https://youtu.be/JO8lUNM5PRg?si=NrHC-ilGaCB55_Fd
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उज्जैन में राजा श्रीवर्मा राज्य करते थे। उनकी सभा में बलि, वृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि ये चार मंत्री थे जो चारो ही मिथ्यात्वी थे। एक बार दिगम्बर गुरु अकंंपन आचार्य सात सौ मुनियों के संघ के साथ विहार करते हुए उज्जयिनी नगरी के उद्यान में जाकर ठहर जाते हैं। आचार्य अपने निमित्तज्ञान से इस बात को जान लेते हैं कि यहाँ पर संघ के लिए कुछ अनिष्ट की संभावना है। इसलिये अपने शिष्यों से यह कह रखा था कि सब साधु मौन रहें, कोई आवे तो बिलकुल बातचीत नहीं करें न कुछ धर्म चर्चा ही। गुरु की यह आज्ञा सुन कर सब मुनि धर्म ध्यान में लीन हो गये ।
प्रात:काल शहर में मुनिसंघ के आने का समाचार सुनकर श्रावक हाथ में पूजा द्रव्य लेकर अपने-अपने घर से चल पड़ते हैं और गुरुओं की वंदना करते हैं। उसी समय उज्जयिनी के राजा श्रीवर्मा अपने महल की छत पर बैठे हुए थे साथ मे चारों मंत्री बैठे थे। मंत्री राजनीति में निपुण होते हुए भी धर्म के कट्टर शत्रु हैं और दिगम्बर मुनियों के प्रति बहुत ही द्वेष करने वाले हैं। राजा कुतूहलवश मंत्रियों से पूछते हैं कि आज ये सब लोग पूजन सामग्री हाथ में लिए हुए कहाँ जा रहे हैं?’’ मंत्री कहते है अपने शहर के बगीचे में नित्य ही नंगे रहने वाले साधु आए हुए हैं। ये सब लोग उन्हीं के दर्शन करने जा रहे हैं।’’
यह सुनकर राजा ने कहा कि हम भी मुनिराजों के दर्शन करेगें । परन्तु चारो मंत्री जैनमुनियों की निन्दा करने लगे, पर राजा ने उनकी एक न मानी और रनवास सहित बड़े साज बाज से साधु वन्दना को निकले तब तो बेचारे मंत्रियों को भी राजा के साथ जाना पड़ा। राजा ने वहां पहुंच कर उन वीतराग मुनियों की भक्ति सहित वन्दना की, परन्तु किसी मुनि ने उन्हें आर्शीवाद नहीं दिया। जब राजा लौट पड़े तब साथ के मन्त्री उनसे कहने लगे कि ये मुनि मूर्ख हैं, इसी कारण कुछ नहीं बोलते हैं इनको कुछ ज्ञान होता तो अवश्य ही बातचीत करते। अत: अपनी पोल न खुल जाए इसीलिए ये सब ध्यान का ढोंग लेकर बैठ गए हैं।’’
राजा मंत्रियों द्वारा मुनियो की निन्दा की बात को सुनी- अनसुनी करके अपने महल की ओर चले आ रहे थे। उसी समय शहर से श्रुतसागर मुनि आहार लेकर आते दिखे। उन्हें देख मंत्रियों ने कहा, देखिये उस मुनि को बैल जैसा फूला हुआ आ रहा है। इतना सुनते ही मुनिराज समझ जाते हैं कि ये मंत्री वाद-विवाद करने के इच्छुक हैं। मुनिराज को मौन धारण करने की गुरु आज्ञा मालूम नहीं थी क्योंकी वे पहिले ही शहर में चले गये थे। वे मंत्रीयो से शास्त्रार्थ करने लगे और चारो को हरा दिया। राजा प्रसन्नचित्त हो मुनिराज को पुन:-पुन: नमस्कार करके उनके समीचीन ज्ञान की प्रशंसा करते हुए अपने महल वापस आ जाते हैं।
फिर श्रुतसागर मुनि अपने गुरु के पास आये और वहां का हाल सुनाया। तब गुरु कहने लगे कि तुमने यह भला नहीं किया। तुमने अपने हाथों से सारे ही संघ का घात कर लिया, संघ की अब कुशल नहीं है।’ श्रुतसागर जी पूछते हैं— ‘‘गुरुदेव! मेरे से अनजाने में बहुत बड़ा अपराध हो गया है आप उचित प्रायश्चित्त दे दीजिए।’’आचार्य कहते हैं सर्वसंघ की कुशलता के लिए वापस पीछे जाओ जहाँ पर मंत्रियों के साथ शास्त्रार्थ किया है। उसी स्थान पर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान में स्थित हो जाओ।’’ आचार्यदेव की आज्ञा पाकर श्रुतसागर मुनि उसी स्थान पर ध्यान मग्न हो खड़े हो जाते हैं।
मंत्रियों को राजा के सामने हारने से बड़ा क्रोध आया, अपने मान भंग का बदला चुकाने के लिए उन्होनें मुनि संघ को मार डालने की तैयारी की। रात को वे चारों नंगी तलवार लेकर आये और मुनिसंघ को मारने उद्यान की ओर चल पड़ते हैं। रास्ते में श्रुतसागर मुनि को खड़ा देखकर कहने लगे कि इसी ने हमारा अपमान किया है। ‘हाँ, हाँ, सच में दोषी तो यही है और सब बेचारे तो कुछ बोले भी नहीं थे।’’ अतः पहले इसी का काम तमाम करना चाहिये।
चारों ने एक साथ मुनिराज एक साथ तलवार उठाकर गर्दन पर चलाना चाहते हैं परन्तु नगर के देवता का आसन कंपते ही उसी समय वह आकर उन चारों को वैसे ही तलवार उठाये मुद्रा में उसी जगह कील देते हैं और वे तलवार उताए जैसे के तैसे खड़े रह गये। किंंचित् मात्र भी टस से मस नहीं हो पाते हैं। अब वे मन ही मन सोचने लगते हैं— ‘ओह! यह क्या हुआ? प्रात:काल होते ही बिजली की तरह यह खबर सारे शहर में फैल जाती है। सभी लोग एक स्वर में मंत्रियों को धिक्कारते हुए कहते हैं— ‘अरे, रे! इन पापियों को धिक्कार हो, धिक्कार हो!
महाराजा श्रीवर्मा को भी यह हाल मालूम हुआ तब वे भी वहाँ पर आ जाते हैं। राजा ऐसा दृश्य देखकर बहुत ही खेद के साथ कहते हैं— ‘अरे पापियों! तुमने संसार के महा उपकारी और निर्दोष ऐेसे महामुनियों के साथ यह क्या किया? तुम लोगों ने उनको मारने का यह षड्यंत्र क्यों बनाया?……. तभी पुरदेवता उन्हें छोड़ देता हैं और गुरु श्रुतसागर के चरणों की बहुत ही भक्ति से पूजा करता है। राजा मस्तक नीचा किए हुए मंत्रियों से पुन: कहते हैं— ‘अरे दुष्टों! तुम्हारा मुख देखना भी महापाप है। तुम्हें इस मुनि हत्या के महापाप का दण्ड तो मुझ राजा को देना ही चाहिए।
तुम्हारी कितनी ही पीढ़ियाँ मेरे यहाँ मंत्रीपद पर प्रतिष्ठा पा चुकी हैं इसीलिए मैं तुम्हें प्राणों का अभय दे रहा हूँ।’ पुन: राजा अपने कर्मचारियों से कहते हैं— तुम इन चारों को ले जाकर गधे पर बिठाकर इन्हें अपने देश की सीमा से बाहर निकाल दो।’ आचार्यदेव भी इस प्रकार से आने वाली संघ की आपत्ति टल जाने से संतुष्ट दिख रहे हैं और संघ के सभी साधु गुरु के अनुशासन का प्रत्यक्ष सुखद अनुभव प्राप्त कर गुरु के अनुशास्य शिष्य होने से अपने आपको गौरवान्वित कर रहे थे।
तीर्थंकर मल्लिनाथ जी के तीर्थकाल की बात है हस्तिनापुर के राजा चक्रवर्ती महापद्म अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ वन में जाकर महामुनि श्रुतसागर मुनि के सानिध्य में पहुँचकर जाते है। दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करना शुरू कर देते हैं। उधर उज्जयिनी से निकाले जाने पर बलि आदि चारों मंत्री यहाँ हस्तिनापुर आकर वाक् चतुराई से राजा के यहाँ मंत्री पद को प्राप्त कर लेते हैं। किसी समय राजा को चिंतित देख उसका कारण ज्ञातकर राजा से कहते हैं— ‘‘राजन्! कुंभपुर का सिंहबल राजा किस अभिमान में हैं? आप हमें आज्ञा दीजिए, हम उसे जीवित ही पकड़कर आपके सामने उपस्थित कर देंगे।’’
राजा उनकी बातों से प्रसन्न होकर बहुत सी सेना दे देते हैं। वे चारों मंत्री कुम्भपुर नगर पर चढ़ाई कर अपने बुद्धिबल से सिंहबल को जीवित ही पकड़कर बाँधकर हस्तिनापुर लाकर राजा पद्म के सामने खड़ा कर देते हैं। राजा पद्म इन मंत्रियों की इस कार्य कुशलता से प्रसन्न हो उन्हें वर माँगने को कहते हैं तब मंत्रीगण निवेदन करते हैं। अभी हमारा वर आप धरोहर रूप में अपने पास ही रहने दीजिए, आवश्यकतानुसार हम ले लेंगे।’’
इसी समय अकंपनाचार्य महामुनि सात सौ मुनियों के साथ विहार करते हुए हस्तिनापुर के बाहर उद्यान में ठहर जाते हैं और वर्षायोग का नियम ग्रहण कर लेते हैं। श्रावक संघ की उपासना के लिए प्रतिदिन उनकी वंदना, पूजा, भक्ति करना शुरू कर देते हैं। ‘‘श्री अकंपनाचार्य मुनि संघ सहित यहाँ आये हैं’’ यह समाचार मिलते ही मंत्रियों को अपने अपमान की बात याद आ जाती है। वे परस्पर में विचार करते हैं की बदला चुकाने का यही समय उपयुक्त है। इन्हीं दुष्टों के द्वारा कितना दु:ख उठाना पड़ा है ? और उज्जयिनी से अपमानित होकर देश निकाले का दण्ड दिया है।
राजा पद्म इनके परम भक्त हैं, वे इनका अहित कैसे होने देंगे ?’’ बलि मंत्री कहता है— ‘‘सुनो, हमने राजा से जो वर प्राप्त किया था, उसके बदले राजा से सात दिन का राज्य प्राप्त कर लेना चाहिए।’’ उसी समय राजा के पास पहुँच कर निवेदन करते हैं की आपने हमें वर दिया था आज हमें आवश्यकता है।’’ राजा कहते हैं— ‘‘कहो, आप लोगों को क्या चाहिए ? बलि कहता है— ‘‘महाराज! हमें सात दिन के लिए अपना राज्य प्रदान कीजिए।’’ राजा ऐसा सुनते ही अवाक् रह जाते हैं उनके मन में कुछ अनर्थ की आशंका हो जाती है किन्तु अब वे कर ही क्या सकते थे ? वे वचनबद्ध थे अत: उन्हें राज्य देना ही पड़ा।
राजा मंत्रियों को राज्य सौंपकर स्वयं सात दिन के लिए अपने रननिवास पर आकर निवास करने लगे। इधर ये दुष्ट मंत्री राज्य पाकर मुनियों के मारने के लिए महायज्ञ का बहाना रचते हैं जिससे कि सर्व साधारण लोग कुछ न समझ सकेँं। उस समय वे मुनियों को बीच में रखकर उनके चारों तरफ एक बहुत बड़ा मंडप तैयार कराते हैं। उनके चारों तरफ लकड़ियों का ढेर इकट्ठा करवा देते हैं, बकरी, भेड़ें आदि हजारों पशु वहीं बाड़ा बनवाकर बंधवा देते हैं और यह घोषणा करा देते हैं कि देश तथा राज्य की शांति के लिए ‘पशुमेघ’ यज्ञ प्रारंभ किया है।
वेद-वेदांग पारंगत विद्वान यज्ञ कराने लगते हैं और वेद ध्वनि से यज्ञ मण्डप को गुंजायमान कर देते हैं। बेचारे निरपराध पशुओं को निर्र्दयता पूर्वक मारा जा रहा है, आहुतियाँ दी जा रही हैं। देखते-देखते दुर्गंधित धुएं से सारा आकाश परिपूर्ण हो जाता है। श्री अकंपनाचार्य महाराज और सभी सात सौ मुनिगण इस दुर्घटना को देखकर अपने ऊपर उपसर्ग समझ लेते हैं। संयम की रक्षा हेतु आगम विधि के अनुसार सल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं।
उपसर्ग दूर होने पर ही आहार जल ग्रहण करना इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर लेना नियम सल्लेखना है तथा बचने की संभावना न होने पर जीवन भर के लिए चतुराहार त्याग करना यम सल्लेखना है। आध्यात्मिक भावना को भाते हुए वे सभी मुनि पर्वत के समान अकंप होकर निश्चल शरीर करके तिष्ठे हो जाते हैं। इधर बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि ये चारों दुष्टात्मा राज्य को प्राप्त कर फूले नहीं समा रहे हैं और मुनियों को मारने के लिए यज्ञ विधि का आयोजन करके किमिच्छक दान बाँट रहे हैं।
मिथिला नगरी के बाहर उद्यान में श्री श्रुतसागरमुनि रात्रि के समय ध्यान में स्थित हैं। अर्धरात्रि के अनंतर वे ध्यान को विसर्जित कर आकाश की ओर देखते हैं ‘श्रावण नक्षत्र कंंपायमान देखकर अपने निमित्तज्ञान से विचारते हैं और सहसा मुख से बोल पड़ते हैं— ‘हाय! हाय!!’’ पास में ही पुष्पदंत नाम के क्षुल्लक जी बैठे हुए थे, वे गुरु के मुख से सहसा ‘हाय, हाय,’ शब्द सुनकर घबराकर पूछते हैं— ‘भगवन्! क्या हुआ!!’ श्रुतसागरसूरि कहते हैं— ‘हस्तिनापुर में संघ के नायक श्री अकपनाचार्य महामुनि और सात सौ मुनियों पर पापी बिल द्वारा बहुत बड़ा उपसर्ग हो रहा है।’
क्षुल्लक जी पूछने पर की यह उपसर्ग कैसे दूर होगा तो श्रुतसागर मुनि कहते हैं— उज्जयिनी नगरी के बाहर एक गुफा में श्री विष्णुकुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गई है। वे ऋद्धि के बल से इस उपसर्ग का निवारण कर सकते हैं।’’ गुरु की आज्ञा पाकर पुष्पदंत क्षुल्लक आकाशगामी विद्या के बल से मुनि विष्णुकुमार के सानिध्य में पहुँचकर नमोऽस्तु करते हैं और श्री श्रुतसागर मुनि द्वारा कथित समाचार सुना देते हैं। विष्णुकुमार मुनि आश्चर्य से सोचते हैं क्या मुझे विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो चुकी है ?’ वे तत्क्षण ही अपना हाथ पसारते हैं तो वह हाथ गुफा के बाहर पर्वत आदि को भेदन करता हुआ बहुत दूर तक चला जाता है।
विष्णुकुमार मुनि उसी क्षण विक्रियाऋद्धि के द्वारा आकाश मार्ग से चलकर शीघ्र ही हस्तिनापुर मे बड़े भाई राजा पद्म के राजमहल में पहुँच जाते हैं। और कहते हैं— भाई तुम किस नींद में सो रहे हो ? शहर में कितना भारी अनर्थ हो रहा है ? अपने राज्य में तुमने ऐसा अनर्थ क्यों होने दिया ? राजा पदम कहते है।‘भगवन्! मैं क्या करूँ ? मुझे क्या मालूम था कि ये पापी लोग मिलकर मुझे ऐसा धोखा देंगे ? अब मैं वचनबद्ध हो चुका हॅूं, सात दिन तक के लिए अपना राज्य दे चुका हूँ। हे महामुने! अब तो आप ही इस कार्य में समर्थ हैं। आप ही किसी उपाय द्वारा मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिए।
विष्णुकुमार मुनि विक्रिया ऋद्धि से वामन ब्राह्मण का वेष बनाते हैं। कंधे पर जनेऊ लटका कर बगल में वेदशास्त्रों को दबाकर मधुरता से वेद की ऋचाओं का उच्चारण करते हुए वहाँ यज्ञ मंडप में पहुँच जाते हैं। बलि राजा (मंत्री) तो उन पर इतना प्रसन्न हो जाता है कि वह कहता है आपकी जो इच्छा हो, सो माँगिए। वामन ब्राह्मण कहते हैं— ‘मैं गरीब ब्राह्मण हूूँ। मुझे धन-दौलत की आवश्यकता नहीं है। मुझे केवल तीन पैर (पग) पृथ्वी की आवश्यकता है। इसके सिवाय मुझे और कुछ नहीं चाहिए।’ तब बलि कहता है— ‘हे पूज्य! तो आप स्वयं अपने ही पैरों से पृथ्वी माप लीजिए।’
बलि महाराज जल की भरी सुवर्ण झारी उठा कर दान का संकल्प करते हुए वामन ब्राहमण के हाथ में जलधारा डाल देते है। संकल्प होते ही वामन वेषधारी विष्णुकुमार पृथ्वी को मापने के लिए अपना पहला पाँव उठाकर सुमेरु पर्वत पर रखते हैं, दूसरा पैर उठाकर मानुषोत्तर पर्वत पर रखते हैं पुन: तीसरा पैर उठाते हैं और उन्हें आगे बढ़ने की कहीं जगह ही नहीं दिखती है, उसे वे कहाँ रक्खे ? …...तब वह तीसरा पाँव आकाश में ही उठा रह जाता है। उनके इस प्रभाव से सारी पृथ्वी काँप उठती है, सभी पर्वत चलायमान हो जाते हैं, समुद्र मर्यादा तोड़ देते हैं और उनका जल बाहर उद्वेलित होकर बहने लगता है।
देवों के विमान भी टकराने लगते हैं और देवगण सहसा आश्चर्य से चकित हो जाते हैं। पुन: तत्क्षण ही देवगण अपने अवधिज्ञान से सारा समाचार ज्ञातकर वहाँ आकर बलि को बाँधकर मुनि विष्णुकुमार से कहते हैं— ‘प्रभो! क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए!!…. इस प्रकार चारों तरफ से आकाश में उपस्थित देवगण एक साथ शब्दों का उच्चारण करते हुए आकाश को मुखरित कर रहे हैं— ‘जय हो, जय हो, जय हो!! महामुनि अकंपनाचार्य की जय हो, सर्व दिगम्बर मुनियों की जय हो, जैनधर्म की जय हो। महासाधु विष्णुकुमार की जय हो, जय हो, जय हो!!
हे धर्मवत्सल! हे दया सिन्धो, हे धर्म के अवतार! क्षमा करो, क्षमा करो!! दया करो, दया करो!! हम सभी की रक्षा करो, अब आप अपनी विक्रिया समेटो, हे देव! अब आप अपना पैर संकुचित करो। यह सब दृश्य देखकर अतीव भयभीत और काँपता हुआ बलि महाराज के चरणों में गिर पड़ता है और गिड़गिड़ाता हुआ कहता है— मुझे क्षमा कर दीजिए, मैं महापापी हूँ फिर भी अब आपकी शरणागत हूूँ अब आप मेरी रक्षा कीजिए, मेरे ऊपर दया कीजिए’ इसी मध्य बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि तीनों मंत्री भी आकर मुनि के चरणों में साष्टांग पड़कर क्षमा याचना करते हैं और पश्चात्ताप करते हुए अश्रु गिराने लगते हैं।
वामन वेषधारी विष्णुकुमार तत्क्षण ही अपनी विक्रिया समेट लेते हैं और मुनि अवस्था में वहाँ खड़े हो जाते हैं। उसी समय देवगण आकर सभी मुनियों पर हो रहे सारे उपसर्ग को दूर कर देते हैं। यज्ञ मंडप और अग्नि को हटा देते हैं। जो बेचारे निरपराध पशु हवन की आहुति के लिए वहाँ बाँधे गये थे उन्हें छोड़ देते हैं और सभी को अभयदान की घोषणा कर देते हैं। उसी क्षण राजा पद्म भी वहाँ आ जाते हैं और विष्णुकुमार मुनि के चरणों से लिपट जाते हैं। सात सौ मुनियों के ऊपर हो रहे भंयकर उपद्रव को दूर हुआ देख हर्षाश्रु से मुनि विष्णुकुमार के चरणों का मानों प्रक्षालन ही कर रहे हों।
प्रजा में शांति की लहर दौड़ जाती है। एक साथ सारी प्रजा वहाँ दौड़ आती है और गुरुओं की वंदना एवं वैयावृत्ति में लग जाती है। उसी क्षण राजा और चारों मंत्री बड़ी भक्ति से अकंंपनाचार्य की वंदना करने को वहाँ पहँच जाते हैं और उनके चरणों में साष्टांग पड़कर नमस्कार करते हैं।’ पुन: वे चारों मंत्री गुरुदेव से निवेदन करते हैं— ‘हे नाथ! अब हमें आप विश्व हितकारी, परमोपकारी, अहिंसामयी इस जैनधर्म को ग्रहण कराइए।’ इतनी प्रार्थना को सुनकर श्री अकंंपनाचार्य गुरुवर्य उन पर दया करके मिथ्यात्व का त्याग कराकर चारों को सम्यक्त्व तथा अणुव्रत देकर उन्हें दुर्जन से सज्जन बना देते हैं।
सभी देवगण प्रसन्न होकर बहुत ही भक्ति भाव से अष्ट द्रव्य आदि उत्तम-उत्तम सामग्री लेकर श्री विष्णुकुमार मुनि के चरणों की पूजा करते हैं, पुन: अकंंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों की पूजा करते हैं। वे देवगण देवमयी तीन वीणाएँ लाकर उन्हें बजा-बजा कर खूब भक्ति-पूजा करते हैं। पुन: उन तीनों वीणाओं को यहीं मध्यलोक में दे जाते हैैं जिनके द्वारा भक्त लोग सदा ही उन गुरुओं का गुणानुवाद गा-गाकर पुण्य संपादन करते रहे।
पुन: सभी श्रावक श्राविकाएँ विचार करते हैं— ‘‘अहो! इन उपसर्ग विजयी महामुनियों को अग्नि की आँच और धुएं से बहुत क्लेश हुआ है। इनके कंठ रुँध गए हैं और शरीर में भी वेदना हो रही है अत: अब इन्हें ऐसा आहार देना चाहिए कि जिससे ये जले हुए, पीड़ा युक्त कंंठ से सहज में ग्रहण कर सके।’’ तभी सब श्रावक सेमई की खीर को उपयुक्त आहार समझकर घर-घर में वैसा मृदु आहार तैयार करके आहार की बेला में अपने-अपने घर के दरवाजे पर मुनियों के पड़गाहन की प्रतीक्षा में खड़े हो जाते हैं।
सभी मुनि अपनी-अपनी नियम सल्लेखना को विसर्जित कर आचार्यश्री के साथ शरीर को संयम का साधन मानकर उसकी रक्षा हेतु चर्या के लिए निकलते हैं। श्रावक आनंद विभोर हो नवधा भक्ति से पड़गाहन करना शुरू कर देते हैं। जिन श्रावकों को मुनियों का लाभ मिल जाता है वे अपने जीवन को धन्य मान लेते हैं और विधिवत् उन्हें मुदु और सरस सेमई की खीर का आहार देकर अतिशय पुण्य संपादन कर लेते हैं। जिन श्रावकों को कोई उत्तम मुनि-पात्र नहीं मिल पाता है वे भी उस दिन पात्रदान की उत्कट भावना से अन्य व्रती श्रावकों को भोजन कराकर आहार दान की भावना भाते हुए अपने जीवन को सफल करते हैं।
जिस दिन इन सात सौ मुनियों की रक्षा हुई थी वह दिन श्रावण शुक्ला पूूर्णिमा का था। तभी से आजतक सभी श्रावकगण इस दिन को वात्सल्य पर्व के नाम से मनाते चले आ रहे हैं।
इस प्रकार धर्मात्माओं के प्रति परम धर्म के अवतार मुनि श्री विष्णुकुमार ने वात्सल्य भाव को करके जो धर्मात्माओं की रक्षा की है, उसी की स्मृति में इस पर्व को मनाते हुए धर्म और धर्मात्माओं की रक्षा का नियम लेना चाहिए, तभी इस पर्व को मनाने की पूर्ण सार्थकता है।
अनंतर विष्णुकुमार मुनि अपने गुरु के पास जाकर विक्रिया से जो वामनवेष बनाया था उसका प्रायश्चित्त ग्रहण कर घोराघोर तपश्चरण कर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। वे महामुनि विष्णुकुमार तथा अकंंपनाचार्य आदि सात सौ मुनि हम सब की रक्षा करें।
👉 विशेष नोट - त्रिलोकसार जी की गाथा 817 मे आया है कि महापदम चक्रवर्ती जी तीर्थंकर मल्लिनाथ जी के तीर्थंशासन मे हुए है।
।।जिनवाणी माता की जय।।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
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