गुरुवार, 18 सितंबर 2025

20. चौबीस ठाणा-असत्य-उभय मनोयोग व वचनयोग

20. चौबीस ठाणा-असत्य-उभय मनोयोग व वचनयोग*
https://youtu.be/fEejyLB-Rdo?si=Vi92arjna1YxqPfO

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*२४ स्थान असत्य-उभय– मनोयोग व वचनयोग*
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*०१) गति      ०४/०४*   
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   पंचेन्द्रिय मे
*०३) काय      ०१/०६*  त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५*  सबका अपना अपना
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनों
         स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०७/०८* केवलज्ञान के बिना सातों
*०८) संयम      ०७/०७*  सातो संयम
        सा.छे.परिहार.सूक्ष्म.यथा.संयमा.असंमय
*०९) दर्शन      ०३/०४*  केवलदर्शन को छोडकर
        चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
        कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  छहो  (मिथ्यात्त्व, सासादन,मिश्र,औपशमिक,क्षायिक,क्षयोपशमिक)
*१३) संज्ञी         ०१/०२*  सैनी 
        मन का भी योग है इसलिए असंज्ञी नही होते
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक, 
क्योकि विग्रहगति मे वचन नही होते तो अनाहारक भी नही होते
*१५) गुणस्थान   १२/१४*  ०१–१२ तक
*१६) जीवसमास  ०१/१९*  संज्ञी पंचेन्द्रिय
*१७) पर्याप्ति       ०६/०६*  छहो
आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासोच्छवा,भाषा,मनःपर्याप्ति
*१८) प्राण           १०/१०*  दसो प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  चारो  संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      १०/१२*  
केवलदर्शनोपयोग और केवलज्ञानोपयोग
*२१) ध्यान         १४/१६*  
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति के बिना
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   २६ लाख/८४ लाख*  
नारकी ०४ लाख, तिर्यंच ०४ लाख, देवो ०४ लाख, मनुष्यो १४ लाख
*२४) कुल-१०८.५ ला. करोड/१९९.५ ला. करोड
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*प्रश्न ३६) असत्यमनोयोग किसे कहते हें?*
उत्तर : वस्तु जैसी नही है वैसा विचार करना असत्य मन है, तथा इसके निमित्त (भावमन) से आत्मा के प्रदेशो मे कम्पन होना असत्य मनोयोग है।
*जैसे* मरीचिका में जलज्ञान का विषय जल असत्य है। क्योंकि उसमें स्नान-पान आदि अर्थक्रिया का अभाव है । *(गो.जी.)*

*प्रश्न ३७) असत्य वचनयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : वस्तु जैसी नही है उस असत्य का वचनो से कथन करना असत्य वचन तथा इसके निमित्त से आत्मा मे कंपन होना असत्य वचनयोग है
असत्य अर्थ का वाचक वचन असत्यवचन व्यापार रूप प्रयत्न असत्यवचन योग है।  *(गो. जी. २२०)*

*प्रश्न ३८)  उभय मनोयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : जिसमे सत्य भी हो असत्य भी हो ऐसी वस्तु का मन मे विचार उभय मन है।
*जैसे* कमण्डलु को यह घट है, क्योंकि कमण्डलु घट का काम देता है इसलिए कथंचित् सत्य है और घटाकार नहीं है इसलिए कथंचित् असत्य भी है ।
उभय मन के निमित्त से आत्मा मे कम्पन होना उभय मनोयोग है।
सत्य और मृषा रूप योग को असत्यमृषा मनोयोग कहते हैं। *(गो.जी.२१९)*

*प्रश्न ३९) उभयवचनयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : जिसमे सत्य और असत्य दोनो हो वह वस्तु है उभय, उसका कथन करना उभय वचन है।
*जैसे* कमण्डलु में घट व्यवहार की तरह सत्य और असत्य दोनो है।
उभय वचन के निमित्त से आत्मा मे कंपन होना उभय वचन योग है।
अर्थ विधायक वचन व्यापार रूप प्रयत्न उभय वचनयोग है । *(गो. जी. २२०)*

*प्रश्न ४०) प्रमाद के अभाव में श्रेणिगत जीवों के असत्य और उभय मनोयोग एवं वचन योग कैसे हो सकता है?*
उत्तर : प्रमाद पहले से छठे गुणस्थान तक होता है।
श्रेणीगत जीव आठवे से बारहवे गुणस्थान तक है।
आवरण कर्म से युक्त जीवों के विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञान के कारणभूत मन का सद्‌भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। परन्तु इसके सम्बन्ध से क्षपक या उपशमक जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है । *(धवला ०१/२८८)*  
ऐसी शंका व्यर्थ है क्योंकि असत्यवचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है इस अपेक्षा से वहाँ पर असत्य वचन के सद्‌भाव का प्रतिपादन किया है, इसीलिए उभय संयोगज सत्य मृषा वचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है। 
*(धवला ०१/२९१)*

*प्रश्न ४१) ध्यानस्थ अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में वचनयोग या काययोग का सद्‌भाव कैसे हो सकता है?*
उत्तर:ध्यान अवस्था में भी अन्तर्जल्प के लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत सुक्ष्म प्रयत्नरूप काय योग का सत्व अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवर्ती जीवों के पाया ही जाता है इसलिए वहाँ वचनयोग एवं काययोग भी सम्भव ही हैं।    *(धवला ०२/४३४)*    
*अर्थात* ध्यान अवस्था में भी अबुद्धिपूर्वक पूर्वक प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत सुक्ष्म प्रयत्नरूप काययोग चलता रहता है। यहा भी वर्गणाओ का ग्रहण चलता रहता है–भाषा वर्गणा, नोकर्म वर्गणा का ग्रहण होता रहता है उस समय भाषा वर्गणा के ग्रहण से वचन योग तथा नोकर्म वर्गणा के ग्रहण से काययोग होता रहता हैं।
*अन्तर्जल्प=अंतरंग मे अबुद्धिपूर्वक विकल्पो का चलना*

*प्रश्न ४२) संसार में ऐसे कौन-कौन से जीव हैं जिनके मनोयोग नहीं होता है?*
उत्तर: ससार के जीव जिनके मनोयोग नहीं होता है*
*०१)* एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवो के मनोयोग नही होता। 
*०२)* लब्ध्यपर्याप्त तथा जब तक मन:पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक मनोयोग नही होता। 
*०३)* तेरहवें गुणस्थान में केवली समुद्धात तथा छठे गुणस्थान में आहारक समुद्धात में जब तक मन: पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक मनोयोग नही होता। 
*०४)*चौदहवें गुणस्थान में अयोगकेवली जीवो के मनोयोग नही होता। 
*०५)* मनोयोग का निरोध होने के बाद तेरहवें गुणस्थान में मनोयोग नही होता। 
*(यहा केवल सूक्ष्मकाययोग रहता है)*
यह मनोयोग १३ वे गुणस्थान के अंतरमुहूर्त पहले *मनोयोग, वचनयोग, स्थूलकाययोग जाता है यहा केवल सूक्ष्मकाययोग रहता है*

*प्रश्न ४३) क्या लब्ध्यपर्याप्तक सैनी जीवों के भी असत्य वचनयोग होता है?*
उत्तर : नहीं, किसी भी लब्ध्यपर्यातक जीव के औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग ये दो योग को छोड्‌कर अन्य कोई योग नहीं होता है क्योंकि भाषा तथा मनःपर्याप्ति पूर्ण हुए बिना वचन तथा मनोयोग नहीं बन सकता है ।

*प्रश्न ४४) असत्य तथा उभय मन-वचन योग का कारण क्या है?*
उत्तर : आवरण का मन्द उदय होते हुए असत्य की उत्पत्ति नहीं होती अत: असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, उभय मनोयोग, उभय वचनयोग का मूल कारण आवरण के तीव्र अनुभाग का उदय ही है, यह स्पष्ट है। 
इतना विशेष है कि तीव्रतर अनुभाग के उदय से विशिष्ट आवरण असत्य मनोयोग और असत्य वचन योग का कारण है। और तीव्र अनुभाग के उदय से विशिष्ट आवरण उभयमनोग और उभयवचनययोग  का कारण हे । *(गो. जी. २२७)* 

*प्रश्न ४५) यदि सत्य तथा अनुभय मन- वचन योग का कारण आवरणकर्म का तीव्र मन्द अनुभाग होता है तो केवली भगवान के योग कैसे बनेंगे?*
उत्तर : यद्यपि योग का निमित्त आवरणकर्म का मन्द तीव्र अनुभाग का उदय है किन्तु केवली के सत्य और अनुभय योग का व्यवहार समस्त आवरण के क्षय से होता है । *(गो. जी. २२७)* 

*प्रश्न ४६) असत्य वचनयोगी के मनःपर्ययज्ञान कितने गुणस्थानों में होता है?*
उत्तर : असत्य वचनयोगी के मनःपर्ययज्ञान छठे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के सात गुणस्थानों में होता है।

*प्रश्न ४७) असत्य और उभय मनोयोगी के कितने कुल नहीं होते हैं?*
उत्तर : सत्य और अनुभय मनोयोगी के पृथ्वीकायिक आदि के ९१ लाख करोड कुल नही होते है।

पृथ्वीकायिक के     २२ लाख करोड़ 
जलकायिक के      ०७ लाख करोड़
अग्निकायिक के     ०३ लाख करोड़
वायुकायिक के       ०७ लाख करोड़
वनस्पतिकायिक के २८ लाख करोड़  
द्वीन्द्रिय के             ०७ लाख करोड़  
त्रीन्द्रिय के             ०८ लाख करोड़  
चतुरिन्द्रिय के        ०९  लाख करोड़
असत्य और उभय मनोयोग तो संज्ञी जीवो के होता है तथा ये सभी असंज्ञी जीव है, इसलिए जो कुल इनके होते है वे असत्य और उभय मनोयोगी के नही होते है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

19. चौबीस ठाणा- अनुभय वचन योग

19. चौबीस ठाणा- अनुभय वचन योग
https://youtu.be/1_9w0rJSf_U?si=SD9ya0wSD0eXvpC7
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*24 स्थान अनुभय वचन योग*
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*०१) गति      ०४/०४*   
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति
*०२) इन्द्रिय    ०४/०५*   ऐकेन्द्रिय को छोडकर
*०३) काय      ०१/०६*  त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५*  अनुभय वचन योग
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनों
         स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०८/०८* आठो ज्ञान
*०८) संयम      ०७/०७*  सातो संयम
*०९) दर्शन      ०४/०४*  चारो दर्शन
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
        कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  छहो
    मिथ्यात्त्व, सासादन, मिश्र, औपशमिक, क्षायिक,
    क्षयोपशमिक सम्यक्त्व
*१३) संज्ञी         ०२/०२*  सैनी और असैनी
सैनी-असैनी से रहित के भी होते है।
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक
      (अनाहरक मे वचन योग नही होता)
*१५) गुणस्थान   १३/१४*  ०१-१३ तक
*१६) जीवसमास  ०५/१९*  
द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय, असैनी-सैनी पंचेन्द्रिय 
*१७) पर्याप्ति       ०६/०६*  छहो
आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासोच्छवा,भाषा,मनःपर्याप्ति
*१८) प्राण           १०/१०*  दसो प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  सभी संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      १२/१२*  सभी बारह
*२१) ध्यान         १४/१६*  
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति के बिना
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   ३२ लाख/८४ लाख*  
*२४) कुल–१३२.५ ला. करोड/१९९.५ ला. करोड
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*प्रश्न २३) अनुभयवचन योग किसे कहते हैं?*
उत्तर : जो सत्य और असत्य अर्थ को विषय नहीं करता वह असत्यमृषा अर्थ को विषय करने वाला वचन व्यापार रूप प्रयत्न विशेष अनुभयवचन योग है। अर्थात जिस वचन को सत्य भी नही कह सकते और असत्य भी नही कह सकते वह अनुभय वचन योग है।
दो इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की जो अनक्षरात्मक भाषा है तथा संज्ञी पंचेन्द्रियों की जो आमन्त्रण आदि रूप अक्षरात्मक भाषा है
*जैसे* देवदत्त आओ, यह मुझे दो, क्या करूँ आदि सभी अनुभयवचनयोग कहे जाते हैं *(गो.जी.२२१)*
आमान्त्रण आदि नौ प्रकार की भाषा होती है–
*०१) आमंत्रणी* बुलाने रुप–हे देवदत्त तुम आओ
*०२) आज्ञापनी* आज्ञा रुप–तुम यह काम करो
*०३) याज्ञनी*     मांगने रुप–तुम यह मुझको दो
*०४) आपृच्छनी*  प्रश्नरुप–यह क्या है
*०५) प्रज्ञापनी*    विनती रुप–
        हे स्वामी यह मेरी विनती है।
*०६) प्रत्याख्याती*  त्यागरुप–
        मै इसका त्याग करता हूँ।
*०७) संशयवचनी*  संदेहरुप–
        यह बगुलो की पक्ति है या ध्वजा है।
*०८) इच्छानुलोम्नी* इच्छारुप–
         मुझको भी ऐसा ही होना चाहिए।
*०९) अनक्षरगता* 
        द्वीन्द्रियदि असंज्ञी जीवो की भाषा

*प्रश्न २४) उपर्युक्त ”देवदत्त आओ" आदि वचनो को अनुभव वचन योग क्यों कहा गया है?*
उत्तर : ‘देवदत्त आओ’ ‘ आदि वचन श्रोताजनों को सामान्य से व्यक्त और विशेष रूप से अव्यक्त अर्थ के अवयवों को बताने वाले हैं। इससे सामान्य से व्यक्त अर्थ का बोध होता है, इसलिए इन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता और विशेष रूप से व्यक्त अर्थ को न कहने से इन्हें सत्य भी नहीं कहा जा सकता है।  *(गो. जी. २२३)*

*प्रश्न २५) अनक्षरात्मक भाषा में सुव्यक्त अर्थ का अंश नहीं होता है, तब वह अनुभय रूप कैसे हो सकती है?*
उत्तर: अनक्षरात्मक भाषा को बोलने वाले द्वीन्द्रिय आदि जीवों के सुख-दुःख के प्रकरण आदि के आलम्बन से हर्ष आदि का अभिप्राय जाना जा सकता है इसलिए व्यक्तपना सम्भव है। अत: अनक्षरात्मक भाषा भी अनुभय रूप ही है। *(गो. जी. २२६)*

*प्रश्न २६) सयोग केवली के अनुभय एवं सत्यवचन योग की सिद्धि कैसे होती है?*
उत्तर : भगवान की दिव्य ध्वनि के सुनने वालों के श्रोत्र प्रदेश को प्राप्त होने के समय तक अनुभय वचनरूप होना सिद्ध है। उसके अनन्तर श्रोताजनों के इष्ट पदार्थों में संशय आदि को दूर करके सम्यक ज्ञान को उत्पन्न करने से सयोग केवली भगवान के सत्यवचनयोगपना सिद्ध है।   *(गो. जी.)*

*प्रश्न २७) तीर्थंकर तो वीतरागी हैं अर्थात् उनके बोलने की इच्छा का तो अभाव है फिर उनके मात्र सत्य वाणी ही क्यों नहीं खिरी, अनुभय वाणी भी क्यों खिरी?*
उत्तर : तीर्थंकरों के जीव ने पूर्व में ऐसी भावना भायी थी कि संसार के सभी जीवों का कल्याण कैसे हो। उसी भावना से उनके सहज तीर्थंकर गोत्र (प्रकृति) का बंध पड़ गया था।इसी के उदय में वाणी खिरती है। अनादिकाल से जीव अज्ञान के कारण पौद्‌गलिक संबंध अपनी गुण पर्याय के साथ किस प्रकार का है, उसी का ज्ञान कराने के कारण सत्य वाणी खिरी है और जीव की पौद्‌गलिक कर्मों के संयोग से कैसी अवस्था हो रही है अनुभय वाणी खिरी है। यह दोनों प्रकार की वाणी एक साथ सहज खिर रही है। इस वाणी को सुनकर ही गणधर देवों ने सूत्रों की रचना की है।।    *(चा. चक्र)*

*प्रश्न २८) क्या, कोई ऐसे अनुभयवचनयोगी है, जिनके वेद नहीं हो?*
उत्तर: हाँ है,नवम गुणस्थान के अवेद भाग से तेरहवें गुणस्थान तक के अनुभय वचनयोगी वेद रहित होते हैं। इसी प्रकार सत्यादि योगों में भी जानना चाहिए ।

*प्रश्न २९) अनुभय वचनयोगी के कम-से-कम कितनी कषायें होती हैं?*
उत्तर : दसवें गुणस्थान की अपेक्षा अनुभय वचन योगी के कम-से-कम एक कषाय होती है सूक्ष्म योग तथा ग्यारहवें से तेरहवे वें गुणस्थान तक अनुभय वचनयोगी कषाय रहित भी होते हैं ।

*प्रश्न ३०) अनुभयवचन योगी जीव संज्ञी होते हैं या असंज्ञी?*
उत्तर : अनुभय वचनयोगी जीव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं तथा इन दोनों से अतीत अर्थात् सयोग केवली भगवान संज्ञी-असंज्ञीपने से रहित अनुभय वचन योग पाया जाता है जिसे हम अनुसंज्ञी भी कहते है।

*प्रश्न ३१) अनुभय वचनयोगी के अवधिज्ञान में कितने गुणस्थान हो सकते हैं?*
उत्तर : अनुभय वचनयोगी के अवधिज्ञान में चौथे गुणस्थान से बारहवे गुणस्थान तक के नौ गुणस्थान होते हैं।

*प्रश्न ३२) अनुभय वचनयोगी के कौन से संयम में सबसे ज्यादा गुणस्थान होते हैं?*
उत्तर: असंयम में पहले से चौथे तक चार गुणस्थान होते हैं।
सामायिक-छेदोपस्थापना संयम में अनुभय वचन योगी के छठे से नवमे गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते हैं। 
यथाख्यात संयम मे भी १० से १३ गुणस्थान तक मे चार गुणस्थान होते है।

*प्रश्न ३३) क्या ऐसे कोई अनुभय वचनयोगी हैं जिनके मात्र एक ही सम्यक्त्व होता है?*
उत्तर : हाँ है, तेरहवें गुणस्थान में तथा क्षपक श्रेणी के ०८ वें, ०८ वें, १० वें १२ वें गुणस्थान में केवल एक क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है। 
द्वीन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तक के जीवों में भी सम्यक्त्व मर्गणा में से केवल एक मिथ्यात्व ही होता है ।

*प्रश्न ३४) अनुभय वचनयोगी अनाहारक क्यों नहीं होते?*
उत्तर : अनुभय वचनयोग में अनाहारकपना नहीं होने के दो कारण हैं- 
*पहली कारण* मात्र कार्मण काययोग में ही जीव अनाहारक होता है। 
*दूसरी कारण* भाषा पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना वचन योग नहीं होता, अनाहारक अवस्था में भाषा पर्याप्ति पूर्ण होना तो बहुत दूर, प्रारम्भ भी नहीं होती है ।

*प्रश्न ३५) अनुभय मनोयोग में जातियों ज्यादा हैं या अनुभय वचनयोग में?*
उत्तर : अनुभय वचनयोग में जातियाँ ज्यादा हैं क्योंकि वह द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पाया जाता है तथा अनुभय मनोयोग पंचेन्द्रिय से तेरहवें गुणस्थान तक होता है।अर्थात् अनुभय मनोयोग में २६ लाख जातियाँ है और अनुभय वचनयोग में ३२ लाख जातियाँ है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

18. चौबीस ठाणा–सत्य मन-वचन, अनुभय मनो योग*

18. चौबीस ठाणा–सत्य मन-वचन, अनुभय मनो योग*

*२४ स्थान सत्यमन, सत्यवचन-अनुभय मनोयोग*
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*०१) गति      ०४/०४*   
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   संज्ञी पंचेन्द्रिय
*०३) काय      ०१/०६*  त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५*  
जैसे सत्यमनोयोगी के सत्यमनयोग
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनों
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०८/०८* आठो ज्ञान
*०८) संयम      ०७/०७*  सातो संयम
*०९) दर्शन      ०४/०४*  चारो दर्शन
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  छहो
मिथ्यात्त्व, सासादन, मिश्र, औपशमिक, क्षायिक, क्षयोपशमिक सम्यक्त्व
*१३) संज्ञी         ०१/०२*  सैनी
सैनी-असैनी से रहित जीव भी होते है।
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक
*१५) गुणस्थान   १३/१४*  ०१-१३ तक
*१६) जीवसमास  ०१/१९*  संज्ञी पंचेन्द्रिय
*१७) पर्याप्ति       ०६/०६*  छहो
आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासोच्छवा,भाषा,मनःपर्याप्ति
*१८) प्राण           १०/१०*  दसो प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  सभी संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      १२/१२*  सभी बारह
*२१) ध्यान         १४/१६*  
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति के बिना
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   २६ लाख/८४ लाख*  
*२४) कुल–१०८.५ लाख करोड/१९९.५ लाख करोड* 
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*प्रश्न १२) सत्य मनोयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : सम्यग्ज्ञान के विषयभूत अर्थ को सत्य कहते हैं। *जैसे* जल ज्ञान का विषय जल सत्य है,क्योंकि स्नान-पान आदि अर्थ क्रिया उसमें पाई जाती हैं सत्य अर्थ का ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति रूप भाव मन सत्य मन है। उस समय मन से उत्पन्न हुआ योग अर्थात् प्रयत्न विशेष सत्य मनोयोग है।
* (गो. जी. जी. २१७-२१८)*

*प्रश्न १३) सत्य वचनयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : सत्य अर्थ का वाचक वचन सत्य वचन है।
स्वर नामकर्म के उदय से प्राप्त भाषा पर्याप्ति से उत्पन्न भाषा वर्गणा के आलम्बन से आत्मप्रदेशों में शक्ति रूप जो भाव वचन से उत्पन्न योग अर्थात् प्रयत्न विशेष है, वह सत्यवचन योग है। 
*(गो. जी. २२० सं. प्र.) 
दस प्रकार के सत्यवचन में वचन वर्गणा के निमित्त से जो योग होता है वह सत्य वचन योग है। 
*(पंच संग्रह प्राकृत)*
*दस प्रकार के सत्य* जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य/आपेक्षिक, व्यवहार, संभावना, भाव और उपमा
यहा बोलने की शक्ति को ही सत्यवचन योग कहाँ है, बोलना जरुरी नही है।

*प्रश्न १४) अनुभय मनोयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : अन=नही,  उभय=दोनो नही
जो मन सत्य और असत्य से युक्त नहीं होता, वह असत्य मृषामन है अर्थात् अनुभय अर्थ के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति रूप भावमन से उत्पन्न प्रयत्न विशेष अनुभय मनोयोग है। अर्थात अनिर्णयत्मक वस्तु  *( गो.जी. २१९)*
किसी वस्तु का निर्णय नही होना कि यह सत्य है या असत्य यह है अनुभय उस अनुभय का विचार करना अनुभयमन और इसके निमित्त से आत्मा के प्रदेशो का कम्पन होना अनुभय मनोयोग है।
अनुभय ज्ञान का विषय अर्थ अनुभय है, उसे न सत्य ही कहा जा सकता है और न असत्य ही कहा जा सकता है। *जैसे* कुछ प्रतिभासित होता है। यहाँ सामान्य रूप से प्रतिभासमान अर्थ अपनी अर्थक्रिया करने वाले विशेष के निर्णय के अभाव में सत्य नहीं कहा जा सकता है और सामान्य का प्रतिभास होने से असत्य भी नहीं कहा जा सकता है। इसलिए जात्यन्तर होने से अनुभय अर्थ स्पष्ट चतुर्थ अनुभय मनोयोग है। *जैसे* किसी को बुलाने पर ‘ हे देवदत्त’ यह विकल्प अनुभय है।   *(गो. जी. २१७)*

*प्रश्न १५) सत्य तथा अनुभय मन- वचन योग का कारण क्या है?* 
उत्तर : सत्य तथा अनुभय मन-वचन योग का मूल कारण (निमित्त) प्रधानकारण पर्याप्त नामकर्म और शरीर नामकर्म का उदय है। (क्योकि ये पर्याप्तक के ही होते है)     *(गो. जी. २२७)*

*प्रश्न १६) सत्य मनोयोगी के क्षायिक सम्यक्त्व में कितने गुणस्थान होते हैं?*
उत्तर : सत्य मनोयोगी के क्षायिक सम्यक्त्व में चौथे से तेरहवें गुणस्थान तक कुल दस (१०) गुणस्थान होते हैं।
*(क्षायिक सम्यक्त्व तो १४ वे गुणस्थान तक होता हैं लेकिन योग केवल १३ वे गुणस्थान तक होता है)*

*प्रश्न १७) सत्य वचनयोगी के केवलदर्शन में कितने गुणस्थान हो सकते हैं?*
उत्तर : सत्य वचनयोगी के केवलदर्शन में एक ही गुणस्थान होता है-तेरहवा (१३) गुणस्थान ।

*प्रश्न १८) सत्य मनोयोगी जीव के कम-से-कम कितने प्राण होते हैं?*
उत्तर : सत्य मनोयोगी जीव के कम-से-कम चार प्राण होते हैं– वचन बल,  कायबल, श्वासोच्चवास और आयु प्राण। (ये चार प्राण सयोग केवली की अपेक्षा कहे गये हैं।)

*प्रश्न १९)केवली भगवान के मनोयोग है तो मनोबल क्यों नहीं कहा गया है?*
उत्तर : अंगोपांग नामकर्म के उदय से हृदयस्थान में जीवों के द्रव्यमन की विकसित खिले हुए अष्टदल कमल के आकार रचना हुआ करती है। यह रचना जिन मनोवर्गणाओं के द्वारा होती है उनका जिनेन्द्र भगवान सयोगी केवली के भी आगमन होता है। इसलिए उनके उपचार से मनोयोग कहा गया है । लेकिन ज्ञानावरण तथा अन्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय हो जाने से उनके मनोबल नहीं होता है। क्योंकि मनोबल की उत्पत्ति ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है।    *(गो. जी. २२९)*

*प्रश्न २०) क्या ऐसे कोई सत्य मनोयोगी हैं जिनके मात्र दो संज्ञाएँ हों?*
उत्तर : है, नवम गुणस्थान के सवेदी मनोयोगी मुनिराज के मात्र दो संज्ञाएँ पाई जाती हैं-मैथुन और परिग्रह सज्ञा। अभेद भाग से परिग्रह संज्ञा होती हैं।

*प्रश्न २१) सत्यादि तीन योगों में चौदह ध्यान ही क्यों होते हैं?*
उत्तर : सत्य मन, सत्य वचन और अनुभय मन इन तीनो मे चार आर्त्तध्यान, चार रौद्रध्यान, चार धर्मध्यान तथा दो शुक्लध्यान होते हैं।
तीसरा शुक्लध्यान जब केवली भगवान मनोयोग तथा वचनयोग को नष्ट कर देते हैं एवं सूक्ष्मकाययोग रह जाता है तब तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान होता है। अर्थात् तीसरा शुक्लध्यान औदारिक काययोग से ही होता है। अतः इन तीनों योगों में १४ ही ध्यान कहे हैं, पन्द्रह नहीं ।

*प्रश्न २२) अनुभय मनोयोगी के आस्रव के कम-से- कम कितने प्रत्यय होते हैं?*
उत्तर : अनुभय मनोयोगी के आस्रव का कम-से-कम एक प्रत्यय हो सकता है। ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थान में केवल एक स्वकीय अर्थात् अनुभय मनोयोग सम्बन्धी आस्रव का प्रत्यय होगा, क्योंकि एक समय में एक ही योग हो सकता है।  *(ईर्यापथ आस्रव)*
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

गुरुवार, 24 जुलाई 2025

17. चौबीस ठाणा–योग मार्गणा

17. चौबीस ठाणा–योग मार्गणा
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*प्रश्न ०१) योग मार्गणा किसे कहते हैं?*
उत्तर : कर्म (कार्मण) वर्गणा रूप पुद्‌गल स्कन्धों को  "ज्ञानावरण आदि"  आठो कर्म रूप से और 
नोकर्म वर्गणा रूप पुद्‌गल स्कन्ध को  "औदारिक आदि शरीर"  रूप से परिणमन हेतु (भाव योग) जो सामर्थ्य है तथा आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द (हलन चलन) को योग (द्रव्ययोग) कहते हैं।
*कर्म वर्गणा* ज्ञानावरणादि आठो कर्म मे
*नोकर्म वर्गणा* औदारिक आदि शरीर रुप मे
*भाव योग* परिणमन की शक्ति को
*द्रव्य योग* आत्म प्रदेशो का परिस्पंदन को
*०१)* जैसे अग्रि के संयोग से लोहे में दहन शक्ति होती है, उसी तरह अंगोपांग नामकर्म और शरीर नामकर्म के उदय से जीव के प्रदेशों में कर्म और नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न होती है।  *(गो. जी. २१६)*
*०२)* जीवों के प्रदेशों का जो संकोच-विकोच और परिभ्रमण रुप परिस्पन्दन होता है, वह योग कहलाता है।           *(धवला १०/४३७)*
*०३)* मन, वचन, काय वर्गणा निमित्तक आत्म प्रदेशो का परिस्पन्द योग है।  *(धवला १०/४३७)*
*उपर्युक्त योगों में जीवों की खोज करने को योग मार्गणा कहते हैं।*

*प्रश्न ०२) योग कितने होते हैं?*
उत्तर: *योग के दो भेद हैं* द्रव्य योग–भाव योग।
*योग के तीन भेद हैं* मनोयोग, वचनयोग, काययोग
*योग मार्गणा के पन्द्रह भेद होते हैं –*
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग, 
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०७* औदारिक-औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक-वैक्रियिक मिश्रकाययोग, आहारक - आहारकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग

*प्रश्न ०३) द्रव्ययोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : भावयोग रुप शक्ति से विशिष्ट आत्मप्रदेशों में जो कुछ हलन-चलन रूप परिस्पन्द होता है वह द्रव्य योग है।       *( गो.जी. २१६)*

*प्रश्न ०४) भावयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : पुद्‌गल विपाकी अंगोपांग नामकर्म और शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय रुप से परिणत तथा कायवर्गणा, वचनवर्गणा,मनोवर्गणा का अवलम्बन करने वाले संसारी जीव के लोकमात्र प्रदेशों में रहने वाली जो शक्ति कर्मो को ग्रहण करने में कारण है वह भावयोग है।    *(गो.जी.२१६)*

*👉विपाकी* कर्मो का विशेष रुप से पक जाने को, उदय मे आने को विपाक कहते है। कर्मो के पक जाना मे विशेषता कषायों की तीव्रता, मन्दता से होता है। यह विपाक चार प्रकार का होता है–जीव विपाकी, पुदग्ल विपाकी, क्षेत्र विपाकी और भव विपाकी
*◆जीव विपाकी (७८)* जिस कर्म का उदय आने पर सीधा फल जीव को मिले, जीव के परिणामो के निमित्त पडे वे सभी जीव विपाकी प्रकृति है।*जैसे* मोहनीय के उदय का फल जीव को मिलता है।
सभी घतिकर्म की ४७ प्रकृति, गोत्रकर्म ०२, वेदनीय कर्म ०२ और नामकर्म २७*
*◆पुदग्ल विपाकी (६२)* जिन प्रकृतियो के उदय का फल शरीर आदि पुदग्ल के साथ होवे वे पुदग्ल विपाकी है। सभी प्रकृति नामकर्म मे ही होती है।
*जैसे* शरीर नामकर्म, बंधन नामकर्म, अंगोपांग नामकर्म आदि
*◆क्षेत्र विपाकी (०४)* जिसका प्रकृतियो का फल एक क्षेत्र विशेष होता है क्षेत्र विपाकी कहते है।इनका उदय विग्रहगति मे होता है। एक भव से दुसरे भव मे जाते हुए मिलता है। ये चार होती है–नरक गत्यानुपूर्वी, तिर्यंच गत्यानुपूर्वी, मनुष्य गत्यानुपूर्वी और देव गत्यानुपूर्वी 
*◆भव विपाकी (०४)* जिन प्रकृतियो के उदय का फल जीव के भव (आयु) अर्थात पर्याय विशेष मे फल देते है उसे भव विपाकी कहते है। ये चार होती है- नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु

*प्रश्न ०५) मनोयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : अभ्यन्तर में वीर्यान्तराय और नोन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम रूप मनोलब्धि के सन्निकट होने पर और बाह्य निमित्त रूप मनोवर्गणा का अवलम्बन होने पर मनःपरिणाम के प्रति अभिमुख हुए आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है उसे मनोयोग कहते हैं।          *(रा. वा. ०६/१०)*
मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्य के आलम्बन से जो संकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है।
*(धवला ०७/७६)*
मन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। 

*प्रश्न ०६) वचनयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : भाषा वर्गणा सम्बन्धी पुद्‌गल स्कन्धों के अवलम्बन से जीव प्रदेशों का जो संकोच-विकोच होता है वह वचनयोग है।  *(धवला ०७/७६)*
शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई वचन वर्गणाओं का अवलम्बन लेने पर तथा वीर्यान्तराय का क्षयोपशम और मति अक्षरादि (मतिज्ञान आदि) ज्ञानावरण के क्षयोपशम आदि से अभ्यंतर में वचन लब्धि का सान्निध्य होने पर वचन परिणाम के अभिमुख हुए आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्दन होता है वह वचनयोग कहलाता है। *(सर्वा. ६१०)*

*प्रश्न ०७) काययोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर औदारिक आदि सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक का उदय होने से जो आत्मा के प्रदेशो में परिस्पन्दन होता है, वह काययोग है 
*(सर्वा.सि. ०६/०१)*
 जो चतुर्विध शरीरों के अवलम्बन से जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच होता है, वह काययोग है।
 *(धवला ०७/७६)*
वात, पित्त व कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से जीव प्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है वह काययोग कहा जाता है।    *(धवला १०/४३७)*

*प्रश्न ०८) योग मार्गणा कितने प्रकार की होती है?*
उत्तर : योग मार्गणा के अनुवाद की अपेक्षा मनोयोगी, वचनयोगी तथा काययोगी तथा अयोगी जीव होते हैं।  *(षट खण्डागम २७२/८०)*
अत: योग मार्गणा तीन प्रकार की होती है – मनोयोग, वचनयोग, काययोग । 
*औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, कार्मण व तैजस शरीर के निमित्त से योग नहीं बनता है, इसलिए उसे ग्रहण नहीं किया है।*

*प्रश्न ०९) योगमार्गणा में द्रव्य योग को ग्रहण करना चाहिए या भावयोग को?*
उत्तर : योगमार्गणा में भावयोग को ही ग्रहण करना चाहिए। 
सूत्र में आये हुए ‘ इमानि’ पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानों का ग्रहण करना चाहिए। द्रव्य मार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि द्रव्य मार्गणाएँ देश, काल और स्वभाव की अपेक्षा दूरवर्ती हैं, अतएव अल्पज्ञानियों को उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । ( ध.१७/१३१)

*प्रश्न १०) योग क्षायोपशमिक है तो केवली भगवान के योग कैसे हो सकता है?*
उत्तर : वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोगकेवली के जो तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेश पीरस्पन्दन होता है वह भी योग है, ऐसा जानना चाहिए *(सर्वा.६१०)*
सयोग केवली में योग के अभाव का प्रसग नहीं आता, योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचार से हैं । असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योग का सयोग केवली में अभाव मानने में विरोध आता है।   *(धवला ०७/७६)*
शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्मबंध में निमित्त होता है। इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है।   *(धवला ०७/१०५)*
*नोट* शरीर नामकर्म की उदीरणा व उदय से योग उत्पन्न होता है इसलिए योग मार्गणा औदयिक है।?(धवला ०९/३१६)* 

*प्रश्न ११) अयोग केवली (योग रहित जीव) कैसे होते हैं?*
उत्तर : जिन आत्माओं के पुण्य-पाप रूप प्रशस्त और अप्रशस्त कर्मबन्ध के कारण मन, वचन, काय की क्रिया रूप शुभ और अशुभ योग नहीं हैं वे आत्माएँ चरम गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली और उसके अनन्तर गुणस्थानों से रहित सिद्ध पर्याय रूप परिणत मुक्त जीव होते हैं।   *(गो. जी. २४३)*) 
जो मन, वचन, काय वर्गणा के अवलम्बन से कर्मों के ग्रहण करने में कारण आत्मा के प्रदेशों का पीरस्पन्दन रूप जो योग है, उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिन होते हैं। 
*(बृ.द्र.स.टीका १३)*
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

16. चौबीस ठाणा-त्रसकायिक व समुच्चय प्रश्न

16. चौबीस ठाणा-त्रसकायिक व समुच्चय प्रश्न*
https://youtu.be/peMV_pkYUOs?si=eRg8l4CQApeQqfkN

*२४ स्थान त्रसकायिक*
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 *०१) गति      ०४/०४*   
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति
*०२) इन्द्रिय    ०४/०५*   
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय
*०३) काय      ०१/०६*  त्रसकाय
*०४) योग       १५/१५*  सभी
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनों
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०८/०८* आठो ज्ञान
*०८) संयम      ०७/०७*  सातो संयम
*०९) दर्शन      ०४/०४*  चारो दर्शन
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  छहो
मिथ्यात्त्व, सासादन, मिश्र, औपशमिक, क्षायिक, क्षयोपशमिक सम्यक्त्व
*१३) संज्ञी         ०२/०२*  संज्ञी, असंज्ञी
*१४) आहारक   ०२/०२*  आहारक ,अनाहारक
*१५) गुणस्थान   १४/१४*  सभी चौदह गुणस्थान
*१६) जीवसमास  ०५/१९*  पाँच
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय, सैनी पंचेन्द्रिय
*१७) पर्याप्ति       ०६/०६*  छहो
आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासोच्छवा,भाषा,मनःपर्याप्ति
*१८) प्राण           १०/१०*  दसो प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  सभी संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      १२/१२*  सभी बारह
*२१) ध्यान         १६/१६*  सभी सोलह
*२२) आस्रव       ५७/५७*  
मिथ्यात्व ०५, अविरति १२, कषाय २५, योग १५
*२३) जाति   ३२ लाख/८४ लाख*  
*२४) कुल–१३२.५ लाख करोड/१९९.५ लाख करोड* 
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✍️ त्रस जीव के प्रकार :-
त्रस जीव दो प्रकार के हैं-  विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय
*∆ विकलेन्द्रिय* द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों को विकलेन्द्रिय जीव जानना चाहिए ।
*∆ सकलेन्द्रिय* सिंह आदि थलचर, मच्छादि जलचर, हँस आदि आकाशचर तिर्यंच, देव, नारकी, मनुष्य ये सब पंचेन्द्रिय जीव हैं  *(मूलाचार २१८/११ आ.)*
*अथवा* त्रस जीव पर्याप्त तथा अपर्याप्त के भेद से भी दो प्रकार के हैं। *(धवला १२/३७१)* 
*त्रस जीव चार प्रकार के हैं* द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय।   *(नयचक्र १२२)*

*प्रश्न ३०) ऐसे कौनसे त्रस जीव हैं जिनके औदारिक काययोग नहीं होता है?*
उत्तर:  वे त्रस जीव जिनके औदारिक काययोग नहीं होता है-
*०१)* विग्रहगति, निर्वृत्यपर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में स्थित त्रस जीव के नही है।
औदारिक काययोग पर्याप्तक होने पर ही शुरु होता है, निर्वृत्यपर्याप्तक मे भी नही होता, क्याकि शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने पर ही औदारिक काययोग होता है। लब्ध्यपर्याप्तक के तो एक भी पर्याप्ति पूर्ण नही होती है।
*०२)* चौदहवें गुणस्थान वाले अयोग केवली भगवान के भी कोई योग ही नहीं होता है।
*०३)* देव-नारकी के भी औदारिक काययोग नही होता क्योकी इनके वैक्रियक काययोग होता है।
*०४)* एक समय में एक जीव के एक ही योग होता है इसलिए किसी भी योग के साथ कोई भी योग नहीं होता है।

*प्रश्न ३१) क्या ऐसे कोई त्रस जीव हैं जिनके वेद का अभाव हो गया हो?*
उत्तर: हाँ है, नवम गुणस्थान की अवेद अवस्था से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक स्थित त्रस जीवों के वेद का अभाव हो जाता है।

*प्रश्न ३२) त्रस जीवों की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था मे कितने प्राण होते हैं?*
उत्तर: त्रस जीवों की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में कम- से -कम ०३ प्राण, (स्पर्श इन्द्रिय, कायबल और आयु) अधिक से अधिक सात प्राण होते है जिसमे इन्द्रिय बढती जाती है।
★समुद्धात केवली के दो प्राण–कायबल, आयुप्राण
★त्रस जीवो की पर्याप्तक अवस्था मे कम से कम एक आयु प्राण होता है अयोग केवली गुणस्थान है।

*प्रश्न ३३) क्या ऐसे कोई त्रस जीव हैं जिनके संज्ञाएँ नहीं होती हैं?*
उत्तर: हाँ है, ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के त्रस जीवों के आहारादि कोई संज्ञाएँ नहीं होती हैं।   *(गोम्मटसार जीवकाण्ड जीवतत्व ७०२)*

*प्रश्न ३४) क्या ऐसा कोई त्रस जीव है, जिसके जीवन में सभी उपयोग हो जाते हो?*
उत्तर :हाँ, किसी एक तद्‌भव मोक्षगामी मनुष्य के अपने जीवनकाल में सभी उपयोग हो सकते हैं, अन्य किसी जीव के नहीं हो सकते ।
किसी मनुष्य के मिथ्यात्व सहित जन्म लेने पर कुमति और कुश्रुतज्ञानो होगा तथा चक्षु और अचक्षु दर्शनोपयोग सभी मनुष्यों के होते ही हैं। 
मिथ्यात्व अवस्था मे अवधिज्ञान भी हो सकता जिससे उसके कुवधिज्ञानोपयोग हो सकता है।
इस जीव के बाद मे सम्यक्त्व हो जाए तो उसके तीनो मिथ्यात्व सम्यक्त्व मे बदल जाएगे–मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानोपयोग तथा अवधिज्ञान होने पर उसके अवधिदर्शनापयोग भी हो जाता है।बाद में दिक्षा लेने पर मनःपर्यय ज्ञान भी हो सकता है।उसके बाद वह जीव केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकता हैं। केवलज्ञान के साथ-साथ केवलदर्शनोपयोग भी हो जाता हैं।
इस प्रकार से एक जीव को एक ही भव मे सभी बारह उपयोग हो सकते है।
यह स्थिति मनुष्यगति जीव को पहले गुणस्थान से तेरहवे (०१–१३) गुणस्थान तक घटित होते है।
*नोट* कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञानो सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद भी हो सकते हैं, अगर वह सम्यक्त्व के बाद मिथ्यात्व मे आ जाए।

*प्रश्न ३५) त्रस जीवों के कम- से-कम कितने आस्रव के प्रत्यय होते हैं।?*
उत्तर: त्रस जीवों के कम-से-कम सात आस्रव के प्रत्यय होते हैं। ये तेरहवें गुणस्थान में होते हैं।
मनोयोग ०२ (सत्य-अनुभय), वचनयोग ०२ (सत्य अनुभय), औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग।
सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो मनोयोग और वचनयोग का निरोध हो जाने पर (उस अवस्था में स्थित सभी जीवों के) मात्र एक औदारिक काययोग ही आस्रव का कारण बचता है। इस अपेक्षा त्रस जीवों के कम- से-कम एक आस्रव प्रत्यय होता है। 
अयोगी भगवान भी त्रसकाय हैं, उनके एक भी आस्रव का प्रत्यय शेष नहीं है ।

*प्रश्न ३६) क्या सभी त्रस जीवों के ५७ आस्रव के प्रत्यय हो सकते हैं?*
उत्तर: नहीं हो सकते, नाना जीवों की अपेक्षा त्रस जीवों के कुल सत्तावन आस्रव के प्रत्यय होते हैं–

सत्य मनो-वचन, असत्य वचन– संज्ञीपंचेन्द्रिय के
०२-१३ गुणस्थान तक
असत्य उभय मन-वचन–          संज्ञीपंचेन्द्रिय के
०२-१२ गुणस्थान तक
अनुभय वचन योग –          द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय के
०१–१३ गुणस्थान तक
औदारिकद्विक काययोग –      मनुष्य व तिर्यंचो के 
०१ से १३ गुणस्थान तक
वैक्रियिकद्विक काययोग –     देव व नारकियों के
आहारकद्विक काययोग –छठे गुणस्थानवर्ती मुनी के
कार्मणकाययोग –           चारो गतियो मे
स्त्रीवेद पुरुषवेद –देव, मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यंचो के
०५ मिथ्यात्व, २३ कषाय –मिथ्यादृष्टि विकलत्रय के
१२ अविरति–       मात्र संज्ञी पंचेन्द्रि के ही होती हैं
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एकेन्द्रिय़ के ०७ अविरति, द्वीन्द्रिय के ०८ अविरति, त्रीन्द्रिय के ०९ अविरति,चतुरिन्द्रिय के १० अविरति, असैनी पंचेन्द्रिय जीव के ११ अविरति होती हैं।

*प्रश्न ३७) त्रस जीवों की ३२ लाख जातियों कौन- कौन सी हैं?*
उत्तर: त्रस जीवों की बैत्तीस(३२) लाख जातियाँ है-
द्वीन्द्रिय की    ०२ लाख,  त्रीन्द्रिय की ०२ लाख
चतुरिन्द्रिय की ०२ लाख, पंचेन्द्रिय तिर्यंच ०४ लाख
नारकियों की   ०४ लाख, देवों की  ०४ लाख,
मनुष्य की १४ लाख जातियाँ है।

*प्रश्न ३८) त्रस जीवों के १३२.५ लाख करोड़ कुल कौन-कौन से हैं?*
उत्तर : त्रस जीवों के १३२.५  लाख करोड कुल-
द्वीन्द्रियों के –०७ लाख करोड़ कुल
त्रीन्द्रियोंके के– ०८ लाख करोड कुल
चतुरिन्द्रिय के –०९ लाख करोड़ कुल
नारकियों के –  २५ लाख करोड़ कुल
देवों के –         २६ लाख करोड कुल  
मनुष्यों के –     १४ लाख करोड़ कुल
*पंचेन्द्रिय तिर्यंच मे–*
जलचरों के १२.५ लाख करोड़ कुल
थलचरों के १९ लाख करोड़ कुल
नभचरों के १२ लाख करोड़ कुल
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*– समुच्चय प्रश्नोत्तर –*
*प्रश्न ३९) ऐसी कौनसी कषायें हैं जो त्रस्र जीवों के तो होती हैं लेकिन स्थावर जीवों के नहीं होती हैं?*
उत्तर :मात्र दो कषायें ऐसी हैं जो त्रस जीवों के होती हैं लेकिन स्थावर जीवों के नहीं होती- स्त्रीवेद और पुरुषवेद नोकषाय।

*प्रश्न ४०) ऐसी कौनसी अविरति हैं जो त्रस तथा स्थावर दोनों के होती हैं?*
उत्तर : सात (०७) अविरतियाँ त्रस तथा स्थावर दोनों जीवों के होती हैं- षट्‌काय जीवो की हिंसा सम्बन्धी तथा स्पर्शन इन्द्रिय सम्बन्धी अविरति

*प्रश्न ४१) चौबीस स्थानों में से ऐसे कौन से स्थान हैं जिनके सभी उत्तरभेद त्रसों में पाये जाते है?*
उत्तर :चौबीस स्थानों में से १९ स्थान ऐसे हैं जिनके सभी उत्तर भेद त्रसों में पाये जाते हैं- 
०१) गति, ०२) योग, ०३) वेद, ०४) कषाय, ०५) ज्ञान, ०६) संयम, ०७) दर्शन, ०८) लेश्या, ०९) भव्य, १०) सम्यक्त्व, ११) संज्ञी, १२) आहारक, १३) गुणस्थान, १४) पर्याप्ति, १५) प्राण, १६) सज्ञा, १७) उपयोग, १८) ध्यान, १९) आसव के प्रत्यय

*जो मात्र त्रसो मे नही है स्थावरो मे है उनमे–*
*०१) इन्द्रिय* यहा एकेन्द्रिय भेद त्रसो मे नही पाया जाता स्थावरो मे होता है।
*०२) काय* स्थावर काय त्रसो मे नही होती, एकेन्द्रिय मे होती है।
*०३) जीव समास* के १९ भेदो मे से १४ भेद ऐकेन्द्रियो मे होते है।
*०४) जाति* के सभी भेदो के लिए ऐकेन्द्रियो में (स्थावरो मे) जाना पडेगा।
*०५) कुल* के सभी भेदो के लिए ऐकेन्द्रियो में (स्थावरो मे) जाना पडेगा।

*प्रश्न ४२) स्थावर जीवों में किस- किस स्थान के सभी उत्तर भेद नहीं पाये जाते हैं?*
उत्तर :स्थावर जीवों में इक्कीस(२१)स्थानों के सभी उत्तर भेद नहीं पाये जाते हैं- भव्य, आहारक, संज्ञा इन तीन स्थानों को छोड्‌कर शेष सभी स्थानों के सभी उत्तर भेद स्थावर जीवों में नहीं पाये जाते हैं अर्थात् गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, सम्यक्त्व, संज्ञी, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, उपयोग, ध्यान, आस्रव के प्रत्यय, जाति तथा कुल इन २१ स्थानों के सभी उत्तर भेद नहीं होते हैं।
*०१) भव्य* के दोनो भेद भव्य और अभव्य स्थावरो मे होते है।
*०२) आहारक* के दोनो भेद आहारक अनाहारक स्थावरो मे भी होते है, क्योकी स्थावरो मे भी विग्रहगति होती है, और विग्रहगति के समय जीव अनाहारक रहता है।
*०३) संज्ञा* स्थावरो मे संज्ञा के चारो भेद होते है।
ये तीन स्थान ऐसे है जिनके सभी भेद स्थावरो मे पाये जाते है बाकी जो इक्कीस (२१) भेदो है उनके सभी भेद स्थावरो मे नही पाए जाते
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*०१) गति* चारो गति मे से स्थावरो मे केवल तिर्यंच गति होती है।
*०२) इन्द्रिय* के पाँच भेदो मे से स्थावरो मे केवल स्पर्शन इन्द्रिय होती है।
*०३) काय* के छह भेदो मे से केवल पाँच भेद स्थावरो में पाए जाते है, त्रसो मे नही।
*०४) योग* १५ भेदो मे से स्थावरो में तीन भेद है
*०५) वेद* तीन भेदो मे से स्थावरो मे नपुंसक वेद है
*०६) कषाय* २५ भेद मे से २३ भेद ही स्थावरों मे है। स्त्रीवेद और पुरुषवेद नोकषाय नही होती है।
*०७) ज्ञान* आठ ज्ञानो मे से स्थावरो मे कुमति और कुश्रुत ज्ञान दो हीं भेद होते है।
*०८) संयम* सात भेदो मे से स्थावरो मे असंयम है।
*०९) दर्शन* चार भेदो मे से स्थावरो मे एक अचक्षुदर्शन होता है।
*१०) लेश्या* छ्ह भेदो में से स्थावरो मे तीन अशुभ लेश्या कृष्ण-नील-कापत लेश्या होती है।
*११) सम्यक्त्व* सात सम्यक्त्व मे से स्थावरो मे मिथ्यात्व और सासादन सम्यक्त्व होता है।
*१२) संज्ञी* दो भेदो मे से स्थावर असंज्ञी होते है।
*१३) गुणस्थान* चौदह भेदो मे से स्थावरो के मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान होता है।
*१४) जीवसमास* उन्नीस मे से चौदह जीवसमास स्थावरो में होते है 
*१५) पर्याप्ति* छह पर्याप्ति मे से स्थावरो में चार पर्याप्ति होती है।
*१६) प्राण* दस प्राण मे से स्थावरो के चार होते है।
*१७) उपयोग* बारह मे से तीन उपयोग स्थावरो मे होते है।
*१८) ध्यान* सोलाह भेदो मे से स्थावरो मे आठ ध्यान होते है-आर्त ०४, रौद्र ०४
*१९) आस्रव के प्रत्यय* ५७ प्रत्यय मे से स्थावरो मे ३८ प्रत्यय होते है।
*२०) जाति* ८४ लाख मे से स्थावरो मे ५२ लाख जाति है।
*२१) कुल* स्थावरो मे ६७ लाख करोड कुल है।

*प्रश्न ४३) ऐसे कौन- कौनसे उत्तर भेद हैं जो त्रसों में होते हैं लेकिन स्थावरों में नहीं होते हैं?*
उत्तर: २१ स्थान ऐसे है जो त्रसों में होते हैं लेकिन स्थावरों में नहीं होते हैं-
*०१)* गतियाँ ०३* नरक, मनुष्य, देव
*०२)* इंद्रियाँ ०४* दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रि
*०३)* काय ०१*   त्रसकाय
*०४)* योग १२*    मन०४ वचन ०४ काय ०४
*०५)* वेद ०२*     स्त्रीवेद, पुरुषवेद
*०६)* कषाय ०२*  स्त्रीवेद, पुरुषवेद नोकषाय
*०७)* ज्ञान ०६*     ज्ञान ०५ कुज्ञान ०१
*०८)* सयंम ०६* असंयम को छोडकर बाकी छहो
*०९)* दर्शन ०३* चक्षु, अवधि, केवलदर्शन
*१०)* लेश्या ०३* तीन लेश्या–पीत-पदम-शुक्ल
*११)* सम्यक्त्व ०४* 
मिथ्यात्व-सासादन को छोडकर बाकी चार
*१२)* संज्ञी ०१*  संज्ञी जीव ये स्थावरो मे नही
*१३)* ग़ुणस्थान १२* 
मिथ्यात्व सासादन के अलावा बाकी १२ गुणस्थान
*१४)* जीवसमास ०५* स्थावरो मे नही है
*१५)* पर्याप्ति ०२* भाषा और मनपर्याप्ति
*१६)* प्राण०२* भाषा और मनःपर्याप्ति
*१७)* उपयोग ०९* 
ज्ञानोपयोग ०६, दर्शनापयोग ०३
*१८)* ध्यान ०८* धर्मध्यान ०४, शुक्लध्यान ०४
*१९)* आस्रव १९* अविरति ०५, वेद ०२, योग १२
*२०)* जाति ३२ लाख  त्रस मे है
*२१)* १३२.५ लाख करोड त्रस मे है स्थावरो मे नही    *ये सभी त्रस मे होते है स्थावरो मे नही*

*प्रश्न ४४) त्रस काय की जाति एवं पंचेन्द्रिय की जाति में क्या अन्तर है?*
उत्तर: त्रस काय की जातियों से पंचेन्द्रिय जीवों में ०६ लाख जातियों का अन्तर है। 
अर्थात् त्रसकाय में ३२ लाख जातियाँ हैं तथा पंचेन्द्रिय जीवों की मात्र २६ लाख जातियाँ हैं। 
त्रस जीवों में विकलत्रय की जातियाँ भी होती हैं, पंचेन्द्रियों में नहीं ।

*प्रश्न ४५) किस काय वाले के सबसे ज्यादा कुल होते हैं?*
उत्तर: त्रसकायिक जीवों के कुल सबसे ज्यादा हैं क्योंकि उनमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, देव, नारकी, मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच सबके कुलों का ग्रहण होता है। 
स्थावरकाय में केवल एकेन्द्रिय जीवों के कुलों का ही ग्रहण होता है। त्रसों के १३२.५ लाख करोड़ तथा पृथ्वीकायिकादि पाँचो स्थावरो के ६७ लाख करोड कुल होते है।

*प्रश्न ४६) जलकायिक के कुल के बराबर कुल कौन सी कायवालों के होते हैं?*
उत्तर: जलकायिक के कुल के बराबर वायुकायिक के कुल के होते है। दोनों में प्रत्येक के ०७ लाख करोड़ कुल होते हैं ।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

गुरुवार, 26 जून 2025

15. चौबीस ठाणा- वनस्पतिकायिक

15. चौबीस ठाणा- वनस्पतिकायिक*
https://youtu.be/8a9e_yMahdQ?si=q6pwJwf8qH0O_1-c
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*२४ स्थान वनस्पतिकायिक*
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*०१) गति       ०१/०४*   तिर्यंचगति, 
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   एकेन्द्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय)
*०३) काय      ०१/०६*  स्थावरकाय
स्वकिय काय (वनस्पतिकायिक)
*०४) योग        ०३/१५*  
औदारिकद्विक काययोग, कार्मण काययोग
*०५) वेद          ०१/०३*  नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २३/२५* कषाय १६ नोकषाय ०७
स्त्रीवेद नोकषाय और पुरुषवेद नोकषाय नही होता
*०७) ज्ञान         ०२/०८*  कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान
*०८) संयम        ०१/०७*  असंयम
*०९) दर्शन        ०१/०४*  अचक्षुदर्शन
*१०) लेश्या        ०३/०६*  कृष्ण, नील, कापोत
*११) भव्यक्त्व    ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व    ०२/०६*  मिथ्यात्व,सासादन
*१३) संज्ञी          ०१/०२*  असंज्ञी
*१४) आहारक    ०२/०२*  आहारक ,अनाहारक
*१५) गुणस्थान    ०२/१४*  मिथ्यात्व,सासादन
*१६) जीवसमास  ०६/१९*  वनस्पति संबंघी
नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक-अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति
*१७) पर्याप्ति    ०४/०६*  
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास पर्याप्ति।
*१८) प्राण         ०४/१०*  
स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा         ०४/०४*  सभी चारो संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      ०३/१२*  
कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञानापयोग, अचक्षुदर्शनोपयोग
*२१) ध्यान         ०८/१६*  आर्त ०४, रौद्र ४
*आर्त* इष्टवियोगज,अनिष्टसंयोगज,वेदना,निदान
*रौद* हिंसानन्दी,मृषानन्दी,चौर्यानन्दी,परिग्रहानन्दी
*२२) आस्रव       ३८/५७*  
मिथ्यात्व ०५, अविरति ०७, कषाय २३, योग ०३
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति ०७* स्पर्शन इन्द्रिय को वश नही करना तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २३* १६ अनन्तानुबन्धी आदि ०९नोकषाय
*योग ०३* औदारिकद्विक तथा कार्मण काययोग
*२३) जाति   २४ लाख/८४ लाख*  
नित्यनिगोद ०७ लाख, इतरनिगोद ०७ लाख जाति, 
वनस्पति कायिक की १० लाख जातियाँ है।
*२४) कुल–२८ लाख करोड/१९९.५ लाख करोड* 
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*प्रश्न २०) वनस्पति जीव कितने प्रकार के होते हैं?*
उत्तर-वनस्पति जीव चार प्रकार के हैं–वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक, वनस्पति जीव।
*वनस्पति* जिसका अभयन्तर भाग जीवयुक्त है, और बाह्य भाग जीव रहित है, ऐसे वृक्ष आदि को वनस्पति कहते है।
*वनस्पतिकाय* छिन्न-भिन्न किये गये तृण आदि को वनस्पतिकाय कहते हैं।
*वनस्पतिकायिक* जिसमें वनस्पतिकायिक जीव पाये जाते हैं उन्हें वनस्पतिकायिक जीव कहते हैं।
*वनस्पतिजीव* विग्रहगति में स्थित जीव जो वनस्पति मे जन्म लेने जा रहा है।
 *(सि.सा.दी. ११/२२-२५)*

*प्रश्न २१) उत्पत्ती अपेक्षा वनस्पति जीव कौन-कौन से होते हैं?*
उत्तर-पर्व, बीज, कन्द, स्कन्ध तथा बीजबीज, इनसे उत्पन्न होने वाली वनस्पति और सम्मूर्च्छन वनस्पति कही गयी है जो प्रत्येक और साधारण (अनन्तकाय) दो भेद रूप है । मूल में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियाँ बीज हैं। *जैसे* हल्दी आदि । *(गो. जी. १८६)*
पर्व=गाँठ (पोर), बीज=धान आदि, कंद=पिण्डालु, 
 
*प्रश्न २२) वनस्पति कितने प्रकार की होती है?*
उत्तर-वनस्पति दो प्रकार की होती है-साधारण (अनंतकाय) वनस्पति और प्रत्येक वनस्पति।

*प्रश्न २३) साधारण वनस्पति किसे कहते हैं?*
उत्तर-जो साधारण नाम कर्म के उदय से होती है वह साधारण वनस्पति है।
जिस कर्म के उदय से जीव साधारण शरीर होता है उस कर्म कि साधारण शरीर यह संज्ञा है। 
*(धवला ०६/६३)*
जिस कर्म के उदय से एक ही शरीर वाले होकर अनन्त जीव रहते हैं,वह साधारण शरीर नामकर्म है।
*(धबला १३/३६५)*
साधारण यानि काँमन, जो अनेक जीवो (अनंत जीव) के लिए काँमन है वह साधारण वनस्पति है।
यह साधारण वनस्पति निगोदिया जीव है।
मूल मे जो जीव है उस जीव का जो शरीर होता है वह एक ही शरीर है और इस शरीर के स्वामी अनंत होते है ये निगोदिया जीव होते है।
*यानि शरीर एक आत्मा अनंत*
साधारण वनस्पति जीवो में अनंत जीवो का भोजन  भी एक साथ, श्वास भी एक साथ, जन्म मरण भी एक साथ करते है। इनकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है अर्थात् निगोद जीवों की अवगाहना होती है *इसके भी दो भेद है–नित्य निगोद और इतर निगोद*
*नित्य निगोद* जिन जीवों ने आज तक निगोद के अतिरिक्त अन्य कोई पर्याय नहीं पाई उन्हें नित्य निगोद कहते हैं*
*नित्य निगोद के दो भेद होते है- अनादि अनंत नित्यनिगोद, अनादि सांत नित्यनिगोद*
*इतर निगोद* जो जीव निगोद से निकल त्रस पर्याप प्राप्त कर पुनः निगोद मे चले जाते वे इतर निगोद कहलाते है
*नित्य व इतर निगोद दोनो के भी दो -दो भेद है सुक्ष्म और बादर*

*प्रश्न २४) प्रत्येक वनस्पति किसे कहते हैं?*
उत्तर-जो प्रत्येक नाम कर्म के उदय से होती है वह प्रत्येक वनस्पति है। प्रत्येक यानि अपना-अपना शरीर (मालिक) *यानि शरीर एक स्वामी भी एक*
*(धवला ०१/२७०)*
जिस जीव ने एक शरीर में स्थित होकर अकेले ही सुख-दुःख के अनुभव रूप कर्म उपार्जित किया है वह जीव प्रत्येक शरीर है। *(धवला ०३/३३३)*
*प्रत्येक वनस्पति की जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग, उत्कृष्ठ अवगाहना एक हजार योजन तक की अवगाहना होती है। एक हजार की अवगाहना स्वयंभूरमणसमुद्र में कमल की है*
*प्रत्येक वनस्पति के दो भेद है सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक*
*✍️सप्रतिष्ठित प्रत्येक* शरीर एक स्वामी एक लेकिन इसके आश्रय से अनन्त जीव रहते है।
*जैसे* जितने भी जमीकंद है सभी सप्रतिष्ठित प्रत्येक है। सभी सप्रतिष्ठित वनस्पती अभक्ष्य है। इनमे अनंत जीव पाए जाते है ये अभक्ष्य है।
*जिसका कंद, मूल क्षुद्र शाखा या स्कंध की छाल मोटी हो, जिनकी शिरा, संधि, पर्व अप्रकट हों, जिनका भंग करने पर समान भंग हो, छेदन करने पर भी जो उग आवें, वे सभी सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकाय है*
*विशेष* आलू, प्याज, मूली आदि ये सभी प्रत्येक वनस्पति है लेकिन इनके आश्रय से अनेक साधारण निगोदिया जीव रहते है। इसलिए उपचार से इसे साधारण वनस्पति कह देते है। शास्त्र मे इसका नाम सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहलाता है। 
*अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति* जिनका शरीर एक, स्वामी एक और आश्रय से कोई जीव नही रहता है उनको अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते है।
*जैसे* लौकी, करेला, गिलकी, शिमला मिर्च, खीरा, केला, सेव, अनार, आम आदि सभी अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहलाती है।

*प्रश्न २५) स्थावर और एकेन्द्रिय में क्या अन्तर है?*
उत्तर-एकेन्द्रिय नामकर्म में इन्द्रिय की मुख्यता है और स्थावर नामकर्म में काय की मुख्यता है। एकेन्द्रिय जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है और स्थावर जीवों के पृथ्वीकायिक आदि नामकर्म का उदय होता है।

*प्रश्न २६) वनस्पति-कायिक सम्बन्धी कितने जीवसमास हैं?*
उत्तर-वनस्पतिकायिक सम्बन्धी छह जीवसमास हैं-
नित्यनिगोद सूक्ष्म, नित्यनिगोद बादर, 
इतरनिगोद सूक्ष्म, इतरनिगोद बादर, 
सप्रतिष्ठित प्रत्येक, अप्रतिष्ठित प्रत्येक

*प्रश्न २७) वनस्पति सम्बन्धी २४ लाख जातियाँ कौन-कौन सी हैं?*
उत्तर-वनस्पति सम्बन्धी २४ लाख जातियाँ-
नित्यनिगोद की ०७ लाख जाति,
इतरनिगोद की ०७ लाख जाति, 
वनस्पति कायिक की १० लाख जातियाँ है।
*नोट* नित्यनिगोद एवं इतर निगोद को वनस्पतिकायिक में ग्रहण नहीं करने पर १० लाख जातियाँ ही होती हैं।

*प्रश्न २८) क्या ऐसे कोई वनस्पतिकायिक जीव हैं, जिनके कार्मण काययोग होता ही नहीं है ?*
उत्तर-हाँ है, जो वनस्पतिकायिक जीव ऋजुगति से जाते हैं, उनके कार्मण काययोग नहीं होता है।
*नोट* इसी प्रकार ऋजुगति से जाने वाले सभी जीवों के जानना चाहिए ।
कार्मण काययोग अनाहारक अवस्था मे होता है, तथा ऋजुगति से जाने पर वह एक ही समय की होती है तथा वहा पर पहले उसी समय मे भी आहार वर्गणा का ग्रहण होता रहता है, अनाहारक नहीं रहते तो कार्मण काययोग कैसे होगा यानि नही होगा।
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*शलभ*

गुरुवार, 12 जून 2025

14. चौबीस ठाणा-काय मार्गणा 24 स्थान- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु जीव

*14. चौबीस ठाणा-काय मार्गणा-२४ स्थान- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु जीव*
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https://youtu.be/kL5jDXdd94E?si=4ULOrJLSYll3R8lS

✍️ काय मार्गणा :-
आत्मा की प्रवृति द्वारा संचित किये गये पुदग्ल पिण्ड को काय कहते है।
जाति नामकर्म के उदय से अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न आत्मा को त्रस तथा स्थावर रूप पर्याय को काय कहते हैं।
कर्म आठ होते है, उसमे से एक नामकर्म है जिसके 93 भेद है और इन मे एक कर्म है जाति नामकर्म,  जाति यानि इन्द्रिया–जो पाँच इन्द्रिय है वे पाँच जातियाँ है।
अविनाभावी यानि इसके होने पर इसका होना और इसके ना होने पर इसका नही होना यह अविनाभावी कहलाता है। *जैसे* धुए के होने पर अग्नि का होना और अग्नि के नही होने पर धुए का नही होना।
जाति होगी तो त्रस या स्थावर तो होगा ही या जहाँ पर त्रस या स्थावर है वहा कोई ना कोई जाति होगी। यानि एक के होने पर दुसरे का होना अविनाभावी है
*त्रस और स्थावर पर्याय आत्मा की होती हैं*
व्यवहार नय से त्रस और स्थावर इस प्रकार कहना काय है। पुद्‌गल स्कन्धों के द्वारा जो पुष्टि को प्राप्त हो वह काय है। इसमे हर समय अनंत परमाणु आते है और हर समय अनंत परमाणु चले जाते है। इस प्रकार यह शरीर पुष्ट होता रहता है।
काय की अपेक्षा जीवों का परिचय करना (खोज करना) काय मार्गणा है। *(गोम्मटसार जीवकांड १८२)*

✍️ काय मार्गणा के प्रकार :-
काय मार्गणा छह प्रकार की है- पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय। *(द्र.स. टीका १३)*  
पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक तथा कायातीत जीव भी होते हैं।  *(गो. जी.१८)*

✍️ स्थावर जीव :-
स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है, उसका स्वामीपना करता है इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है।  *(धवला ०१/२४१)*
स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर कहलाते हैं
स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषता के कारण ये पाँचों ही स्थावर कहलाते हैं। *(ध.०१/२६७)*

✍️ त्रसकायिक जीव :-
त्रस नामकर्म के उदय से उत्पन्न वृत्तिविशेष वाले जीव त्रस कहे जाते हैं।  *(राजवार्तिक ०१)* 
वृत्तिविशेष यानि विशेष कार्य *जैसे* रसना इन्द्रिय से रस को चखते है, घ्राण इन्द्रिय से गंध सुंधते है, चक्षु इन्द्रिय से वर्ण को देखते है, कर्ण इन्द्रिय से शब्दों को सुनते है, इस तरह से ये उनके कार्य है।
लोक में जो दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय से सहित जीव दिखाई देते हैं उन्हें वीर भगवान के उपदेश से त्रसकायिक जानना चाहिए *(पंच संग्रह)*

✍️ अकाय जीव :-
जिस प्रकार सोलह ताव के द्वारा तपाये हुए सुवर्ण में बाह्य किट्टिका और अभ्यन्तर कालिमा इन दोनों ही प्रकार के मल का बिल्कुल अभाव हो जाने पर फिर किसी दूसरे मल का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार महाव्रत और धर्मध्यानादि से सुसंस्कृत एवं सुतप्त आत्मा में से एक बार शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा बाह्य मल काय और अंतरंग मल कर्म के सम्बन्ध के सर्वथा छूट जाने पर फिर उनका बन्ध नहीं होता और वे सदा के लिए काय तथा कर्म से रहित होकर सिद्ध हो जाते हैं, वे अकाय है। *(गोम्मटसार जीवकाण्ड २०३)*
बाहय मल मे शरीर और अंतरंग मे कर्म (भावकर्म और द्रव्यकर्म)
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*२४ स्थान पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु जीव*
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*०१) गति       ०१/०४*   तिर्यंचगति, 
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु की तिर्यंचगति
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   एकेन्द्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय)
*०३) काय  स्वकीय/०६*  स्थावरकाय
सबकी अपनी-अपनी काय (स्वकीय)
*०४) योग        ०३/१५*  
औदारिकद्विक काययोग, कार्मण काययोग
*०५) वेद          ०१/०३*  नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २३/२५* कषाय १६ नोकषाय ०७
स्त्रीवेद नोकषाय और पुरुषवेद नोकषाय नही होता
*०७) ज्ञान         ०२/०८*  कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान
*०८) संयम       ०१/०७*  असंयम
*०९) दर्शन       ०१/०४*  अचक्षुदर्शन
*१०) लेश्या       ०३/०६*  कृष्ण, नील, कापोत
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*   भव्य और अभव्य।
*१२) सम्यक्त्व   ०२/०६*  मिथ्यात्व,सासादन
अग्निकायिक, वायुकायिक में सासादन नहीं है।
*१३) संज्ञी         ०१/०२*  असंज्ञी।
*१४) आहारक   ०२/०२*  आहारक ,अनाहारक
*१५) गुणस्थान   ०२/१४*  मिथ्यात्व,सासादन
सासादन पृथ्वी और जल जीवो मे विग्रहगति अपेक्षा
*१६) जीवसमास  ०८/१९*  
प्रत्येक के सूक्ष्म बादर की अपेक्षा दो-दो जीवसमास
*१७) पर्याप्ति    ०४/०६*  
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास पर्याप्ति।
*१८) प्राण         ०४/१०*  
स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा         ०४/०४*  सभी संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      ०३/१२*  
कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञानापयोग, अचक्षुदर्शनोपयोग
*२१) ध्यान         ०८/१६*  आर्त ०४, रौद्र ४
*आर्त* इष्टवियोगज,अनिष्टसंयोगज,वेदना,निदान
*रौद* हिंसानन्दी,मृषानन्दी,चौर्यानन्दी,परिग्रहानन्दी
*२२) आस्रव       ३८/५७*  
मिथ्यात्व ०५, अविरति ०७, कषाय २३, योग ०३
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति ०७* स्पर्शन इन्द्रिय को वश नही करना तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २३* १६ अनन्तानुबन्धी आदि ०९नोकषाय
*योग ०३* औदारिकद्विक तथा कार्मण काययोग
*२३) जाति   ५६ लाख/८४ लाख*  
सूक्ष्म-बादर प्रत्येक की सात-सात लाख जातियाँ
*२४) कुल–स्वकीय/१९९.५ लाख करोड*  
        १२१.५ लाख करोड कुल*  
*पृथ्वीकायिक*   २२ लाख करोड़, 
*जलकायिक*    ०७ लाख करोड़, 
*अग्निकायिक*   ०३ लाख करोड़, 
*वायुकायिक*     ०७ लाख करोड़
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*प्रश्न ०६) पृथ्वी कितने प्रकार की है?*
उत्तर-पृथ्वी चार प्रकार की है –
पृथ्वी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक, पृथ्वी जीव ।
*पृथिवी (पृथ्वी)* जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनों से बनी है और कठोर व मृदु गुणवाली है वह पृथिवी है। यह पृथिवी आगे के तीनों भेदों में पायी जाती है ।
*पृथिवीकाय* काय का अर्थ शरीर है, अत: 
पृथ्वीजीव के द्वारा छोड़ा गया शरीर पृथ्वीकाय है अर्थात् मुर्दा शरीर की तरह अचेतन पृथ्वीकाय है।
*पृथिवीकायिक* जिस जीव के पृथ्वी को काय रुप मे ग्रहण कर लिया है उसे पृथिवी कायिक कहते है।
*पृथ्वी जीव* विग्रहगति का जीव, जो पृथ्वी मे जन्म लेने जा रहा है वह पृथ्वी जीव है।  *(सर्वा. २८६)*

*प्रश्न ०७) पृथिवीकायिक जीव कौन-कौन से हैं?*
उत्तर-मिट्टी,बालू शर्करा,स्फटिकमणि,चन्द्रकांतमणि, सूर्यकान्तमणि, गेरू, चन्दन (एक पत्थर होता है, कारंजा में इस पत्थर की प्रतिमा है) हरिताल,हिंगुल, हीरा, सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा आदि छत्तीस प्रकार के पृथिवीकायिक जीव हैं। *(मूलाचार २०६/०९)*

*प्रश्न ०८) जल कितने प्रकार का है?*
उत्तर-जल चार प्रकार का है- 
जल, जलकाय, जलकायिक, जलजीव।
*जल* जो जल आलोड़ित हुआ है उसे एवं कीचड़ सहित जल को जल कहते हैं ।
*जलकाय* काय का अर्थ शरीर है, अत: 
जलजीव के द्वारा छोड़ा गया शरीर जलकाय है
*जैसे* गर्म पानी जलकाय
*जलकायिक* जलजीव ने जिस जल को शरीर रूप में ग्रहण किया है, वह जलकायिक है।
*(छ्ना हुआ जल भी जलकायिक है)*
*जलजीव* विग्रहगति में स्थित जीव जो एक, दो या तीन समय में जल को शरीर रूप में ग्रहण करेगा, वह जल जीव है।   *(सि.सा.दी. ११/१४-१५)*

*प्रश्न ०९) जलकायिक जीव कौन-कौन से हैं?*
उत्तर-ओस, हिम (बर्फ), कुहरा, मोटी बूँदें, शुद्ध जल, नदी, सागर, सरोवर, कुआ, झरना, मेघ से बरसने वाला जल, चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न जल, घनवात आदि का पानी जलकायिक जीव है। 
*(मूलाचार २१० आ.)*

*प्रश्न १०) अग्नि कितने प्रकार की होती है?*
उत्तर- अग्नि चार प्रकार की होती है–
अग्नि, अग्निकाय, अग्निकायिक, अग्निजीव।
*अग्नि* प्रचुर भस्म से आच्छादित अग्नि अर्थात् जिसमें थोड़ी उष्णता है वह अग्नि है।
*अग्निकाय* अग्नि जीव द्वारा छोड़ा गया शरीर अग्निकाय है। जैसे भस्म आदि
*अग्निकायिक* अग्नि जीव ने जिस अग्नि को शरीर रुप से धारण किया वह अग्निकायिक है
*अग्निजीव* विग्रहगति में स्थित जीव जो अग्नि रूप शरीर को धारण करने के लिए जा रहा है अग्नि जीव है ।    *(सि. सा. दी. ११/१७-१८)*

*प्रश्न ११) अग्निकायिक जीव कौन- कौन से हैं?*
उत्तर-अंगारे, ज्वाला, लौ, मुर्मुर, शुद्धअग्नि, धुआँ सहित अग्नि, बढ़वाग्नि, नन्दीश्वर द्वीप के मंदिरों में रखे हुए धूप घटों की अग्नि, अग्निकुमार देवों के मुकुटों से उत्पन्न अग्नि आदि सभी अग्निकायिक जीव हैं।    *(मूलाचार २११ आ.)*

*प्रश्न १२) वायु कितने प्रकार की है?*
उत्तर-वायु चार प्रकार की है –
वायु, वायुकाय, वायुकायिक, वायुजीव।
*वायु* धूलि का समुदाय जिसमें है ऐसी भ्रमण करने वाली वायु, वायु है ।
*वायुकाय* जिस वायुकायिक में से जीव निकल चुका, ऐसी वायु का पौद्‌गलिक वायुदेह वायुकाय है
*वायुकायिक* प्राण (जीव) युक्त वायु को वायुकायिक कहते हैं।
*वायुजीव* वायु रूपी शरीर को धारण करने के लिए जाने वाला ऐसा विग्रहगति में स्थित जीव वायु जीव है।  *(सि. सा. दी. ११/२०-२१)*

*प्रश्न १३) वायुकायिक जीव कौन-कौनसे हैं?*
उत्तर-घूमती हुई वायु, उत्कलि रूप वायु,मण्डलाकार वायु, गुंजावायु, महावायु, घनोदधि और तनु वात वलय की वायु से सब वायुकायिक जीव हैं।
 *( मूलाचार २१२ आ.)*

*प्रश्न १४) पृथ्वी आदि वनस्पति पर्यन्त कौनसी गति के जीव हैं?*
उत्तर-पृथ्वी आदि वनस्पति पर्यन्त सभी तिर्यंचगति के जीव हैं। ये पाँचों स्थावर कहलाते है लेकिन स्थावर कोई गति नहीं है। कहा भी है– औपपादिक मनुष्येभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय: ” *(त.सू. ०४/२७)*
अर्थात् उपपाद जन्म वाले देव, नारकी और मनुष्यों को छोड्‌कर शेष सभी तिर्यंच हैं।

*प्रश्न १५) स्थावर जीवों के कृष्ण लेश्या कैसे सिद्ध होती है?*
उत्तर-तीव्रक्रोध, वैरभाव, क्लेश संताप, हिंसा से युक्त तामसी भाव कृष्ण लेश्या के प्रतीक है। तस्मानिया के जंगलों में "होरिजन्टिल-स्कन" नामक वृक्षों की डालियाँ व जटायें जानवरों या मनुष्यों के निकट आते ही उनके शरीर से लिपट जाती हैं। तीव्र कसाव से (कस जाने के कारण) जीव उससे छुटकारा पाने की कोशिश करते हुए अन्तत: वहीं मरण को प्राप्त हो जाता है, इस क्रिया से उनकी हिंसात्मक प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से समझ में आती है, यह कृष्ण लेश्या की प्रतीक है।

*प्रश्न १६) स्थावरों में नील लेश्या कैसे समझ में आती है?*
उत्तर-आलस्य, मूर्खता, भीरुता, अतिलोलुपता आदि नील लेश्या के प्रतीक हैं। 
कई वनस्पतियाँ आलसी एव हठी होती है। उनके बीज सुषुप्तावस्था में पड़े रहते है। शंख पुष्पी, बथुआ, बैंगन आदि के बीजों को अंकुरित कराने के लिए उपचारित करना पड़ता है उन्हें उच्चताप, निम्नताप, प्रकाश, अम्ल, पानी या रासायनिक पदार्थों से सक्रिय किया जाता है तभी वे अंकुरित होते हैं। इसी प्रकार तंबाखू गोखरु, सिंघाड़ा आदि की भी स्थिति है। 
कलश, पादप, सनडयू आदि पौधे गध, रंग, रूप आदि से कीड़ों को आकर्षित करते है। उन्हें खाने की लोलुपता इनमें विशेष रहती है। युटीकुलेरियड का पौधा स्थिर पानी में उगता है। इसकी पत्तियाँ सुई के आकार की होती हैं और पानी में तैरती हैं। पत्तियों के बीच में छोटे-छोटे हरे रग के गुब्बारे के आकार के फूले अंग रहते हैं। पौधा इन्हीं गुब्बारों से कीड़ों को पकड़ता है। गुब्बारे की भीतरी दीवारों से पौधा एक रस छोड़ता है कीड़ों को नष्ट करता है इसे इसकी अतिलोलुपता अर्थात् नील लेश्या का प्रतीक माना जा सकता है।

*प्रश्न १७)  स्थावरों में कापोत लेश्या को कैसे समझा जा सकता है?*
उत्तर-निन्दा, ईर्षा, रोष, शोक, अविश्वास आदि कापोत लेश्या के लक्षण हैं। 
इस लेश्या वाले दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले होते हैं। नागफनी, काकतुरई, क्रौंच, चमचमी आदि वनस्पतियाँ काँटे, दुर्गन्ध या खुजली पहुँचाने वाले होते हैं। इनको छूने से या इनके निकट जाने से कुछ कष्ट अवश्य होता है। इसे कापोत लेश्या के रूपमें स्वीकार किया जा सकता है। 
अशुभ लेश्या के उदाहरण वनस्पति में स्पष्ट रूपसे समझ में आते हैं। पृथ्वी आदि में इनका स्पष्टीकरण नहीं होता है फिर भी पानी में भँवर आना, वायु में चक्रवात, अग्नि में बड़वानल, दावानल, ज्वालामुखी आदि प्रवृत्तियों से अशुभ लेश्याओं का अनुमान लगाया जा सकता है।

*प्रश्न १८)  क्या पृथ्वीकायिकादि पाँचों स्थावरों में सासादन गुणस्थान होता है?*
उत्तर-पृथ्वीकायादि पाँचों स्थावरों में सासादन गुणस्थान सम्बन्धी दो विचार हैं –
*०१)* इन्द्रिय मार्गणा की अपेक्षा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त जीवों में सासादन गुणस्थान निर्वृत्यपर्याप्त दशा में ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं; क्योंकि पर्याप्त दशा में तो वहाँ एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। 
*(पंच. संग्रह. प्राकृत)*
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असैनी पंचेन्द्रिय में तो अपर्याप्त तथा सैनी के पर्याप्त- अपर्याप्त अवस्था में सासादन गुणस्थान होता है। 
*(गो. जी. जी. ६९५)*
एकेन्द्रियों में जाने वाले सासादन गुणस्थान वाले जीव बादर पृथिवीकायिक बादरजलकायिक, बादर वनस्पतिकायिक (प्रत्येक वनस्पति) पर्याप्तको में ही जाते हैं, अपर्यातकों में नहीं। *(धवला ०६/४६०)*
*०२)* कौन कहता है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में होते है? किन्तु वे उस एकेन्द्रिय में मारणान्तिक समुद्धात करते हैं ऐसा हमारा निश्चय है, न कि वे अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं; क्योंकि उनमें आयु के छिन्न होने के समय सासादन गुणस्थान नहीं पाया जाता है।
*(धवला ०४/१६२)*
सासादन सम्यग्दृष्टियों की एकेन्द्रियों में उत्पत्ति नहीं है।  *(धवला ०७/४५७)*

*प्रश्न १९) पृथ्वीकायिकादि में कितनी व कौन-कौन सी अविरतियों होती हैं?*
उत्तर-पृथ्वीकायिकादि में सात अविरतियाँ होती हैं – षट्‌कायिक जीवों की हिंसा के अत्यागरूप छह तथा स्पर्शन इन्द्रिय को वश में नहीं करने रूप एक = कुल सात अविरतिया होती है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

24) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*

*२४) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *जहाँ कार्मण काययोग समाप्त होगा उसके अगले ही क्षण से ही मिश्र काययोग प्रारम्भ हो ...