गुरुवार, 9 जनवरी 2025

05. चौबीस ठाणा से नरकगति मार्गणा

*05. चौबीस ठाणा से नरकगति मार्गणा*
https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC
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*✍️  नरकगति मे 24 ठाणा*
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*०१) गति       ०१/०४*   नरक गति
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   पंचेन्द्रिय जीव
*०३) काय       ०१/०६*   त्रसकाय
*०४) योग        ११/१५*  
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग, 
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०३*  वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग,  कार्मण काययोग
*०५) वेद      ०१/०३*   नपुंसक वेद।
*०६) कषाय  २३/२५*  स्त्रीवेद, पुरुषवेद नही होता
*०७) ज्ञान     ०६/०८*  
*कुज्ञान ०३* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
*सुज्ञान ०३* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान
*०८) संयम       ०१/०७*  असंयम
*०९) दर्शन       ०३/०४*  चक्षु, अचक्षु,अवधिदर्शन
*१०) लेश्या       ०३/०६*  कृष्ण, नील, कापोत
*११) भव्यक्त्व  ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  
मिथ्यात्व,सासादन,मिश्र,उपशम,क्षयोपशम,क्षायिक
*१३) संज्ञी        ०१/०२*  संज्ञी 
*१४) आहारक   ०२/०२*  आहारक, अनाहारक
*१५) गुणस्थान   ०४/१४*  
मिथ्यात्व,सासादन,सम्यग्मिथ्यात्व,अविरतसम्यग्दृष्टि
*१६) जीवसमास  ०१/१९*   संज्ञी पंचेन्द्रिय।
*१७) पर्याप्ति        ०६/०६* आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा  मन:पर्याप्ति।
*१८) प्राण           १०/१०*  
*इन्द्रिय ०५* स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण
*बल ०३* कायबल, वचन बल और मनोबल प्राण
आयु प्राण और श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा         ०४/०४*  
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      ०९/१२*  
मति, श्रुत, अवधि, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन 
*२१) ध्यान         ०९/१६*  
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।  *धर्मध्यान ०१* आज्ञाविचय,।
*२२) आस्रव       ५१/५७*  
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति १२* ०५ इन्द्रिय और मन को वश में करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २३* अनन्तानुबन्धीआदि १६ नोकषाय ०७
*योग ११* मनोयोग-०४, वचनयोग-०४, 
काययोग ०३ (वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग,  कार्मण काययोग)
*२३) जाति   –८४ लाख*    नारकी ०४ लाख
*२४) कुल–१९९.५ लाख करोड* २५ लाख करोड़
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*प्रश्न ०१) अधोलोक मे कितनी नरक पृथ्वीया है?*
अधोलोक मे सात नरक पृथ्वीया है–रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमःप्रभा। ये गुण नाम है।
*(ति.प.01/152)* *(त्रिलोकसार 144)*
घम्मा (धर्मा), वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा, माघवी ये रुढी नाम है गोत्र नाम है। *(ति.प. 1/153)* *(त्रिलोकसार 145)*

*प्रश्न ०२) नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं तो वहाँ कीड़ों से भरी नदी कैसे बताई गई है?*
यह सत्य है कि नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव तिर्यंचगति में ही पाये जाते हैं। नरकों में जो वैतरणी नदी को कीड़ों से भरी हुई बतलाया है वे कीड़े स्वय नारकी अपनी विक्रिया के बल से बनते है। उनका कीड़ों का आकार आदि होने पर भी वे नारकी ही होते हैं क्योंकि उनके नरकगति, नरकायु आदि प्रकृतियों का उदय होता है। 
*जैसे* नारकी हांडी, वसूला, करीत, भाला आदि रूप विक्रिया कर लेने से अजीव नहीं हो जाते, गाय आदि की विक्रिया कर लेने से गाय आदि के समान दूध देने में समर्थ नहीं हो जाते हैं वैसे ही कीड़ों के बारे में भी समझना चाहिए।
*(ति.प. 02/318 - 322 के आधार से)*

*प्रश्न ०३) क्या नरक में स्थावर जीव नहीं पाये जाते हैं?*
सूूूूक्ष्म स्थावर जीव सर्व लोक में ठसाठस भरे हुए हैं । *(गो. जी.184)* अत: यदि नरकों में स्थावर जीव होवे तो कोई आश्चर्य नहीं है, लेकिन वे स्थावर जीव नरक की भूमि में रहने मात्र से नारकी नहीं हो जाते और न वे नरकगति के जीव ही कहला सकते हैं, क्योंकि नारकी तो वही होता है जिसके नरकायु आदि का उदय होता है।इन स्थावरों के इन प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। अत: वे नरक भूमि में रहकर भी नारकी नहीं कहलाते हैं। 
*जैसे* असुरकुमार आदि देव भी नरक में जाते हैं। कुछ समय तक वहाँ रुकते भी है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे नारकी हो जाते हैं क्योंकि उनके देवगति नामकर्म का उदय है ।

*प्रश्न ०४) नारकियों के कार्मण-काययोग में कौन- कौन सा गुणस्थान हो सकता है?*
नारकियों के कार्मण काययोग में 02 गुणस्थान हो सकते है - मिथ्यात्व और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
जब कोई जीव मनुष्यगति या तिर्यंचगति से मरण करके नरक मे जन्म लेने जा रहा हो तो विग्रहगति मे कार्मण काययोग ही हो सकता है।
यहा कार्मण शरीर से ही कर्मो का ग्रहण होता है, इसे अनहारक भी कहते है। क्योकि इस समय कर्मों द्वारा ही आत्मा के प्रदेशो मे कंपन हो रहा है इसलिए यह कार्मण काय योग है।
जब जीव नरक मे पहुच जाता हैं उस समय आहार वर्गणाओ का ग्रहण शुरु करता है उस समय जीव आहारक कहलाता है।
*मिथ्यात्व* यहा से जो मिथ्याद्रष्टि मरण करके नरक जा रहे हैं उनके विग्रहगति (कार्मण काययोग) में पहला मिथ्यात्व गुणस्थान होता है
*सासादन* वाला नरक मे नही जा सकता, क्योकि जो नरक मे जा रहा है उसको सासादन गुणस्थान नही होता, तथा जिसको सासादन होता है उसके नरक गति नही होती  *(धवला पुस्तक 01)*
*मिश्र* मे मरण ही नही होता तो कार्मण काययोग मे हो ही नही सकता
*अविरत* सम्यग्द्रष्टि जीव जिसने मिथ्यात्व अवस्था मे नरकायु का बंध कर लिया हो बाद मे सम्यक्त्व हो जाए वह जीव सम्यक्त्व सहित नरक मे जा सकता है और कार्मण काययोग (विग्रहगति) मे चौथा अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान हो सकता है। यह मात्र प्रथम नरक की कार्मण काय अवस्था में ही होता है, अन्य नरकों में नहीं।

*प्रश्न ०५) नारकियों के निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में सासादन गुणस्थान क्यों नहीं होता?*
सासादन गुणस्थान वाला नरक में उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि सासादन गुणस्थान वाले के नरकायु का बन्ध नहीं होता है। जिसने पहले नरकायु का बन्ध कर लिया है, ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि नरकायु का बन्ध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण नहीं होता है। 
*(धवला 02/325-326)*

*✍️ नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में योग*
नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में 01योग ही होता है वह है वैकियिकमिश्रकाय योग। क्योंकि कार्मण-काययोग विग्रहगति में तथा शेष योग पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं।

*✍️ नारकियों के आहारक अवस्था मे योग :-*
नारकियों के आहारक अवस्था में 10 योग होते हैं – मनोयोग- 04, वचनयोग- 04,  काययोग- 02 (वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग)

*प्रश्न ०८) नारकियों के नपुंसक वेद ही क्यों होता है?*
नरकगति पाप के उदय से प्राप्त होती है। वहाँ जीवों को दुःख ही दुःख होते है। स्त्रीवेद वाला पुरुष के साथ तथा पुरुषवेद वाला स्त्री के साथ रमण करके सुख प्राप्त कर लेता है। नपुंसकवेद वाले की वासना स्त्री-पुरुष वेद वालों की अपेक्षा कई गुणी होती है, लेकिन वह न पुरुष के साथ रम सकता है और न स्त्री के साथ इसलिए वह वासनाओं से संतप्त रहता है। नरकों में यदि स्त्री-पुरुष वेद होगा तो उन्हें सुख मिल जायेगा। परन्तु वहाँ पंचेन्द्रिय जनित विषयों से उत्पन्न कोई सुख नहीं होता है, शायद इसीलिए उनके नपुंसक वेद ही होता है। 
निरन्तर दुःखी होने के कारण उनके दो (स्त्री-पुरुष) वेद नहीं होते हैं। *(धवला 01/347)*

*✍️ चतुर्थ नरक के नारकियों के कषायें :-*
चतुर्थ नरक के नारकियों के अधिक से अधिक 23 कषायें होती है।
अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, संज्वलन चतुष्क तथा स्वीवेद-पुरुषवेद के बिना हास्यादि सात नोकषाय।
∆ कम-से-कम 19 कषायें होती हैं
उपरिम 23 मे से अनन्तानुबन्धी चतुष्क का अभाव होने से जीव के 19 कषायें होती हैं। ये सम्यग्दृष्टि जीव के होती है।
*नोट* इसी प्रकार सभी नरकों में जानना चाहिए

*प्रश्न १०) क्या कोई ऐसा सम्यग्दृष्टि नारकी है जिसके अवधिज्ञान नहीं होता है?*
हाँ है, जो सम्यग्दृष्टि जीव (मनुष्य) अवधिज्ञान लेकर नरक में नहीं जाता है, उस सम्यग्दृष्टि नारकी के विग्रहगति में निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तथा पर्याप्त अवस्था में जब तक अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता तब तक उस सम्यग्दृष्टि नारकी के अवधिज्ञान नहीं होता है ।

*✍️ नारकियो में ज्ञान :-*
नारक के छहों ज्ञान होते है - सम्यग्दृष्टि नारकी के तीन सुज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान होते है तथा मिथ्यादृष्टि तथा सासादन सम्यग्दृष्टि के तीन कुज्ञान होते है - कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान 
*∆ मिश्र गुणस्थानवर्ती* नारकी के तीनों ही ज्ञान मिश्र रूप होते हैं।

*✍️ नारकियो में लेश्याएँ ;-*
सभी नरकों में अलग- अलग लेश्याएँ होती हैं –
*क्रम      नरक              लेश्या*
*०१)* रत्नप्रभा         जघन्य कापोत
*०२)* शर्कराप्रभा      मध्यम कापोत
*०३)* बालुकाप्रभा    उत्कृष्ट कापोत-जघन्य नील
*०४)* पंकप्रभा         मध्यम नील
*०५)* धूमप्रभा         उत्कृष्ट नील–जघन्य कृष्ण
*०६)* तमःप्रभा         मध्यम कृष्ण
*०७)* महातमःप्रभा   उत्कृष्ट कृष्ण

*प्रश्न १३) नारकियों के अशुभ लेश्या ही क्यों होती है?* नारकियों के नित्य संक्लेश परिणाम ही होते हैं, इसलिए उनके अशुभ लेश्याएँ ही होती हैै।

*प्रश्न १४) क्या नारकियों के द्रव्य और भाव से अशुभ लेश्या ही होती है?*
हाँ, नारकियों मे द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या अशुभ ही होती है। नारकियों के शरीर नियम से हुण्डक संस्थान वाले ही होते हैं, सभी नारकियों के पर्याप्त अवस्था में द्रव्य से कृष्ण लेश्या ही होती है। 
*(धवला 02/450)*
*नारकानित्याशुभ (त. सू 3/3)* के अनुसार उनके भाव भी हमेशा अशुभतर ही रहते हैं इसलिए उनके भाव से भी अशुभ लेश्या ही होती है।

*✍️ नारकियों की अपर्याप्त-अवस्था में सम्यक्त्व मार्गणा*
नारकियों की अपर्याप्त-अवस्था में तीन सम्यक्त्व होते हैं - मिथ्यात्व, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व

मिथ्याद्रष्टि मरण करके नरक जा रहा है तो अपर्याप्त-अवस्था मे *मिथ्यात्व गुणस्थान* होगा।
क्षायिक सम्यक्त्व वाला भी मरण करके नरक जा रहा है तो उसके भी अपर्याप्त-अवस्था मे *क्षायिक सम्यक्त्व* होता है।
*क्षायोपशमिक सम्यक्त्व* भी कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा समझना चाहिए
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*∆ कृतकृत्यवेदक जीव* जो क्षयोपशम सम्यक्त्व वाला है वह क्षायिक की प्रोग्रेस के लगा हुआ है, उसने मिथ्यात्व का नाश कर दिया, फिर सम्यक मिथ्यात्व को भी नष्ट कर दिया अब उसके एकमात्र सम्यक प्रकृति शेष रही इस जीव को शास्त्रो मे *कृतकृत्यवेदक क्षायोपशमिक जीव* कहा है। यह क्षायिक तो तब बनेगा तब वह सम्यक प्रकृति को भी नष्ट कर देगा। इस अपेक्षा से भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाला भी नारकियो की निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे पाया जाता है।
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*∆ ०१)* धर्मा नरक की अपर्याप्त अवस्था में तीनों सम्यक्त्व होते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा समझना चाहिए। वंशा आदि माघवी पर्यन्त नरकों की अपर्याप्त अवस्था में केवल एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता हैं।
*विशेष* जो दूसरी तीसरी नरक पृथ्वी मे तीर्थंकर वाले जीव जाते है उनका सम्यक्त्व एक अंतरमुहूर्त तक के लिए छूट जाता है और मिथ्यात्व अवस्था मे वे दूसरी या तीसरी पृथ्वी मे जाते है, फिर एक अंतरमुहूर्त बाद वे पर्याप्तक होकर उनको सम्यक्त्व हो जाता है। *निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे तो मिथ्यात्व ही रहता है दूसरी से सातवी पृथ्वी तक*
*∆ ०२)* बद्धायुष्क तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला जीव भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को लेकर प्रथम नरक में नहीं जा सकता है। *क्योंकि बद्धायुष्क कृतकृत्य वेदक तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि को छोड्‌कर शेष कोई भी जीव सम्यग्दर्शन को लेकर नरक में नहीं जा सकता है।*
*∆ ०३)* प्रथमोपशम सम्यक्त्व तथा मिश्र सम्यक्त्व में मरण नहीं होता और सासादन को लेकर जीव नरक में नहीं जाता इसलिए नारकियों की अपर्याप्त अवस्था में ये तीनों सम्यक्त्व नहीं होते हैं । 
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*✍️निष्कर्ष*
*०१) निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे पहली नरक पृथ्वी* मे सम्यकत्व मार्गणा के तीन भेद मिथ्यात्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कृतकृत्यवेदक, क्षायिक है।
*०२) निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे दूसरी से सातवी पृथ्वी* मे सम्यकत्व मार्गणा का एक भेद मिथ्यात्व है
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*✍️ नारकियो मे उत्पन्न करने योग्य सम्यक्त्व :-*
नारकी दो सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकते हैं– प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन।
नारकी क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं कर सकते; क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही करते हैं। कृतकृत्य वेदक वहाँ जाकर सम्यक् प्रकृति का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दर्शन का निष्ठापन कर सकता है।
*नोट* सम्यक्त्व मार्गणा में से नारकी मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, प्रथमोपशम, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते है।

*✍️ प्रतिष्ठापन-निष्ठापन*
प्रतिष्ठापन य़ानि शुरुवात क्षायिक सम्यक की शुरुवात, यह कर्मभूमि का मनुष्य ही करता है केवली या श्रुतकेवली के पादमूल मे लेकिन बीच मे ही मरण हो जाए और अगर नरकायु बांधी हुई है तो नरक जाकर अंतरमुहूर्त मे वह उसी प्रक्रिया को पूर्ण कर लेता है उसे कहते है निष्ठापन पूर्णता

*✍️ नारकियों की पर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्व*
*∆ प्रथम नरक के* नारकियों की पर्याप्त अवस्था में सभी सम्यक्त्व यानि छहो भेद होते है।
*∆ दूसरे से सातवें नरक तक* क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नरक से आगे नहीं जाता है। *अर्थात* प्रथम नरक में सभी सम्मयक्तव होते हैं और शेष नरकों में क्षायिक सम्यक्त्व के बिना पाँच ही सम्यक्त्व होते हैं।

*प्रश्न १८) नारकियों में पंचमादि गुणस्थान क्यों नहीं होते?*
अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित हिंसा में आनन्द मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दुःखों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दस गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं।
 *(नि.प. 02/275-276)*
प्रथमादि चार गुणस्थानों के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्‌भाव नहीं है; क्योंकि संयमासंयम और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है।  *(धवला 1/208)*

*✍️ नारकियों में आर्तध्यान का कारण*
*इष्ट वियोगज* नारकी जब अपनी विक्रिया से शस्रादि बनाते हैं, उसको यदि दूसरे नारकी छीन ले, ध्वस्त (नष्ट) कर दे तो इष्ट वियोग हो जाता है। तीसरे नरक तक कोई देव किसी को सम्बोधन करने गया। वह जब संबोधन करके चला जाता है उसके वियोग में नारकी को इष्टवियोग आर्त्तध्यान हो सकता है।
*अनिष्ट संयोगज* एक नारकी को जब दूसरे नारकी मारते हैं, दुःख देते हैं तो उन्हें दूर करने के लिए बार- बार विचार उत्पन्न होते हैं तब उस नारकी के अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान हो सकता है । 
*वेदना आर्तध्यान* नारकियों के शीत-उष्ण आदि वेदनाओं को दूर करने की भावनाओं से वेदना आर्त्तध्यान संभव है।
*निदान आर्तध्यान* नारकी जातिस्मरण से भोगों को जानकर भावी भोगों की आकांक्षा कर सकते हैं। 
तीसरे नरक तक आये हुए देवों के वैभव को देखकर निदान कर सकते हैं। नारकियों में ऐसे ही और भी आर्त्तध्यान हो सकते हैं।

*प्रश्न २०) नारकी जीव भगवान के दर्शन, पूजा, स्वाध्याय, गुरुओं की भक्ति, आहारदान आदि कुछ नहीं कर सकता है, तो उसके धर्मध्यान कैसे हो सकता है?*
∆ भगवान की पूजा,दर्शनादि कार्य एकान्त से धर्मध्यान नहीं हैं। पूजा आदि कार्य धर्मध्यान प्राप्त करने की पूर्व भूमिका है। इन सब कार्यों को करते हुए भी मिथ्यादृष्टि जीव के धर्मध्यान नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि नारकी के ”जो जिनेन्द्र भगवान ने सच्चे देव-शास्त्र -गुरु, तत्त्व,  द्रव्य, मोक्षमार्ग आदि का स्वरूप बताया है वही सच्चा है,उसी से मेरा कल्याण अर्थात् मुझे शाश्वत सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है " इस प्रकार की श्रद्धा (आज्ञा सम्यक्त्व) होती है और इसी रूप में नारकी के एक आज्ञाविचय धर्मध्यान होता है।

*✍️ सम्यग्दृष्टि नारकी के आस्रव के प्रत्यय*
*∆ प्रथम नरक में सम्यग्दृष्टि नारकी के आस्रव के 42 प्रत्यय हैं* 12 अविरति, 19 कषाय (अनन्तानुबन्धी चतुष्क तथा स्त्रीवेद पुरुषवेद रहित) तथा 11 योग (औदारिकद्विक तथा आहारकद्विक बिना)। 
*∆ प्रथम नरक में मिथ्याद्रष्ठि* के 52 आस्रव के प्रत्यय है *(12 अविरति + 23 कषाय + 11 योग=51)*

∆ दूसरे आदि नरकों में वैक्रियिक मिश्र तथा कार्मण काय योग सम्बन्धी आसव के प्रत्यय भी निकल जाने से ४० प्रत्यय ही होते हैं। ये सम्यग्द्रष्टि नारकी है इन्होने नरक जाकर ही सम्यक प्राप्त करा है।
∆ पहली नरक पृथ्वी मे सम्यक्त्व मार्गणा के सभी छहो भेद हो सकते है।
∆ दूसरी नरक पृथ्वी सातवी नरक पृथ्वी मे सम्यक्त्व मार्गणा के क्षायिक सम्यक्त्व को छोडकर पाँचो भेद हो सकते है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

01. चौबीस ठाणा के नाम, उनके उत्तर भेद

 

01. चौबीस ठाणा के नाम, उनके उत्तर भेद*
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https://youtu.be/WiAu4Pj-CQs?si=UgggOsI-kLkSu-kJ

*चौबीस = चौबीस,   ठाणा = स्थान*
*जहाँ चौबीस स्थानो मे जीव का विशेष वर्णन किया गया है उसे चौबीस ठाणा कहते है।*
बोधिदुर्लभ भावना का चिंतन करने के लिए चौबीस ठाणा का अध्ययन करना चाहिए। अपने उपयोग के चौबीस स्थान के उत्तर भेदो मे लगाना चाहिए और विचार करना चहिए कि किस-किस स्थान पर रत्नत्रय प्राप्त किया जा सकता है। हम कितने कितने स्थानो को छोड़कर यहाँ आ गये है। सब कुछ अनुकुलता मिल जाने पर भी यदि हम रत्नत्रय धारण नही कर पाये तो सबकुछ व्यर्थ है। लोक भावना भाने के लिए भी चौबीस ठाणा समझना चाहिए।

*✍️चौबीस ठाणा (स्थान) के नाम :-
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यक्त्व, सम्यक्तव, संज्ञी, आहार, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग, ध्यान, आस्रव, जाति और कुल।
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*✍️चौबीस ठाणा (स्थानो) के उत्तर भेद :-
*०१) गति       –०४* 
नरक गति, तिर्यंचगति, मनुष्य गति और देवगति।
*०२) इन्द्रिय    –०५* 
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय।
*०३) काय       –०६* 
पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय।
*०४) योग        –१५* 
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग,
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०७* औदारिक-औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक-वैक्रियिक मिश्रकाययोग, आहारक - आहारकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग
*०५) वेद          –०३* 
स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद।
*०६) कषाय      –२५* 
*१६ कषाय*
*०४ अनन्तानुबन्धी*        क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ अप्रत्याख्यानावरण* क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ प्रत्याख्यानावरण*     क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ संज्वलन*                क्रोध-मान-माया-लोभ
*०९ नोकषाय* हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद।
*०७) ज्ञान         –०८* 
*कुज्ञान ०३* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
*सुज्ञान ०५* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान
*०८) संयम       –०७* 
असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय, यथाख्यात,
*०९) दर्शन        –०४* 
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन।
*१०) लेश्या       –०६* 
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल लेश्या।
*११) भव्यक्त्व   –०२*   भव्य और अभव्य।
*१२) सम्यक्त्व   –०६* 
मिथ्यात्व,सासादन,मिश्र,उपशम,क्षयोपशम, क्षायिक
*१३) संज्ञी         –०२*  संज्ञी और असंज्ञी।
*१४) आहारक   –०२*  आहारक और अनाहारक।
*१५) गुणस्थान  –१४* 
मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र), अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्य साम्पराय, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली जिन, अयोगकेवली जिन।
*१६) जीवसमास–१९* 
पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, जलकायिक सूक्ष्म-बादर, अग्निकायिक सूक्ष्म-बादर, वायुकायिक सूक्ष्म-बादर, नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय।
*१७) पर्याप्ति    –०६* 
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा तथा मन:पर्याप्ति।
*१८) प्राण         –१०* 
*इन्द्रिय ०५* स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण
*बल ०३* कायबल, वचन बल और मनोबल प्राण
आयु प्राण और श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा         –०४* 
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      –१२* 
*ज्ञानोपयोग- ०८* मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानोपयोग + कुमति, कुश्रुत कुअवधि
*दर्शनोपयोग ०४* चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शनोपयोग
*२१) ध्यान         –१६* 
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।
*धर्मध्यान ०४* आज्ञाविचय,अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय।
*शुक्ल ०४* पृथक्त्ववितर्क वीचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति।
*२२) आस्रव       –५७* 
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति १२* ०५ इन्द्रिय और मन को वश में नही करना तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २५* १६ अनन्तानुबन्धीआदि ०९नोकषाय
*योग १५* मनोयोग ०४ वचनयोग ०४ काययोग ०७
*२३) जाति –८४ लाख* 
*नित्यनिगोद* ०७ लाख  
*इतरनिगोद* ०७ लाख
*पृथ्वीकायिक* ०७ लाख
*जलकायिक* ०७ लाख
*अग्निकायिक* ०७ लाख
*वायुकायिक* ०७ लाख
*वनस्पतिकायिक* १० लाख 
*द्वीन्द्रिय* ०२ लाख
*त्रीन्द्रिय* ०२ लाख,         
*चतुरिन्द्रिय* ०२ लाख
*पंचेन्द्रिय तिर्यंच* ०४ लाख,   
*नारकी* ०४ लाख
*देव* ०४ लाख                      
*मनुष्य* १४ लाख
*२४) कुल–१९९.५ लाख करोड* 
*पृथ्वीकायिक* २२ लाख करोड़,
*जलकायिक*   ०७ लाख करोड़,
*अग्निकायिक*  ०३ लाख करोड़,
*वायुकायिक*    ०७ लाख करोड़,
*वनस्पतिकायिक* २८ लाख करोड़,
*द्वीन्द्रिय*           ०७ लाख करोड़,
*त्रीन्द्रिय*            ०८ लाख करोड़,
*चतुरिन्द्रिय*         ०९ लाख करोड़,
*जलचर*           १२.५ लाख करोड़,
*थलचर*              १९ लाख करोड़,
*नभचर*               १२ लाख करोड़,
*नारकी*               २५ लाख करोड़,
*देव*                   २६ लाख करोड़,
*मनुष्य*               १४ लाख करोड़
*कुल जोड=* १९९-१/२ लाख करोड़ कुल।
*जीवकाण्ड जी गाथा ११६ अनुसार मनुष्यों के १२ लाख करोड़ कुल बताये हैं इस अपेक्षा से कुल १९७-१/२ लाख करोड़ कुल होते हैं।*


*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन )*



बुधवार, 8 जनवरी 2025

04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा

 *04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा*

https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC

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*जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।*

गति नाम कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।

जिसके उदय से जीव भावान्तर को जाता है वह गति नामकर्म हैं। *(मूलाचार १२३६)*

गति नाम कर्म के उदय से जीव की पर्याय को अथवा चारो गति मे गमन करने को गति कहते है। 

*(गो. जी १४६)*

*गति जीव विपाकी प्रकृति हैं इसमे जीवो के भावो की मुख्यता रहती है*

गति अपेक्षा जीवो का परिचय होना गति मार्गणा है।

*गति मार्गणा के चार भेद –नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति हैं-सिद्धगति में भी जीव होते हैं*

नरकगति द्वारा नारकी जीवो की खोज होती हैं।

तिर्यंचगति द्वारा तिर्यंच जीवो की खोज होती हैं।

मनुष्यगति द्वारा मनुष्यो की खोज होती हैं।

देवगति द्वारा देवो की खोज होती हैं।

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*✍️नरकगति*

जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में स्वय तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारक कहते हैं। नारक की गति को नरकगति कहते हैं।

*(गो.जी. १४७)*

द्रव्य मे–यानि नरक मे जितनी भी वस्तुए है, या शरीर हैं उसमे नही रमते, उन्हे वहा कोई भी वस्तु अच्छी नही लगती

क्षेत्र मे–नारकी को वहा का क्षेत्र भी अच्छा नही लगता है।

काल मे- नारकी को वहा का काल भी अच्छा नही लगता है।

भाव मे–नारकी को वहा का भाव भी अच्छा नही लगता, वहा कभी अच्छे भाव नही होते है। हर समय लडना, मारना, काटना, एक् दुसरे को तकलीप देने के भाव होते है।

परस्पर मे–प्रीति को प्राप्त नही होते, कभी भी एक दूसरे से दोस्ती नही होती हैं। जब भी नया नारकी आता है तो अन्य सभी नारकी आते है और सभी मिलकर उसे मारते काटते है।

नीचे अधोलोक में घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा तथा माघवी नामक सात पृथिवियाँ हैं *ये उनके रुढी नाम है* तथा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि गुणनाम है *सार्थक नाम है* यथा नाम वैसा ही वहा का काम है। जैसे जहा रत्नो जैसी प्रभा है उसका नाम रत्नप्रभा है। यहा नारकी जीव रहते है।

ये नारकी क्षेत्रजनित, मानसिक, शारीरिक और असुरकृत दुख, परस्परकृत दुख आदि अनेक प्रकार के दुःखों को दीर्घ काल तक भोगते हैं, उसकी गति को नरकगति कहते है।

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*✍️तिर्यंचगति*

देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोड्‌कर शेष सभी तिर्यंच कहलाते हैं। तिर्यंचो की गति को तिर्यंचगति कहते हैं। *(त. सू ०४/२७)*

*०१)* मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त हो। 

*०२)* जिनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) हो । *०३)* जो निकृष्ट अज्ञानी हो ।

*०४)* जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय वे तिर्यंच है

इन तिर्यंच की गति को तिर्यंचगति कहते हैं।

*(गो. जी. १४८)*

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*✍️मनुष्यगति*

जिनके मनुष्यगति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते है।  *(गो.जी. १४९)*

*०१)* जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे

हेय=छोडने योग्य, उपादेय=ग्रहण करने योग्य

हमे क्या चीज छोडनी चाहिए क्या ग्रहण करना चाहिए इसका पता चलता है।

तत्त्व=वस्तु स्वरुप का, अतत्त्व=जैसा स्वरुप नही है

उसे अच्छे से जानता है।

आप्त=इष्ट देव का पता होना, अनाप्त=जो इष्टदेव नही है का पता होता है।

धर्म मे क्या है, अधर्म मे क्या है का विचार होता है उसको मनुष्य कहते है।

*०२)* जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके,

*०३)* जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो,

*०४)* शिल्प-कला आदि में कुशल हो तथा

*०५)* जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं।

*(गो. जी. १४९)*

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*✍️देवगति*

देवगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न गति को देवगति कहते है। देव चार प्रकार के होते है–भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष और वमानिक देव।

*०१)* जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों,

*०२)*  अणिमादि गुणों से सदा अप्रतिहत (बिना रोक-टोक) विहार करते हो,

*०३)* जिनका रूप-लावण्य सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं। उन देवों की गति को देवगति कहते है।

*(गो. जी. १५१)*

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*✍️सिद्धगति*

यद्यपि सिद्ध भगवान के किसी गति नामकर्म का उदय नहीं है फिर भी आठ कर्मों का नाश करके सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग में गमन करते हैं ।

*०१)* जो एकेन्द्रिय आदि जाति, बुढ़ापा, मरण तथा भय से रहित हों,

*०२)* जो इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग से रहित हों,

*०३)* जो आहारादि संज्ञाओं से रहित हों,

*०४)* रोग, आधि-व्याधि से रहित हों, वे सिद्ध भगवान हैं, उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं।

*(गो. जी. १५२)*

जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूप अमृत के अनुभव करने वाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भाव कर्म रूपी अंजन से रहित हैं, नित्य हैं, जिनके सम्यक्क्तवादि भाव रूप मुख्य गुण प्रकट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं और उनकी गति को सिद्धगति कहते है। *(गो. जी. ६८)*

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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*


02) 03) चौबीस ठाणा मे गुणस्थान भाग

 *✍️ 02) चौबीस ठाणा मे गुणस्थान भाग 01*

https://youtu.be/mFDRM4c43Es?si=rvdDLNTEgD9foxdO

*✍️ 03) चौबीस ठाणा मे गुणस्थान भाग 02*

https://youtu.be/jgxszHqFu10?si=s7_GYnrQ-IzjUxqf

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जहाँ चौबीस स्थानो मे जीव का विशेष वर्णन किया गया है उसे चौबीस ठाणा कहते है। 

गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यक्त्व, सम्यक्तव, संज्ञी, आहार, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग, ध्यान, आस्रव, जाति और कुल ये चौबीस ठाणा के चौबीस भेद है। यहाँ इन चौबीस स्थानो के उत्तर भेदो मे गुणस्थान को जानते है। 


*✍️ गति – 04*

नरक गति – 01, 02, 03, 04 वा गुणस्थान 

तिर्यंचगति – 01, 02, 03, 04, 05 वा गुणस्थान 

मनुष्य गति – 01 से 14 तक के सभी गुणस्थान 

देवगति – 01, 02, 03, 04 गुणस्थान 


*✍️ इन्द्रिय – 05*

एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवो मे 01 गुणस्थान, पंचेन्द्रिय जीवो मे 01 से 14 तक गुणस्थान

👉  नोट एक, दो, तीन और चार इन्द्रिय जीवो के 02 गुणस्थान किन्ही आचार्यो के अनुसार होता है। यह 02 गुणस्थान उत्पन्न नही करते बल्कि दूसरे गुणस्थान से मरण करके आने के समय होता है। यह कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवली तक होता है। 


*✍️ काय – 06*

पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक में 01 गुणस्थान, त्रसकायिक में 01 से 14 तक गुणस्थान  

◆  नोट–औपशमिक सम्यक्तव वाले जीव अनंतानुबंधी के उदय से सासादन मे आने के बाद मरण होने पर पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक मे जन्म लेने के कारण इन तीनो मे दूसरा गुणस्थान भी होता है। 


*✍️ योग – 15*

सत्य-अनुभय मनोयोग में  01 से 13 तक गुणस्थान 

असत्य-उभय मनोयोग में  01 से 12 तक गुणस्थान 

सत्य-अनुभय वचनयोग मे 01 से 13 तक गुणस्थान 

असत्य-उभय वचनयोग में 01 से 12 तक गुणस्थान 

औदारिक काययोग मे       01 से 13 तक गुणस्थान 

औदारिक मिश्रकाययोग  01, 02, 4, 13 गुणस्थान  

वैक्रियिक काययोग में  01, 02, 03, 04  गुणस्थान 

वैक्रियिक मिश्रकाययोग में  01, 02, 04  गुणस्थान 

आहारक-आहारकमिश्र काययोग में   06 गुणस्थान 

कार्मण काययोग     01, 02, 04, 13 वा गुणस्थान 

● उभय - सत्य भी असत्य भी, अनुभय- ना सत्य ना असत्य 


*✍️ वेद – 03 *

स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद में  01से09 गुणस्थान 

◆ नोट  यहा वेद भाववेद की अपेक्षा से है। 


*✍️ कषाय – 25 (भाववेद की अपेक्षा)*

अनन्तानुबन्धी चतुष्क में  01 – 02  गुणस्थान, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क 01 से 04  गुणस्थान 

प्रत्याख्यानावरण क्रोध-माया-लोभ 01 से 05 तक प्रत्याख्यानावरण मान 01 से 04 गुणस्थान 

संज्वलन क्रोध, मान, माया 01से 09 तक संज्वलन लोभ में  01 से 10 तक गुणस्थान 

हास्य-रति-अरति मे 01 से 08 तक शोक-भय-जुगुप्सा 01 से 08 तक गुणस्थान 

स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद  01 से 09 गुणस्थान 

◆ नोट - पहले गुणस्थान मे अनन्तानुबन्धी आदि चारो कषाय का उदय है। चौथे गुणस्थान मे तीन कषाय (अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन) का उदय हैं। पाचवे गुणस्थान मे दो कषाय प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन का उदय है। छठे से नवम गुणस्थान तक संज्वलन कषाय का उदय है। दसवे गुणस्थान मे सूक्ष्म लोभ का उदय है।  


*✍️ ज्ञान – 08*

कुमति-कुश्रुत-कुअवधिज्ञान में 01 – 02 गुणस्थान 

मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-अवधिज्ञान 04 से 12 गुणस्थान 

मन:पर्यय ज्ञान  06 से 12 तक,  केवलज्ञान  13, 14  गुणस्थान में तथा सिद्धो मे 


*✍️ संयम – 07*

असंयम  01 से 04 तक गुणस्थान मे, संयमासंयम  05 वा तक गुणस्थान मे, सामायिक 06 से 09 तक गुणस्थान,  छेदोपस्थापना 06 से 09 तक गुणस्थान मे, परिहार विशुद्धि 06 - 07 गुणस्थान मे, सूक्ष्मसाम्पराय 10 वे गुणस्थान, यथाख्यात संयम  11 से 14 तक गुणस्थान मे है। 


*✍️ दर्शन – 04*

चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन 01 से 12 गुणस्थान, अवधिदर्शन 04 से 12 गुणस्थान, केवलदर्शन 13, 14 वा ग़ुणस्थान तथा सिद्ध भगवान में भी 

◆  नोट  मतांतर के अनुसार किन्ही आचार्यो ने अवधिदर्शन को 03 गुणस्थान मे भी लिया है तथा किन्ही आचार्यो ने 01 गुणस्थान में भी माना है। उनका कहना है कि कुअवधिदर्शन 01 गुणस्थान मे होता है उसके लिए उससे पहले अवधिदर्शन होना जरुरी है। 


*✍️ लेश्या – 06*

कृष्ण, नील, कापोत 01 से 04  तक, पीत, पदम 01 से 07  तक, शुक्ल लेश्या  01 से 13  गुणस्थान तक मे होती है।  यहा भाव लेश्या की अपेक्षा से वर्णन है। 


*✍️ भव्यक्त्व – 02*

भव्य जीव 01 से 14  गुणस्थान में, अभव्य जीव 01 गुणस्थान तथा सिद्ध भगवान ना भव्य ना अभव्य है। 


*✍️ सम्यक्त्व – 06*

मिथ्यात्व 01 गुणस्थान, सासादन 02 गुणस्थान, मिश्र 03 गुणस्थान, उपशम (प्रथमोपशम) 04 से 07 तक, द्वितीयोपशम 04 से 11 तक,  क्षयोपशम  04 से 07 तक, क्षायिक 04 से 14 तक सिद्धो के भी क्षायिक सम्यक्त्व होता है।  

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*✍️ संज्ञी – 02*

असंज्ञी जीव 01 गुणस्थान, संज्ञी जीव में 01 से 12 तक, 13 व 14 वे गुणस्थान वाले अनुसंज्ञी कहलाते है। 


*✍️ आहारक – 02*

आहारक जीव 01 से 13 तक, अनाहारक 01, 02, 04, 13, 14 वा गुणस्थान होते है। 13 वे गुणस्थान मे अनाहारक अवस्था केवली समुद्धात के समय है। 


*✍️ गुणस्थान – 14*

मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्य साम्पराय, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली जिन, अयोगकेवली जिन। 

 *(सभी गुणस्थानो का स्वकीय गुणस्थान है)*


*✍️ जीवसमास – 19*

जीवसमास के 14 भेद, 19 भेद, 57 भेद, 98 भेद और 406 भेद भी होते है। 

पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, जलकायिक सूक्ष्म-बादर, अग्निकायिक सूक्ष्म-बादर, वायुकायिक सूक्ष्म-बादर, नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय। 

*प्रारम्भ के 18 भेदो मे 01 गुणस्थान, संज्ञी पंचेन्द्रिय मे 01 से 14 तक गुणस्थान होते है।*

◆  नोट कुछ आचार्यो अनुसार बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक मे 02 गुणस्थान भी माना है। 

सप्रतिष्ठित प्रत्येक, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति मे भी 02 गुणस्थान हो सकता है। दो, तीन, चार और असंज्ञी पंचेन्द्रिय मे भी 02 गुणस्थान हो सकता है। 


*✍️ पर्याप्ति – 06*

एकेन्द्रिय जीव के 04 पर्याप्ति, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के 05 पर्याप्ति तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय के 06 पर्याप्ति होती हैं। 

आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा पर्याप्ति मे 01 गुणस्थान, आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा, मन:पर्याप्ति मे 01 से 14 तक गुणस्थान होते है। 


*✍️ प्राण – 10*

एकेन्द्रिय मे 04 प्राण, द्वीन्द्रिय के 06 प्राण, त्रीन्द्रिय मे 07 प्राण, चतुरिन्द्रिय मे 08 प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रिय मे 09 प्राण, संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के 10 प्राण होते है। 

स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण मे 01 से 12 तक गुणस्थान, मनोबल प्राण 01 से 12 तक, वचनबल प्राण 01 से 13 तक, कायबलप्राण 01 से 13 तक, श्वासोच्छवास प्राण 01 से 13 तक, आयु प्राण  01 से 14 तक गुणस्थानो में है। 


*✍️ संज्ञा – 04*

आहार संज्ञा  01 से 06  तक, भयसंज्ञा  01 से 08 तक, मैथुनसंज्ञा  01 से 09 तक, परिग्रह संज्ञा 01 से 10 गुणस्थान तक होती हैं। 


*✍️ उपयोग – 12*

कुमति, कुश्रुत, कुअवधि  01-02 गुणस्थान में, मति, श्रुत, अवधिज्ञान 04 से 12 गुणस्थान में, मन:पर्यय ज्ञान  06 से 12  गुणस्थान में, केवलज्ञान  13 - 14 गुणस्थान में होता है। 

चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन  01 से 12 गुणस्थान में, अवधिदर्शन  04 से 12 गुणस्थान (03 से 12 मे भी), केवलदर्शनोपयोग 13–14 वे गुणस्थान में है। 


*✍️ ध्यान – 16*

इष्टवियोगज-अनिष्टसंयोगज-वेदना– 01 से 06

निदान आर्तध्यान –              01 से 05 गुणस्थान 

हिंसानन्दी, मृषानन्दी –          01 से 05 गुणस्थान 

चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी –      01 से 05 गुणस्थान

आज्ञाविचय, अपायविचय –   04 से 07 गुणस्थान 

विपाकविचय –                    05 से 07 गुणस्थान 

संस्थानविचय –                    06 – 07 गुणस्थान 

पृथक्त्व वितर्क वीचार –         08 से 11 गुणस्थान 

एकत्व वितर्क अवीचार –        12 वा गुणस्थान 

सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति –           13 वा गुणस्थान 

व्युपरतक्रिया निवृति –           14 वा गुणस्थान 


*✍️ आस्रव – 57*

◆  मिथ्यात्व 05 –विपरीत, एकान्त, विनय, संशय अज्ञान  01 गुणस्थान 

◆ अविरति 12 –पाँचो स्थावरो की रक्षा नही करना– 01 से 05 तक, त्रस जीवो की रक्षा नही करना – 01 से 04 तक, पाँचो इन्द्रियो की रक्षा नही करना– 01 से 05 तक, मन को वश नही करना – 01 से 05 तक गुणस्थान हैं। 

◆  कषाय 25 – 16 कषाय, 9 नौकषाय

(कषाय के गुणस्थानो का वर्णन ऊपर हो गया है) 

◆ योग 15 - मनोयोग-4, वचनयोग-4, काययोग-7

(योग के गुणस्थानो का वर्णन ऊपर हो गया है) 


*✍️ जाति – 84 लाख*

नित्यनिगोद- 07 लाख, इतरनिगोद - 07 लाख, पृथ्वीकायिक- 07 लाख, जलकायिक- 07 लाख, अग्निकायिक- 07 लाख, वायुकायिक - 07 लाख,  वनस्पतिकायिक -10 लाख, द्वीन्द्रिय - 02 लाख,  त्रीन्द्रिय - 02 लाख, चतुरिन्द्रिय - 02 लाख जाति

   (इन 19 प्रकार की जातियो मे 01 गुणस्थान है) 

पंचेन्द्रिय तिर्यंच 04 लाख जाति–01 से 05 गुणस्थान, नारकी 04 लाख जाति– 01 से 04 गुणस्थान, देव 04  लाख जाति– 01 से 04 गुणस्थान, मनुष्य 14 लाख जाति– 01 से 14 गुणस्थान होते है। 


*✍️ कुल– 199-1/2  लाख करोड*

पृथ्वीकायिक  22 लाख करोड़,  01गुणस्थान, जलकायिक    07 लाख करोड़, 01गुणस्थान, अग्निकायिक  03 लाख करोड़,  01गुणस्थान, वायुकायिक    07 लाख करोड़,  01 गुणस्थान, वनस्पतिकाय   28 लाख करोड़, 01 गुणस्थान, द्वीन्द्रिय  07 लाख करोड़,  01 गुणस्थान, त्रीन्द्रिय           08 लाख करोड़,  01 गुणस्थान, चतुरिन्द्रिय       09 लाख करोड़,  01गुणस्थान, जलचर 12-1/2 लाख करोड़,  01 से 05 गुणस्थान,  थलचर 19 लाख करोड़,  01 से 05 तक गुणस्थान , नभचर 12 लाख करोड़,  01 से 05 तक गुणस्थान, नारकी 25 लाख करोड़,  01 से 04 तक गुणस्थान, देव 26 लाख करोड़,  01 से 04 तक गुणस्थान, मनुष्य 14 लाख करोड़   01 से 14 तक गुणस्थान 

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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*


रविवार, 29 दिसंबर 2024

वेद मार्गणा - 24 ठाणा

*वेद मार्गणा (24 ठाणा)*
 https://youtu.be/ywhc9cZCczw?si=5Dknym48vcVZ22Wb
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वेद कर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहते हैं। *(धवला 1/141)*
∆ मैथुन की अभिलाषा को वेद कहते है।
∆ आत्मा की चैतन्य रूप पर्याय में मैथुन रूप चित्त विक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते है। 
*(गोम्मटसार जीव काण्ड 272)*
◆ वेद चारित्र मोहनीय कर्म का भेद है और लिंग शरीर नाम कर्म के उदय से होने वाली शारीरीक रचना है, शरीर के चिन्ह विशेष है पूरी तरह पुदग्लमय है। 
वेद जीव के भाव रुप है इसलिए इसे चेतनमय भी कहते है क्योकी वेद रुप भाव जीव के ही होते है।
∆ वेद के आधार से जीवो को खोजना वेद मार्गणा है।

*✍️ वेदमार्गणा के भेद :-*
∆ वेद दो प्रकार के हैं - द्रव्य वेद, भाव वेद
∆ वेद मार्गणा तीन प्रकार की है - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद *(बृहद द्रव्यसंग्रह 13 टीका)*
∆ वेद मार्गणा के अनुवाद से स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद तथा अपगत वेद वाले जीव होते *(धवला 1/340)*

*✍️भाववेद :- (आत्मा का परिणाम भाववेद)*
नपुंसक वेद नोकषाय (चारित्र मोहनीय) कर्म के उदय से जीव में तीव्र मोह के कारण उत्पन्न स्त्रीत्व, पुरुषत्व व नपुंसकत्व इन तीनों में एक-दूसरे की अभिलाषा लक्षण रुप भाव पारिणाम भाववेद है। *(राज वार्तिक 2/6)*
*∆ भाववेद तीन होते है– स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। (यह जीव की पर्याय है)।*

*✍️ द्रव्य वेद :- (शरीर के बाहय चिन्ह)*
शरीर नामकर्म के उदय से जीव में पाये जाने वाले स्त्रीत्व, पुरुषत्व व नपुंसकत्व शरीर का आकार होना, मूछ, दाढी, स्तन, योनी आदि चिन्ह सहित या राहित शरीर का होना द्रव्यवेद है।  *इसके तीन भेद है– स्त्रीलिंग, पुरुषलिंग, नपुंसक लिगं (यह पुदगल की पर्याय है)।*

👉 वेद चारित्र मोहनीय कर्म का भेद है, घातिकर्म हैं तथा लिंग शरीर नामकर्म के उदय होने वाली शारीरिक रचना है अघातिया कर्म है।
👉 द्रव्यवेद जन्म पर्यंत नहीं बदलता पर भाववेद कषाय विशेष होने के कारण क्षणमात्र में बदल सकता है । द्रव्य वेद से पुरुष को ही मुक्ति संभव है पर भाववेद से तीनों वेद में मोक्ष हो सकता है ।

*✍️ स्त्रीवेद :-*
स्त्रीवेद नामक नोकषाय के उदय से होने वाली जीव की  अवस्था विशेष को स्त्रीवेद कहते है। या जिसके उदय से पुरुष के साथ रमने के भाव हों वह स्त्रीवेद है।   *(गोम्मटसार जीव काण्ड 271)*

*✍️ पुरुषवेद :-*
पुरुषवेद नोकषाय के उदय के निमित्त से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा होना पुरूषवेद है। *(गोम्मटसार जीव काण्ड 271)*
∆ स्त्री में अभिलाषा रूप मैथुन संज्ञा से आक्रान्त होना पुरुषवेद है।

*✍️ नपुंसकवेद :-*
नुपंसकवेद नामक नोकषाय के उदय से जीव के स्त्री और पुरुष की अभिलाषा रूप तीव्र कामवेदना उत्पन्न होती है वह नपुंसकवेद है। 
∆ जिसके उदय से स्त्री तथा पुरुष दोनों के साथ रमने के भाव हों वह नपुसक वेद है। *(गोम्मटसार जीव काण्ड 271)*

*✍️ अपगतवेद :-  (अवेदी, वेद रहित)*
जिसका वेद बीत चुका है, नष्ट हो गया है, जो पहले वेद मे थे अब नही है वे अपगतवेदी है।
👉 वेद अपने मे ही वेदना है सुख नही है आचार्यो ने वेद की तुलना अग्नि से कि है।

*✍️ वेद मार्गणा में ग्रहण करने योग वेद :-*
वेद मार्गणा में भाववेद को ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यदि यहाँ द्रव्यवेद से प्रयोजन होता तो मनुष्य स्त्रियों के अपगतवेद स्थान नहीं बन सकता, क्योंकि द्रव्यवेद चौदहवें गुणस्थान् के अन्त तक पाया जाता है। परन्तु अपगत वेद भी होता है। इस प्रकार वचन निर्देश नौवें गुणस्थान के अवेद भाग से किया गया है। 
(जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ भाववेद से प्रयोजन है, द्रव्यवेद से नहीं)  *(धवला 2/513)*
वेद मार्गणा की परिभाषा पूर्ण हुई आगे तीनो वेदो और अपगत वेदी में 24 ठाणा का वर्णन होगा
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

वेद मार्गणा -स्त्रीवेद मे 24 ठाणा

 



✍️ वेद मार्गणा से स्त्रीवेद मे 24 ठाणा

स्त्रीवेद नामक नोकषाय के उदय से होने वाली जीव की  अवस्था विशेष को स्त्रीवेद कहते है। 

या जिसके उदय से पुरुष के साथ रमने के भाव हों वह स्त्रीवेद है।   (गोम्मटसार जीव काण्ड 271)

∆ स्त्रीवेद के उदय में जीव पुरुष को देखते ही उसी प्रकार द्रवित हो उठता है जिस प्रकार आग को छूते ही लाख पिघल जाती है। (वरंग चारित्र 4/89) स्त्रीवेद कण्डे की अग्रि के समान माना गया है। 


✍️ 24 स्थान मे स्त्रीवेद :-

1) गति  4 मे 3 भेद - तिर्यंच, मनुष्य और देव गति

2) इन्द्रिय  5 मे से 1 भेद -  पंचेन्द्रिय

3) काय   6 मे से 1 भेद - त्रसकाय

4) योग  15 मे से 13 योग - मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 (आहारकद्विक नही होता)

∆ अप्रशस्त वेदों (स्त्रीवेद और नपुंसक वेद) के साथ आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है। इसलिए आहारकद्विक काययोग नही होता है। (धवला 2/667)

05) वेद  03 मे से 01 वेद - स्वकीय (स्त्रीवेद)

06) कषाय  25 मे से 23 कषाय - 16 कषाय और 07 नोकषाय (पुरुषवेद, नपुंसक वेद नोकषाय को छोडकर)

07) ज्ञान  08 मे से 06 ज्ञान -  कुज्ञान 03, सुज्ञान 03

∆ कुज्ञान 03 - कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान

∆ सुज्ञान 03 - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, 

(मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं होता है)

08) संयम   07 मे से 04 - असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना 

09) दर्शन। 04 मे 03 दर्शन - चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन

10) लेश्या  06 मे 06 लेश्या - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम, शुक्ल 

11) भव्यक्त्व  02 मे से 02 -  भव्य और अभव्य

12) सम्यक्त्व  06 मे से 06 भेद - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, क्षायिक और क्षयोपशम

(क्षायिक भावस्त्री के कारण से लिया है)

13) संज्ञी  02 मे से 02 भेद - संज्ञी और असंज्ञी

14) आहारक  02 मे से 02 भेद - आहारक, अनहारक

15) गुणस्थान  14 मे 9 भेद  - 01 से 09 तक (भाववेद अपेक्षा)

16) जीवसमास  19 मे से 2 भेद - असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय

17) पर्याप्ति  6 मे से 6 भेद - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ, भाषा, मन:पर्याप्ति

18) प्राण 10 मे से 10 प्राण - सभी दसो प्राण

19) संज्ञा  4 मे 4 भेद - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह 

20) उपयोग 12 मे से 09 भेद - 06 ज्ञानोपयोग व 03 दर्शनोपयोग [मति, श्रुत, अवधि, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञानोपयोग, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शनोपयोग]

21) ध्यान 16 मे से 13 भेद - आर्त 04, रौद्र ध्यान 04, धर्मध्यान 02

∆ आर्त - इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना, निदान

∆ रौद - हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी

∆ धर्म - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय   

∆ शुक्ल - पृथक्त्व वितर्क वीचार 

22) आस्रव 57 मे से 53 भेद - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कषाय 25, योग 13

∆ मिथ्यात्व 05 - विपरीत, एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान

∆ अविरति 12 - 5 इन्द्रिय और मन को वश में नही करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना

∆ कषाय 23 - 16 अनन्तानुबन्धी आदि 7 नोकषाय

∆ योग 13 - मनोयोग 04, वचनयोग 04, काययोग 05

23) जाति 84 लाख मे से 22 लाख जातियाँ 

तिर्यंच 04 लाख, मनुष्य 14 लाख, देव 04 लाख

24) कुल - 199.5 लाख करोड मे से 83.5 लाख करोड

◆ स्त्रीवेदी जीव कहाँ-कहाँ होते है 

मनुष्यगति, तिर्यंचगति तथा देवों में सोलहवें स्वर्ग तक स्त्रीवेदी जीव पाये जाते हैं। 

लेकिन सम्मूर्च्छन, लब्ध्यपर्यातक मनुष्य-तिर्यंचो में स्त्रियाँ नहीं होती हैं क्योंकि सम्मूर्च्छन जीव नपुंसक वेद वाले ही होते हैं ।

◆ स्त्रीवेद में संयम :-

असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना 

∆ स्त्रीवेद वाले के तीन सयम नहीं हो सकते हैं - परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात सयम 

∆ परिहारविशुद्धि संयम पुरुषवेद वाले के ही होता है । ∆ सूक्ष्म साम्पराय तथा यथाख्यात संयम अवेदी जीवों के ही होते हैं, इसलिए स्त्रीवेद में ये तीनों संयम नहीं होते हैं। इसी प्रकार नपुंसक वेद में भी ये संयम नहीं हो सकते हैं ।

◆ स्त्रीवेदी निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में सम्यक्त्व :-

स्त्रीवेदी के निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में दो सम्यक्त्व हो सकते हैं - मिथ्यात्व और सासादन।

स्त्रीवेद की पर्याप्त अवस्था में सभी सम्यक्त्व हों सकते हैं क्योंकि भावस्त्री वेदी मोक्ष जा सकते हैं।

◆ स्त्रीवेद में संज्ञाओं का अभाव :-

स्त्रीवेद में दो संज्ञाओं का अभाव हो सकता है- आहार संज्ञा तथा भय संज्ञा। 

∆ आहार संज्ञा छठे गुणस्थान तक होती है सातवे गुणस्थान मे चली जाती है।

∆ भय संज्ञा आठवे गुणस्थान तक होती है नौवे गुणस्थान  मे चली जाती है।

∆ छठे गुणस्थान तक वेद तीव्र रहता है, सातवे मे वेद अतिमंद हो जाते है।

👉 भाववेद स्त्री हो द्रव्य से पुरुष हो ऐसे लोग मोक्ष जा सकते है, लेकिन जो तीर्थंकर होते है वे द्रव्य से भी और भाव से भी पुरुष वेद वाले होते है।

वेद मार्गणा से स्त्रीवेद मे 24 ठाणा का वर्णन पूर्ण हुआ

।।जिनवाणी माता की जय।।

24) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*

*२४) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *जहाँ कार्मण काययोग समाप्त होगा उसके अगले ही क्षण से ही मिश्र काययोग प्रारम्भ हो ...