*04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा*
https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC
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*जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।*
गति नाम कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।
जिसके उदय से जीव भावान्तर को जाता है वह गति नामकर्म हैं। *(मूलाचार १२३६)*
गति नाम कर्म के उदय से जीव की पर्याय को अथवा चारो गति मे गमन करने को गति कहते है।
*(गो. जी १४६)*
*गति जीव विपाकी प्रकृति हैं इसमे जीवो के भावो की मुख्यता रहती है*
गति अपेक्षा जीवो का परिचय होना गति मार्गणा है।
*गति मार्गणा के चार भेद –नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति हैं-सिद्धगति में भी जीव होते हैं*
नरकगति द्वारा नारकी जीवो की खोज होती हैं।
तिर्यंचगति द्वारा तिर्यंच जीवो की खोज होती हैं।
मनुष्यगति द्वारा मनुष्यो की खोज होती हैं।
देवगति द्वारा देवो की खोज होती हैं।
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*✍️नरकगति*
जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में स्वय तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारक कहते हैं। नारक की गति को नरकगति कहते हैं।
*(गो.जी. १४७)*
द्रव्य मे–यानि नरक मे जितनी भी वस्तुए है, या शरीर हैं उसमे नही रमते, उन्हे वहा कोई भी वस्तु अच्छी नही लगती
क्षेत्र मे–नारकी को वहा का क्षेत्र भी अच्छा नही लगता है।
काल मे- नारकी को वहा का काल भी अच्छा नही लगता है।
भाव मे–नारकी को वहा का भाव भी अच्छा नही लगता, वहा कभी अच्छे भाव नही होते है। हर समय लडना, मारना, काटना, एक् दुसरे को तकलीप देने के भाव होते है।
परस्पर मे–प्रीति को प्राप्त नही होते, कभी भी एक दूसरे से दोस्ती नही होती हैं। जब भी नया नारकी आता है तो अन्य सभी नारकी आते है और सभी मिलकर उसे मारते काटते है।
नीचे अधोलोक में घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा तथा माघवी नामक सात पृथिवियाँ हैं *ये उनके रुढी नाम है* तथा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि गुणनाम है *सार्थक नाम है* यथा नाम वैसा ही वहा का काम है। जैसे जहा रत्नो जैसी प्रभा है उसका नाम रत्नप्रभा है। यहा नारकी जीव रहते है।
ये नारकी क्षेत्रजनित, मानसिक, शारीरिक और असुरकृत दुख, परस्परकृत दुख आदि अनेक प्रकार के दुःखों को दीर्घ काल तक भोगते हैं, उसकी गति को नरकगति कहते है।
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*✍️तिर्यंचगति*
देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोड्कर शेष सभी तिर्यंच कहलाते हैं। तिर्यंचो की गति को तिर्यंचगति कहते हैं। *(त. सू ०४/२७)*
*०१)* मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त हो।
*०२)* जिनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) हो । *०३)* जो निकृष्ट अज्ञानी हो ।
*०४)* जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय वे तिर्यंच है
इन तिर्यंच की गति को तिर्यंचगति कहते हैं।
*(गो. जी. १४८)*
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*✍️मनुष्यगति*
जिनके मनुष्यगति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते है। *(गो.जी. १४९)*
*०१)* जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे
हेय=छोडने योग्य, उपादेय=ग्रहण करने योग्य
हमे क्या चीज छोडनी चाहिए क्या ग्रहण करना चाहिए इसका पता चलता है।
तत्त्व=वस्तु स्वरुप का, अतत्त्व=जैसा स्वरुप नही है
उसे अच्छे से जानता है।
आप्त=इष्ट देव का पता होना, अनाप्त=जो इष्टदेव नही है का पता होता है।
धर्म मे क्या है, अधर्म मे क्या है का विचार होता है उसको मनुष्य कहते है।
*०२)* जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके,
*०३)* जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो,
*०४)* शिल्प-कला आदि में कुशल हो तथा
*०५)* जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं।
*(गो. जी. १४९)*
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*✍️देवगति*
देवगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न गति को देवगति कहते है। देव चार प्रकार के होते है–भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष और वमानिक देव।
*०१)* जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों,
*०२)* अणिमादि गुणों से सदा अप्रतिहत (बिना रोक-टोक) विहार करते हो,
*०३)* जिनका रूप-लावण्य सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं। उन देवों की गति को देवगति कहते है।
*(गो. जी. १५१)*
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*✍️सिद्धगति*
यद्यपि सिद्ध भगवान के किसी गति नामकर्म का उदय नहीं है फिर भी आठ कर्मों का नाश करके सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग में गमन करते हैं ।
*०१)* जो एकेन्द्रिय आदि जाति, बुढ़ापा, मरण तथा भय से रहित हों,
*०२)* जो इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग से रहित हों,
*०३)* जो आहारादि संज्ञाओं से रहित हों,
*०४)* रोग, आधि-व्याधि से रहित हों, वे सिद्ध भगवान हैं, उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं।
*(गो. जी. १५२)*
जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूप अमृत के अनुभव करने वाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भाव कर्म रूपी अंजन से रहित हैं, नित्य हैं, जिनके सम्यक्क्तवादि भाव रूप मुख्य गुण प्रकट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं और उनकी गति को सिद्धगति कहते है। *(गो. जी. ६८)*
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
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