*श्रुत पंचमी*
वैशाख सुदी दशमी के दिन भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्रगट हुआ था, किन्तु गणधर के अभाव में छ्यासठ दिन तक उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी। उस समय इन्द्र ने बुद्धिबल से इन्द्रभूति नामा ब्राह्मण को वहाँ उपस्थित किया। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने पाँच-पाँच सौ शिष्यों के साथ अपने भाई अग्निभूति और वायुभूति के साथ तथा अपने पाँच सौ शिष्यों सहित प्रभु के समवसरण में जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। तत्क्षण ही मनःपर्यय ज्ञान से और सात महाऋद्धियों से सम्पन्न होकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये। पुनः उन्होंने भगवान् से 'जीव है या नहीं'। इत्यादि रूप से अनेकों प्रश्न किए। उस समय भगवान की दिव्यध्वनि खिरने लगी।
गौतम स्वामी ने उसी दिन बारह अंग और चौदह पूर्व रूप ग्रंथों की एक ही मुहूर्त में रचना की। इस तरह श्रावश्रुत और अर्थ पदों के कर्ता तीर्थंकर भगवान महावीर हैं और तीर्थंकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रुतपर्याय से परिणत हुए इसलिए द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं। इस तरह गौतम से ग्रंथ रचना हुई।
गौतम स्वामी ने दोनों प्रकार का ज्ञान लोहार्य को दिया। लोहार्य ने भी जंबूस्वामी को दिया। गौतम स्थविर, लोहार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों ही सप्तर्द्धिसम्पन्न सकलश्रुतधर होकर अंत में केवलज्ञानी होकर निर्वाण को प्राप्त हुए। इसके बाद विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से चौदह पूर्व के धारी हुए। अनंतर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थ स्थविर, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह महामुनि ग्यारह अंग और दश पूर्वों के ज्ञाता हुए तथा शेष चार पूर्वी के एक देश ज्ञाता हुए।
इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पाँचों ही आचार्य ग्यारह अंगों के ज्ञाता हुए और चौदह पूर्वी के एकदेश ज्ञाता हुए। तदनंतर सुभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चारों ही आचार्य सम्पूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंग-पूर्वी के एकदेश के धारक हुए। इसके बाद सभी अंग और पूर्वी का एकदेश ज्ञान आचार्य परम्परा' से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ।
सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चंद्रगुफा में रहने वाले अष्टांग महानिमित्तज्ञानी श्रीधरसेनाचार्य ने 'अंगपूर्वश्रुतज्ञान का विच्छेद न हो जाये' इसलिए महामहिमा अर्थात् पंचवर्षीय साधु सम्मेलन में आये हुए दक्षिणपथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा। लेख को पढ़कर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, नानागुण युक्त, देश, कुल और जाति से शुद्ध ऐसे दो साधुओं को आंध्र देश की वेणानदी के तट से भेजा।
इधर धरसेनाचार्य ने स्वप्न में देखा कि अत्यंत शुभ्र और उन्नत दो बैल हमारी तीन प्रदक्षिणा देकर चरणों में पड़ गये हैं। स्वप्न से संतुष्ट हुए श्री धरसेन भट्टारक ने 'जयतु श्रुतदेवता' ऐसा वाक्य उच्चारण किया और उठ बैठे। उसी दिन प्रातः वे दोनों मुनि श्रीगुरु के पास पहुँचे और विनयपूर्वक कृतिकर्म विधि से उनकी पादवंदना की। अनंतर दो दिन बिताकर तीसरे दिन उन दोनों ने निवेदन किया कि 'हम श्रुत अध्ययन हेतु आपके पादमूल में आये हुए हैं। उनके वचनों को सुनकर गुरु ने 'अच्छा है, कल्याण हो' ऐसा कहकर उन्हें आश्वासन दिया।
शुभ स्वप्न देखने मात्र से ही यद्यपि आचार्य श्री ने उन मुनियों की विशेषता को जान लिया था, तो भी उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया, क्योंकि उत्तम प्रकार की परीक्षा ही हृदय में संतोष को उत्पन्न करती है। इसके बाद आचार्य ने उन दोनों को दो विद्याएँ दीं। उनमें से एक अधिक अक्षर वाली थी और दूसरी हीन अक्षर वाली थी। विद्याएँ देकर उनसे कहा कि बेला करके उनको सिद्ध करो। जब उनको विद्याएँ सिद्ध हो गईं, तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देवताओं को देखा कि एक देवी के दाँत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है।
"विकलांग होना देवताओं का स्वभाव नहीं होता है" इस प्रकार उन दोनों ने विचार कर मंत्र संबंधी व्याकरण शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाली विद्या में अधिक अक्षर मिलाकर और अधिक अक्षर वाली विद्या में से अक्षर निकालकर मंत्र फिर से सिद्ध करना प्रारंभ किया। जिससे ये दोनों विद्या देवताएँ अपने स्वभाव और अपने सुंदररूप में स्थित दिखलाई पड़ी।
तदनंतर भगवान धरसेन के समक्ष आकर उन दोनों ने विनय सहित सारा वृत्तांत निवेदित किया। 'बहुत अच्छा' इस प्रकार संतुष्ट हुए धरसेन भट्टारक ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रंथ पढ़ाना प्रारंभ किया। इस तरह क्रम से व्याख्यान करते हुए धरसेन भगवान से उन दोनों ने आषाढ़ शुक्ला एकादशी के पूर्वाण्ह काल में ग्रंथ समाप्त किया। विनयपूर्वक ग्रंथ समाप्त किया, इसलिए संतुष्ट हुए व्यंतर देवों ने उन दोनों की बड़ी भारी पूजा की। अनंतर धरसेनाचार्य ने एक मुनि का नाम भूतबलि और दूसरे का नाम पुष्पदंत रखा।
तदनंतर उसी दिन वहाँ से भेजे गये उन दोनों ने 'गुरु की आज्ञा अलंघनीय होती है' ऐसा विचार कर आते हुए अंकलेश्वर गुजरात में वर्षाकाल बिताया। वर्षायोग समाप्त कर जिनपालित को देखकर (उसको साथ लेकर) पुष्पदंत आचार्य तो वनवासी देश को चले गये और भूतबली भट्टारक तमिल देश को चले गये। तदनंतर पुष्पदंत आचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर पुनः बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित को पढ़ाकर अनंतर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा।
जिनपालित मुनि को और उनके पास बीस प्ररूपणान्तर्गत सत्प्ररूपणा के सूत्रों को देखकर तथा जिनपालित के मुख से पुष्पदंत आचार्य की अल्पायु जानकर विचार किया कि "महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विच्छेद हो जायेगा, अतः हमें इस कार्य को पूरा करना चाहिए" ऐसा सोचकर भगवान भूतबलि ने 'द्रव्यप्रमाणानुगम" को आदि लेकर ग्रंथ रचना की। इसलिए खंड सिद्धांत की अपेक्षा भूतबलि और पुष्पदंत आचार्य भी श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं। अर्थात् पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य ने जीवस्थान, खुद्दाबंध, बंधस्वामित्व, वेदनाखंड, वर्गणाखण्ड और महाबंध' नामक षट्खण्डागम की रचना की है'।
धवला में षट्खण्डागम की रचना का इतना ही इतिहास पाया जाता है। इससे आगे का वृत्तांत इन्द्रनंदिकृत श्रुतावतार में मिलता है।
'श्री भूतबलि आचार्य ने षट्खण्डागम की रचना पुस्तक बद्ध करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को चतुर्विध संघ के साथ उन पुस्तकों की पूजा की। इसीलिए श्रुत पंचमी तिथि तभी से प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई है और आज तक भी जैन लोग श्रुतपंचमी के दिन श्रुतपूजा करते हैं। फिर भूतबलि ने उन षट्खण्डागम पुस्तकों को जिनपालित के हाथ पुष्पदंत गुरु के पास भेजा। उन्हें देखकर औरचंतित कार्य को सफल जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने भी चातुर्वर्ग संघ सहित सिद्धान्त की पूजा की। यह तो षट्खण्डागम सिद्धान्त की उत्पत्ति कही है।
✍️ विशेष नोट -
1. नंदि-आम्नाय की प्राकृत पद्यावली में लोहाचार्य के अनंतर 'अर्हदद्वबलि, माघनंदि, धरसेन, पुष्पदंत और भूतबली' ऐसा क्रम लिया है एवं इन्द्रनंदि कृत-श्रुतावतार में लोहाचार्य के अनंतर अंगपूर्व के एकदेश ज्ञाता में 'विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त ये चार नाम कहे हैं। पुनः अर्हद्वलि नाम के महान ज्ञानी आचार्य हुए, जिन्होंने पृथक् पृथक् संघ व्यवस्था बनाई। इनके बाद 'माघनंदि' आचार्य हुए हैं, ये भी अंगपूर्व के एकदेश ज्ञाता थे। पुनः धरसेनाचार्य हुए।
2. वर्तमान में मुद्रित धवला की तृतीय पुस्तक से भी भूतबलि आचार्य कृत सूत्र हैं। इसके पूर्व 177 सूत्र रचना पुष्पदंत: आचार्य ने की है।
श्रुत पंचमी पर्व की कथा पूर्ण हुई यह आचार्य इन्द्रनंदी जी के श्रुतावतार के आधार से लिखी है।
।।जिनवाणी माता की जय।।
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