बुधवार, 12 जून 2024

श्रुत पंचमी की कथा । श्रुतावतार

*श्रुत पंचमी*


वैशाख सुदी दशमी के दिन भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्रगट हुआ था, किन्तु गणधर के अभाव में छ्यासठ दिन तक उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी। उस समय इन्द्र ने बुद्धिबल से इन्द्रभूति नामा ब्राह्मण को वहाँ उपस्थित किया। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने पाँच-पाँच सौ शिष्यों के साथ अपने भाई अग्निभूति और वायुभूति के साथ तथा अपने पाँच सौ शिष्यों सहित प्रभु के समवसरण में जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। तत्क्षण ही मनःपर्यय ज्ञान से और सात महाऋद्धियों से सम्पन्न होकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये। पुनः उन्होंने भगवान् से 'जीव है या नहीं'। इत्यादि रूप से अनेकों प्रश्न किए। उस समय भगवान की दिव्यध्वनि खिरने लगी।

गौतम स्वामी ने उसी दिन बारह अंग और चौदह पूर्व रूप ग्रंथों की एक ही मुहूर्त में रचना की। इस तरह श्रावश्रुत और अर्थ पदों के कर्ता तीर्थंकर भगवान महावीर हैं और तीर्थंकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रुतपर्याय से परिणत हुए इसलिए द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं। इस तरह गौतम से ग्रंथ रचना हुई।

गौतम स्वामी ने दोनों प्रकार का ज्ञान लोहार्य को दिया। लोहार्य ने भी जंबूस्वामी को दिया। गौतम स्थविर, लोहार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों ही सप्तर्द्धिसम्पन्न सकलश्रुतधर होकर अंत में केवलज्ञानी होकर निर्वाण को प्राप्त हुए। इसके बाद विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से चौदह पूर्व के धारी हुए। अनंतर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थ स्थविर, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह महामुनि ग्यारह अंग और दश पूर्वों के ज्ञाता हुए तथा शेष चार पूर्वी के एक देश ज्ञाता हुए। 

इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पाँचों ही आचार्य ग्यारह अंगों के ज्ञाता हुए और चौदह पूर्वी के एकदेश ज्ञाता हुए। तदनंतर सुभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चारों ही आचार्य सम्पूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंग-पूर्वी के एकदेश के धारक हुए। इसके बाद सभी अंग और पूर्वी का एकदेश ज्ञान आचार्य परम्परा' से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ।

सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चंद्रगुफा में रहने वाले अष्टांग महानिमित्तज्ञानी श्रीधरसेनाचार्य ने 'अंगपूर्वश्रुतज्ञान का विच्छेद न हो जाये' इसलिए महामहिमा अर्थात् पंचवर्षीय साधु सम्मेलन में आये हुए दक्षिणपथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा। लेख को पढ़कर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, नानागुण युक्त, देश, कुल और जाति से शुद्ध ऐसे दो साधुओं को आंध्र देश की वेणानदी के तट से भेजा।

इधर धरसेनाचार्य ने स्वप्न में देखा कि अत्यंत शुभ्र और उन्नत दो बैल हमारी तीन प्रदक्षिणा देकर चरणों में पड़ गये हैं। स्वप्न से संतुष्ट हुए श्री धरसेन भट्टारक ने 'जयतु श्रुतदेवता' ऐसा वाक्य उच्चारण किया और उठ बैठे। उसी दिन प्रातः वे दोनों मुनि श्रीगुरु के पास पहुँचे और विनयपूर्वक कृतिकर्म विधि से उनकी पादवंदना की। अनंतर दो दिन बिताकर तीसरे दिन उन दोनों ने निवेदन किया कि 'हम श्रुत अध्ययन हेतु आपके पादमूल में आये हुए हैं। उनके वचनों को सुनकर गुरु ने 'अच्छा है, कल्याण हो' ऐसा कहकर उन्हें आश्वासन दिया। 

शुभ स्वप्न देखने मात्र से ही यद्यपि आचार्य श्री ने उन मुनियों की विशेषता को जान लिया था, तो भी उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया, क्योंकि उत्तम प्रकार की परीक्षा ही हृदय में संतोष को उत्पन्न करती है। इसके बाद आचार्य ने उन दोनों को दो विद्याएँ दीं। उनमें से एक अधिक अक्षर वाली थी और दूसरी हीन अक्षर वाली थी। विद्याएँ देकर उनसे कहा कि बेला करके उनको सिद्ध करो। जब उनको विद्याएँ सिद्ध हो गईं, तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देवताओं को देखा कि एक देवी के दाँत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है। 

"विकलांग होना देवताओं का स्वभाव नहीं होता है" इस प्रकार उन दोनों ने विचार कर मंत्र संबंधी व्याकरण शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाली विद्या में अधिक अक्षर मिलाकर और अधिक अक्षर वाली विद्या में से अक्षर निकालकर मंत्र फिर से सिद्ध करना प्रारंभ किया। जिससे ये दोनों विद्या देवताएँ अपने स्वभाव और अपने सुंदररूप में स्थित दिखलाई पड़ी।

तदनंतर भगवान धरसेन के समक्ष आकर उन दोनों ने विनय सहित सारा वृत्तांत निवेदित किया। 'बहुत अच्छा' इस प्रकार संतुष्ट हुए धरसेन भट्टारक ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रंथ पढ़ाना प्रारंभ किया। इस तरह क्रम से व्याख्यान करते हुए धरसेन भगवान से उन दोनों ने आषाढ़ शुक्ला एकादशी के पूर्वाण्ह काल में ग्रंथ समाप्त किया। विनयपूर्वक ग्रंथ समाप्त किया, इसलिए संतुष्ट हुए व्यंतर देवों ने उन दोनों की बड़ी भारी पूजा की। अनंतर धरसेनाचार्य ने एक मुनि का नाम भूतबलि और दूसरे का नाम पुष्पदंत रखा।

तदनंतर उसी दिन वहाँ से भेजे गये उन दोनों ने 'गुरु की आज्ञा अलंघनीय होती है' ऐसा विचार कर आते हुए अंकलेश्वर गुजरात में वर्षाकाल बिताया। वर्षायोग समाप्त कर जिनपालित को देखकर (उसको साथ लेकर) पुष्पदंत आचार्य तो वनवासी देश को चले गये और भूतबली भट्टारक तमिल देश को चले गये। तदनंतर पुष्पदंत आचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर पुनः बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित को पढ़ाकर अनंतर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा। 

जिनपालित मुनि को और उनके पास बीस प्ररूपणान्तर्गत सत्प्ररूपणा के सूत्रों को देखकर तथा जिनपालित के मुख से पुष्पदंत आचार्य की अल्पायु जानकर विचार किया कि "महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विच्छेद हो जायेगा, अतः हमें इस कार्य को पूरा करना चाहिए" ऐसा सोचकर भगवान भूतबलि ने 'द्रव्यप्रमाणानुगम" को आदि लेकर ग्रंथ रचना की। इसलिए खंड सिद्धांत की अपेक्षा भूतबलि और पुष्पदंत आचार्य भी श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं। अर्थात् पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य ने जीवस्थान, खुद्दाबंध, बंधस्वामित्व, वेदनाखंड, वर्गणाखण्ड और महाबंध' नामक षट्खण्डागम की रचना की है'।

धवला में षट्खण्डागम की रचना का इतना ही इतिहास पाया जाता है। इससे आगे का वृत्तांत इन्द्रनंदिकृत श्रुतावतार में मिलता है।

'श्री भूतबलि आचार्य ने षट्खण्डागम की रचना पुस्तक बद्ध करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को चतुर्विध संघ के साथ उन पुस्तकों की पूजा की। इसीलिए श्रुत पंचमी तिथि तभी से प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई है और आज तक भी जैन लोग श्रुतपंचमी के दिन श्रुतपूजा करते हैं। फिर भूतबलि ने उन षट्खण्डागम पुस्तकों को जिनपालित के हाथ पुष्पदंत गुरु के पास भेजा। उन्हें देखकर औरचंतित कार्य को सफल जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने भी चातुर्वर्ग संघ सहित सिद्धान्त की पूजा की। यह तो षट्खण्डागम सिद्धान्त की उत्पत्ति कही है।


✍️ विशेष नोट - 
1. नंदि-आम्नाय की प्राकृत पद्यावली में लोहाचार्य के अनंतर 'अर्हदद्वबलि, माघनंदि, धरसेन, पुष्पदंत और भूतबली' ऐसा क्रम लिया है एवं इन्द्रनंदि कृत-श्रुतावतार में लोहाचार्य के अनंतर अंगपूर्व के एकदेश ज्ञाता में 'विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त ये चार नाम कहे हैं। पुनः अर्हद्वलि नाम के महान ज्ञानी आचार्य हुए, जिन्होंने पृथक् पृथक् संघ व्यवस्था बनाई। इनके बाद 'माघनंदि' आचार्य हुए हैं, ये भी अंगपूर्व के एकदेश ज्ञाता थे। पुनः धरसेनाचार्य हुए।
2. वर्तमान में मुद्रित धवला की तृतीय पुस्तक से भी भूतबलि आचार्य कृत सूत्र हैं। इसके पूर्व 177 सूत्र रचना पुष्पदंत: आचार्य ने की है।
श्रुत पंचमी पर्व की कथा पूर्ण हुई यह आचार्य इन्द्रनंदी जी के श्रुतावतार के आधार से लिखी है।
।।जिनवाणी माता की जय।।

शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

जम्बूवृक्ष-शाल्मली वृक्ष


मध्यलोक मे जम्बूद्वीप के उत्तरकुरु मे, नील पर्वत के समीप, सीता नदी के पूर्व तट पर, सुदर्शन मेरु की ईशान दिशा में जम्बूवृक्ष की स्थली है। जिसके ऊपर जम्बूवृक्ष है जम्बू यानि जामुन का वृक्ष। इसी प्रकार सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर, निषध कुलाचल के समीप, सुदर्शन मेरु की नैऋत्य दिशागत देवकुरु क्षेत्र मे शाल्मली वृक्ष की मनोहारिणी स्थली है। यह वृक्ष अनादिनिधन है किसी ने नही बनाया। इसके ऊपर अकृत्रिम जिन चैत्यालय और व्यंतर देवो का निवास है। यह नाना प्रकार रत्नमयी उपशाखाओं से युक्त, मूँगा के समान वर्ण वाले पुष्प और मृदंग समान फलों से युक्त पृथ्वीकायमय वृक्ष है 

✍️जम्बूस्थली
जम्बूस्थली का तल व्यास 500 योजन है। यह स्थली अंत मे अर्थात किनारो पर 1/2 योजन मोटी और मध्य में 8 योजन ऊँची गोल आकार वाली सुवर्णमयी है। जम्बूस्थली के ऊपरीम भाग में एक दुसरे को घेरते हुए 12 अम्बुज वेदिका, जिसकी ऊँचाई आधा योजन व चौडाई योजन का सोलहवा भाग है। ये सभी बारह वेदिया चार चार गोपूर द्वारो से युक्त है

✍️जम्बूपीठ जम्बूवृक्ष का वर्णन
जम्बूस्थली के बीच मे 08 योजन ऊँची, 12 योजन भूव्यास,  04 योजन मुख व्यास वाली जम्बूपीठ है। पीठ के बहुमध्य भाग में पादपीठ सहित मुख्य जम्बूवृक्ष है जिसका मरकत मणिमय स्कंध पीठ से 02 योजन ऊँचा, 01 कोस चौडा, 1/2 योजन नीव सहित है। स्कंध के ऊपर वज्रमय 1/2 योजन चौडी और 06 योजन लम्बी चार शाखाएँ है। शाखाओ मे मरकत, वैडूर्य, इन्द्रनील, स्वर्ण और मूंगे से निर्मित विविध प्रकार के पत्ते हैं। वृक्ष की सम्पूर्ण ऊँचाई 10 योजन, मध्य मे चौडाई 6 योजन और अग्र भाग की चौडाई 04 योजन है। जम्बूवृक्ष की जो शाखा उत्तरकुरुगत नील कुलाचल की ओर गई उस पर एक अकृत्रिम जिनमन्दिर है। यह 3/4 कोस ऊँचा, 1 कोस लम्बा और 1/2 कोस विस्तार वाला अदभुत रत्नमय जिनभवन है। शेष तीन शाखाओ पर यक्ष कुलोत्पन आदर-अनादर देवो के भवन है

✍️ जम्बूवृक्ष के परिवार वृक्षो का विवरण 
मुख्य जम्बूवृक्ष की ओर से शुरु करते हुए प्रथम और द्वितीय वेदिका के अन्तराल में परिवार वृक्ष आदि कुछ नही है 
तीसरे अन्तराल की आठो दिशाओ में उत्कृष्ट यक्ष आदर-अनादर देवो के 108 जम्बूवृक्ष है 
चौथे अन्तराल के पूर्व दिशा में यक्ष देवांगना के 04 जम्बूवृक्ष है 
पाँचवे अन्तराल मे वन है और उन वनो मे चौकोर, गोल आकार वाली बावडिया है 
छठे अंतराल में कोई रचना नही है 
सातवे अंतराल में प्रत्येक दिशा मे चार-चार हजार करके कुल 16000 तनुरक्षकों के जम्बूवृक्ष है। ये यक्षो के अंगरक्षक देवो के वृक्ष है 
आठवे अंतराल में ईशान, उत्तर और वायव्य दिशा में सामानिक देवो के चार हजार जम्बूवृक्ष है 
नौवे अंतराल में आग्नेय दिशा में अभ्यन्तर पारिषद देवो के 32000 जम्बूवृक्ष है।
दसवे अंतराल की दक्षिण दिशा में मध्यम पारिषद देवो के 40000 जम्बूवृक्ष है।
ग्यारहवे अंतराल की वायव्य दिशा में बाहय पारिषद देवो के 48000 जम्बूवृक्ष है। 
बारहवे अन्तराल की पश्चिम दिशा में सेना महत्तरो के सात ही जम्बूवृक्ष है। 
परिवार जम्बूवृक्षो का प्रमाण मुख्य जम्बूवृक्ष के प्रमाण का आधा है। परिवार जम्बूवृक्षो की जो शाखाए है उन पर भी आदर-अनादर यक्ष परिवार देवो के आवास है। मुख्य जम्बूवृक्ष से युक्त सम्पूर्ण परिवार वृक्षो की संख्या 140120 है। इसी वृक्ष के कारण हमारे द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है।

✍️शाल्मली वृक्ष
देवकुरु क्षेत्र मे शाल्मली वृक्ष की मनोहारिणी स्थली है जिसका वर्णन जम्बूवृक्ष के जैसा ही है। शाल्मली वृक्ष की दक्षिण शाखा पर जिनमन्दिर है शेष तीन शाखाओं पर गुरुडपति वेणु-वेणुधारी देवो के आवास है। ये अपने परिवार सहित 140120 शाल्मली वृक्ष है जिन पर भी वेणु-वेणुधारी देवो के आवास है।

✍️अन्य द्वीपो के वृक्षो का प्रमाण
जम्बूद्वीप के जम्बूवृक्ष की तरह पूर्व और पश्चिम धातकीखंड द्वीप के चारो कुरुओं मे एक-एक के हिसाब से कुल चार धातकी (आवला) वृक्ष है। इसी धातकीवृक्ष के कारण द्वीप का नाम धातकीखंड द्वीप है। इसका समस्त कथन जम्बूवृक्ष के समान है। धातकीखंड के परिवार वृक्ष 560480 है। 
धातकीखंड द्वीप के समान ही पूर्व और पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप के चारो कुरुओं में पुष्कर (कमल) वृक्ष है जिसकी youtubeसंख्या 560480 है। इसी पुष्कर वृक्ष के कारण द्वीप का नाम पुष्करद्वीप है। इसका समस्त विवरण जम्बूवृक्ष के समान है। 
*विशेष* शाखाओ की लम्बाई तिलोयपण्णत्ती जी गाथा 2181 के अनुसार 06 योजन लम्बी त्रिलोकसार गाथा 647 अनुसार 08 योजन लम्बी है। 
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शलभ

शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

गजदंत पर्वत, देवकुरु-उत्तरकुरु भोगभूमि

मध्यलोक के असंख्यात द्वीप व असंख्यात समुद्र के बीच मे जम्बूद्वीप नामक एक लाख योजन विस्तार का एक द्वीप है, जिसके सात क्षेत्रो मे से चौथे क्षेत्र का नाम विदेह है। विदेहक्षेत्र के दक्षिण मे निषध और उत्तर दिशा मे नील कुलाचल है। कुलाचलो की ऊँचाई 400 योजन, नीव 100 योजन व चौडाई 16842 पूर्णांक 2/19 योजन है। विदेह के मध्य मे उत्तरकुरु व देवकुरु दो उत्तम भोगभूमि के मध्य मे सुदर्शन मेरु है। मेरु को स्पर्श करते हुए चार गजदंत पर्वत, चार यमकगिरी, अनाधिनिधन जम्बूवृक्ष और शाल्मलि वृक्ष सीता-सीतोदा महानदी है। यहा 20 सरोवर, सरोवरो के दोनो ओर 200 कांचन पर्वत, 08 दिग्गजेन्द्र पर्वत है। 

✍️देवकुरु-उत्तरकुरु
यह उत्कृष्ठ भोगभूमि क्षेत्र है जीव युगल जन्म लेते और युगल ही मरण को प्राप्त होते है। 10 प्रकार के कल्पवृक्ष होने से जीव सुख ही भोगते है। देवकुरु भोगभूमि मे पूर्व और पश्चिम दिशा के अंत से लेकर मेरु पर्वत तक दो गजदंत पर्वत से क्षेत्र धनुषाकार हो गया। उत्तरकुरु भोगभूमि मे पूर्व और पश्चिम दिशा के अंत से लेकर मेरुपर्वत तक दो गजदंत पर्वत से यह क्षेत्र भी धनुषाकार हो जाता है। यहा अनाधिनिधन जम्बूवृक्ष और शाल्मलि वृक्ष, 04 यमकगिरी, सीता-सीतोदा महानदी है। दोनो महानदी संबंधी 10 सरोवर, इन सरोवर के दोनो ओर 100 कांचन पर्वत, 4 दिग्गजेन्द्र पर्वत है।

✍️ गजदंत पर्वत
◆माल्यवान पर्वत उत्तरकुरु भोगभूमि की पूर्व दिशा मे नील पर्वत के दक्षिण की ओर मेरु पर्वत से ईशान दिशा से दक्षिण उत्तर लम्बा, वैडूर्यमणी वर्ण का माल्यवान गजदंत पर्वत है। यह उत्तरी कोने से नील कुलाचल और दक्षिणी कोने से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है। इसके ऊपर नौ कूट है।  हरिसिंह, सीता, पूर्णभद्र, रजत, सागर, कच्छा, उत्तरकुरु, माल्यवान तथा सिद्धायतन स्थित है। 

◆सोमनस गजदंत पर्वत देवकुरु भोगभूमि की पूर्व दिशा में निषध पर्वत से उत्तर की ओर मेरु पर्वत की आग्नेय दिशा में दक्षिण उत्तर लम्बा रजत वर्ण का सोमनस गजदंत पर्वत है। यह दक्षिण कोने से निषधाचल और उत्तरी कोने से मेरु को स्पर्श करता है। इसके ऊपर सात कूट है। वशिष्ठ, कांचन, विमल, मंगल, देवकुरु, सौमनस, सिद्धायतन कूट स्थित है। 

◆विद्युत्प्रभ पर्वत देवकुरु भोगभूमि की पश्चिम दिशा में निषध पर्वत से उत्तर की ओर मेरु पर्वत की नैऋत्य दिशा मे दक्षिण उत्तर लम्बा सुवर्णमई वर्ण का विद्युत्प्रभ गजदंत पर्वत है। यह दक्षिणी कोने से निषध कुलाचल को ओर उत्तरी कोने से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है। इसके ऊपर नौ कूट है। हरि, सीतोदा, सज्जवाल, स्वस्तिक, तपन, पदमवान, देवकुरु, विद्युत्प्रभ तथा सिद्धायतन कूट स्थित है। 

◆गंधमादन पर्वत उत्तरकुरु भोगभूमि की पश्चिम दिशा मे नील पर्वत से दक्षिण की ओर मेरु पर्वत से वायव्य दिशा मे दक्षिण उत्तर लम्बा सुवर्णमई वर्ण का गंधमादन गजदंत पर्वत है। यह उत्तरी कोने से नील कुलाचल को दक्षिणी कोने से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है। इसके ऊपर सात कूट है। आनन्द, स्फटिक, लोहित, गन्धमालिनी, उत्तरकुरु, गन्धमादन तथा सिद्धायतन कूट है। 

✍️गजदंतो का माप
मेरु के ईशान कोण मे माल्यवान पर्वत, आग्नेय दिशा मे सोमनस पर्वत, नैऋत्य मे विद्युत्प्रभ पर्वत और व्याव्य दिशा मे गंधमादन गजदंत पर्वत हैं। चारो गजदंतो की लम्बाई 30209 पूर्णांक 6/19 योजन, चौडाई 500 योजन, ऊँचाई कुलाचल के पास 400 योजन ऊँचे व क्रमशः बढते-बढते मेरु के समीप मे 500 योजन ऊँचा हो जाता है। इनकी नीव अपनी ऊँचाई का चतुर्थ भाग प्रमाण जमीन में है। सभी कूटो पर व्यंतर देविया निवास करती है तथा सिद्धायतन कूट के ऊपर अकृत्रिम जिन चैत्यालय है जो 125 योजन प्रमाण ऊँचे है। 

✍️ सीता-सीतोदा नदी
निषध कुलाचल के ऊपर तिगिंछ सरोवर से सीतोदा नदी निकलती है जो कि मेरु के समीप अर्द्ध परिक्रमा करती हुई पश्चिम की और मुड जाती है  सीतोदा नदी मे पाँच-पाँच करके कुल 10 सरोवर व प्रत्येक सरोवर के दोनो तरफ 10 कांचन करके 100 कांचन पर्वत है। 
निषध कुलाचल की तरह नील कुलाचल पर स्थित केसरी सरोवर से सीता नदी निकलती है जो मेरु के समीप अर्द्ध परिक्रमा करती हुई पूर्व की और मुड जाती है। सीता नदी मे भी 10 सरोवर तथा प्रत्येक सरोवर के दोनो तरफ 10 कांचन करके कुल 100 कांचन पर्वत है। 

✍️यमक गिरी (कूट)
निषध और नील कुलाचलो से मेरु पर्वत की ओर 1000 योजन आगे जाकर सीता और सीतोदा नदियो के दोनो तटो पर दो-दो पर्वत है। इनमे से सीता नदी के पूर्व तट पर चित्र पश्चिम तट पर विचित्र नाम पर्वत है। दोनो पर्वतो के बीच मे 500 योजन का अंतराल है जिसके बीच मे सीता नदी बहती है सीतोदा नदी के पूर्व तट पर यमक और पश्चिम तट पर मेघ नामक पर्वत है। इन दोनो पर्वतो के बीच मे 500 योजन का अंतराल है जिसके बीच मे सीतोदा नदी बहती है। इन चारो यमककूट की ऊंचाई 1000 योजन, मूल मे चौडाई 1000 योजन और शिखर पर चौडाई 500 योजन प्रमाण हैं। चारो कूट सुवर्णमयी वर्ण के है। इन कूटो के ऊपर कूटो के नाम वाले चार व्यंतर देव सपरिवार निवास करते है। 

✍️सरोवर
यमकगिरि से 500 योजन आगे जाकर सीता और सीतोदा नदी मे 20 सरोवर है जो देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्व भद्रशाल वन और पश्चिम भद्रशाल वन के मध्य पाँच-पाँच के रुप से स्थित है। एक सरोवर से दुसरे सरोवर के बीच मे 500 योजन का अंतर है। इन सरोवर का प्रमाण पदम सरोवर के सदृश्य है। यहा के मुख्य कमल पर नागकुमारी देविया परिवार के साथ निवास करती है। 
देवकुरु के पाँच सरावरो के नाम –तिगिंछ सरोवर से शुरु करते हुए–निषध, देवकुरु, सूर, सूलस, विद्युत
उत्तरकुरु के पाँच सरावरो के नाम–केसरी सरोवर से शुरु करते हुए–नील, उत्तरकरु, चन्द्र, ऐरावत, माल्यवान सरोवर

✍️कांचन पर्वत
प्रत्येक सरोवर के पूर्व-पश्चिम तट पर पंक्ति रुप से पाँच पाँच करके दस कांचन पर्वत है। जिससे सभी 20 सरोवरो के पर्वतो की संख्या 200 हो जाती है। कांचन पर्वत ऊंचाई 100 योजन मूल मे चौडाई 100 योजन और शिखर पर चौडाई 50 योजन है। कांचन पर्वत के ऊपर कांचन देवो के निवास है, इन कांचन के ऊपर गंधकुटी अर्थात जिन चैत्यालय बने हुए है। ये पर्वत सुवर्णमयी वर्ण के है। 

✍️दिग्गजेन्द्र पर्वत
उत्तरकुरु, देवकुरु भोगभूमि और पूर्व व पश्चिम भद्रशाल वन के मध्य मे सीता और सीतोदा महानदी के दोनो तटो पर दो-दो पर्वत कुल आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत स्थित है। 
मेरु की पूर्व मे भद्रशाल वन की सीता नदी के उत्तर दिशा मे पदमोत्तर दक्षिण दिशा मे नीलवान पर्वत है।
मेरु की दक्षिण मे भद्रशाल वन मे सीतोदा नदी के पूर्व दिशा मे स्वास्तिक पश्चिम दिशा मे अंजन पर्वत है।
मेरु की पश्चिम मे भद्रशाल वन मे सीतोदा नदी के दक्षिण दिशा मे कुमुद उत्तर दिशा मे पलास पर्वत है।
मेरु की उत्तर मे भद्रशाल वन की सीता नदी के पश्चिम दिशा पर अवंतस पूर्व दिशा मे रोचन पर्वत है।
आठो पर्वत पर दिग्गजेन्द्र देव का निवास है जिसकी ऊँचाई 100 योजन मूल मे चौडाई 100 योजन तथा शिखर पर चौडाई 50 योजन है 
       ।। जिनवाणी माता की जय।।

शुक्रवार, 25 अगस्त 2023

✍️भरतक्षेत्र

मध्यलोक मे असंख्यात द्वीप व समुद्र है। सभी द्वीप व समुद्र एक दुसरे को घेरे हुए है। द्वीप समुद्रो के सबसे मध्य में जम्बूद्वीप नामक एक लाख योजन का एक द्वीप है। जम्बूद्वीप के सात क्षेत्रो मे से एक भरतक्षेत्र है जो जम्बूद्वीप की दक्षिण दिशा मे स्थित हैं। यह भरत क्षेत्र लवण समुद्र और हिमवान पर्वत के मध्य स्थित है। 100 योजन ऊँचे हिमवान पर्वत के ऊपर स्थित पदम सरोवर से निकलने वाली गंगा, सिंधु नदी और विजयार्ध पर्वत के कारण भरत क्षेत्र के छह भाग हो जाते है जिसमे पाँच म्लेच्छ तथा एक आर्य खण्ड है। इस आर्य खण्ड क्षेत्र से ही अघातिया कर्मो के क्षय से मोक्ष प्राप्त होता है। आर्य खण्ड मे ही वृद्धि और ह्रास के द्वारा षटकाल परिवर्तन होता रहता है।

✍️गंगा-सिंधु नदी
हिमवान पर्वत के पदम सरोवर से तीन नदी गंगा, सिंधु, रोहितास्या निकलती है। इनमे से गंगा-सिंधु नदी भरत क्षेत्र मे बहती है। गंगा व सिंधु नदी पदम सरोवर से 500 योजन बहने के बाद गंगा व सिंधु कुट से आधा योजन पहले अर्ध परिकर्मा करती हुई दक्षिण की ओर मुड़कर 523–28/152 योजन आकर हिमवान पर्वत के दक्षिण तट की और बहती हुई जिव्हिका प्रणालिका को प्राप्त होती है।

✍️वृषभांचल पर्वत
भरत क्षेत्र के उत्तर मे जो म्लेच्छ खण्ड है उसके बहुमध्य भाग में रत्नों से निर्मित वृषभगिरि पर्वत है। इस पर ही चक्रवर्ती अपनी विजय प्रशस्ति लिखने के लिए जाते है। पर्वत अतीत काल के चक्रवर्तीयो के नामो से भरा हुआ है। पर्वत 100 योजन ऊँचा, मूल में 100 योजन, मध्य में 75 योजन, शिखर 50 योजन विस्तृत है। इस पर्वत पर  वृषभ नाम का देव  अपने परिवार सहित रहता है जिसके भवन में अनादिनिधन जिनमंदिर है। वृषभदेव के रहने के कारण इसका नाम वृषभगिरी भी पर्वत भी है।

✍️जिव्हिका प्रणालिका
जिव्हिका प्रणालिका दो कोस लम्बी, दो कोस ऊँची और सवा छ्ह योजन चौडी वृषभाकार अर्थात गोमुखाकार है। इस प्रणालिका के मुख, कान जीभ, नेत्र का आकार सिंह के समान और भौहे मस्तक आदि आकार गाय के समान है इसीलिये रत्नमय जिव्हिका को ‘वृषभ’ कहते हैं। यहा से दोनो नदियाँ बहती हुई गंगा सिंधु कुण्ड को प्राप्त होती है।

✍️गंगा-सिंधु कुण्ड
गंगा-सिंधु नदी जिव्हिका प्रणालिका से निकलकर हिमवान पर्वत से नीचे गिरती है। यह हिमवान को 25 योजन दूर छोडकर 10 योजन चौडी होकर गंगा सिंधु कुण्ड मे स्थित जिनेन्द्र प्रतिमा के मस्तक पर गिरती है मानो अभिषेक ही कर रही हो।  यह कुण्ड 60 योजन व्यास 10 योजन गहरा गोल है। इसके मध्य मे जल से आधा योजन ऊँचा और 8 योजन चौडा एक गोल टापू, जिस पर 10 योजन ऊँचा वज्रमय पर्वत है। इसी पर्वत के ऊपर कमलासन पर जिनेन्द्र प्रतिमा पदमासन से स्थित हैं।

✍️विजयार्ध पर्वत की गुफा
गंगा-सिंधु नदी कुण्डो से निकलकर दक्षिण की ओर बहती हुई 08 योजन चौडी होकर विजयार्ध पर्वत की गुफा में प्रवेश करती है। गंगा नदी खण्डप्रपात मे सिंधु नदी तिमिस्र गुफा मे प्रवेश करती है। दोनो गुफाए की ऊँचाई 08 योजन, चौडाई 12 योजन और लम्बाई 50 योजन है। इसी प्रकार गुफा द्वार की ऊँचाई 08 योजन और चौडाई 12 योजन है।

✍️उन्मगना और निमग्ना नदी
दोनो गुफाओ के मध्य मे अर्थात 25 योजन पर पूर्व और पश्चिम मे दो कुण्ड है। इन कुण्डो से निकलने वाली नदी उन्मगना और निमग्ना है जो दो दो योजन चौडी होकर बहते हुए गंगा और सिंधु नदी मे मिल जाती है। उन्मग्ना नदी का स्वभाव है कि यह अपने जल प्रवाह मे गिरे हुए भारी से भारी द्रव्य को ऊपर ले आती है एवं निमग्ना नदी हल्के से हल्के द्रव्य को नीचे ले जाती है। गुफा से निकलते हुए नदी का विस्तार 8 योजन होता है।

✍️अयोध्या (विनीता) नगरी
भरत क्षेत्र के छह खण्डो मे एक आर्यखण्ड है। इसकी उत्तर-दक्षिण लम्बाई 238–03/19 योजन है। इस आर्यखण्ड मे लवण समुद्र से उत्तर और गंगा-सिंधु नदियों के मध्य भाग में 12 योजन लंबी 09 योजन चौड़ी अयोध्या नगरी है जिसे विनीता नगरी भी कहते है। इसी अयोध्या नगरी मे प्रथम चक्रवर्ती भरत जी हुए थे जिसके नाम से इस क्षेत्र का नाम भरतवर्ष पड़ा है।

✍️गंगा-सिंधु का लवण मे मिलना
गुफा से निकलकर दोनो नदी दक्षिण की ओर बहती हुई गंगा नदी पूर्व और सिंधु नदी पश्चिम की ओर मुड जाती है। वहा पर म्लेच्छ खण्डो मे बहने वाली अपनी अपनी 14 -14 हजार परिवार नदियो को लेकर साढे बासठ (62–01/02)योजन विस्तार के साथ गंगा नदी मागध द्वार से और सिंधु नदी प्रभास द्वार से  लवण समुद्र मे समा जाती है।

✍️भरत क्षेत्र का विस्तार
यह जम्बूद्वीप का 190 वा भाग है अर्थात 526 पूर्णाकं 06/19 योजन है। यह भरत क्षेत्र की उत्तर से दक्षिण चौडाई है। भरत क्षेत्र पूर्व से पश्चिम मे 14471 पूर्णांक 05/19 योजन है। इसकी जगती 08 योजन ऊँची, मूल मे 12 योजन चौड़ी घटते घटते ऊपर में 04 योजन चौड़ी होती है। इसकी दाक्षिण दिशा में लवण समुद्र मे जिन प्रतिमओ से युक्त एक राक्षसद्वीप है।*
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          ।। जिनवाणी माता की जय।।
         ।। आचार्य भारतभूषणाय नम:।।
 

मंगलवार, 22 अगस्त 2023

✍️कुलकर

कुलकर उन बुद्धिमान लोगों को कहते है जो लोगों को जीवन निर्वाह के श्रमसाध्य को करना सिखाते है। आर्य पुरुषों को कुल की भाँति इकट्ठे रहने का उपदेश देने से कुलकर कहलाते है। प्रजा के जीवन का उपाय जानने से मनु तथा युग के आदि में होने से युगादि पुरुष भी कहे जाते है।
अवसर्पिणी के तृतीय काल में पल्य का आठवा भाग शेष रहने पर कुलकर उत्पन्न होते है। ये सभी विदेह क्षेत्र मे सत्पात्र दान से मनुष्यायु बंध कर क्षायिक होकर कुलकर बनकर उत्पन्न हुए। ये जाति स्मरण और अवधिज्ञान सहित थे। अभी हम अवसर्पिणी काल मे हुए 14 कुलकरो के बारे मे जानेगे।

◆01) प्रतिश्रुति कुलकर की ऊँचाई 1800 धनुष, आयु पल्य का दसवा भाग, वर्ण स्वर्ण था 
भोगभूमि के अंत मे जब ज्योतिरांग कल्पवृक्ष का प्रकाश कम होने लगा। सूर्य चन्द्र दिखने से लोगो के मन मे उत्पन्न भय को दूर करने वाले प्रतिश्रुति जी थे

◆02) सन्मति कुलकर की ऊँचाई 1300 धनुष आयु पल्य का सौवा भाग वर्ण स्वर्ण था।
कुछ काल बाद दिपांग कल्पवृक्षो का भी प्रकाश कम होने लगा था। तब सूर्य चन्द्र के साथ तारे भी दिखाई देने से लोगो के मन मे उत्पन्न भय का निवारण सन्मति जी ने किया ।

◆03) क्षेमंकर कुलकर की ऊँचाई 800 धनुष आयु पल्य का हजार वा भाग वर्ण स्वर्ण था।  
कुछ काल बाद पशु क्रुर होने लगे उनके उत्पन्न शब्दो को सुनकर प्रजा मे उत्पन्न भय का निवारण क्षेमंकर कुलकर ने किया। इन्होने घरेलू और जंगली जानवरो का अंतर भी बताया ।

◆04) क्षेमंधर कुलकर की ऊँचाई 775 धनुष आयु पल्य का दस हजार वा भाग स्वर्ण वर्ण था ।
आगे चलकर पशु ओर भी क्रुर होने लगे, उत्पात मचाने लगे, मनुष्यो को भी परेशान करने लगे। क्षेमंधर जी ने जानवरो को भगाने के लिए लकडी, पत्थर आदि के हथियार उपयोग करके उन्हे भगाना सिखाया ।

◆05) सीमंकर कुलकर की ऊँचाई 750 धनुष, आयु पल्य का एक लाख वा भाग, वर्ण स्वर्ण था।
इस समय तक कल्पवृक्ष और उनके द्वारा मिलने वाले फल अल्प होने लगे जिससे लोगो मे झगड़ा होने लगा। यह देखकर सीमंकर जी ने वचनो से कल्पवृक्षो की सीमा निर्धारित की, सीमा निर्धारण के कारण ही सीमंकर नाम पड गया।

◆06) सीमंधर कुलकर की ऊँचाई 725 धनुष, आयु पल्य का दस लाख वा भाग, वर्ण स्वर्ण था।
कुछ समय बाद कल्पवृक्षो की वचनो द्वारा सीमा के बाद भी लोगों मे तीव्र झगडे होने लगे। सीमंधर जी ने झाडी आदि चिन्हो के द्वारा कल्पवृक्षो के स्वामित्व का निर्धारण कर दिया।

◆07) विमलवाहन कुलकर की ऊँचाई 700 धनुष, आयु पल्य का एक करोड वा भाग, वर्ण स्वर्ण था  
इन्होने घरेलू जानवरो घोडे, हाथी, गाय आदि की सेवाए कैसे ली जाए यह बताया।

◆08) चक्षुष्मान कुलकर की ऊँचाई 675 धनुष, आयु पल्य का दस करोड वा भाग, वर्ण श्याम था  
चक्षुष्मान जी से पहले संतान उत्पन्न होते ही माता पिता की मृत्यु होती थी। इनके समय में संतान की उत्पत्ती के कुछ क्षण भर बाद माता-पिता का मरण होने लगा। संतान का मुख देखने से उत्पन्न भय का निवारण करने के कारण चक्षुष्मान कहलाए।

◆09) यशस्वी कुलकर की ऊँचाई 650 धनुष, आयु पल्य का सौ करोड वा भाग, वर्ण श्याम था 
इनके समय माता-पिता कुछ अधिक समय तक जीवित रहने लगे। माता-पिता द्वारा संतान को आशीर्वाद देने, नाम संस्कार आदि की शिक्षा देने से यशस्वी जी कहलाए। 

◆10)अभिचन्द्र कुलकर की ऊँचाई 625 धनुष, आयु पल्य का एक हजार करोड भाग वर्ण श्याम था 
पुत्र उत्पत्ति के कुछ दिनो बाद तक माता पिता जीवित रहने लगे। अभिचन्द्र कुलकर ने माता-पिता द्वारा बालको को चन्द्रादि दिखाकर क्रीड़ा कराने की शिक्षा दी जिससे वे अभिचन्द्र जी कहलाए।

◆11) चंद्राभ कुलकर के ऊँचाई 600 धनुष, आयु पल्य का दस हजार करोड वा भाग, वर्ण धवल था  
पुत्र उत्पत्ती के बहुत काल तक माता-पिता जीवित रहने, शीत वायु चलने लगी थी। चंद्राभ जी ने शीत वायु के भय का निवारण सुर्य की किरणों द्वारा करने की शिक्षा दी।

◆12) मरुदेव कुलकर की ऊँचाई 575 धनुष, आयु पल्य का एक लाख करोड वा भाग, वर्ण स्वर्ण था  
इस समय तक मेघ, वर्षा, नदी, पर्वत, बिजली आदि भी दिखने लगे थे। मरुदेव जी ने नदी पार करने के लिए नाव व छातो की प्रयोग विधि तथा पर्वतादि पर चढने की शिक्षा दी।

◆13) प्रसेनजित कुलकर की ऊँचाई 550 धनुष, आयु पल्य का दस लाख करोड भाग धवल वर्ण था  
प्रसेन अर्थात झिल्ली (जरायु पटल) इस समय तक संतान झिल्ली में एक-एक करके पैदा होने लगी थी। इससे पहले संतान झिल्ली में लिपटे नही होती थी। प्रसेनजित जी ने ही झिल्ली को छेदने का उपाय बतया।  सबसे पहले अकेले नाभिराय जी ही उत्पन्न हुए थे।

◆14) नाभिराय कुलकर के शरीर की ऊँचाई 525 धनुष, आयु एक पूर्व कोटी और वर्ण स्वर्ण था  
कल्पवृक्षो का अत्यन्त अभाव होने से कौन सा फल औषधी रुप, कौन सा फल भोजन योग्य है इसका उपदेश नाभिराय जी ने दिया। उत्पन्न संतान की नाभी के नाल को छेदने का उपाय बताने के कारण नाभिराय कहलाए।
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● बाद मे ऋषभदेव तीर्थंकर हुए उनको भी उपचार से कुलकर माना जाता है। इन्होंने नगर ग्राम आदि की रचना करना बताया, लौकिक शास्त्र सिखाया, असि मसि आदि षट शिक्षाओ का उपदेश दिया, दया प्रधान धर्म की स्थापना की।
● भरत जी ने वर्ण व्यवस्था की स्थापना की, ये भी उपचार से कुलकर माने जाते है।

👉दण्ड व्यवस्था
प्रारम्भ के पाँच कुलकरो के समय हा कहकर दण्ड दिया जाता था, 6 से 10 वे कुलकर के समय  हा मा  कहकर दण्ड दिया जाता था। 11 से 14 वे कुलकर मे  हा मा धिक  कहकर दण्ड देने की व्यवस्था थी

✍️भविष्यकालीन कुलकर
भविष्य में उत्सर्पिणी के दु:षमा दूसरे काल के अंत: मे 1000 वर्ष बाकी रहने पर इसी प्रकार सोलह युगादिपुरुष होंगे –
कनक, कनकप्रभ, कनकराज,  कनकध्वज, कनकपुंगव, नलिन, नलिनप्रभ, नलिनराज, नलिनध्वज, नलिनपुंगव, पदम, पदमप्रभ, पदमराज, पदमध्वज, पद्मपुंगव, महापदम
 
●विशेष:- त्रिलोकसार जी गाथा 871 मे सोलह  कुलकर का तथा तिलोयपण्णत्ति मे चौदह कुलकर का वर्णन है। पदम और महापदम ये दो कुलकर का वर्णन त्रिलोकसार जी मे ज्यादा है।
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।। जिनवाणी माता की जय ।।
।। आचार्य भारतभूषणाय नम : ।।


 

शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

✍️कल्पवृक्ष


भोगभूमि में मनुष्यों की संपूर्ण आवश्यकताओं को चिंता मात्र से पूरी करने वाले वृक्षो को कल्पवृक्ष कहते है। कल्पवृक्षो के द्वारा ही भोगभूमि के जीवो को मनवांछित फल प्राप्त होते है। भोग भूमियों में जन्मे युगल कल्पवृक्षो द्वारा दी गई वस्तुओं का भोग भोगते है। युगलिक काल में जीव वस्त्र-आभरण, अन्न पान एवं आवासादी की आपूर्तियाँ कल्पवृक्ष ही करते है। आज भी कल्पवृक्ष का अस्तित्व मेरु पर्वत, देव कुरु, उत्तर कुरु अवं अन्य युगलिक क्षेत्रो में है।

भरतक्षेत्र के आर्यखंड में अवसर्पिणी काल के प्रथम तीन काल तथा उत्सर्पिणी के अंतिम तीन कालो मे सभी कल्पवृक्ष विद्यमान होते है। कल्पवृक्ष ना वनस्पतिकायिक होते हैं और न देवों द्वारा अधिष्ठित वृक्ष, ये वृक्षाकार रूप में पृथ्वी के सार स्वरूप सामान्य वृक्षों की भाँति पृथ्वीकायिक होते है। और जीवो को उसके पुण्य के अनुसार इष्ट फल प्रदान करते है। ये दस प्रकार के होते है— 
तूर्यांग (वाद्यांग), पानांग (मद्यांग), भूषणांग,  वस्त्रांग, भोजनांग (आहारंग),  आलयांग (गृहांग),  दीपांग, भाजनांग (पात्रांग), मालांग (पुष्पांग) और तेजांग (ज्योतिरांग) दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं।
*(त्रिलोकसार ७८७, तिलोयण्णत्ती ०४/३४२)*
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✍️ तूर्यांग (वाद्यांग) कल्पवृक्ष
वाद यंत्र, तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम वीणा, पटु, पटह, मृदंग, झालर, शंख, दुंदुभि, भंभा, भेरी और काहल इत्यादि भिन्न-भिन्न प्रकार के वाद्ययंत्रों आदि संगीतमय सामग्री को देते हैं।

✍️ भाजनांग (पात्रांग) कल्पवृक्ष
भाजनांग जाति के कल्पवृक्ष सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित कलश, झारी, गागर, चामर आदि बर्तन देते है। अर्थात घर मे प्रयोग होने वाले बर्तनो को देते है।

✍️ भूषणांग कल्पवृक्ष
 इससे अलंकार प्राप्त होते है। भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष कंगन, कटिसूत्र, हार, केयूर, मंजीर, कटक, कुंडल, किरीट और मुकुट इत्यादि आभूषणों को प्रदान करते हैं। भोगभूमि की स्त्रीयाँ चौदह और पुरुष सोलह प्रकार के आभूषण धारण करते है।

✍️ पानांग (मद्यांग) कल्पवृक्ष
पानांग जाति के कल्पवृक्ष भोगभूमिजों को मधुर, सुस्वादु, छह रसों से युक्त, प्रशस्त, अतिशीत और तुष्टि एवं पुष्टि को करने वाले, ऐसे 33 प्रकार के पेय द्रव्य को दिया करते हैं। इसी का अपर नाम मद्यांग कल्पवृक्ष भी है।

✍️ भोजनांग (आहारंग) कल्पवृक्ष
भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष 16 प्रकार का आहार, 16 प्रकार के व्यंजन, 14 प्रकार के सूप अर्थात दाल आदि, 108 प्रकार के खाद्य पदार्थ, 363 प्रकार के स्वाद्य पदार्थ और 63 प्रकार के रस भेदों को पृथक पृथक दिया करते हैं।

✍️ मालांग (पुष्पांग) कल्पवृक्ष
मालांग जाति के कल्पवृक्ष वल्ली, तरु, गुच्छ और लताओं से उत्पन्न हुए 16000 भेद रूप पुष्पों की विविध मालाओ को देते हैं।


✍️ तेजांग (ज्योतिरांग) कल्पवृक्ष 
तेजांग जाति के कल्पवृक्ष करोड़ों सूर्यों की किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, चंद्र और सूर्यादिक की कांति का संहरण करते हैं। इनके वृक्षो के प्रकाश के कारण ही भोगभूमि मे कभी अंधेरा नही होता, रात नही होती है।

✍️ आलयांग (गृहांग) कल्पवृक्ष 
आलयांग जाति के कल्पवृक्ष, स्वस्तिक, नंद्यावर्त इत्यादिक 16 प्रकार के रमणीय दिव्य भवन दिया करते हैं।

✍️ वस्त्रांग कल्पवृक्ष
वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम क्षौमादि वस्त्र तथा अन्य मन और नयनों को आनंदित करने वाले नाना प्रकार के वस्त्रादि देते है। सभी जीवो को अपने अपने नाप के वस्त्र मिलतें है। 

✍️ दीपांग कल्पवृक्ष
दीपांग जाति के कल्पवृक्ष प्रासादों में शाखा, प्रवाल, कपोल, फल, फूल, पत्र और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश देते हैं।

♨️विशेष-
◆ दीपांग और तेजांग मे अंतर– तेजांग का प्रकाश तो सूर्य चन्द्र आदि जैसा प्रकाश होता है तथा दीपांग मे दीपको जैसा सुनहारी प्रकाश होता है।  
◆पानांग और मद्यांग का एक ही होना–
पानांग जाति के कल्पवृक्ष को मद्यांग भी कहते हैं। ये वृक्ष फैलती हुई सुगंधी से युक्त तथा अमृत के समान मीठे मधु-मैरेय, सीधु, अरिष्ट और आसव आदि अनेक प्रकार के रस देते हैं। कामोद्दीपन की समानता होने से शीघ्र ही इन मधु आदि को उपचार से मद्य कहते हैं। वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं। मद्यपायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह नशा करने वाला और अंतःकरण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है।
*(महापुराण ०९/३९-४८)*
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   ।। जिनवाणी माता की जय ।।
।। आचार्य भारतभूषणाय नम : ।।


सोमवार, 14 अगस्त 2023

जम्बूद्वीप की नदिया ।। jambudeep ki nadiya

जम्बूद्वीप के भरत आदि सातो क्षेत्रो मे गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा,  नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रुपकूला, रक्ता-रक्तोदा ये 14 महानदियाँ बहती है। ये सभी नदियाँ छहो कुलाचलों पर स्थित सरोवरो से निकलकर सातो क्षेत्रो मे बहती हुई लवण समुद्र मे समा जाती है। इन सभी युगल नदियो मे पूर्व वाली नदी पूर्व लवण समुद्र मे और शेष सात नदियाँ पश्चिम लवण समुद्र की और जाती है।
जम्बूद्वीप मे इन 14 महानदियो सहित कुल 90 महानदियाँ होती है। इन सभी 90 महानदियो की सत्रह लाख बानवे हजार परिवार नदियाँ होती हैं जिसका वर्णन अब हम सभी आगे जानेगे

*✍️सरोवर से निकलने वाली नदी के नाम*
पदम सरोवर से             गंगा-सिंधु-रोहितास्या
महापदम सरोवर से       रोहित-हरिकान्ता
तिगिंच्छ सरोवर से         हरि-सीतोदा
केसरी सरोवर से           सीता-नरकांता
महापुण्डरिक सरोवर से  नारी-रुपयकूला
पुण्डरिक सरोवर से       सुवर्णकूला-रक्ता-रक्तोदा
नदिया निकलती है। इस प्रकार पहले और छ्ठे सरोवर से तीन-तीन नदी, बीच के चार सरोवरो से दो-दो नदी निकलती है। ये सभी नदियाँ सरोवर से निकलने से लेकर लवण समुद्र मे गिरने तक दस गुणा चौडी हो जाती है।

*✍️परिवार नदियाँ और विस्तार*
◆ गंगा-सिंधु रक्ता-रक्तोदा नदी के परिवार मे पृथक पृथक चौदह चौदह हजार नदियाँ होती है। ये मूल मे सवा छह योजन चौडी होकर निकलती है तथा लवण मे पहुचते समय साढे बासठ योजन चौडी होकर समा जाती है। 

◆ रोहित-रोहितास्या, सुवर्णकूला-रुपकूला नदी के परिवार मे पृथक-पृथक अठ्ठाईस अठ्ठाईस हजार नदियाँ होती है। ये मूल मे साढे बारह योजन चौडी होकर निकलती है तथा लवण मे पहुचते समय एक सौ पच्चीस योजन चौडी होकर समा जाती है।

◆ हरित-हरिकान्ता, नारी-नरकान्ता नदी के परिवार मे पृथक पृथक छप्पन छप्पन हजार नदिया होती है। ये मूल मे पच्चीस योजन चौडी होकर निकलती है तथा लवण मे पहुचते समय दो सौ पचास योजन चौडी होकर समा जाती है।

◆ सीता-सीतोदा नदी के परिवार मे पृथक-पृथक चौरासी चौरासी हजार नदिया होती है। ये मूल मे पचास योजन चौडी होकर निकलती है तथा लवण मे पहुचते समय पाँच सौ योजन चौडी होकर समा जाती है।

👉यहा इतना विशेष ध्यान देने योग्य है कि क्रमशः दुगनी-दुगनी के अनुसार सीता-सीतोदा नदी की पृथक-पृथक संख्या एक लाख बारह हजार होती है परन्तु त्रिलोकसार आदि आगम मे इनकी संख्या चौरासी चौरासी हजार प्राप्त हुई है अर्थात हरित हरिकान्ता नदी की अपेक्षा डेढ गुनी संख्या है, दुगनी नही।
इस प्रकार 14 महानदियाँ की परिवार नदियो की संख्या पाँच लाख साठ हजार हो जाती है। भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्र में बहने वाली नदियो की परिवार नदियाँ वहा के मल्लेच्छ खण्ड मे बहती है।

*✍️विदेह नगरियों की परिवार नदियाँ*
विदेह की प्रत्येक नगरी मे भरत ऐरावत के समान गंगा-सिंधु या रक्ता-रक्तोदा– ये दो-दो नदी निकलती है। इसमे नील पर्वत संबंधी दक्षिणी भाग के निचे के कुण्डो से गंगा-सिंधु नामक बत्तीस नदियाँ व निषध पर्वत संबंधी उत्तरी भाग के कुण्डो से रक्ता-रक्तोदा बत्तीस नदियाँ निकलती है। इस प्रकार 32 विदेह नगरी संबंधी 64 महानदियाँ है। इन सभी 64 महानदियो की चौदह चौदह हजार परिवार नदिया है। इस प्रकार से विदेह की 64 महानदियो की आठ लाख छियानवे हजार नदियाँ हो जाती हैं।

✍️इसके अतिरिक्त बत्तीस विदेह नगरी के मध्य 12 विभंगा नदिया भी है। सभी विभंग नदी पृथक पृथक 28000 नदियो से घिरी होने के कारण कुल तीन लाख छत्तीस हजार नदियाँ हो जाती है।

*✍️जम्बूद्वीप कि सभी नदियो का जोड।
इस प्रकार जम्बूद्वीप संबंधी 6 कुलाचलो से 14 महानदियाँ, 32 विदेह नगरी से 64 महानदियाँ, तथा 12 विभंगा नदिया निकलने से कुल 90  महानदियाँ हो जाती है।
14 महानदियाँ की पाँच लाख साठ हजार नदियाँ
64 महानदी की आठ लाख छियानवे हजार नदियाँ
12 विभंगनदी की तीन लाख छत्तीस हजार नदियाँ
इस प्रकार जम्बूद्वीप की सभी 90 महानदियो की परिवार नदियो का जोड कुल सत्रह लाख बानवे हजार नदियॉ हो जाती है।
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*जम्बूद्वीप की नदियाँ*
गंगा---------------१४०००
सिंधु---------------१४०००
रोहित-------------२८०००
रोहितास्या---------२८०००
हरित---------------५६०००
हरिकान्ता----------५६०००
सीता---------------८४०००
सीतोदा-------------८४०००
नारी----------------५६०००
नरकान्ता-----------५६०००
सुवर्णकुला----------२८०००
रुपयकुला-----------२८०००
रक्ता-----------------१४०००
रक्तोदा---------------१४०००
विभंग नदी----२८०००×१२ 
                           =३३६००० 
विदेह की नदी---१४०००×६४
                           = ८९६०००
मूल नदी--------------------९०
*(१४+१२+६४=९०)*
*जम्बूद्वीप की कुल नदी-१७९२०९०*
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*।। जिनवाणी माता की जय ।।*
*।। आचार्य भारतभूषनाय नमः।।*



24) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*

*२४) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *जहाँ कार्मण काययोग समाप्त होगा उसके अगले ही क्षण से ही मिश्र काययोग प्रारम्भ हो ...