्वर्ण था  
इन्होने घरेलू जानवरो घोडे, हाथी, गाय आदि की सेवाए कैसे ली जाए यह बताया।

◆08) चक्षुष्मान कुलकर की ऊँचाई 675 धनुष, आयु पल्य का दस करोड वा भाग, वर्ण श्याम था  
चक्षुष्मान जी से पहले संतान उत्पन्न होते ही माता पिता की मृत्यु होती थी। इनके समय में संतान की उत्पत्ती के कुछ क्षण भर बाद माता-पिता का मरण होने लगा। संतान का मुख देखने से उत्पन्न भय का निवारण करने के कारण चक्षुष्मान कहलाए।

◆09) यशस्वी कुलकर की ऊँचाई 650 धनुष, आयु पल्य का सौ करोड वा भाग, वर्ण श्याम था 
इनके समय माता-पिता कुछ अधिक समय तक जीवित रहने लगे। माता-पिता द्वारा संतान को आशीर्वाद देने, नाम संस्कार आदि की शिक्षा देने से यशस्वी जी कहलाए। 

◆10)अभिचन्द्र कुलकर की ऊँचाई 625 धनुष, आयु पल्य का एक हजार करोड भाग वर्ण श्याम था 
पुत्र उत्पत्ति के कुछ दिनो बाद तक माता पिता जीवित रहने लगे। अभिचन्द्र कुलकर ने माता-पिता द्वारा बालको को चन्द्रादि दिखाकर क्रीड़ा कराने की शिक्षा दी जिससे वे अभिचन्द्र जी कहलाए।

◆11) चंद्राभ कुलकर के ऊँचाई 600 धनुष, आयु पल्य का दस हजार करोड वा भाग, वर्ण धवल था  
पुत्र उत्पत्ती के बहुत काल तक माता-पिता जीवित रहने, शीत वायु चलने लगी थी। चंद्राभ जी ने शीत वायु के भय का निवारण सुर्य की किरणों द्वारा करने की शिक्षा दी।

◆12) मरुदेव कुलकर की ऊँचाई 575 धनुष, आयु पल्य का एक लाख करोड वा भाग, वर्ण स्वर्ण था  
इस समय तक मेघ, वर्षा, नदी, पर्वत, बिजली आदि भी दिखने लगे थे। मरुदेव जी ने नदी पार करने के लिए नाव व छातो की प्रयोग विधि तथा पर्वतादि पर चढने की शिक्षा दी।

◆13) प्रसेनजित कुलकर की ऊँचाई 550 धनुष, आयु पल्य का दस लाख करोड भाग धवल वर्ण था  
प्रसेन अर्थात झिल्ली (जरायु पटल) इस समय तक संतान झिल्ली में एक-एक करके पैदा होने लगी थी। इससे पहले संतान झिल्ली में लिपटे नही होती थी। प्रसेनजित जी ने ही झिल्ली को छेदने का उपाय बतया।  सबसे पहले अकेले नाभिराय जी ही उत्पन्न हुए थे।

◆14) नाभिराय कुलकर के शरीर की ऊँचाई 525 धनुष, आयु एक पूर्व कोटी और वर्ण स्वर्ण था  
कल्पवृक्षो का अत्यन्त अभाव होने से कौन सा फल औषधी रुप, कौन सा फल भोजन योग्य है इसका उपदेश नाभिराय जी ने दिया। उत्पन्न संतान की नाभी के नाल को छेदने का उपाय बताने के कारण नाभिराय कहलाए।
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️
● बाद मे ऋषभदेव तीर्थंकर हुए उनको भी उपचार से कुलकर माना जाता है। इन्होंने नगर ग्राम आदि की रचना करना बताया, लौकिक शास्त्र सिखाया, असि मसि आदि षट शिक्षाओ का उपदेश दिया, दया प्रधान धर्म की स्थापना की।
● भरत जी ने वर्ण व्यवस्था की स्थापना की, ये भी उपचार से कुलकर माने जाते है।

👉दण्ड व्यवस्था
प्रारम्भ के पाँच कुलकरो के समय हा कहकर दण्ड दिया जाता था, 6 से 10 वे कुलकर के समय  हा मा  कहकर दण्ड दिया जाता था। 11 से 14 वे कुलकर मे  हा मा धिक  कहकर दण्ड देने की व्यवस्था थी

✍️भविष्यकालीन कुलकर
भविष्य में उत्सर्पिणी के दु:षमा दूसरे काल के अंत: मे 1000 वर्ष बाकी रहने पर इसी प्रकार सोलह युगादिपुरुष होंगे –
कनक, कनकप्रभ, कनकराज,  कनकध्वज, कनकपुंगव, नलिन, नलिनप्रभ, नलिनराज, नलिनध्वज, नलिनपुंगव, पदम, पदमप्रभ, पदमराज, पदमध्वज, पद्मपुंगव, महापदम
 
●विशेष:- त्रिलोकसार जी गाथा 871 मे सोलह  कुलकर का तथा तिलोयपण्णत्ति मे चौदह कुलकर का वर्णन है। पदम और महापदम ये दो कुलकर का वर्णन त्रिलोकसार जी मे ज्यादा है।
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦

।। जिनवाणी माता की जय ।।
।। आचार्य भारतभूषणाय नम : ।।


 

Friday, 18 August 2023

✍️कल्पवृक्ष


भोगभूमि में मनुष्यों की संपूर्ण आवश्यकताओं को चिंता मात्र से पूरी करने वाले वृक्षो को कल्पवृक्ष कहते है। कल्पवृक्षो के द्वारा ही भोगभूमि के जीवो को मनवांछित फल प्राप्त होते है। भोग भूमियों में जन्मे युगल कल्पवृक्षो द्वारा दी गई वस्तुओं का भोग भोगते है। युगलिक काल में जीव वस्त्र-आभरण, अन्न पान एवं आवासादी की आपूर्तियाँ कल्पवृक्ष ही करते है। आज भी कल्पवृक्ष का अस्तित्व मेरु पर्वत, देव कुरु, उत्तर कुरु अवं अन्य युगलिक क्षेत्रो में है।

भरतक्षेत्र के आर्यखंड में अवसर्पिणी काल के प्रथम तीन काल तथा उत्सर्पिणी के अंतिम तीन कालो मे सभी कल्पवृक्ष विद्यमान होते है। कल्पवृक्ष ना वनस्पतिकायिक होते हैं और न देवों द्वारा अधिष्ठित वृक्ष, ये वृक्षाकार रूप में पृथ्वी के सार स्वरूप सामान्य वृक्षों की भाँति पृथ्वीकायिक होते है। और जीवो को उसके पुण्य के अनुसार इष्ट फल प्रदान करते है। ये दस प्रकार के होते है— 
तूर्यांग (वाद्यांग), पानांग (मद्यांग), भूषणांग,  वस्त्रांग, भोजनांग (आहारंग),  आलयांग (गृहांग),  दीपांग, भाजनांग (पात्रांग), मालांग (पुष्पांग) और तेजांग (ज्योतिरांग) दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं।
*(त्रिलोकसार ७८७, तिलोयण्णत्ती ०४/३४२)*
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️

✍️ तूर्यांग (वाद्यांग) कल्पवृक्ष
वाद यंत्र, तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम वीणा, पटु, पटह, मृदंग, झालर, शंख, दुंदुभि, भंभा, भेरी और काहल इत्यादि भिन्न-भिन्न प्रकार के वाद्ययंत्रों आदि संगीतमय सामग्री को देते हैं।

✍️ भाजनांग (पात्रांग) कल्पवृक्ष
भाजनांग जाति के कल्पवृक्ष सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित कलश, झारी, गागर, चामर आदि बर्तन देते है। अर्थात घर मे प्रयोग होने वाले बर्तनो को देते है।

✍️ भूषणांग कल्पवृक्ष
 इससे अलंकार प्राप्त होते है। भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष कंगन, कटिसूत्र, हार, केयूर, मंजीर, कटक, कुंडल, किरीट और मुकुट इत्यादि आभूषणों को प्रदान करते हैं। भोगभूमि की स्त्रीयाँ चौदह और पुरुष सोलह प्रकार के आभूषण धारण करते है।

✍️ पानांग (मद्यांग) कल्पवृक्ष
पानांग जाति के कल्पवृक्ष भोगभूमिजों को मधुर, सुस्वादु, छह रसों से युक्त, प्रशस्त, अतिशीत और तुष्टि एवं पुष्टि को करने वाले, ऐसे 33 प्रकार के पेय द्रव्य को दिया करते हैं। इसी का अपर नाम मद्यांग कल्पवृक्ष भी है।

✍️ भोजनांग (आहारंग) कल्पवृक्ष
भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष 16 प्रकार का आहार, 16 प्रकार के व्यंजन, 14 प्रकार के सूप अर्थात दाल आदि, 108 प्रकार के खाद्य पदार्थ, 363 प्रकार के स्वाद्य पदार्थ और 63 प्रकार के रस भेदों को पृथक पृथक दिया करते हैं।

✍️ मालांग (पुष्पांग) कल्पवृक्ष
मालांग जाति के कल्पवृक्ष वल्ली, तरु, गुच्छ और लताओं से उत्पन्न हुए 16000 भेद रूप पुष्पों की विविध मालाओ को देते हैं।


✍️ तेजांग (ज्योतिरांग) कल्पवृक्ष 
तेजांग जाति के कल्पवृक्ष करोड़ों सूर्यों की किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, चंद्र और सूर्यादिक की कांति का संहरण करते हैं। इनके वृक्षो के प्रकाश के कारण ही भोगभूमि मे कभी अंधेरा नही होता, रात नही होती है।

✍️ आलयांग (गृहांग) कल्पवृक्ष 
आलयांग जाति के कल्पवृक्ष, स्वस्तिक, नंद्यावर्त इत्यादिक 16 प्रकार के रमणीय दिव्य भवन दिया करते हैं।

✍️ वस्त्रांग कल्पवृक्ष
वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम क्षौमादि वस्त्र तथा अन्य मन और नयनों को आनंदित करने वाले नाना प्रकार के वस्त्रादि देते है। सभी जीवो को अपने अपने नाप के वस्त्र मिलतें है। 

✍️ दीपांग कल्पवृक्ष
दीपांग जाति के कल्पवृक्ष प्रासादों में शाखा, प्रवाल, कपोल, फल, फूल, पत्र और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश देते हैं।

♨️विशेष-
◆ दीपांग और तेजांग मे अंतर– तेजांग का प्रकाश तो सूर्य चन्द्र आदि जैसा प्रकाश होता है तथा दीपांग मे दीपको जैसा सुनहारी प्रकाश होता है।  
◆पानांग और मद्यांग का एक ही होना–
पानांग जाति के कल्पवृक्ष को मद्यांग भी कहते हैं। ये वृक्ष फैलती हुई सुगंधी से युक्त तथा अमृत के समान मीठे मधु-मैरेय, सीधु, अरिष्ट और आसव आदि अनेक प्रकार के रस देते हैं। कामोद्दीपन की समानता होने से शीघ्र ही इन मधु आदि को उपचार से मद्य कहते हैं। वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं। मद्यपायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह नशा करने वाला और अंतःकरण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है।
*(महापुराण ०९/३९-४८)*
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
   ।। जिनवाणी माता की जय ।।
।। आचार्य भारतभूषणाय नम : ।।


Monday, 14 August 2023

जम्बूद्वीप की नदिया ।। jambudeep ki nadiya

जम्बूद्वीप के भरत आदि सातो क्षेत्रो मे गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा,  नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रुपकूला, रक्ता-रक्तोदा ये 14 महानदियाँ बहती है। ये सभी नदियाँ छहो कुलाचलों पर स्थित सरोवरो से निकलकर सातो क्षेत्रो मे बहती हुई लवण समुद्र मे समा जाती है। इन सभी युगल नदियो मे पूर्व वाली नदी पूर्व लवण समुद्र मे और शेष सात नदियाँ पश्चिम लवण समुद्र की और जाती है।
जम्बूद्वीप मे इन 14 महानदियो सहित कुल 90 महानदियाँ होती है। इन सभी 90 महानदियो की सत्रह लाख बानवे हजार परिवार नदियाँ होती हैं जिसका वर्णन अब हम सभी आगे जानेगे

*✍️सरोवर से निकलने वाली नदी के नाम*
पदम सरोवर से             गंगा-सिंधु-रोहितास्या
महापदम सरोवर से       रोहित-हरिकान्ता
तिगिंच्छ सरोवर से         हरि-सीतोदा
केसरी सरोवर से           सीता-नरकांता
महापुण्डरिक सरोवर से  नारी-रुपयकूला
पुण्डरिक सरोवर से       सुवर्णकूला-रक्ता-रक्तोदा
नदिया निकलती है। इस प्रकार पहले और छ्ठे सरोवर से तीन-तीन नदी, बीच के चार सरोवरो से दो-दो नदी निकलती है। ये सभी नदियाँ सरोवर से निकलने से लेकर लवण समुद्र मे गिरने तक दस गुणा चौडी हो जाती है।

*✍️परिवार नदियाँ और विस्तार*
◆ गंगा-सिंधु रक्ता-रक्तोदा नदी के परिवार मे पृथक पृथक चौदह चौदह हजार नदियाँ होती है। ये मूल मे सवा छह योजन चौडी होकर निकलती है तथा लवण मे पहुचते समय साढे बासठ योजन चौडी होकर समा जाती है। 

◆ रोहित-रोहितास्या, सुवर्णकूला-रुपकूला नदी के परिवार मे पृथक-पृथक अठ्ठाईस अठ्ठाईस हजार नदियाँ होती है। ये मूल मे साढे बारह योजन चौडी होकर निकलती है तथा लवण मे पहुचते समय एक सौ पच्चीस योजन चौडी होकर समा जाती है।

◆ हरित-हरिकान्ता, नारी-नरकान्ता नदी के परिवार मे पृथक पृथक छप्पन छप्पन हजार नदिया होती है। ये मूल मे पच्चीस योजन चौडी होकर निकलती है तथा लवण मे पहुचते समय दो सौ पचास योजन चौडी होकर समा जाती है।

◆ सीता-सीतोदा नदी के परिवार मे पृथक-पृथक चौरासी चौरासी हजार नदिया होती है। ये मूल मे पचास योजन चौडी होकर निकलती है तथा लवण मे पहुचते समय पाँच सौ योजन चौडी होकर समा जाती है।

👉यहा इतना विशेष ध्यान देने योग्य है कि क्रमशः दुगनी-दुगनी के अनुसार सीता-सीतोदा नदी की पृथक-पृथक संख्या एक लाख बारह हजार होती है परन्तु त्रिलोकसार आदि आगम मे इनकी संख्या चौरासी चौरासी हजार प्राप्त हुई है अर्थात हरित हरिकान्ता नदी की अपेक्षा डेढ गुनी संख्या है, दुगनी नही।
इस प्रकार 14 महानदियाँ की परिवार नदियो की संख्या पाँच लाख साठ हजार हो जाती है। भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्र में बहने वाली नदियो की परिवार नदियाँ वहा के मल्लेच्छ खण्ड मे बहती है।

*✍️विदेह नगरियों की परिवार नदियाँ*
विदेह की प्रत्येक नगरी मे भरत ऐरावत के समान गंगा-सिंधु या रक्ता-रक्तोदा– ये दो-दो नदी निकलती है। इसमे नील पर्वत संबंधी दक्षिणी भाग के निचे के कुण्डो से गंगा-सिंधु नामक बत्तीस नदियाँ व निषध पर्वत संबंधी उत्तरी भाग के कुण्डो से रक्ता-रक्तोदा बत्तीस नदियाँ निकलती है। इस प्रकार 32 विदेह नगरी संबंधी 64 महानदियाँ है। इन सभी 64 महानदियो की चौदह चौदह हजार परिवार नदिया है। इस प्रकार से विदेह की 64 महानदियो की आठ लाख छियानवे हजार नदियाँ हो जाती हैं।

✍️इसके अतिरिक्त बत्तीस विदेह नगरी के मध्य 12 विभंगा नदिया भी है। सभी विभंग नदी पृथक पृथक 28000 नदियो से घिरी होने के कारण कुल तीन लाख छत्तीस हजार नदियाँ हो जाती है।

*✍️जम्बूद्वीप कि सभी नदियो का जोड।
इस प्रकार जम्बूद्वीप संबंधी 6 कुलाचलो से 14 महानदियाँ, 32 विदेह नगरी से 64 महानदियाँ, तथा 12 विभंगा नदिया निकलने से कुल 90  महानदियाँ हो जाती है।
14 महानदियाँ की पाँच लाख साठ हजार नदियाँ
64 महानदी की आठ लाख छियानवे हजार नदियाँ
12 विभंगनदी की तीन लाख छत्तीस हजार नदियाँ
इस प्रकार जम्बूद्वीप की सभी 90 महानदियो की परिवार नदियो का जोड कुल सत्रह लाख बानवे हजार नदियॉ हो जाती है।
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️

*जम्बूद्वीप की नदियाँ*
गंगा---------------१४०००
सिंधु---------------१४०००
रोहित-------------२८०००
रोहितास्या---------२८०००
हरित---------------५६०००
हरिकान्ता----------५६०००
सीता---------------८४०००
सीतोदा-------------८४०००
नारी----------------५६०००
नरकान्ता-----------५६०००
सुवर्णकुला----------२८०००
रुपयकुला-----------२८०००
रक्ता-----------------१४०००
रक्तोदा---------------१४०००
विभंग नदी----२८०००×१२ 
                           =३३६००० 
विदेह की नदी---१४०००×६४
                           = ८९६०००
मूल नदी--------------------९०
*(१४+१२+६४=९०)*
*जम्बूद्वीप की कुल नदी-१७९२०९०*
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
*।। जिनवाणी माता की जय ।।*
*।। आचार्य भारतभूषनाय नमः।।*



Friday, 11 August 2023

जम्बूद्वीप (कुलाचल और क्षेत्र)


मध्यलोक के असंख्यात द्वीप समुद्र के बीचोंबीच में जंबूद्वीप स्थित है। यह एक लाख योजन लम्बा चौडा थाली के समान आकार वाला गोल द्वीप है। इसकी जगती 8 योजन ऊँची, नीचे 12 योजन चौड़ी घटते घटते ऊपर में 4 योजन चौड़ी रह गई। इसके मध्य नाभी के समान मेरु पर्वत है। यहा छह कुलाचल पर्वत है जिनके कारण जम्बूद्वीप के सात क्षेत्र हुये। कुलाचलो पर पदम-महापदम आदि छह सरोवर है जिसमे श्री ह्रीं आदि देवी का निवास है। सरोवर से गंगा सिंधु आदि 14 महानदियाँ निकलती है।

🔥कुलाचल पर्वत*
छहो कुलाचलो से जम्बूद्वीप के सात क्षेत्र बनते है। ये कुलाचल क्षेत्र यानि वर्ष को बाटने से वर्षधर भी कहलाते है। इनका आकार पूर्व से पश्चिम तक ऊपर नीचे व मूल मे एक जैसी लम्बी दीवार की भांति है तथा आजू-बाजू मे विचित्र मणियो से जडे हुए है। इनका नाम क्रम से–हिमवन, महाहिमवन, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी कुलाचल है।

✍️हिमवान कुलाचल
यह स्वर्ण वर्ण के समान है। यह 100 योजन ऊँचा 25 योजन नीव तथा 1052 सही 12 बटा 19 योजन चौडा है। इस पर 11 कूट है। इस पर स्थित पदम सरोवर मे श्री देवी अपने परिवार के साथ निवास करती है।

✍️महाहिमवान कुलाचल
यह रजत वर्ण के समान है। यह 200 योजन ऊँचा, 50 योजन नीव तथा 4210 सही 10 बटा 19 योजन चौडा है। इस पर 8 कूट हैं। इस पर स्थित महापदम सरोवर मे ह्री देवी अपने परिवार के साथ निवास करती है।

✍️निषध कुलाचल
यह तपाए हुए सोने के वर्ण के समान है। यह 400 योजन ऊँचा, 100 योजन नीव तथा 16842 सही 3 बटा 19 योजन चौडा है। इस पर 9 कूट है। इस पर स्थित तिगिंछ सरोवर मे धृति देवी अपने परिवार के साथ निवास करती है।

✍️नील कुलाचल*
यह नीलमणी के वर्ण समान है। यह 400 योजन ऊँचा, 100 योजन नीव तथा 16842 सही 3 बटा 19 योजन चौडा है। इस पर 9 कूट है। इस पर स्थित केसरी सरोवर मे कीर्ति देवी अपने परिवार के साथ निवास करती है।

✍️रुक्मी कुलाचल*
यह रजत वर्ण के समान है। यह 200 योजन ऊँचा, 50 योजन नीव तथा 4210 सही 10 बटा 19 योजन चौडा है। इस पर 8 कूट हैं। इस पर स्थित महापुण्डरीक सरोवर मे बुद्धि देवी अपने परिवार के साथ निवास करती हैं।

✍️शिखरी पर्वत
यह स्वर्ण वर्ण के समान है। यह 100 योजन ऊँचा 25 योजन नीव तथा 1052 सही 12 बटा 19 योजन चौडा है। इस पर 11 कूट है। इस पर स्थित पुण्डरीक सरोवर मे लक्ष्मी देवी अपने परिवार के साथ निवास करती हैं।

*🔥सातो क्षेत्रों का वर्णन*
जम्बूद्वीप के सात क्षेत्र–भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हरण्यवत और ऐरावत क्षेत्र है। दक्षिण से उत्तर कि ओर पहला भरत और सातवां ऐरावत क्षेत्र है जहां के आर्यखण्डों में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप छह-छह कालों का चक्र चलता रहता है। दूसरे हैमवत और छठे हैरण्यवत क्षेत्र में हमेशा ही जघन्य भोगभूमि पायी जाती है। तीसरे हरिक्षेत्र और पांचवें रम्यक क्षेत्र में हमेशा ही मध्यम भोगभूमि पायी जाती है चौथा विदेह क्षेत्र है जिसके मध्य में सुमेरु पर्वत है, उसके चारों ओर भद्रशाल वन है, वन के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर मे उत्तरकुरु है, यहा हमेशा उत्कृष्ठ भोगभूमि पायी जाती है तथा पूर्व और पश्चिम में कर्मभूमि अवस्थित है।

✍️भरत और ऐरावत क्षेत्र
भरत और ऐरावत क्षेत्र का उत्तर दक्षिण विस्तार 526 सही 6 बटा 19 योजन है। इसके मध्य पूर्व पश्चिम लम्बा विजयार्ध पर्वत है। यहा पाँच म्लेच्छ एक आर्य कुल छ्ह खण्ड है। यहा आर्यखण्ड मे छहो कालो का परिवर्तन होता है, कभी भोगभूमि कभी कर्मभूमि आ जाती है। छठे काल के बाद उलटे क्रम से उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ होता है।
यहा अवसर्पिणी मे पहला सुषमा-सुषमा, दूसरा सुषमा, तीसरा सुषमा-दुषमा, चौथा दुषमा-सुषमा, पांचवां दुषमा और छठवां दुषमा-दुषमा काल है। सुषमा को सुखमा और दुषमा को दुखमा भी कहते हैं। चौथे काल से कर्मभूमि शुरु होती है और हमेशा ही जीव मोक्ष जाते हैं।

✍️हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र
यहा सुषमा-दुषमा जघन्य भोगभूमि है इसका उत्तर दक्षिण विस्तार 2015 सही 5 बटा 19 योजन है।

✍️हरिक्षेत्र और रम्यक क्षेत्र
यहा सुषमा काल मध्यम भोगभूमि है। इसका उत्तर दक्षिण विस्तार 8421 सही 1 बटा 19 योजन है।

✍️विदेह क्षेत्र
उत्कृष्ठ भोगभूमि और 32 कर्मभूमि नगरी है। इसका उत्तर दक्षिण विस्तार 33684 सही 4 बटा 19 योजन है। यह क्षेत्र चार भागो मे विभाजित है–पूर्व विदेह, अपर विदेह, उत्तरकुरु, देवकुरु  
पूर्व विदेह तथा अपर विदेह मे तो कर्मभूमि है जहाँ सदा दुषमा-सुषमा काल रहता है। इसमे 32 नगरी है। प्रत्येक नगरी मे पाँच म्लेच्छ खण्ड और एक आर्यखण्ड होता हैं, उत्तरकुरु और देवकुरु सुषमा सुषमा काल मे उत्कृष्ठ भोगभूमि है। यहा चार गजदंत पर्वत है, शाश्वत जम्बूवृक्ष और शाल्मली वृक्ष स्थित है
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
  ।।जिनवाणी माता की जय।।
।।आचार्य भारतभूषणाय नमः।।

Sunday, 6 August 2023

विजयार्ध पर्वत का वर्णन

जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के बहुमध्य भाग मे नाना प्रकार के उत्तम रत्नो से रमणीय रजतमय पूर्व से पश्चिम लम्बा एक पर्वत स्थित है जिसे विजयार्ध पर्वत कहते है। यह दोनो कोणो से लवण समुद्र को स्पर्श कर रहा है, इसका दूसरा नाम रजताचल पर्वत भी है। इस पर्वत का वर्ण चाँदी के समान है।

*✍️इसका नाम विजयार्ध क्यो*
चक्रवर्ती जब छ्ह खण्डो को जीतने के लिए जाता है उस समय चक्रवर्ती के विजय क्षेत्र की आधी सीमा को चिहिंत करने से इस पर्वत का नाम विजयार्ध है। इस पर्वत का विद्याधरो के साथ सदा ही संसर्ग रहता है और गंगा -सिंधु नाम की दोनो नदियाँ उसके नीचे से होकर बहती है और अन्य कुलाचलो को भी जीत लिया इसी कारण से वह विजयार्ध सार्थक नाम को धारण कर रहा है।
पूरे जम्बूद्वीप मे चौतीस विजयार्ध पर्वत है (एक भरतक्षेत्र मे एक ऐरावत में बत्तीस विदेह नगरीयों मे) यहा भरत और ऐरावत के विजयार्ध के दक्षिण और उत्तर दिशा की दोनो श्रेणीयो मे एक सौ दस नगरिया है।
*✍️विजयार्ध का विस्तार* 
विजयार्ध की चौडाई पचास योजन (200000 मील), ऊँचाई पच्चीस योजन (100000 मील) एवं नीव सवा छ्ह योजन है। 
विजयार्ध पर्वत की लम्बाई दक्षिण की ओर 9748 
– 12/19 योजन तथा उत्तर दिशा कि और 10727–11/19 योजन है।
इसमे खण्डप्रपात और तिमिस्र नामक दो गुफाए है, इन्ही गुफाओ से चक्रवर्ती शेष तीन खण्डो को विजय प्राप्त करने के लिए जाता है। 
*✍️गुफाओ का विस्तार* 
विजयार्ध पर्वत पर स्थित खण्डप्रपात एवं तमिस्र गुफाए उत्तर-दक्षिण मे पचास योजन लंबी, पूर्व पश्चिम मे बारह योजन चौड़ी व आठ योजन ऊँची है।इसके दरवाजे भी आठ योजन ऊँचे है। इन्ही दरवाजो से चक्रवर्ती भरतक्षेत्र के उत्तर मे विजय के लिए जाता है। इन्ही गुफाओ के दरवाजो की दहलीज से गंगा व सिंधु नदी प्रवेश करती व निकलती है। खण्डप्रपात गुफा से गंगा नदी, तिमिस्र गुफा से सिंधु नदी का प्रवेश होता है।
*✍️उनमग्नजला व निमग्नजला नदी का वर्णन* 
खण्डप्रपात व तिमिस्र गुफा मे पूर्व तथा पश्चिम मे दो-दो कुण्ड है। पूर्व कुण्ड उन्मग्ना नदी,पश्चिम कुण्ड निमग्ना नदी का है। उनमग्नजला व निमग्नजला नदी दोनो गुफाओ में है। ये दोनो नदी अपने कुण्ड से दो-दो योजन चौडी होकर सीधी बहते हुए गुफा के भीतर ही गंगा व सिंघु नदी मे मिल जाती है। उन्मग्ना नदी का स्वभाव है कि वह अपने जल के प्रवाह मे गिरे हुए भारी से भारी द्रव्य को ऊपर ले आती है, तथा निमग्ना नदी का स्वभाव है कि वह अपने जल के प्रवाह मे गिरे हल्के से हल्के द्रव्य को नीचे ले जाती है।
*✍️विजयार्ध पर कौन-कौन रहता हैै*
विजयार्ध पर्वत की तलहटी से दस योजन ऊपर जाकर दोनो ओर दस-दस योजन चौडी एवं पर्वत समान लंबी दो श्रेणियॉ है जिसमे अनेक विद्याधरो का निवास है। भरत और ऐरावत क्षेत्र के विजयार्ध की दक्षिण महाश्रेणी मे पचास और उत्तर महाश्रेणी मे साठ विद्याधर नगरी है, ये सब स्वर्गपुरी के समान है। ये विद्याधर देव नही मनुष्य ही होते है, इन्हे विशेष विद्याए प्राप्त है। विद्याघरो के क्षेत्र मे चतुर्थ काल के समान काल होता है। इनकी आयु उत्कृष्ट एक कोटी पूर्व व जघन्य एक सौ बीस वर्ष है। इनके शरीर की अवगाहना भी उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष, जघन्य सात हाथ होती है। यहा कर्मभूमि हैै षट कर्मो के द्वारा जीवन यापन होता है।
*✍️लोकपाल व व्यंतरो की नगरियाँ*
विद्याधरो की नगरी से दस योजन ऊपर जाकर दस योजन विस्तृत पर्वत बराबर अभियोग जाति के क्रीड़ा के योग्य अनेक नगर स्थित है।
यहा पर चार लोकपाल देवो का भी निवास हैै। ये देव सौधर्म इन्द्र की आज्ञा मे चलते है, इन सभी देवो की ऊँचाई दस धनुष व आयु एक पल्य होती है।

*✍️भरत विजयार्ध पर कूट और देव*
अभियोग व्यंतर देवो से पाँच योजन ऊपर एक पूर्णभद्र नाम की श्रेणी है जो दस योजन चौड़ी है तथा विजयार्ध नामक देव से आश्रित है अर्थात यहाँ विजयार्ध देव का निवास है। इस पर नौ कूट है जिसके नाम पूर्व से शुरु करके इस प्रकार है–
*कूट                          देव*
सिद्धवर (सिद्धायतन)  जिन मन्दिर
दक्षिणार्ध भरत           दक्षिणार्ध भरत
खण्ड प्रभात              नृत्यमाल
मणिभद्र (पूर्णभद्र)      मणिभद्र
विजयार्ध                   विजयार्ध कुमार
पूर्णभद्र (मणिभद्र)     पूर्णभद्र देव
तामिस्र गुहा               कृतमाल
उत्तरार्ध भरत              उत्तरार्ध भरत 
वश्नवण                      वश्नवण देव
◆नोट◆ त्रिलोकसार मे मणिभद्र के स्थान पर पूर्णभद्र और पूर्णभद्र के स्थान पर मणिभद्र है।
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

*✍️ऐरावत विजयार्ध पर कूट और देव*
अभियोग व्यंतर देवो से पाँच योजन ऊपर शिखर पर नौ कूट है जिसके नाम पूर्व से शुरु करके इस प्रकार है–
*कूट                          देव*
सिद्धवर (सिद्धायतन)  जिन मन्दिर
उत्तरार्ध ऐरावत          उत्तरार्ध ऐरावत
खण्ड प्रभात              कृतमाल
मणिभद्र                    मणिभद्र
विजयार्ध                   विजयार्ध कुमार
पूर्णभद्र                     पूर्णभद्र देव
तामिस्र                      नृत्यमाल देव
दक्षिणार्ध ऐरावत        दक्षिणार्ध ऐरावत
वश्नवण                      वश्नवण देव
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

ये सभी कूट कांचनमय है। ये सवा छ्ह योजन ऊँचे, मध्य मे चार योजन ढाई कोस, शिखर पर कुछ अधिक तीन योजन के है। पूर्व दिशा के प्रथम कूट सिद्धवर कूट जिसको सिद्वायतन भी कहते है जिस पर अकृत्रिम चैत्यालय सुशोभित है। इन अविनाशी जिनमन्दिर की ऊँचाई पौन कोस (3/4 कोस), चौडाई आधा कोस और लम्बाई एक कोस है।
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
।।जिनवाणी माता की जय।।
।।आचार्य भारतभूषणाय नमः।।


Friday, 4 August 2023

मेरु (सुमेरू) पर्वत

*मेरु (सुमेरु) पर्वत*
🌴🌴🌴🌴

तीनो लोक के बीचो बीच मे त्रस नाडी है, इसी नाड़ी के मध्य मे एक राजु का मध्यलोक है, जिसमे गोल गोल असंख्यात द्वीप व समुद्र है। इन्ही द्वीपो के मध्य में स्थित ढाई द्वीप मे पाँच मेरु स्थित है। ढाई द्वीप के बाहर मनुष्य नही होते इसलिए इसे मनुष्यलोक कहते है।
पहला सुदर्शन मेरु है इसे ही सुमेरु कहते है, यह नाभी के समान है, दूसरा विजय तीसरा अचल चौथा मन्दर तथा पाँचवा विद्युन्माली मेरु है।

इन मेरु के ऊपर उर्ध्वलोक नीचे अधोलोक है, तथा जितना ऊचाँ पहला मेरु है उतना ही ऊँचा मध्यलोक है। प्रत्येक मेरु के ऊपर चार-चार वन तथा प्रत्येक वन मे चार चैत्यालय होने से कुल सोलह चैत्यालय है। प्रत्येक चैत्यालय मे एक सौ आठ - एक सौ आठ प्रतिमाएँ होने से पाँचो मेरु मे कुल आठ हजार छ्ह सौ चालीस जिन प्रतिमाएँ है।
पहला सुमेरु पर्वत एक लाख चालीस योजन ऊँचा है जिसमे चालीस योजन की चूलिका है। यह मेरु चित्रा पृथ्वी के नीचे एक हजार योजन इसकी नीव है, तथा चित्रा पृथ्वी के ऊपर निन्यानवे हजार योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है तथा चालीस योजन की चूलिका है।

चित्रा पृथ्वी के समतल भाग पर पहला भद्रशाल वन है, इस वन से पाँच सौ योजन ऊपर जाकर एक कटनी है कहा पर दूसरा वन नंदन वन हैै, इससे 
बासठ हजार पांच सौ योजन ऊपर जाकर कटनी पर तीसरा सौमनस वन है, इस वन से छत्तीस हजार योजन ऊपर सुमेरु के शीर्ष पर चौथा पाण्डुक वन है तथा ये सभी वन सुमेरु के चारो और स्थित है।
चारो वनो के तीनो अन्तरालो (५००+ ६२५०० + ३६०००) को इकट्ठा करने पर सुमेरु की ऊचाई निन्यानवे हजार योजन आती हैै, एक हजार योजन की नीव, तथा चालीस योजन की चूलिका को मिलाकर मेरु की ऊँचाई एक लाख चालीस (१०००४०) योजन हो जाती है।
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️
*✍️वनो तक मेरु की चौडाई व ऊँचाई*
चित्रा पृथ्वी के तल भाग मे सुमेरु पर्वत का व्यास १००९०–१०/११ योजन है तथा ऊपरिम भाग मे इसका व्यास दस हजार योजन है। इसके आगे निन्यानवे हजार योजन ऊपर जाकर जहाँ पाण्डुक वन है वहा इसका व्यास एक हजार योजन रह जाता है। यह व्यास समान रुप से नही घटता है।

चित्रा पृथ्वी के समतल भद्रशाल वन है वहा से पाँच सौ योजन ऊपर नंदन वन है वहा से बासठ हजार पाँचसो योजन पर सोमनस वन है। परन्तु इसमे ग्यारह हजार योजन तक तो सुमेरु पर्वत की चौडाई समान है और शेष इक्यावन हजार पाँच सौ योजन तक क्रम से उसकी चौडाई घटती गई है।
सौमनस वन से पाण्डुक वन छत्तीस हजार योजन ऊचाई पर है परन्तु यहा भी सौमनस से ग्यारह हजार योजन तक मेरु की चौडाई समान है और शेष पच्चीस हजार योजन क्रम से घटती गई है।
सुमेरु पर्वत नीचे से इकसठ हजार योजन तक नाना प्रकार के रत्नो से सुभोषित होने के कारण अनेक वर्ण का है उसके ऊपर पूरा मेरु मात्र सुवर्णमय है।
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
*✍️पहला वन भद्रशाल वन* 
 यह धरातल पर स्थित हैं यह पूर्व तथा पाश्चिम दिशा में बाईस-बाईस हजार योजन चौडा तथा उत्तर और दक्षिण दिशा में दो सौ पचास - दो सौ पचास योजन चौडा है। यहा चारो दिशाओं मे एक एक उत्कृष्ठ चैत्यालय कुल चार चैत्यालय है।
इन चैत्यालयो की –
लम्बाई सौ   (१००) योजन   (२००००० कोस), 
चौडाई पचास (५०) योजन   (१००००० कोस),
ऊचाई पिचहत्तर (७५) योजन (१५०००० कोस) हैै।

*✍️दूसरा वन नंदन वन है* 
यह वन चारो और से पाँच सौ योजन चौडा है इसके चारो दिशाओं मे एक-एक उत्कृष्ट अकृत्रिम चैत्यालय कुल चार चैत्यालय है।
इन चैत्यालयो की –
लम्बाई सौ   (१००) योजन   (२००००० कोस), 
चौडाई पचास (५०) योजन   (१००००० कोस),
ऊचाई पिचहत्तर (७५) योजन (१५०००० कोस) हैै।

यहा पर मेरु पर्वत का व्यास ९९५४-०६/११ योजन हैै। यहा नंदन वन मे चार भवन, आठ कूट व सोलह वापिकाए बनी हुई है। इन वापिकाओ मे भी भवन बने हुए है, यहा चारो भवन पर चारो लोकपाल निवास करते है। वापिकाओ मे आग्नेय व नैऋत्य दिशा वाली वापिकाओं का स्वामी सौधर्म इन्द्र तथा वायव्य व ईशान दिशा वाली वापिकाओ का स्वामी ईशान इन्द्र हैं।

*✍️तीसरा वन सौमनस वन* 
यहा पर मेरु पर्वत का व्यास ४२७२-८/११ योजन है।इस वन की चौडाई चारो और से पाँच सौ योजन है, यहा पर भी चारो दिशा मे एक-एक चैत्यालय कुल चार मध्यम चैत्यालय है। 
लम्बाई---पंचास (५०) योजन
चौडाई---पच्चीस (२५) योजन
ऊचाई----साढे सतीस (३७–१/२) योजन है
इस वन का सारा वर्णन नंदन वन के समान है

*✍️चौथा वन पाण्डुक वन* 
यहाँ पर पर्वत का व्यास एक हजार योजन तथा वनो की चौडाई चार सौ चौरानवे योजन है। यहा चारो दिशाओ मे एक-एक चैत्यालय कुल चार जघन्य अकृत्रिम चैत्यालय है।
लम्बाई---पच्चीस (२५) योजन
चौडाई---साढे बारह (१२–१/२) योजन
ऊचाई---पौने उन्नीस (१८–३/४) योजन हैं।

पाण्डुक वन के चारो विदिशाओ मे चार अर्ध चन्द्राकार शिलाए है जिन पर बाल तीर्थंकर भगवान का जन्माभिषेक होता है। ये शिलाए सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौडी तथा आठ योजन मोटी है। प्रत्येक शिलाओं के ऊपर तीन-तीन सिंहासन बने है। बीच वाला सिंहासन पर बाल तीर्थंकर बाकी दोनो जिसे भद्रासन कहते है सौधर्म और ईशान इन्द्र का है। इन सिंहासनो की ऊँचाई पाँच सौ धनुष है। 
यहा तक मेरु पर्वत की ऊँचाई एक लाख योजन हो जाती हैै।

*✍️चूलिका* 
पाण्डुक वन के ऊपर चालीस योजन ऊँची चूलिका है। इस चूलिका का तल व्यास बारह योजन व मुख व्यास चार योजन है इसका वर्ण नीलमणी मय है यही से बाल बराबर के अन्तर से उर्ध्वलोक का पहला पटल ऋजू (ऋतु) पटल है।
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️
*✍️बाकी चार मेरु पर्वत की ऊँचाई*
मनुष्य लोक मे पाँच मेरु पर्वत है, सुदर्शन, विजय, अचल, मन्दर, विद्युन्माली इनमे से सुदर्शन मेरु अर्थात सुमेरु पर्वत की ऊचाई तो १००० + ९९००० + ४०=१०००४० योजन है*
बाकी चारो मेरु की ऊचाई १००० + ८४०००  + ४० योजन है = (८५०४० योजन)
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
*शलभ*


7. चौबीस ठाणा में मनुष्यगति मार्गणा

*✍️ मनुष्यगति में चौबीस ठाणा* https://youtu.be/zC4edAGojCs?si=w9wU8fxsCnEIxFEt 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 जिनके मनुष्य गति नामकर्म का उदय पाया जाता ...