गुरुवार, 9 जनवरी 2025
05. चौबीस ठाणा से नरकगति मार्गणा
01. चौबीस ठाणा के नाम, उनके उत्तर भेद
01. चौबीस ठाणा के नाम, उनके उत्तर भेद*
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https://youtu.be/WiAu4Pj-CQs?si=UgggOsI-kLkSu-kJ
*चौबीस = चौबीस, ठाणा = स्थान*
*जहाँ चौबीस स्थानो मे जीव का विशेष वर्णन किया गया है उसे चौबीस ठाणा कहते है।*
बोधिदुर्लभ भावना का चिंतन करने के लिए चौबीस ठाणा का अध्ययन करना चाहिए। अपने उपयोग के चौबीस स्थान के उत्तर भेदो मे लगाना चाहिए और विचार करना चहिए कि किस-किस स्थान पर रत्नत्रय प्राप्त किया जा सकता है। हम कितने कितने स्थानो को छोड़कर यहाँ आ गये है। सब कुछ अनुकुलता मिल जाने पर भी यदि हम रत्नत्रय धारण नही कर पाये तो सबकुछ व्यर्थ है। लोक भावना भाने के लिए भी चौबीस ठाणा समझना चाहिए।
*✍️चौबीस ठाणा (स्थान) के नाम :-
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यक्त्व, सम्यक्तव, संज्ञी, आहार, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग, ध्यान, आस्रव, जाति और कुल।
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*✍️चौबीस ठाणा (स्थानो) के उत्तर भेद :-
*०१) गति –०४*
नरक गति, तिर्यंचगति, मनुष्य गति और देवगति।
*०२) इन्द्रिय –०५*
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय।
*०३) काय –०६*
पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय।
*०४) योग –१५*
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग,
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०७* औदारिक-औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक-वैक्रियिक मिश्रकाययोग, आहारक - आहारकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग
*०५) वेद –०३*
स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद।
*०६) कषाय –२५*
*१६ कषाय*
*०४ अनन्तानुबन्धी* क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ अप्रत्याख्यानावरण* क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ प्रत्याख्यानावरण* क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ संज्वलन* क्रोध-मान-माया-लोभ
*०९ नोकषाय* हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद।
*०७) ज्ञान –०८*
*कुज्ञान ०३* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
*सुज्ञान ०५* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान
*०८) संयम –०७*
असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय, यथाख्यात,
*०९) दर्शन –०४*
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन।
*१०) लेश्या –०६*
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल लेश्या।
*११) भव्यक्त्व –०२* भव्य और अभव्य।
*१२) सम्यक्त्व –०६*
मिथ्यात्व,सासादन,मिश्र,उपशम,क्षयोपशम, क्षायिक
*१३) संज्ञी –०२* संज्ञी और असंज्ञी।
*१४) आहारक –०२* आहारक और अनाहारक।
*१५) गुणस्थान –१४*
मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र), अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्य साम्पराय, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली जिन, अयोगकेवली जिन।
*१६) जीवसमास–१९*
पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, जलकायिक सूक्ष्म-बादर, अग्निकायिक सूक्ष्म-बादर, वायुकायिक सूक्ष्म-बादर, नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय।
*१७) पर्याप्ति –०६*
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा तथा मन:पर्याप्ति।
*१८) प्राण –१०*
*इन्द्रिय ०५* स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण
*बल ०३* कायबल, वचन बल और मनोबल प्राण
आयु प्राण और श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा –०४*
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग –१२*
*ज्ञानोपयोग- ०८* मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानोपयोग + कुमति, कुश्रुत कुअवधि
*दर्शनोपयोग ०४* चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शनोपयोग
*२१) ध्यान –१६*
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।
*धर्मध्यान ०४* आज्ञाविचय,अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय।
*शुक्ल ०४* पृथक्त्ववितर्क वीचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति।
*२२) आस्रव –५७*
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति १२* ०५ इन्द्रिय और मन को वश में नही करना तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २५* १६ अनन्तानुबन्धीआदि ०९नोकषाय
*योग १५* मनोयोग ०४ वचनयोग ०४ काययोग ०७
*२३) जाति –८४ लाख*
*नित्यनिगोद* ०७ लाख
*इतरनिगोद* ०७ लाख
*पृथ्वीकायिक* ०७ लाख
*जलकायिक* ०७ लाख
*अग्निकायिक* ०७ लाख
*वायुकायिक* ०७ लाख
*वनस्पतिकायिक* १० लाख
*द्वीन्द्रिय* ०२ लाख
*त्रीन्द्रिय* ०२ लाख,
*चतुरिन्द्रिय* ०२ लाख
*पंचेन्द्रिय तिर्यंच* ०४ लाख,
*नारकी* ०४ लाख
*देव* ०४ लाख
*मनुष्य* १४ लाख
*२४) कुल–१९९.५ लाख करोड*
*पृथ्वीकायिक* २२ लाख करोड़,
*जलकायिक* ०७ लाख करोड़,
*अग्निकायिक* ०३ लाख करोड़,
*वायुकायिक* ०७ लाख करोड़,
*वनस्पतिकायिक* २८ लाख करोड़,
*द्वीन्द्रिय* ०७ लाख करोड़,
*त्रीन्द्रिय* ०८ लाख करोड़,
*चतुरिन्द्रिय* ०९ लाख करोड़,
*जलचर* १२.५ लाख करोड़,
*थलचर* १९ लाख करोड़,
*नभचर* १२ लाख करोड़,
*नारकी* २५ लाख करोड़,
*देव* २६ लाख करोड़,
*मनुष्य* १४ लाख करोड़
*कुल जोड=* १९९-१/२ लाख करोड़ कुल।
*जीवकाण्ड जी गाथा ११६ अनुसार मनुष्यों के १२ लाख करोड़ कुल बताये हैं इस अपेक्षा से कुल १९७-१/२ लाख करोड़ कुल होते हैं।*
*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन )*
बुधवार, 8 जनवरी 2025
04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा
*04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा*
https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC
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*जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।*
गति नाम कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।
जिसके उदय से जीव भावान्तर को जाता है वह गति नामकर्म हैं। *(मूलाचार १२३६)*
गति नाम कर्म के उदय से जीव की पर्याय को अथवा चारो गति मे गमन करने को गति कहते है।
*(गो. जी १४६)*
*गति जीव विपाकी प्रकृति हैं इसमे जीवो के भावो की मुख्यता रहती है*
गति अपेक्षा जीवो का परिचय होना गति मार्गणा है।
*गति मार्गणा के चार भेद –नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति हैं-सिद्धगति में भी जीव होते हैं*
नरकगति द्वारा नारकी जीवो की खोज होती हैं।
तिर्यंचगति द्वारा तिर्यंच जीवो की खोज होती हैं।
मनुष्यगति द्वारा मनुष्यो की खोज होती हैं।
देवगति द्वारा देवो की खोज होती हैं।
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*✍️नरकगति*
जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में स्वय तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारक कहते हैं। नारक की गति को नरकगति कहते हैं।
*(गो.जी. १४७)*
द्रव्य मे–यानि नरक मे जितनी भी वस्तुए है, या शरीर हैं उसमे नही रमते, उन्हे वहा कोई भी वस्तु अच्छी नही लगती
क्षेत्र मे–नारकी को वहा का क्षेत्र भी अच्छा नही लगता है।
काल मे- नारकी को वहा का काल भी अच्छा नही लगता है।
भाव मे–नारकी को वहा का भाव भी अच्छा नही लगता, वहा कभी अच्छे भाव नही होते है। हर समय लडना, मारना, काटना, एक् दुसरे को तकलीप देने के भाव होते है।
परस्पर मे–प्रीति को प्राप्त नही होते, कभी भी एक दूसरे से दोस्ती नही होती हैं। जब भी नया नारकी आता है तो अन्य सभी नारकी आते है और सभी मिलकर उसे मारते काटते है।
नीचे अधोलोक में घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा तथा माघवी नामक सात पृथिवियाँ हैं *ये उनके रुढी नाम है* तथा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि गुणनाम है *सार्थक नाम है* यथा नाम वैसा ही वहा का काम है। जैसे जहा रत्नो जैसी प्रभा है उसका नाम रत्नप्रभा है। यहा नारकी जीव रहते है।
ये नारकी क्षेत्रजनित, मानसिक, शारीरिक और असुरकृत दुख, परस्परकृत दुख आदि अनेक प्रकार के दुःखों को दीर्घ काल तक भोगते हैं, उसकी गति को नरकगति कहते है।
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*✍️तिर्यंचगति*
देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोड्कर शेष सभी तिर्यंच कहलाते हैं। तिर्यंचो की गति को तिर्यंचगति कहते हैं। *(त. सू ०४/२७)*
*०१)* मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त हो।
*०२)* जिनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) हो । *०३)* जो निकृष्ट अज्ञानी हो ।
*०४)* जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय वे तिर्यंच है
इन तिर्यंच की गति को तिर्यंचगति कहते हैं।
*(गो. जी. १४८)*
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*✍️मनुष्यगति*
जिनके मनुष्यगति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते है। *(गो.जी. १४९)*
*०१)* जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे
हेय=छोडने योग्य, उपादेय=ग्रहण करने योग्य
हमे क्या चीज छोडनी चाहिए क्या ग्रहण करना चाहिए इसका पता चलता है।
तत्त्व=वस्तु स्वरुप का, अतत्त्व=जैसा स्वरुप नही है
उसे अच्छे से जानता है।
आप्त=इष्ट देव का पता होना, अनाप्त=जो इष्टदेव नही है का पता होता है।
धर्म मे क्या है, अधर्म मे क्या है का विचार होता है उसको मनुष्य कहते है।
*०२)* जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके,
*०३)* जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो,
*०४)* शिल्प-कला आदि में कुशल हो तथा
*०५)* जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं।
*(गो. जी. १४९)*
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*✍️देवगति*
देवगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न गति को देवगति कहते है। देव चार प्रकार के होते है–भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष और वमानिक देव।
*०१)* जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों,
*०२)* अणिमादि गुणों से सदा अप्रतिहत (बिना रोक-टोक) विहार करते हो,
*०३)* जिनका रूप-लावण्य सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं। उन देवों की गति को देवगति कहते है।
*(गो. जी. १५१)*
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*✍️सिद्धगति*
यद्यपि सिद्ध भगवान के किसी गति नामकर्म का उदय नहीं है फिर भी आठ कर्मों का नाश करके सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग में गमन करते हैं ।
*०१)* जो एकेन्द्रिय आदि जाति, बुढ़ापा, मरण तथा भय से रहित हों,
*०२)* जो इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग से रहित हों,
*०३)* जो आहारादि संज्ञाओं से रहित हों,
*०४)* रोग, आधि-व्याधि से रहित हों, वे सिद्ध भगवान हैं, उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं।
*(गो. जी. १५२)*
जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूप अमृत के अनुभव करने वाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भाव कर्म रूपी अंजन से रहित हैं, नित्य हैं, जिनके सम्यक्क्तवादि भाव रूप मुख्य गुण प्रकट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं और उनकी गति को सिद्धगति कहते है। *(गो. जी. ६८)*
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
02) 03) चौबीस ठाणा मे गुणस्थान भाग
*✍️ 02) चौबीस ठाणा मे गुणस्थान भाग 01*
https://youtu.be/mFDRM4c43Es?si=rvdDLNTEgD9foxdO
*✍️ 03) चौबीस ठाणा मे गुणस्थान भाग 02*
https://youtu.be/jgxszHqFu10?si=s7_GYnrQ-IzjUxqf
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जहाँ चौबीस स्थानो मे जीव का विशेष वर्णन किया गया है उसे चौबीस ठाणा कहते है।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यक्त्व, सम्यक्तव, संज्ञी, आहार, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग, ध्यान, आस्रव, जाति और कुल ये चौबीस ठाणा के चौबीस भेद है। यहाँ इन चौबीस स्थानो के उत्तर भेदो मे गुणस्थान को जानते है।
*✍️ गति – 04*
नरक गति – 01, 02, 03, 04 वा गुणस्थान
तिर्यंचगति – 01, 02, 03, 04, 05 वा गुणस्थान
मनुष्य गति – 01 से 14 तक के सभी गुणस्थान
देवगति – 01, 02, 03, 04 गुणस्थान
*✍️ इन्द्रिय – 05*
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवो मे 01 गुणस्थान, पंचेन्द्रिय जीवो मे 01 से 14 तक गुणस्थान
👉 नोट एक, दो, तीन और चार इन्द्रिय जीवो के 02 गुणस्थान किन्ही आचार्यो के अनुसार होता है। यह 02 गुणस्थान उत्पन्न नही करते बल्कि दूसरे गुणस्थान से मरण करके आने के समय होता है। यह कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवली तक होता है।
*✍️ काय – 06*
पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक में 01 गुणस्थान, त्रसकायिक में 01 से 14 तक गुणस्थान
◆ नोट–औपशमिक सम्यक्तव वाले जीव अनंतानुबंधी के उदय से सासादन मे आने के बाद मरण होने पर पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक मे जन्म लेने के कारण इन तीनो मे दूसरा गुणस्थान भी होता है।
*✍️ योग – 15*
सत्य-अनुभय मनोयोग में 01 से 13 तक गुणस्थान
असत्य-उभय मनोयोग में 01 से 12 तक गुणस्थान
सत्य-अनुभय वचनयोग मे 01 से 13 तक गुणस्थान
असत्य-उभय वचनयोग में 01 से 12 तक गुणस्थान
औदारिक काययोग मे 01 से 13 तक गुणस्थान
औदारिक मिश्रकाययोग 01, 02, 4, 13 गुणस्थान
वैक्रियिक काययोग में 01, 02, 03, 04 गुणस्थान
वैक्रियिक मिश्रकाययोग में 01, 02, 04 गुणस्थान
आहारक-आहारकमिश्र काययोग में 06 गुणस्थान
कार्मण काययोग 01, 02, 04, 13 वा गुणस्थान
● उभय - सत्य भी असत्य भी, अनुभय- ना सत्य ना असत्य
*✍️ वेद – 03 *
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद में 01से09 गुणस्थान
◆ नोट यहा वेद भाववेद की अपेक्षा से है।
*✍️ कषाय – 25 (भाववेद की अपेक्षा)*
अनन्तानुबन्धी चतुष्क में 01 – 02 गुणस्थान, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क 01 से 04 गुणस्थान
प्रत्याख्यानावरण क्रोध-माया-लोभ 01 से 05 तक प्रत्याख्यानावरण मान 01 से 04 गुणस्थान
संज्वलन क्रोध, मान, माया 01से 09 तक संज्वलन लोभ में 01 से 10 तक गुणस्थान
हास्य-रति-अरति मे 01 से 08 तक शोक-भय-जुगुप्सा 01 से 08 तक गुणस्थान
स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद 01 से 09 गुणस्थान
◆ नोट - पहले गुणस्थान मे अनन्तानुबन्धी आदि चारो कषाय का उदय है। चौथे गुणस्थान मे तीन कषाय (अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन) का उदय हैं। पाचवे गुणस्थान मे दो कषाय प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन का उदय है। छठे से नवम गुणस्थान तक संज्वलन कषाय का उदय है। दसवे गुणस्थान मे सूक्ष्म लोभ का उदय है।
*✍️ ज्ञान – 08*
कुमति-कुश्रुत-कुअवधिज्ञान में 01 – 02 गुणस्थान
मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-अवधिज्ञान 04 से 12 गुणस्थान
मन:पर्यय ज्ञान 06 से 12 तक, केवलज्ञान 13, 14 गुणस्थान में तथा सिद्धो मे
*✍️ संयम – 07*
असंयम 01 से 04 तक गुणस्थान मे, संयमासंयम 05 वा तक गुणस्थान मे, सामायिक 06 से 09 तक गुणस्थान, छेदोपस्थापना 06 से 09 तक गुणस्थान मे, परिहार विशुद्धि 06 - 07 गुणस्थान मे, सूक्ष्मसाम्पराय 10 वे गुणस्थान, यथाख्यात संयम 11 से 14 तक गुणस्थान मे है।
*✍️ दर्शन – 04*
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन 01 से 12 गुणस्थान, अवधिदर्शन 04 से 12 गुणस्थान, केवलदर्शन 13, 14 वा ग़ुणस्थान तथा सिद्ध भगवान में भी
◆ नोट मतांतर के अनुसार किन्ही आचार्यो ने अवधिदर्शन को 03 गुणस्थान मे भी लिया है तथा किन्ही आचार्यो ने 01 गुणस्थान में भी माना है। उनका कहना है कि कुअवधिदर्शन 01 गुणस्थान मे होता है उसके लिए उससे पहले अवधिदर्शन होना जरुरी है।
*✍️ लेश्या – 06*
कृष्ण, नील, कापोत 01 से 04 तक, पीत, पदम 01 से 07 तक, शुक्ल लेश्या 01 से 13 गुणस्थान तक मे होती है। यहा भाव लेश्या की अपेक्षा से वर्णन है।
*✍️ भव्यक्त्व – 02*
भव्य जीव 01 से 14 गुणस्थान में, अभव्य जीव 01 गुणस्थान तथा सिद्ध भगवान ना भव्य ना अभव्य है।
*✍️ सम्यक्त्व – 06*
मिथ्यात्व 01 गुणस्थान, सासादन 02 गुणस्थान, मिश्र 03 गुणस्थान, उपशम (प्रथमोपशम) 04 से 07 तक, द्वितीयोपशम 04 से 11 तक, क्षयोपशम 04 से 07 तक, क्षायिक 04 से 14 तक सिद्धो के भी क्षायिक सम्यक्त्व होता है।
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*✍️ संज्ञी – 02*
असंज्ञी जीव 01 गुणस्थान, संज्ञी जीव में 01 से 12 तक, 13 व 14 वे गुणस्थान वाले अनुसंज्ञी कहलाते है।
*✍️ आहारक – 02*
आहारक जीव 01 से 13 तक, अनाहारक 01, 02, 04, 13, 14 वा गुणस्थान होते है। 13 वे गुणस्थान मे अनाहारक अवस्था केवली समुद्धात के समय है।
*✍️ गुणस्थान – 14*
मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्य साम्पराय, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली जिन, अयोगकेवली जिन।
*(सभी गुणस्थानो का स्वकीय गुणस्थान है)*
*✍️ जीवसमास – 19*
जीवसमास के 14 भेद, 19 भेद, 57 भेद, 98 भेद और 406 भेद भी होते है।
पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, जलकायिक सूक्ष्म-बादर, अग्निकायिक सूक्ष्म-बादर, वायुकायिक सूक्ष्म-बादर, नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय।
*प्रारम्भ के 18 भेदो मे 01 गुणस्थान, संज्ञी पंचेन्द्रिय मे 01 से 14 तक गुणस्थान होते है।*
◆ नोट कुछ आचार्यो अनुसार बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक मे 02 गुणस्थान भी माना है।
सप्रतिष्ठित प्रत्येक, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति मे भी 02 गुणस्थान हो सकता है। दो, तीन, चार और असंज्ञी पंचेन्द्रिय मे भी 02 गुणस्थान हो सकता है।
*✍️ पर्याप्ति – 06*
एकेन्द्रिय जीव के 04 पर्याप्ति, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के 05 पर्याप्ति तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय के 06 पर्याप्ति होती हैं।
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा पर्याप्ति मे 01 गुणस्थान, आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा, मन:पर्याप्ति मे 01 से 14 तक गुणस्थान होते है।
*✍️ प्राण – 10*
एकेन्द्रिय मे 04 प्राण, द्वीन्द्रिय के 06 प्राण, त्रीन्द्रिय मे 07 प्राण, चतुरिन्द्रिय मे 08 प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रिय मे 09 प्राण, संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के 10 प्राण होते है।
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण मे 01 से 12 तक गुणस्थान, मनोबल प्राण 01 से 12 तक, वचनबल प्राण 01 से 13 तक, कायबलप्राण 01 से 13 तक, श्वासोच्छवास प्राण 01 से 13 तक, आयु प्राण 01 से 14 तक गुणस्थानो में है।
*✍️ संज्ञा – 04*
आहार संज्ञा 01 से 06 तक, भयसंज्ञा 01 से 08 तक, मैथुनसंज्ञा 01 से 09 तक, परिग्रह संज्ञा 01 से 10 गुणस्थान तक होती हैं।
*✍️ उपयोग – 12*
कुमति, कुश्रुत, कुअवधि 01-02 गुणस्थान में, मति, श्रुत, अवधिज्ञान 04 से 12 गुणस्थान में, मन:पर्यय ज्ञान 06 से 12 गुणस्थान में, केवलज्ञान 13 - 14 गुणस्थान में होता है।
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन 01 से 12 गुणस्थान में, अवधिदर्शन 04 से 12 गुणस्थान (03 से 12 मे भी), केवलदर्शनोपयोग 13–14 वे गुणस्थान में है।
*✍️ ध्यान – 16*
इष्टवियोगज-अनिष्टसंयोगज-वेदना– 01 से 06
निदान आर्तध्यान – 01 से 05 गुणस्थान
हिंसानन्दी, मृषानन्दी – 01 से 05 गुणस्थान
चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी – 01 से 05 गुणस्थान
आज्ञाविचय, अपायविचय – 04 से 07 गुणस्थान
विपाकविचय – 05 से 07 गुणस्थान
संस्थानविचय – 06 – 07 गुणस्थान
पृथक्त्व वितर्क वीचार – 08 से 11 गुणस्थान
एकत्व वितर्क अवीचार – 12 वा गुणस्थान
सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति – 13 वा गुणस्थान
व्युपरतक्रिया निवृति – 14 वा गुणस्थान
*✍️ आस्रव – 57*
◆ मिथ्यात्व 05 –विपरीत, एकान्त, विनय, संशय अज्ञान 01 गुणस्थान
◆ अविरति 12 –पाँचो स्थावरो की रक्षा नही करना– 01 से 05 तक, त्रस जीवो की रक्षा नही करना – 01 से 04 तक, पाँचो इन्द्रियो की रक्षा नही करना– 01 से 05 तक, मन को वश नही करना – 01 से 05 तक गुणस्थान हैं।
◆ कषाय 25 – 16 कषाय, 9 नौकषाय
(कषाय के गुणस्थानो का वर्णन ऊपर हो गया है)
◆ योग 15 - मनोयोग-4, वचनयोग-4, काययोग-7
(योग के गुणस्थानो का वर्णन ऊपर हो गया है)
*✍️ जाति – 84 लाख*
नित्यनिगोद- 07 लाख, इतरनिगोद - 07 लाख, पृथ्वीकायिक- 07 लाख, जलकायिक- 07 लाख, अग्निकायिक- 07 लाख, वायुकायिक - 07 लाख, वनस्पतिकायिक -10 लाख, द्वीन्द्रिय - 02 लाख, त्रीन्द्रिय - 02 लाख, चतुरिन्द्रिय - 02 लाख जाति
(इन 19 प्रकार की जातियो मे 01 गुणस्थान है)
पंचेन्द्रिय तिर्यंच 04 लाख जाति–01 से 05 गुणस्थान, नारकी 04 लाख जाति– 01 से 04 गुणस्थान, देव 04 लाख जाति– 01 से 04 गुणस्थान, मनुष्य 14 लाख जाति– 01 से 14 गुणस्थान होते है।
*✍️ कुल– 199-1/2 लाख करोड*
पृथ्वीकायिक 22 लाख करोड़, 01गुणस्थान, जलकायिक 07 लाख करोड़, 01गुणस्थान, अग्निकायिक 03 लाख करोड़, 01गुणस्थान, वायुकायिक 07 लाख करोड़, 01 गुणस्थान, वनस्पतिकाय 28 लाख करोड़, 01 गुणस्थान, द्वीन्द्रिय 07 लाख करोड़, 01 गुणस्थान, त्रीन्द्रिय 08 लाख करोड़, 01 गुणस्थान, चतुरिन्द्रिय 09 लाख करोड़, 01गुणस्थान, जलचर 12-1/2 लाख करोड़, 01 से 05 गुणस्थान, थलचर 19 लाख करोड़, 01 से 05 तक गुणस्थान , नभचर 12 लाख करोड़, 01 से 05 तक गुणस्थान, नारकी 25 लाख करोड़, 01 से 04 तक गुणस्थान, देव 26 लाख करोड़, 01 से 04 तक गुणस्थान, मनुष्य 14 लाख करोड़ 01 से 14 तक गुणस्थान
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
रविवार, 29 दिसंबर 2024
वेद मार्गणा - 24 ठाणा
वेद मार्गणा -स्त्रीवेद मे 24 ठाणा
✍️ वेद मार्गणा से स्त्रीवेद मे 24 ठाणा
स्त्रीवेद नामक नोकषाय के उदय से होने वाली जीव की अवस्था विशेष को स्त्रीवेद कहते है।
या जिसके उदय से पुरुष के साथ रमने के भाव हों वह स्त्रीवेद है। (गोम्मटसार जीव काण्ड 271)
∆ स्त्रीवेद के उदय में जीव पुरुष को देखते ही उसी प्रकार द्रवित हो उठता है जिस प्रकार आग को छूते ही लाख पिघल जाती है। (वरंग चारित्र 4/89) स्त्रीवेद कण्डे की अग्रि के समान माना गया है।
✍️ 24 स्थान मे स्त्रीवेद :-
1) गति 4 मे 3 भेद - तिर्यंच, मनुष्य और देव गति
2) इन्द्रिय 5 मे से 1 भेद - पंचेन्द्रिय
3) काय 6 मे से 1 भेद - त्रसकाय
4) योग 15 मे से 13 योग - मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 (आहारकद्विक नही होता)
∆ अप्रशस्त वेदों (स्त्रीवेद और नपुंसक वेद) के साथ आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है। इसलिए आहारकद्विक काययोग नही होता है। (धवला 2/667)
05) वेद 03 मे से 01 वेद - स्वकीय (स्त्रीवेद)
06) कषाय 25 मे से 23 कषाय - 16 कषाय और 07 नोकषाय (पुरुषवेद, नपुंसक वेद नोकषाय को छोडकर)
07) ज्ञान 08 मे से 06 ज्ञान - कुज्ञान 03, सुज्ञान 03
∆ कुज्ञान 03 - कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
∆ सुज्ञान 03 - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान,
(मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं होता है)
08) संयम 07 मे से 04 - असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना
09) दर्शन। 04 मे 03 दर्शन - चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन
10) लेश्या 06 मे 06 लेश्या - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम, शुक्ल
11) भव्यक्त्व 02 मे से 02 - भव्य और अभव्य
12) सम्यक्त्व 06 मे से 06 भेद - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, क्षायिक और क्षयोपशम
(क्षायिक भावस्त्री के कारण से लिया है)
13) संज्ञी 02 मे से 02 भेद - संज्ञी और असंज्ञी
14) आहारक 02 मे से 02 भेद - आहारक, अनहारक
15) गुणस्थान 14 मे 9 भेद - 01 से 09 तक (भाववेद अपेक्षा)
16) जीवसमास 19 मे से 2 भेद - असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय
17) पर्याप्ति 6 मे से 6 भेद - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ, भाषा, मन:पर्याप्ति
18) प्राण 10 मे से 10 प्राण - सभी दसो प्राण
19) संज्ञा 4 मे 4 भेद - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह
20) उपयोग 12 मे से 09 भेद - 06 ज्ञानोपयोग व 03 दर्शनोपयोग [मति, श्रुत, अवधि, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञानोपयोग, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शनोपयोग]
21) ध्यान 16 मे से 13 भेद - आर्त 04, रौद्र ध्यान 04, धर्मध्यान 02
∆ आर्त - इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना, निदान
∆ रौद - हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी
∆ धर्म - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय
∆ शुक्ल - पृथक्त्व वितर्क वीचार
22) आस्रव 57 मे से 53 भेद - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कषाय 25, योग 13
∆ मिथ्यात्व 05 - विपरीत, एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान
∆ अविरति 12 - 5 इन्द्रिय और मन को वश में नही करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
∆ कषाय 23 - 16 अनन्तानुबन्धी आदि 7 नोकषाय
∆ योग 13 - मनोयोग 04, वचनयोग 04, काययोग 05
23) जाति 84 लाख मे से 22 लाख जातियाँ
तिर्यंच 04 लाख, मनुष्य 14 लाख, देव 04 लाख
24) कुल - 199.5 लाख करोड मे से 83.5 लाख करोड
◆ स्त्रीवेदी जीव कहाँ-कहाँ होते है
मनुष्यगति, तिर्यंचगति तथा देवों में सोलहवें स्वर्ग तक स्त्रीवेदी जीव पाये जाते हैं।
लेकिन सम्मूर्च्छन, लब्ध्यपर्यातक मनुष्य-तिर्यंचो में स्त्रियाँ नहीं होती हैं क्योंकि सम्मूर्च्छन जीव नपुंसक वेद वाले ही होते हैं ।
◆ स्त्रीवेद में संयम :-
असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना
∆ स्त्रीवेद वाले के तीन सयम नहीं हो सकते हैं - परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात सयम
∆ परिहारविशुद्धि संयम पुरुषवेद वाले के ही होता है । ∆ सूक्ष्म साम्पराय तथा यथाख्यात संयम अवेदी जीवों के ही होते हैं, इसलिए स्त्रीवेद में ये तीनों संयम नहीं होते हैं। इसी प्रकार नपुंसक वेद में भी ये संयम नहीं हो सकते हैं ।
◆ स्त्रीवेदी निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में सम्यक्त्व :-
स्त्रीवेदी के निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में दो सम्यक्त्व हो सकते हैं - मिथ्यात्व और सासादन।
स्त्रीवेद की पर्याप्त अवस्था में सभी सम्यक्त्व हों सकते हैं क्योंकि भावस्त्री वेदी मोक्ष जा सकते हैं।
◆ स्त्रीवेद में संज्ञाओं का अभाव :-
स्त्रीवेद में दो संज्ञाओं का अभाव हो सकता है- आहार संज्ञा तथा भय संज्ञा।
∆ आहार संज्ञा छठे गुणस्थान तक होती है सातवे गुणस्थान मे चली जाती है।
∆ भय संज्ञा आठवे गुणस्थान तक होती है नौवे गुणस्थान मे चली जाती है।
∆ छठे गुणस्थान तक वेद तीव्र रहता है, सातवे मे वेद अतिमंद हो जाते है।
👉 भाववेद स्त्री हो द्रव्य से पुरुष हो ऐसे लोग मोक्ष जा सकते है, लेकिन जो तीर्थंकर होते है वे द्रव्य से भी और भाव से भी पुरुष वेद वाले होते है।
वेद मार्गणा से स्त्रीवेद मे 24 ठाणा का वर्णन पूर्ण हुआ
।।जिनवाणी माता की जय।।
24) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*
*२४) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *जहाँ कार्मण काययोग समाप्त होगा उसके अगले ही क्षण से ही मिश्र काययोग प्रारम्भ हो ...
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