19. चौबीस ठाणा- अनुभय वचन योग
https://youtu.be/1_9w0rJSf_U?si=SD9ya0wSD0eXvpC7
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*24 स्थान अनुभय वचन योग*
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*०१) गति ०४/०४*
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति
*०२) इन्द्रिय ०४/०५* ऐकेन्द्रिय को छोडकर
*०३) काय ०१/०६* त्रसकाय
*०४) योग स्वकीय/१५* अनुभय वचन योग
*०५) वेद ०३/०३* तीनों
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान ०८/०८* आठो ज्ञान
*०८) संयम ०७/०७* सातो संयम
*०९) दर्शन ०४/०४* चारो दर्शन
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन
*१०) लेश्या ०६/०६* छहो लेश्या
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व ०२/०२* भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व ०६/०६* छहो
मिथ्यात्त्व, सासादन, मिश्र, औपशमिक, क्षायिक,
क्षयोपशमिक सम्यक्त्व
*१३) संज्ञी ०२/०२* सैनी और असैनी
सैनी-असैनी से रहित के भी होते है।
*१४) आहारक ०१/०२* आहारक
(अनाहरक मे वचन योग नही होता)
*१५) गुणस्थान १३/१४* ०१-१३ तक
*१६) जीवसमास ०५/१९*
द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय, असैनी-सैनी पंचेन्द्रिय
*१७) पर्याप्ति ०६/०६* छहो
आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासोच्छवा,भाषा,मनःपर्याप्ति
*१८) प्राण १०/१०* दसो प्राण
*१९) संज्ञा ०४/०४* सभी संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग १२/१२* सभी बारह
*२१) ध्यान १४/१६*
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति के बिना
*२२) आस्रव ४३/५७*
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति ३२ लाख/८४ लाख*
*२४) कुल–१३२.५ ला. करोड/१९९.५ ला. करोड
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*प्रश्न २३) अनुभयवचन योग किसे कहते हैं?*
उत्तर : जो सत्य और असत्य अर्थ को विषय नहीं करता वह असत्यमृषा अर्थ को विषय करने वाला वचन व्यापार रूप प्रयत्न विशेष अनुभयवचन योग है। अर्थात जिस वचन को सत्य भी नही कह सकते और असत्य भी नही कह सकते वह अनुभय वचन योग है।
दो इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की जो अनक्षरात्मक भाषा है तथा संज्ञी पंचेन्द्रियों की जो आमन्त्रण आदि रूप अक्षरात्मक भाषा है
*जैसे* देवदत्त आओ, यह मुझे दो, क्या करूँ आदि सभी अनुभयवचनयोग कहे जाते हैं *(गो.जी.२२१)*
आमान्त्रण आदि नौ प्रकार की भाषा होती है–
*०१) आमंत्रणी* बुलाने रुप–हे देवदत्त तुम आओ
*०२) आज्ञापनी* आज्ञा रुप–तुम यह काम करो
*०३) याज्ञनी* मांगने रुप–तुम यह मुझको दो
*०४) आपृच्छनी* प्रश्नरुप–यह क्या है
*०५) प्रज्ञापनी* विनती रुप–
हे स्वामी यह मेरी विनती है।
*०६) प्रत्याख्याती* त्यागरुप–
मै इसका त्याग करता हूँ।
*०७) संशयवचनी* संदेहरुप–
यह बगुलो की पक्ति है या ध्वजा है।
*०८) इच्छानुलोम्नी* इच्छारुप–
मुझको भी ऐसा ही होना चाहिए।
*०९) अनक्षरगता*
द्वीन्द्रियदि असंज्ञी जीवो की भाषा
*प्रश्न २४) उपर्युक्त ”देवदत्त आओ" आदि वचनो को अनुभव वचन योग क्यों कहा गया है?*
उत्तर : ‘देवदत्त आओ’ ‘ आदि वचन श्रोताजनों को सामान्य से व्यक्त और विशेष रूप से अव्यक्त अर्थ के अवयवों को बताने वाले हैं। इससे सामान्य से व्यक्त अर्थ का बोध होता है, इसलिए इन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता और विशेष रूप से व्यक्त अर्थ को न कहने से इन्हें सत्य भी नहीं कहा जा सकता है। *(गो. जी. २२३)*
*प्रश्न २५) अनक्षरात्मक भाषा में सुव्यक्त अर्थ का अंश नहीं होता है, तब वह अनुभय रूप कैसे हो सकती है?*
उत्तर: अनक्षरात्मक भाषा को बोलने वाले द्वीन्द्रिय आदि जीवों के सुख-दुःख के प्रकरण आदि के आलम्बन से हर्ष आदि का अभिप्राय जाना जा सकता है इसलिए व्यक्तपना सम्भव है। अत: अनक्षरात्मक भाषा भी अनुभय रूप ही है। *(गो. जी. २२६)*
*प्रश्न २६) सयोग केवली के अनुभय एवं सत्यवचन योग की सिद्धि कैसे होती है?*
उत्तर : भगवान की दिव्य ध्वनि के सुनने वालों के श्रोत्र प्रदेश को प्राप्त होने के समय तक अनुभय वचनरूप होना सिद्ध है। उसके अनन्तर श्रोताजनों के इष्ट पदार्थों में संशय आदि को दूर करके सम्यक ज्ञान को उत्पन्न करने से सयोग केवली भगवान के सत्यवचनयोगपना सिद्ध है। *(गो. जी.)*
*प्रश्न २७) तीर्थंकर तो वीतरागी हैं अर्थात् उनके बोलने की इच्छा का तो अभाव है फिर उनके मात्र सत्य वाणी ही क्यों नहीं खिरी, अनुभय वाणी भी क्यों खिरी?*
उत्तर : तीर्थंकरों के जीव ने पूर्व में ऐसी भावना भायी थी कि संसार के सभी जीवों का कल्याण कैसे हो। उसी भावना से उनके सहज तीर्थंकर गोत्र (प्रकृति) का बंध पड़ गया था।इसी के उदय में वाणी खिरती है। अनादिकाल से जीव अज्ञान के कारण पौद्गलिक संबंध अपनी गुण पर्याय के साथ किस प्रकार का है, उसी का ज्ञान कराने के कारण सत्य वाणी खिरी है और जीव की पौद्गलिक कर्मों के संयोग से कैसी अवस्था हो रही है अनुभय वाणी खिरी है। यह दोनों प्रकार की वाणी एक साथ सहज खिर रही है। इस वाणी को सुनकर ही गणधर देवों ने सूत्रों की रचना की है।। *(चा. चक्र)*
*प्रश्न २८) क्या, कोई ऐसे अनुभयवचनयोगी है, जिनके वेद नहीं हो?*
उत्तर: हाँ है,नवम गुणस्थान के अवेद भाग से तेरहवें गुणस्थान तक के अनुभय वचनयोगी वेद रहित होते हैं। इसी प्रकार सत्यादि योगों में भी जानना चाहिए ।
*प्रश्न २९) अनुभय वचनयोगी के कम-से-कम कितनी कषायें होती हैं?*
उत्तर : दसवें गुणस्थान की अपेक्षा अनुभय वचन योगी के कम-से-कम एक कषाय होती है सूक्ष्म योग तथा ग्यारहवें से तेरहवे वें गुणस्थान तक अनुभय वचनयोगी कषाय रहित भी होते हैं ।
*प्रश्न ३०) अनुभयवचन योगी जीव संज्ञी होते हैं या असंज्ञी?*
उत्तर : अनुभय वचनयोगी जीव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं तथा इन दोनों से अतीत अर्थात् सयोग केवली भगवान संज्ञी-असंज्ञीपने से रहित अनुभय वचन योग पाया जाता है जिसे हम अनुसंज्ञी भी कहते है।
*प्रश्न ३१) अनुभय वचनयोगी के अवधिज्ञान में कितने गुणस्थान हो सकते हैं?*
उत्तर : अनुभय वचनयोगी के अवधिज्ञान में चौथे गुणस्थान से बारहवे गुणस्थान तक के नौ गुणस्थान होते हैं।
*प्रश्न ३२) अनुभय वचनयोगी के कौन से संयम में सबसे ज्यादा गुणस्थान होते हैं?*
उत्तर: असंयम में पहले से चौथे तक चार गुणस्थान होते हैं।
सामायिक-छेदोपस्थापना संयम में अनुभय वचन योगी के छठे से नवमे गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते हैं।
यथाख्यात संयम मे भी १० से १३ गुणस्थान तक मे चार गुणस्थान होते है।
*प्रश्न ३३) क्या ऐसे कोई अनुभय वचनयोगी हैं जिनके मात्र एक ही सम्यक्त्व होता है?*
उत्तर : हाँ है, तेरहवें गुणस्थान में तथा क्षपक श्रेणी के ०८ वें, ०८ वें, १० वें १२ वें गुणस्थान में केवल एक क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है।
द्वीन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तक के जीवों में भी सम्यक्त्व मर्गणा में से केवल एक मिथ्यात्व ही होता है ।
*प्रश्न ३४) अनुभय वचनयोगी अनाहारक क्यों नहीं होते?*
उत्तर : अनुभय वचनयोग में अनाहारकपना नहीं होने के दो कारण हैं-
*पहली कारण* मात्र कार्मण काययोग में ही जीव अनाहारक होता है।
*दूसरी कारण* भाषा पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना वचन योग नहीं होता, अनाहारक अवस्था में भाषा पर्याप्ति पूर्ण होना तो बहुत दूर, प्रारम्भ भी नहीं होती है ।
*प्रश्न ३५) अनुभय मनोयोग में जातियों ज्यादा हैं या अनुभय वचनयोग में?*
उत्तर : अनुभय वचनयोग में जातियाँ ज्यादा हैं क्योंकि वह द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पाया जाता है तथा अनुभय मनोयोग पंचेन्द्रिय से तेरहवें गुणस्थान तक होता है।अर्थात् अनुभय मनोयोग में २६ लाख जातियाँ है और अनुभय वचनयोग में ३२ लाख जातियाँ है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
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