गुरुवार, 24 जुलाई 2025

17. चौबीस ठाणा–योग मार्गणा

17. चौबीस ठाणा–योग मार्गणा
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*प्रश्न ०१) योग मार्गणा किसे कहते हैं?*
उत्तर : कर्म (कार्मण) वर्गणा रूप पुद्‌गल स्कन्धों को  "ज्ञानावरण आदि"  आठो कर्म रूप से और 
नोकर्म वर्गणा रूप पुद्‌गल स्कन्ध को  "औदारिक आदि शरीर"  रूप से परिणमन हेतु (भाव योग) जो सामर्थ्य है तथा आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द (हलन चलन) को योग (द्रव्ययोग) कहते हैं।
*कर्म वर्गणा* ज्ञानावरणादि आठो कर्म मे
*नोकर्म वर्गणा* औदारिक आदि शरीर रुप मे
*भाव योग* परिणमन की शक्ति को
*द्रव्य योग* आत्म प्रदेशो का परिस्पंदन को
*०१)* जैसे अग्रि के संयोग से लोहे में दहन शक्ति होती है, उसी तरह अंगोपांग नामकर्म और शरीर नामकर्म के उदय से जीव के प्रदेशों में कर्म और नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न होती है।  *(गो. जी. २१६)*
*०२)* जीवों के प्रदेशों का जो संकोच-विकोच और परिभ्रमण रुप परिस्पन्दन होता है, वह योग कहलाता है।           *(धवला १०/४३७)*
*०३)* मन, वचन, काय वर्गणा निमित्तक आत्म प्रदेशो का परिस्पन्द योग है।  *(धवला १०/४३७)*
*उपर्युक्त योगों में जीवों की खोज करने को योग मार्गणा कहते हैं।*

*प्रश्न ०२) योग कितने होते हैं?*
उत्तर: *योग के दो भेद हैं* द्रव्य योग–भाव योग।
*योग के तीन भेद हैं* मनोयोग, वचनयोग, काययोग
*योग मार्गणा के पन्द्रह भेद होते हैं –*
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग, 
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०७* औदारिक-औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक-वैक्रियिक मिश्रकाययोग, आहारक - आहारकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग

*प्रश्न ०३) द्रव्ययोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : भावयोग रुप शक्ति से विशिष्ट आत्मप्रदेशों में जो कुछ हलन-चलन रूप परिस्पन्द होता है वह द्रव्य योग है।       *( गो.जी. २१६)*

*प्रश्न ०४) भावयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : पुद्‌गल विपाकी अंगोपांग नामकर्म और शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय रुप से परिणत तथा कायवर्गणा, वचनवर्गणा,मनोवर्गणा का अवलम्बन करने वाले संसारी जीव के लोकमात्र प्रदेशों में रहने वाली जो शक्ति कर्मो को ग्रहण करने में कारण है वह भावयोग है।    *(गो.जी.२१६)*

*👉विपाकी* कर्मो का विशेष रुप से पक जाने को, उदय मे आने को विपाक कहते है। कर्मो के पक जाना मे विशेषता कषायों की तीव्रता, मन्दता से होता है। यह विपाक चार प्रकार का होता है–जीव विपाकी, पुदग्ल विपाकी, क्षेत्र विपाकी और भव विपाकी
*◆जीव विपाकी (७८)* जिस कर्म का उदय आने पर सीधा फल जीव को मिले, जीव के परिणामो के निमित्त पडे वे सभी जीव विपाकी प्रकृति है।*जैसे* मोहनीय के उदय का फल जीव को मिलता है।
सभी घतिकर्म की ४७ प्रकृति, गोत्रकर्म ०२, वेदनीय कर्म ०२ और नामकर्म २७*
*◆पुदग्ल विपाकी (६२)* जिन प्रकृतियो के उदय का फल शरीर आदि पुदग्ल के साथ होवे वे पुदग्ल विपाकी है। सभी प्रकृति नामकर्म मे ही होती है।
*जैसे* शरीर नामकर्म, बंधन नामकर्म, अंगोपांग नामकर्म आदि
*◆क्षेत्र विपाकी (०४)* जिसका प्रकृतियो का फल एक क्षेत्र विशेष होता है क्षेत्र विपाकी कहते है।इनका उदय विग्रहगति मे होता है। एक भव से दुसरे भव मे जाते हुए मिलता है। ये चार होती है–नरक गत्यानुपूर्वी, तिर्यंच गत्यानुपूर्वी, मनुष्य गत्यानुपूर्वी और देव गत्यानुपूर्वी 
*◆भव विपाकी (०४)* जिन प्रकृतियो के उदय का फल जीव के भव (आयु) अर्थात पर्याय विशेष मे फल देते है उसे भव विपाकी कहते है। ये चार होती है- नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु

*प्रश्न ०५) मनोयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : अभ्यन्तर में वीर्यान्तराय और नोन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम रूप मनोलब्धि के सन्निकट होने पर और बाह्य निमित्त रूप मनोवर्गणा का अवलम्बन होने पर मनःपरिणाम के प्रति अभिमुख हुए आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है उसे मनोयोग कहते हैं।          *(रा. वा. ०६/१०)*
मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्य के आलम्बन से जो संकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है।
*(धवला ०७/७६)*
मन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। 

*प्रश्न ०६) वचनयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : भाषा वर्गणा सम्बन्धी पुद्‌गल स्कन्धों के अवलम्बन से जीव प्रदेशों का जो संकोच-विकोच होता है वह वचनयोग है।  *(धवला ०७/७६)*
शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई वचन वर्गणाओं का अवलम्बन लेने पर तथा वीर्यान्तराय का क्षयोपशम और मति अक्षरादि (मतिज्ञान आदि) ज्ञानावरण के क्षयोपशम आदि से अभ्यंतर में वचन लब्धि का सान्निध्य होने पर वचन परिणाम के अभिमुख हुए आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्दन होता है वह वचनयोग कहलाता है। *(सर्वा. ६१०)*

*प्रश्न ०७) काययोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर औदारिक आदि सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक का उदय होने से जो आत्मा के प्रदेशो में परिस्पन्दन होता है, वह काययोग है 
*(सर्वा.सि. ०६/०१)*
 जो चतुर्विध शरीरों के अवलम्बन से जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच होता है, वह काययोग है।
 *(धवला ०७/७६)*
वात, पित्त व कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से जीव प्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है वह काययोग कहा जाता है।    *(धवला १०/४३७)*

*प्रश्न ०८) योग मार्गणा कितने प्रकार की होती है?*
उत्तर : योग मार्गणा के अनुवाद की अपेक्षा मनोयोगी, वचनयोगी तथा काययोगी तथा अयोगी जीव होते हैं।  *(षट खण्डागम २७२/८०)*
अत: योग मार्गणा तीन प्रकार की होती है – मनोयोग, वचनयोग, काययोग । 
*औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, कार्मण व तैजस शरीर के निमित्त से योग नहीं बनता है, इसलिए उसे ग्रहण नहीं किया है।*

*प्रश्न ०९) योगमार्गणा में द्रव्य योग को ग्रहण करना चाहिए या भावयोग को?*
उत्तर : योगमार्गणा में भावयोग को ही ग्रहण करना चाहिए। 
सूत्र में आये हुए ‘ इमानि’ पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानों का ग्रहण करना चाहिए। द्रव्य मार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि द्रव्य मार्गणाएँ देश, काल और स्वभाव की अपेक्षा दूरवर्ती हैं, अतएव अल्पज्ञानियों को उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । ( ध.१७/१३१)

*प्रश्न १०) योग क्षायोपशमिक है तो केवली भगवान के योग कैसे हो सकता है?*
उत्तर : वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोगकेवली के जो तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेश पीरस्पन्दन होता है वह भी योग है, ऐसा जानना चाहिए *(सर्वा.६१०)*
सयोग केवली में योग के अभाव का प्रसग नहीं आता, योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचार से हैं । असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योग का सयोग केवली में अभाव मानने में विरोध आता है।   *(धवला ०७/७६)*
शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्मबंध में निमित्त होता है। इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है।   *(धवला ०७/१०५)*
*नोट* शरीर नामकर्म की उदीरणा व उदय से योग उत्पन्न होता है इसलिए योग मार्गणा औदयिक है।?(धवला ०९/३१६)* 

*प्रश्न ११) अयोग केवली (योग रहित जीव) कैसे होते हैं?*
उत्तर : जिन आत्माओं के पुण्य-पाप रूप प्रशस्त और अप्रशस्त कर्मबन्ध के कारण मन, वचन, काय की क्रिया रूप शुभ और अशुभ योग नहीं हैं वे आत्माएँ चरम गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली और उसके अनन्तर गुणस्थानों से रहित सिद्ध पर्याय रूप परिणत मुक्त जीव होते हैं।   *(गो. जी. २४३)*) 
जो मन, वचन, काय वर्गणा के अवलम्बन से कर्मों के ग्रहण करने में कारण आत्मा के प्रदेशों का पीरस्पन्दन रूप जो योग है, उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिन होते हैं। 
*(बृ.द्र.स.टीका १३)*
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

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