बुधवार, 8 जनवरी 2025

04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा

 *04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा*

https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC

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*जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।*

गति नाम कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।

जिसके उदय से जीव भावान्तर को जाता है वह गति नामकर्म हैं। *(मूलाचार १२३६)*

गति नाम कर्म के उदय से जीव की पर्याय को अथवा चारो गति मे गमन करने को गति कहते है। 

*(गो. जी १४६)*

*गति जीव विपाकी प्रकृति हैं इसमे जीवो के भावो की मुख्यता रहती है*

गति अपेक्षा जीवो का परिचय होना गति मार्गणा है।

*गति मार्गणा के चार भेद –नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति हैं-सिद्धगति में भी जीव होते हैं*

नरकगति द्वारा नारकी जीवो की खोज होती हैं।

तिर्यंचगति द्वारा तिर्यंच जीवो की खोज होती हैं।

मनुष्यगति द्वारा मनुष्यो की खोज होती हैं।

देवगति द्वारा देवो की खोज होती हैं।

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*✍️नरकगति*

जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में स्वय तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारक कहते हैं। नारक की गति को नरकगति कहते हैं।

*(गो.जी. १४७)*

द्रव्य मे–यानि नरक मे जितनी भी वस्तुए है, या शरीर हैं उसमे नही रमते, उन्हे वहा कोई भी वस्तु अच्छी नही लगती

क्षेत्र मे–नारकी को वहा का क्षेत्र भी अच्छा नही लगता है।

काल मे- नारकी को वहा का काल भी अच्छा नही लगता है।

भाव मे–नारकी को वहा का भाव भी अच्छा नही लगता, वहा कभी अच्छे भाव नही होते है। हर समय लडना, मारना, काटना, एक् दुसरे को तकलीप देने के भाव होते है।

परस्पर मे–प्रीति को प्राप्त नही होते, कभी भी एक दूसरे से दोस्ती नही होती हैं। जब भी नया नारकी आता है तो अन्य सभी नारकी आते है और सभी मिलकर उसे मारते काटते है।

नीचे अधोलोक में घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा तथा माघवी नामक सात पृथिवियाँ हैं *ये उनके रुढी नाम है* तथा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि गुणनाम है *सार्थक नाम है* यथा नाम वैसा ही वहा का काम है। जैसे जहा रत्नो जैसी प्रभा है उसका नाम रत्नप्रभा है। यहा नारकी जीव रहते है।

ये नारकी क्षेत्रजनित, मानसिक, शारीरिक और असुरकृत दुख, परस्परकृत दुख आदि अनेक प्रकार के दुःखों को दीर्घ काल तक भोगते हैं, उसकी गति को नरकगति कहते है।

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*✍️तिर्यंचगति*

देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोड्‌कर शेष सभी तिर्यंच कहलाते हैं। तिर्यंचो की गति को तिर्यंचगति कहते हैं। *(त. सू ०४/२७)*

*०१)* मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त हो। 

*०२)* जिनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) हो । *०३)* जो निकृष्ट अज्ञानी हो ।

*०४)* जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय वे तिर्यंच है

इन तिर्यंच की गति को तिर्यंचगति कहते हैं।

*(गो. जी. १४८)*

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*✍️मनुष्यगति*

जिनके मनुष्यगति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते है।  *(गो.जी. १४९)*

*०१)* जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे

हेय=छोडने योग्य, उपादेय=ग्रहण करने योग्य

हमे क्या चीज छोडनी चाहिए क्या ग्रहण करना चाहिए इसका पता चलता है।

तत्त्व=वस्तु स्वरुप का, अतत्त्व=जैसा स्वरुप नही है

उसे अच्छे से जानता है।

आप्त=इष्ट देव का पता होना, अनाप्त=जो इष्टदेव नही है का पता होता है।

धर्म मे क्या है, अधर्म मे क्या है का विचार होता है उसको मनुष्य कहते है।

*०२)* जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके,

*०३)* जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो,

*०४)* शिल्प-कला आदि में कुशल हो तथा

*०५)* जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं।

*(गो. जी. १४९)*

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*✍️देवगति*

देवगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न गति को देवगति कहते है। देव चार प्रकार के होते है–भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष और वमानिक देव।

*०१)* जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों,

*०२)*  अणिमादि गुणों से सदा अप्रतिहत (बिना रोक-टोक) विहार करते हो,

*०३)* जिनका रूप-लावण्य सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं। उन देवों की गति को देवगति कहते है।

*(गो. जी. १५१)*

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*✍️सिद्धगति*

यद्यपि सिद्ध भगवान के किसी गति नामकर्म का उदय नहीं है फिर भी आठ कर्मों का नाश करके सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग में गमन करते हैं ।

*०१)* जो एकेन्द्रिय आदि जाति, बुढ़ापा, मरण तथा भय से रहित हों,

*०२)* जो इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग से रहित हों,

*०३)* जो आहारादि संज्ञाओं से रहित हों,

*०४)* रोग, आधि-व्याधि से रहित हों, वे सिद्ध भगवान हैं, उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं।

*(गो. जी. १५२)*

जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूप अमृत के अनुभव करने वाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भाव कर्म रूपी अंजन से रहित हैं, नित्य हैं, जिनके सम्यक्क्तवादि भाव रूप मुख्य गुण प्रकट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं और उनकी गति को सिद्धगति कहते है। *(गो. जी. ६८)*

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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*


02) 03) चौबीस ठाणा मे गुणस्थान भाग

 *✍️ 02) चौबीस ठाणा मे गुणस्थान भाग 01*

https://youtu.be/mFDRM4c43Es?si=rvdDLNTEgD9foxdO

*✍️ 03) चौबीस ठाणा मे गुणस्थान भाग 02*

https://youtu.be/jgxszHqFu10?si=s7_GYnrQ-IzjUxqf

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जहाँ चौबीस स्थानो मे जीव का विशेष वर्णन किया गया है उसे चौबीस ठाणा कहते है। 

गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यक्त्व, सम्यक्तव, संज्ञी, आहार, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग, ध्यान, आस्रव, जाति और कुल ये चौबीस ठाणा के चौबीस भेद है। यहाँ इन चौबीस स्थानो के उत्तर भेदो मे गुणस्थान को जानते है। 


*✍️ गति – 04*

नरक गति – 01, 02, 03, 04 वा गुणस्थान 

तिर्यंचगति – 01, 02, 03, 04, 05 वा गुणस्थान 

मनुष्य गति – 01 से 14 तक के सभी गुणस्थान 

देवगति – 01, 02, 03, 04 गुणस्थान 


*✍️ इन्द्रिय – 05*

एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवो मे 01 गुणस्थान, पंचेन्द्रिय जीवो मे 01 से 14 तक गुणस्थान

👉  नोट एक, दो, तीन और चार इन्द्रिय जीवो के 02 गुणस्थान किन्ही आचार्यो के अनुसार होता है। यह 02 गुणस्थान उत्पन्न नही करते बल्कि दूसरे गुणस्थान से मरण करके आने के समय होता है। यह कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवली तक होता है। 


*✍️ काय – 06*

पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक में 01 गुणस्थान, त्रसकायिक में 01 से 14 तक गुणस्थान  

◆  नोट–औपशमिक सम्यक्तव वाले जीव अनंतानुबंधी के उदय से सासादन मे आने के बाद मरण होने पर पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक मे जन्म लेने के कारण इन तीनो मे दूसरा गुणस्थान भी होता है। 


*✍️ योग – 15*

सत्य-अनुभय मनोयोग में  01 से 13 तक गुणस्थान 

असत्य-उभय मनोयोग में  01 से 12 तक गुणस्थान 

सत्य-अनुभय वचनयोग मे 01 से 13 तक गुणस्थान 

असत्य-उभय वचनयोग में 01 से 12 तक गुणस्थान 

औदारिक काययोग मे       01 से 13 तक गुणस्थान 

औदारिक मिश्रकाययोग  01, 02, 4, 13 गुणस्थान  

वैक्रियिक काययोग में  01, 02, 03, 04  गुणस्थान 

वैक्रियिक मिश्रकाययोग में  01, 02, 04  गुणस्थान 

आहारक-आहारकमिश्र काययोग में   06 गुणस्थान 

कार्मण काययोग     01, 02, 04, 13 वा गुणस्थान 

● उभय - सत्य भी असत्य भी, अनुभय- ना सत्य ना असत्य 


*✍️ वेद – 03 *

स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद में  01से09 गुणस्थान 

◆ नोट  यहा वेद भाववेद की अपेक्षा से है। 


*✍️ कषाय – 25 (भाववेद की अपेक्षा)*

अनन्तानुबन्धी चतुष्क में  01 – 02  गुणस्थान, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क 01 से 04  गुणस्थान 

प्रत्याख्यानावरण क्रोध-माया-लोभ 01 से 05 तक प्रत्याख्यानावरण मान 01 से 04 गुणस्थान 

संज्वलन क्रोध, मान, माया 01से 09 तक संज्वलन लोभ में  01 से 10 तक गुणस्थान 

हास्य-रति-अरति मे 01 से 08 तक शोक-भय-जुगुप्सा 01 से 08 तक गुणस्थान 

स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद  01 से 09 गुणस्थान 

◆ नोट - पहले गुणस्थान मे अनन्तानुबन्धी आदि चारो कषाय का उदय है। चौथे गुणस्थान मे तीन कषाय (अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन) का उदय हैं। पाचवे गुणस्थान मे दो कषाय प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन का उदय है। छठे से नवम गुणस्थान तक संज्वलन कषाय का उदय है। दसवे गुणस्थान मे सूक्ष्म लोभ का उदय है।  


*✍️ ज्ञान – 08*

कुमति-कुश्रुत-कुअवधिज्ञान में 01 – 02 गुणस्थान 

मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-अवधिज्ञान 04 से 12 गुणस्थान 

मन:पर्यय ज्ञान  06 से 12 तक,  केवलज्ञान  13, 14  गुणस्थान में तथा सिद्धो मे 


*✍️ संयम – 07*

असंयम  01 से 04 तक गुणस्थान मे, संयमासंयम  05 वा तक गुणस्थान मे, सामायिक 06 से 09 तक गुणस्थान,  छेदोपस्थापना 06 से 09 तक गुणस्थान मे, परिहार विशुद्धि 06 - 07 गुणस्थान मे, सूक्ष्मसाम्पराय 10 वे गुणस्थान, यथाख्यात संयम  11 से 14 तक गुणस्थान मे है। 


*✍️ दर्शन – 04*

चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन 01 से 12 गुणस्थान, अवधिदर्शन 04 से 12 गुणस्थान, केवलदर्शन 13, 14 वा ग़ुणस्थान तथा सिद्ध भगवान में भी 

◆  नोट  मतांतर के अनुसार किन्ही आचार्यो ने अवधिदर्शन को 03 गुणस्थान मे भी लिया है तथा किन्ही आचार्यो ने 01 गुणस्थान में भी माना है। उनका कहना है कि कुअवधिदर्शन 01 गुणस्थान मे होता है उसके लिए उससे पहले अवधिदर्शन होना जरुरी है। 


*✍️ लेश्या – 06*

कृष्ण, नील, कापोत 01 से 04  तक, पीत, पदम 01 से 07  तक, शुक्ल लेश्या  01 से 13  गुणस्थान तक मे होती है।  यहा भाव लेश्या की अपेक्षा से वर्णन है। 


*✍️ भव्यक्त्व – 02*

भव्य जीव 01 से 14  गुणस्थान में, अभव्य जीव 01 गुणस्थान तथा सिद्ध भगवान ना भव्य ना अभव्य है। 


*✍️ सम्यक्त्व – 06*

मिथ्यात्व 01 गुणस्थान, सासादन 02 गुणस्थान, मिश्र 03 गुणस्थान, उपशम (प्रथमोपशम) 04 से 07 तक, द्वितीयोपशम 04 से 11 तक,  क्षयोपशम  04 से 07 तक, क्षायिक 04 से 14 तक सिद्धो के भी क्षायिक सम्यक्त्व होता है।  

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*✍️ संज्ञी – 02*

असंज्ञी जीव 01 गुणस्थान, संज्ञी जीव में 01 से 12 तक, 13 व 14 वे गुणस्थान वाले अनुसंज्ञी कहलाते है। 


*✍️ आहारक – 02*

आहारक जीव 01 से 13 तक, अनाहारक 01, 02, 04, 13, 14 वा गुणस्थान होते है। 13 वे गुणस्थान मे अनाहारक अवस्था केवली समुद्धात के समय है। 


*✍️ गुणस्थान – 14*

मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्य साम्पराय, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली जिन, अयोगकेवली जिन। 

 *(सभी गुणस्थानो का स्वकीय गुणस्थान है)*


*✍️ जीवसमास – 19*

जीवसमास के 14 भेद, 19 भेद, 57 भेद, 98 भेद और 406 भेद भी होते है। 

पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, जलकायिक सूक्ष्म-बादर, अग्निकायिक सूक्ष्म-बादर, वायुकायिक सूक्ष्म-बादर, नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय। 

*प्रारम्भ के 18 भेदो मे 01 गुणस्थान, संज्ञी पंचेन्द्रिय मे 01 से 14 तक गुणस्थान होते है।*

◆  नोट कुछ आचार्यो अनुसार बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक मे 02 गुणस्थान भी माना है। 

सप्रतिष्ठित प्रत्येक, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति मे भी 02 गुणस्थान हो सकता है। दो, तीन, चार और असंज्ञी पंचेन्द्रिय मे भी 02 गुणस्थान हो सकता है। 


*✍️ पर्याप्ति – 06*

एकेन्द्रिय जीव के 04 पर्याप्ति, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के 05 पर्याप्ति तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय के 06 पर्याप्ति होती हैं। 

आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा पर्याप्ति मे 01 गुणस्थान, आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा, मन:पर्याप्ति मे 01 से 14 तक गुणस्थान होते है। 


*✍️ प्राण – 10*

एकेन्द्रिय मे 04 प्राण, द्वीन्द्रिय के 06 प्राण, त्रीन्द्रिय मे 07 प्राण, चतुरिन्द्रिय मे 08 प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रिय मे 09 प्राण, संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के 10 प्राण होते है। 

स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण मे 01 से 12 तक गुणस्थान, मनोबल प्राण 01 से 12 तक, वचनबल प्राण 01 से 13 तक, कायबलप्राण 01 से 13 तक, श्वासोच्छवास प्राण 01 से 13 तक, आयु प्राण  01 से 14 तक गुणस्थानो में है। 


*✍️ संज्ञा – 04*

आहार संज्ञा  01 से 06  तक, भयसंज्ञा  01 से 08 तक, मैथुनसंज्ञा  01 से 09 तक, परिग्रह संज्ञा 01 से 10 गुणस्थान तक होती हैं। 


*✍️ उपयोग – 12*

कुमति, कुश्रुत, कुअवधि  01-02 गुणस्थान में, मति, श्रुत, अवधिज्ञान 04 से 12 गुणस्थान में, मन:पर्यय ज्ञान  06 से 12  गुणस्थान में, केवलज्ञान  13 - 14 गुणस्थान में होता है। 

चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन  01 से 12 गुणस्थान में, अवधिदर्शन  04 से 12 गुणस्थान (03 से 12 मे भी), केवलदर्शनोपयोग 13–14 वे गुणस्थान में है। 


*✍️ ध्यान – 16*

इष्टवियोगज-अनिष्टसंयोगज-वेदना– 01 से 06

निदान आर्तध्यान –              01 से 05 गुणस्थान 

हिंसानन्दी, मृषानन्दी –          01 से 05 गुणस्थान 

चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी –      01 से 05 गुणस्थान

आज्ञाविचय, अपायविचय –   04 से 07 गुणस्थान 

विपाकविचय –                    05 से 07 गुणस्थान 

संस्थानविचय –                    06 – 07 गुणस्थान 

पृथक्त्व वितर्क वीचार –         08 से 11 गुणस्थान 

एकत्व वितर्क अवीचार –        12 वा गुणस्थान 

सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति –           13 वा गुणस्थान 

व्युपरतक्रिया निवृति –           14 वा गुणस्थान 


*✍️ आस्रव – 57*

◆  मिथ्यात्व 05 –विपरीत, एकान्त, विनय, संशय अज्ञान  01 गुणस्थान 

◆ अविरति 12 –पाँचो स्थावरो की रक्षा नही करना– 01 से 05 तक, त्रस जीवो की रक्षा नही करना – 01 से 04 तक, पाँचो इन्द्रियो की रक्षा नही करना– 01 से 05 तक, मन को वश नही करना – 01 से 05 तक गुणस्थान हैं। 

◆  कषाय 25 – 16 कषाय, 9 नौकषाय

(कषाय के गुणस्थानो का वर्णन ऊपर हो गया है) 

◆ योग 15 - मनोयोग-4, वचनयोग-4, काययोग-7

(योग के गुणस्थानो का वर्णन ऊपर हो गया है) 


*✍️ जाति – 84 लाख*

नित्यनिगोद- 07 लाख, इतरनिगोद - 07 लाख, पृथ्वीकायिक- 07 लाख, जलकायिक- 07 लाख, अग्निकायिक- 07 लाख, वायुकायिक - 07 लाख,  वनस्पतिकायिक -10 लाख, द्वीन्द्रिय - 02 लाख,  त्रीन्द्रिय - 02 लाख, चतुरिन्द्रिय - 02 लाख जाति

   (इन 19 प्रकार की जातियो मे 01 गुणस्थान है) 

पंचेन्द्रिय तिर्यंच 04 लाख जाति–01 से 05 गुणस्थान, नारकी 04 लाख जाति– 01 से 04 गुणस्थान, देव 04  लाख जाति– 01 से 04 गुणस्थान, मनुष्य 14 लाख जाति– 01 से 14 गुणस्थान होते है। 


*✍️ कुल– 199-1/2  लाख करोड*

पृथ्वीकायिक  22 लाख करोड़,  01गुणस्थान, जलकायिक    07 लाख करोड़, 01गुणस्थान, अग्निकायिक  03 लाख करोड़,  01गुणस्थान, वायुकायिक    07 लाख करोड़,  01 गुणस्थान, वनस्पतिकाय   28 लाख करोड़, 01 गुणस्थान, द्वीन्द्रिय  07 लाख करोड़,  01 गुणस्थान, त्रीन्द्रिय           08 लाख करोड़,  01 गुणस्थान, चतुरिन्द्रिय       09 लाख करोड़,  01गुणस्थान, जलचर 12-1/2 लाख करोड़,  01 से 05 गुणस्थान,  थलचर 19 लाख करोड़,  01 से 05 तक गुणस्थान , नभचर 12 लाख करोड़,  01 से 05 तक गुणस्थान, नारकी 25 लाख करोड़,  01 से 04 तक गुणस्थान, देव 26 लाख करोड़,  01 से 04 तक गुणस्थान, मनुष्य 14 लाख करोड़   01 से 14 तक गुणस्थान 

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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*


रविवार, 29 दिसंबर 2024

वेद मार्गणा - 24 ठाणा

*वेद मार्गणा (24 ठाणा)*
 https://youtu.be/ywhc9cZCczw?si=5Dknym48vcVZ22Wb
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वेद कर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहते हैं। *(धवला 1/141)*
∆ मैथुन की अभिलाषा को वेद कहते है।
∆ आत्मा की चैतन्य रूप पर्याय में मैथुन रूप चित्त विक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते है। 
*(गोम्मटसार जीव काण्ड 272)*
◆ वेद चारित्र मोहनीय कर्म का भेद है और लिंग शरीर नाम कर्म के उदय से होने वाली शारीरीक रचना है, शरीर के चिन्ह विशेष है पूरी तरह पुदग्लमय है। 
वेद जीव के भाव रुप है इसलिए इसे चेतनमय भी कहते है क्योकी वेद रुप भाव जीव के ही होते है।
∆ वेद के आधार से जीवो को खोजना वेद मार्गणा है।

*✍️ वेदमार्गणा के भेद :-*
∆ वेद दो प्रकार के हैं - द्रव्य वेद, भाव वेद
∆ वेद मार्गणा तीन प्रकार की है - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद *(बृहद द्रव्यसंग्रह 13 टीका)*
∆ वेद मार्गणा के अनुवाद से स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद तथा अपगत वेद वाले जीव होते *(धवला 1/340)*

*✍️भाववेद :- (आत्मा का परिणाम भाववेद)*
नपुंसक वेद नोकषाय (चारित्र मोहनीय) कर्म के उदय से जीव में तीव्र मोह के कारण उत्पन्न स्त्रीत्व, पुरुषत्व व नपुंसकत्व इन तीनों में एक-दूसरे की अभिलाषा लक्षण रुप भाव पारिणाम भाववेद है। *(राज वार्तिक 2/6)*
*∆ भाववेद तीन होते है– स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। (यह जीव की पर्याय है)।*

*✍️ द्रव्य वेद :- (शरीर के बाहय चिन्ह)*
शरीर नामकर्म के उदय से जीव में पाये जाने वाले स्त्रीत्व, पुरुषत्व व नपुंसकत्व शरीर का आकार होना, मूछ, दाढी, स्तन, योनी आदि चिन्ह सहित या राहित शरीर का होना द्रव्यवेद है।  *इसके तीन भेद है– स्त्रीलिंग, पुरुषलिंग, नपुंसक लिगं (यह पुदगल की पर्याय है)।*

👉 वेद चारित्र मोहनीय कर्म का भेद है, घातिकर्म हैं तथा लिंग शरीर नामकर्म के उदय होने वाली शारीरिक रचना है अघातिया कर्म है।
👉 द्रव्यवेद जन्म पर्यंत नहीं बदलता पर भाववेद कषाय विशेष होने के कारण क्षणमात्र में बदल सकता है । द्रव्य वेद से पुरुष को ही मुक्ति संभव है पर भाववेद से तीनों वेद में मोक्ष हो सकता है ।

*✍️ स्त्रीवेद :-*
स्त्रीवेद नामक नोकषाय के उदय से होने वाली जीव की  अवस्था विशेष को स्त्रीवेद कहते है। या जिसके उदय से पुरुष के साथ रमने के भाव हों वह स्त्रीवेद है।   *(गोम्मटसार जीव काण्ड 271)*

*✍️ पुरुषवेद :-*
पुरुषवेद नोकषाय के उदय के निमित्त से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा होना पुरूषवेद है। *(गोम्मटसार जीव काण्ड 271)*
∆ स्त्री में अभिलाषा रूप मैथुन संज्ञा से आक्रान्त होना पुरुषवेद है।

*✍️ नपुंसकवेद :-*
नुपंसकवेद नामक नोकषाय के उदय से जीव के स्त्री और पुरुष की अभिलाषा रूप तीव्र कामवेदना उत्पन्न होती है वह नपुंसकवेद है। 
∆ जिसके उदय से स्त्री तथा पुरुष दोनों के साथ रमने के भाव हों वह नपुसक वेद है। *(गोम्मटसार जीव काण्ड 271)*

*✍️ अपगतवेद :-  (अवेदी, वेद रहित)*
जिसका वेद बीत चुका है, नष्ट हो गया है, जो पहले वेद मे थे अब नही है वे अपगतवेदी है।
👉 वेद अपने मे ही वेदना है सुख नही है आचार्यो ने वेद की तुलना अग्नि से कि है।

*✍️ वेद मार्गणा में ग्रहण करने योग वेद :-*
वेद मार्गणा में भाववेद को ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यदि यहाँ द्रव्यवेद से प्रयोजन होता तो मनुष्य स्त्रियों के अपगतवेद स्थान नहीं बन सकता, क्योंकि द्रव्यवेद चौदहवें गुणस्थान् के अन्त तक पाया जाता है। परन्तु अपगत वेद भी होता है। इस प्रकार वचन निर्देश नौवें गुणस्थान के अवेद भाग से किया गया है। 
(जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ भाववेद से प्रयोजन है, द्रव्यवेद से नहीं)  *(धवला 2/513)*
वेद मार्गणा की परिभाषा पूर्ण हुई आगे तीनो वेदो और अपगत वेदी में 24 ठाणा का वर्णन होगा
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

वेद मार्गणा -स्त्रीवेद मे 24 ठाणा

 



✍️ वेद मार्गणा से स्त्रीवेद मे 24 ठाणा

स्त्रीवेद नामक नोकषाय के उदय से होने वाली जीव की  अवस्था विशेष को स्त्रीवेद कहते है। 

या जिसके उदय से पुरुष के साथ रमने के भाव हों वह स्त्रीवेद है।   (गोम्मटसार जीव काण्ड 271)

∆ स्त्रीवेद के उदय में जीव पुरुष को देखते ही उसी प्रकार द्रवित हो उठता है जिस प्रकार आग को छूते ही लाख पिघल जाती है। (वरंग चारित्र 4/89) स्त्रीवेद कण्डे की अग्रि के समान माना गया है। 


✍️ 24 स्थान मे स्त्रीवेद :-

1) गति  4 मे 3 भेद - तिर्यंच, मनुष्य और देव गति

2) इन्द्रिय  5 मे से 1 भेद -  पंचेन्द्रिय

3) काय   6 मे से 1 भेद - त्रसकाय

4) योग  15 मे से 13 योग - मनोयोग 4, वचनयोग 4, काययोग 5 (आहारकद्विक नही होता)

∆ अप्रशस्त वेदों (स्त्रीवेद और नपुंसक वेद) के साथ आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है। इसलिए आहारकद्विक काययोग नही होता है। (धवला 2/667)

05) वेद  03 मे से 01 वेद - स्वकीय (स्त्रीवेद)

06) कषाय  25 मे से 23 कषाय - 16 कषाय और 07 नोकषाय (पुरुषवेद, नपुंसक वेद नोकषाय को छोडकर)

07) ज्ञान  08 मे से 06 ज्ञान -  कुज्ञान 03, सुज्ञान 03

∆ कुज्ञान 03 - कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान

∆ सुज्ञान 03 - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, 

(मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं होता है)

08) संयम   07 मे से 04 - असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना 

09) दर्शन। 04 मे 03 दर्शन - चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन

10) लेश्या  06 मे 06 लेश्या - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम, शुक्ल 

11) भव्यक्त्व  02 मे से 02 -  भव्य और अभव्य

12) सम्यक्त्व  06 मे से 06 भेद - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, क्षायिक और क्षयोपशम

(क्षायिक भावस्त्री के कारण से लिया है)

13) संज्ञी  02 मे से 02 भेद - संज्ञी और असंज्ञी

14) आहारक  02 मे से 02 भेद - आहारक, अनहारक

15) गुणस्थान  14 मे 9 भेद  - 01 से 09 तक (भाववेद अपेक्षा)

16) जीवसमास  19 मे से 2 भेद - असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय

17) पर्याप्ति  6 मे से 6 भेद - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ, भाषा, मन:पर्याप्ति

18) प्राण 10 मे से 10 प्राण - सभी दसो प्राण

19) संज्ञा  4 मे 4 भेद - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह 

20) उपयोग 12 मे से 09 भेद - 06 ज्ञानोपयोग व 03 दर्शनोपयोग [मति, श्रुत, अवधि, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञानोपयोग, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शनोपयोग]

21) ध्यान 16 मे से 13 भेद - आर्त 04, रौद्र ध्यान 04, धर्मध्यान 02

∆ आर्त - इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना, निदान

∆ रौद - हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी

∆ धर्म - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय   

∆ शुक्ल - पृथक्त्व वितर्क वीचार 

22) आस्रव 57 मे से 53 भेद - मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कषाय 25, योग 13

∆ मिथ्यात्व 05 - विपरीत, एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान

∆ अविरति 12 - 5 इन्द्रिय और मन को वश में नही करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना

∆ कषाय 23 - 16 अनन्तानुबन्धी आदि 7 नोकषाय

∆ योग 13 - मनोयोग 04, वचनयोग 04, काययोग 05

23) जाति 84 लाख मे से 22 लाख जातियाँ 

तिर्यंच 04 लाख, मनुष्य 14 लाख, देव 04 लाख

24) कुल - 199.5 लाख करोड मे से 83.5 लाख करोड

◆ स्त्रीवेदी जीव कहाँ-कहाँ होते है 

मनुष्यगति, तिर्यंचगति तथा देवों में सोलहवें स्वर्ग तक स्त्रीवेदी जीव पाये जाते हैं। 

लेकिन सम्मूर्च्छन, लब्ध्यपर्यातक मनुष्य-तिर्यंचो में स्त्रियाँ नहीं होती हैं क्योंकि सम्मूर्च्छन जीव नपुंसक वेद वाले ही होते हैं ।

◆ स्त्रीवेद में संयम :-

असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना 

∆ स्त्रीवेद वाले के तीन सयम नहीं हो सकते हैं - परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात सयम 

∆ परिहारविशुद्धि संयम पुरुषवेद वाले के ही होता है । ∆ सूक्ष्म साम्पराय तथा यथाख्यात संयम अवेदी जीवों के ही होते हैं, इसलिए स्त्रीवेद में ये तीनों संयम नहीं होते हैं। इसी प्रकार नपुंसक वेद में भी ये संयम नहीं हो सकते हैं ।

◆ स्त्रीवेदी निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में सम्यक्त्व :-

स्त्रीवेदी के निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में दो सम्यक्त्व हो सकते हैं - मिथ्यात्व और सासादन।

स्त्रीवेद की पर्याप्त अवस्था में सभी सम्यक्त्व हों सकते हैं क्योंकि भावस्त्री वेदी मोक्ष जा सकते हैं।

◆ स्त्रीवेद में संज्ञाओं का अभाव :-

स्त्रीवेद में दो संज्ञाओं का अभाव हो सकता है- आहार संज्ञा तथा भय संज्ञा। 

∆ आहार संज्ञा छठे गुणस्थान तक होती है सातवे गुणस्थान मे चली जाती है।

∆ भय संज्ञा आठवे गुणस्थान तक होती है नौवे गुणस्थान  मे चली जाती है।

∆ छठे गुणस्थान तक वेद तीव्र रहता है, सातवे मे वेद अतिमंद हो जाते है।

👉 भाववेद स्त्री हो द्रव्य से पुरुष हो ऐसे लोग मोक्ष जा सकते है, लेकिन जो तीर्थंकर होते है वे द्रव्य से भी और भाव से भी पुरुष वेद वाले होते है।

वेद मार्गणा से स्त्रीवेद मे 24 ठाणा का वर्णन पूर्ण हुआ

।।जिनवाणी माता की जय।।

सोमवार, 19 अगस्त 2024

षोडशकारण व्रत कथा - सोलहकारण व्रत कथा

षोडशकारण भावना व्रतकथा
जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के मगध (बिहार) प्रांत में राजगृही नगर है। वहाँ के राजा हेमप्रभ और रानी विजयावती थी। इस राजा के यहाँ महाशर्मा नामक नौकर था और उनकी स्त्री का नाम प्रियंवदा था। इस प्रियंवदा के गर्भ से कालभैरवी नामक एक अत्यन्त कुरुपी कन्या उत्पन्न हुई कि जिसे देखकर माता-पितादि सभी स्वजनों तक को घृणा होती थी।

एक दिन मतिसागर नामक चारणमुनि आकाशमार्ग से गमन करते हुए उसी नगर में आये, तो उस महाशर्मा ने अत्यन्त भक्ति सहित श्री मुनि को पड़गाह कर विधिपूर्वक आहार दिया और उनसे धर्मोपदेश सुना। पश्चात् जुगल कर जोड़कर विनययुक्त हो पूछा-हे नाथ! यह मेरी कालभैरवी नाम की कन्या किस पापकर्म के उदय से ऐसी कुरुपी और कुलक्षणी उत्पन्न हुई है, सो कृपाकर कहिए? तब अवधिज्ञान के धारी श्री मुनिराज कहने लगे, वत्स! सुनो-

उज्जैन नगरी में एक महिपाल नाम का राजा और उसकी वेगावती नाम की रानी थी। इस रानी से विशालाक्षी नाम की एक अत्यन्त सुन्दर रूपवान कन्या थी, जो कि बहुत रूपवान होने के कारण बहुत अभिमानिनी थी और इसी रूप के मद में उसने एक भी सद्गुण न सीखा। यथार्थ है-अहंकारी (मानी) नरों को विद्या नहीं आती है।

एक दिन वह कन्या अपनी चित्रसारी में बैठी हुई दर्पण में अपना मुख देख रही थी कि इतने में ज्ञानसूर्य नाम के महातपस्वी श्री मुनिराज उसके घर से आहार लेकर बाहर निकले, सो इस अज्ञान कन्या ने रूप के मद से मुनि को देखकर खिड़की से मुनि के ऊपर थूक दिया और बहुत हर्षित हुई। परन्तु पृथ्वी के समान क्षमावान श्री मुनिराज तो अपनी नीची दृष्टि किये हुए ही चले गये। यह देखकर राजपुरोहित इस कन्या का उन्मत्तपना देख उस पर बहुत क्रोधित हुआ और तुरंत ही प्रासुक जल से श्री मुनिराज का शरीर प्रक्षालन करके बहुत भक्ति से वैयावृत्य कर स्तुति की। यह देखकर वह कन्या बहुत लज्जित हुई और अपने किये हुए नीच कृत्य पर पश्चाताप करके श्री मुनि के पास गई और नमस्कार करके अपने अपराध की क्षमा मांगी। श्री मुनिराज ने उसको धर्मलाभ कहकर उपदेश दिया। पश्चात् वह कन्या वहाँ से मरकर तेरे घर यह काल भैरवी नाम की कन्या हुई है। इसने जो पूर्वजन्म में मुनि की निंदा व उपसर्ग करके जो घोर पाप किया है उसी के फल से यह ऐसी कुरुपा हुई है, क्योंकि पूर्व संचित कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है इसलिए अब इसे समभावों से भोगना ही कर्तव्य है और आगे को ऐसे कर्म न बंधे ऐसा समीचीन उपाय करना योग्य है।

अब पुन: वह महाशर्मा बोला-हे प्रभो! आप ही कृपाकर कोई ऐसा उपाय बताइये कि जिससे वह कन्या अब इस दु:ख से छूटकर सम्यक् सुखों को प्राप्त होवे तब श्री मुनिराज बोले-वत्स! सुनो-संसार में मनुष्यों के लिए कोई भी कार्य असाध्य नहीं है, सो भला यह कितना सा दु:ख है? जिनधर्म के सेवन से तो अनादिकाल से लगे हुए जन्म-मरणादि दु:ख भी छूटकर सच्चे मोक्षसुख की प्राप्ति होती है और दु:खों से छूटने की तो बात ही क्या है? वे तो सहज ही में छूट जाते हैं। इसलिए यदि यह कन्या षोडशकारण भावना भावे और व्रत पाले, तो अल्पकाल में ही स्त्रीलिंग छेदकर मोक्ष-सुख को पावेगी। तब वह महाशर्मा बोला-हे स्वामी! इस व्रत की कौन-कौन भावनाएं और विधि क्या है? सो कृपाकर कहिए। तब मुनिराज ने इन जिज्ञासुओंको निम्न प्रकार षोडशकारण व्रत का स्वरूप और विधि बताई।

इन १६ भावनाओं को यदि केवली-श्रुतकेवली के पादमूल के निकट अन्त:करण से चिन्तवन की जाये तथा तदनुसार प्रवर्तन किया जाये तो इनका फल तीर्थंकर नाम कर्म के आश्रव का कारण है। आचार्य महाराज व्रत की विधि कहते हैं-

भादों, माघ और चैत्र वदी एकम् से कुवार, फाल्गुन और वैशाख वदी एकम् तक (एक वर्ष में तीन बार) पूरे एक-एक मास तक यह व्रत करना चाहिए। इन दिनों तेला-बेला आदि उपवास करें अथवा नीरस वा एक, दो, तीन आदि रस त्यागकर ऊनोदरपूर्वक अतिथि या दीन दु:खी नर या पशुओं को भोजनादि दान देकर एकभुक्त करें। अंजन, मंजन, वस्त्रालंकार विशेष धारण न करे, शीलव्रत (ब्रह्मचर्य) रखे, नित्य षोडशकारण भावना भावे और यंत्र बनाकर पूजाभिषेक करे, त्रिकाल सामायिक करे और (ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, उपाध्यायभक्ति (बहुश्रुतभक्ति), प्रवचनभक्ति आवश्यकापरिहाणि, मार्ग प्रभावना, प्रवचनवात्सल्यादि षोडशकारणेभ्यो नम:)। इस महामंत्र का दिन में तीन बार १०८ बार जाप करे। इस प्रकार इस व्रत को उत्कृष्ट १६ वर्ष, मध्यम ०५ अथवा ०२ वर्ष और जघन्य ०१ वर्ष करके यथाशक्ति उद्यापन करे अर्थात् सोलह-सोलह उपकरण श्री मंदिरजी में भेंट दे और शास्त्र व विद्यादान करे, शास्त्र भण्डार खोले, सरस्वती मंदिर बनावे, पवित्र जिनधर्म का उपदेश करे और करावे इत्यादि यदि द्रव्य खर्च करने की शक्ति न हो तो व्रत द्विगुणित करे।

इस प्रकार ऋषिराज के मुख से व्रत की विधि सुनकर कालभैरवी नाम की उस ब्राह्मण कन्या ने षोडशकारण व्रत स्वीकार करके उत्कृष्ट रीति से पालन किया, भावना भायी और विधिपूर्वक उद्यापन किया, पीछे वह आयु के अंत में समाधिमरण द्वारा स्त्रीलिंग छेदकर सोलहवें (अच्युत) स्वर्ग में देव हुई। वहाँ से बाईस सागर आयु पूर्ण कर वह देव जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र संबंधी अमरावती देश के गंधर्व नगर में राजा श्रीमंदिर की रानी महादेवी के सीमंधर नाम का तीर्थंकर पुत्र हुआ सो योग्य अवस्था को प्राप्त होकर राज्योचित सुख भोग जिनेश्वरी दीक्षा ली और घोर तपश्चरण कर केवलज्ञान प्राप्त करके बहुत जीवों को धर्मोपदेश दिया तथा आयु के अंत में समस्त अघाति कर्मों का भी नाश कर निर्वाण पद प्राप्त किया।

इस प्रकार इस व्रत को धारण करने से कालभैरवी नाम की ब्राह्मण कन्या ने सुर-नर भवों के सुखों को भोगकर अक्षय अविनाशी स्वाधीन मोक्षसुख को प्राप्त कर लिया, तो जो अन्य भव्यजीव इस व्रत को पालन करेंगे उनको भी अवश्य ही उत्तम फल की प्राप्ति होवेगी।
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आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)

बुधवार, 14 अगस्त 2024

*अकंपनाचार्य मुनि और विष्णुकुमार मुनि कथा*

विष्णुकुमार मुनि
https://youtu.be/JO8lUNM5PRg?si=NrHC-ilGaCB55_Fd
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उज्जैन में राजा श्रीवर्मा राज्य करते थे। उनकी सभा में बलि, वृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि ये चार मंत्री थे जो चारो ही मिथ्यात्वी थे। एक बार दिगम्बर गुरु अकंंपन आचार्य सात सौ मुनियों के संघ के साथ विहार करते हुए उज्जयिनी नगरी के उद्यान में जाकर ठहर जाते हैं। आचार्य अपने निमित्तज्ञान से इस बात को जान लेते हैं कि यहाँ पर संघ के लिए कुछ अनिष्ट की संभावना है। इसलिये अपने शिष्यों से यह कह रखा था कि सब साधु मौन रहें, कोई आवे तो बिलकुल बातचीत नहीं करें न कुछ धर्म चर्चा ही। गुरु की यह आज्ञा सुन कर सब मुनि धर्म ध्यान में लीन हो गये ।

प्रात:काल शहर में मुनिसंघ के आने का समाचार सुनकर श्रावक हाथ में पूजा द्रव्य लेकर अपने-अपने घर से चल पड़ते हैं और गुरुओं की वंदना करते हैं। उसी समय उज्जयिनी के राजा श्रीवर्मा अपने महल की छत पर बैठे हुए थे साथ मे चारों मंत्री बैठे थे। मंत्री राजनीति में निपुण होते हुए भी धर्म के कट्टर शत्रु हैं और दिगम्बर मुनियों के प्रति बहुत ही द्वेष करने वाले हैं। राजा कुतूहलवश मंत्रियों से पूछते हैं कि आज ये सब लोग पूजन सामग्री हाथ में लिए हुए कहाँ जा रहे हैं?’’ मंत्री कहते है अपने शहर के बगीचे में नित्य ही नंगे रहने वाले साधु आए हुए हैं। ये सब लोग उन्हीं के दर्शन करने जा रहे हैं।’’ 

यह सुनकर राजा ने कहा कि हम भी मुनिराजों के दर्शन करेगें । परन्तु चारो मंत्री जैनमुनियों की निन्दा करने लगे, पर राजा ने उनकी एक न मानी और रनवास सहित बड़े साज बाज से साधु वन्दना को निकले  तब तो बेचारे मंत्रियों को भी राजा के साथ जाना पड़ा। राजा ने वहां पहुंच कर उन वीतराग मुनियों की भक्ति सहित वन्दना की, परन्तु किसी मुनि ने उन्हें आर्शीवाद नहीं दिया। जब राजा लौट पड़े तब साथ के मन्त्री उनसे कहने लगे कि ये मुनि मूर्ख हैं, इसी कारण कुछ नहीं बोलते हैं इनको कुछ ज्ञान होता तो अवश्य ही बातचीत करते। अत: अपनी पोल न खुल जाए इसीलिए ये सब ध्यान का ढोंग लेकर बैठ गए हैं।’’ 

राजा मंत्रियों द्वारा मुनियो की निन्दा की बात को सुनी- अनसुनी करके अपने महल की ओर चले आ रहे थे। उसी समय शहर से श्रुतसागर मुनि आहार लेकर आते दिखे। उन्हें देख मंत्रियों ने कहा, देखिये उस मुनि को बैल जैसा फूला हुआ आ रहा है। इतना सुनते ही मुनिराज समझ जाते हैं कि ये मंत्री वाद-विवाद करने के इच्छुक हैं। मुनिराज को मौन धारण करने की गुरु आज्ञा मालूम नहीं थी क्योंकी वे पहिले ही शहर में चले गये थे। वे मंत्रीयो से शास्त्रार्थ करने लगे और चारो को हरा दिया। राजा प्रसन्नचित्त हो मुनिराज को पुन:-पुन: नमस्कार करके उनके समीचीन ज्ञान की प्रशंसा करते हुए अपने महल वापस आ जाते हैं।  

फिर श्रुतसागर मुनि अपने गुरु के पास आये और वहां का हाल सुनाया। तब गुरु कहने लगे कि तुमने यह भला नहीं किया। तुमने अपने हाथों से सारे ही संघ का घात कर लिया, संघ की अब कुशल नहीं है।’ श्रुतसागर जी पूछते हैं— ‘‘गुरुदेव! मेरे से अनजाने में बहुत बड़ा अपराध हो गया है आप उचित प्रायश्चित्त दे दीजिए।’’आचार्य कहते हैं सर्वसंघ की कुशलता के लिए वापस पीछे जाओ जहाँ पर मंत्रियों के साथ शास्त्रार्थ किया है। उसी स्थान पर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान में स्थित हो जाओ।’’ आचार्यदेव की आज्ञा पाकर श्रुतसागर मुनि उसी स्थान पर ध्यान मग्न हो खड़े हो जाते हैं।

मंत्रियों को राजा के सामने हारने से बड़ा क्रोध आया, अपने मान भंग का बदला चुकाने के लिए उन्होनें मुनि संघ को मार डालने की तैयारी की। रात को वे चारों नंगी तलवार लेकर आये और मुनिसंघ को मारने उद्यान की ओर चल पड़ते हैं। रास्ते में श्रुतसागर मुनि को खड़ा देखकर कहने लगे कि इसी ने हमारा अपमान किया है। ‘हाँ, हाँ, सच में दोषी तो यही है और सब बेचारे तो कुछ बोले भी नहीं थे।’’ अतः पहले इसी का काम तमाम करना चाहिये।

चारों ने एक साथ मुनिराज एक साथ तलवार उठाकर गर्दन पर चलाना चाहते हैं परन्तु नगर के देवता का आसन कंपते ही उसी समय वह आकर उन चारों को वैसे ही तलवार उठाये मुद्रा में उसी जगह कील देते हैं और वे तलवार उताए जैसे के तैसे खड़े रह गये। किंंचित् मात्र भी टस से मस नहीं हो पाते हैं। अब वे मन ही मन सोचने लगते हैं— ‘ओह! यह क्या हुआ? प्रात:काल होते ही बिजली की तरह यह खबर सारे शहर में फैल जाती है।  सभी लोग एक स्वर में मंत्रियों को धिक्कारते हुए कहते हैं— ‘अरे, रे! इन पापियों को धिक्कार हो, धिक्कार हो!

महाराजा श्रीवर्मा को भी यह हाल मालूम हुआ तब वे भी वहाँ पर आ जाते हैं। राजा ऐसा दृश्य देखकर बहुत ही खेद के साथ कहते हैं— ‘अरे पापियों! तुमने संसार के महा उपकारी और निर्दोष ऐेसे महामुनियों के साथ यह क्या किया? तुम लोगों ने उनको मारने का यह षड्यंत्र क्यों बनाया?……. तभी पुरदेवता उन्हें छोड़ देता हैं और गुरु श्रुतसागर के चरणों की बहुत ही भक्ति से पूजा करता है। राजा मस्तक नीचा किए हुए मंत्रियों से पुन: कहते हैं— ‘अरे दुष्टों! तुम्हारा मुख देखना भी महापाप है। तुम्हें इस मुनि हत्या के महापाप का दण्ड तो मुझ राजा को देना ही चाहिए।

 तुम्हारी कितनी ही पीढ़ियाँ मेरे यहाँ मंत्रीपद पर प्रतिष्ठा पा चुकी हैं इसीलिए मैं तुम्हें प्राणों का अभय दे रहा हूँ।’ पुन: राजा अपने कर्मचारियों से कहते हैं— तुम इन चारों को ले जाकर गधे पर बिठाकर इन्हें अपने देश की सीमा से बाहर निकाल दो।’ आचार्यदेव भी इस प्रकार से आने वाली संघ की आपत्ति टल जाने से संतुष्ट दिख रहे हैं और संघ के सभी साधु गुरु के अनुशासन का प्रत्यक्ष सुखद अनुभव प्राप्त कर गुरु के अनुशास्य शिष्य होने से अपने आपको गौरवान्वित कर रहे थे।


तीर्थंकर मल्लिनाथ जी के तीर्थकाल की बात है हस्तिनापुर के राजा चक्रवर्ती महापद्म अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ वन में जाकर महामुनि श्रुतसागर मुनि के सानिध्य में पहुँचकर जाते है। दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करना शुरू कर देते हैं। उधर उज्जयिनी से निकाले जाने पर बलि आदि चारों मंत्री यहाँ हस्तिनापुर आकर वाक् चतुराई से राजा के यहाँ मंत्री पद को प्राप्त कर लेते हैं। किसी समय राजा को चिंतित देख उसका कारण ज्ञातकर राजा से कहते हैं— ‘‘राजन्! कुंभपुर का सिंहबल राजा किस अभिमान में हैं? आप हमें आज्ञा दीजिए, हम उसे जीवित ही पकड़कर आपके सामने उपस्थित कर देंगे।’’ 

राजा उनकी बातों से प्रसन्न होकर बहुत सी सेना दे देते हैं। वे चारों मंत्री कुम्भपुर नगर पर चढ़ाई कर अपने बुद्धिबल से सिंहबल को जीवित ही पकड़कर बाँधकर हस्तिनापुर लाकर राजा पद्म के सामने खड़ा कर देते हैं। राजा पद्म इन मंत्रियों की इस कार्य कुशलता से प्रसन्न हो उन्हें वर माँगने को कहते हैं तब मंत्रीगण निवेदन करते हैं। अभी हमारा वर आप धरोहर रूप में अपने पास ही रहने दीजिए, आवश्यकतानुसार हम ले लेंगे।’’ 

इसी समय अकंपनाचार्य महामुनि सात सौ मुनियों के साथ विहार करते हुए हस्तिनापुर के बाहर उद्यान में ठहर जाते हैं और वर्षायोग का नियम ग्रहण कर लेते हैं। श्रावक संघ की उपासना के लिए प्रतिदिन उनकी वंदना, पूजा, भक्ति करना शुरू कर देते हैं। ‘‘श्री अकंपनाचार्य मुनि संघ सहित यहाँ आये हैं’’ यह समाचार मिलते ही मंत्रियों को अपने अपमान की बात याद आ जाती है। वे परस्पर में विचार करते हैं की बदला चुकाने का यही समय उपयुक्त है। इन्हीं दुष्टों के द्वारा कितना दु:ख उठाना पड़ा है ? और उज्जयिनी से अपमानित होकर देश निकाले का दण्ड दिया है। 

राजा पद्म इनके परम भक्त हैं, वे इनका अहित कैसे होने देंगे ?’’ बलि मंत्री कहता है— ‘‘सुनो, हमने राजा से जो वर प्राप्त किया था, उसके बदले राजा से सात दिन का राज्य प्राप्त कर लेना चाहिए।’’ उसी समय राजा के पास पहुँच कर निवेदन करते हैं की आपने हमें वर दिया था आज हमें आवश्यकता है।’’ राजा कहते हैं— ‘‘कहो, आप लोगों को क्या चाहिए ? बलि कहता है— ‘‘महाराज! हमें सात दिन के लिए अपना राज्य प्रदान कीजिए।’’ राजा ऐसा सुनते ही अवाक् रह जाते हैं उनके मन में कुछ अनर्थ की आशंका हो जाती है किन्तु अब वे कर ही क्या सकते थे ? वे वचनबद्ध थे अत: उन्हें राज्य देना ही पड़ा।

राजा मंत्रियों को राज्य सौंपकर स्वयं सात दिन के लिए अपने रननिवास पर आकर निवास करने लगे। इधर ये दुष्ट मंत्री राज्य पाकर मुनियों के मारने के लिए महायज्ञ का बहाना रचते हैं जिससे कि सर्व साधारण लोग कुछ न समझ सकेँं। उस समय वे मुनियों को बीच में रखकर उनके चारों तरफ एक बहुत बड़ा मंडप तैयार कराते हैं। उनके चारों तरफ लकड़ियों का ढेर इकट्ठा करवा देते हैं, बकरी, भेड़ें आदि हजारों पशु वहीं बाड़ा बनवाकर बंधवा देते हैं और यह घोषणा करा देते हैं कि देश तथा राज्य की शांति के लिए ‘पशुमेघ’ यज्ञ प्रारंभ किया है। 

वेद-वेदांग पारंगत विद्वान यज्ञ कराने लगते हैं और वेद ध्वनि से यज्ञ मण्डप को गुंजायमान कर देते हैं। बेचारे निरपराध पशुओं को निर्र्दयता पूर्वक मारा जा रहा है, आहुतियाँ दी जा रही हैं। देखते-देखते दुर्गंधित धुएं से सारा आकाश परिपूर्ण हो जाता है। श्री अकंपनाचार्य महाराज और सभी सात सौ मुनिगण इस दुर्घटना को देखकर अपने ऊपर उपसर्ग समझ लेते हैं। संयम की रक्षा हेतु आगम विधि के अनुसार सल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं।

उपसर्ग दूर होने पर ही आहार जल ग्रहण करना इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर लेना नियम सल्लेखना है तथा बचने की संभावना न होने पर जीवन भर के लिए चतुराहार त्याग करना यम सल्लेखना है। आध्यात्मिक भावना को भाते हुए वे सभी मुनि पर्वत के समान अकंप होकर निश्चल शरीर करके तिष्ठे हो जाते हैं। इधर बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि ये चारों दुष्टात्मा राज्य को प्राप्त कर फूले नहीं समा रहे हैं और मुनियों को मारने के लिए यज्ञ विधि का आयोजन करके किमिच्छक दान बाँट रहे हैं। 

मिथिला नगरी के बाहर उद्यान में श्री श्रुतसागरमुनि रात्रि के समय ध्यान में स्थित हैं। अर्धरात्रि के अनंतर वे ध्यान को विसर्जित कर आकाश की ओर देखते हैं ‘श्रावण नक्षत्र कंंपायमान देखकर अपने निमित्तज्ञान से विचारते हैं और सहसा मुख से बोल पड़ते हैं— ‘हाय! हाय!!’’ पास में ही पुष्पदंत नाम के क्षुल्लक जी बैठे हुए थे, वे गुरु के मुख से सहसा ‘हाय, हाय,’ शब्द सुनकर घबराकर पूछते हैं— ‘भगवन्! क्या हुआ!!’ श्रुतसागरसूरि कहते हैं— ‘हस्तिनापुर में संघ के नायक श्री अकपनाचार्य महामुनि और  सात सौ मुनियों पर पापी बिल द्वारा बहुत बड़ा उपसर्ग हो रहा है।’ 

क्षुल्लक जी पूछने पर की यह उपसर्ग कैसे दूर होगा तो श्रुतसागर मुनि कहते हैं— उज्जयिनी नगरी के बाहर एक गुफा में श्री विष्णुकुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गई है। वे ऋद्धि के बल से इस उपसर्ग का निवारण कर सकते हैं।’’ गुरु की आज्ञा पाकर पुष्पदंत क्षुल्लक आकाशगामी विद्या के बल से मुनि विष्णुकुमार के सानिध्य में पहुँचकर नमोऽस्तु करते हैं और श्री श्रुतसागर मुनि द्वारा कथित समाचार सुना देते हैं। विष्णुकुमार मुनि आश्चर्य से सोचते हैं क्या मुझे विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो चुकी है ?’ वे तत्क्षण ही अपना हाथ पसारते हैं तो वह हाथ गुफा के बाहर पर्वत आदि को भेदन करता हुआ बहुत दूर तक चला जाता है। 

विष्णुकुमार मुनि उसी क्षण विक्रियाऋद्धि के द्वारा आकाश मार्ग से चलकर शीघ्र ही हस्तिनापुर मे बड़े भाई राजा पद्म के राजमहल में पहुँच जाते हैं। और कहते हैं— भाई तुम किस नींद में सो रहे हो ? शहर में कितना भारी अनर्थ हो रहा है ? अपने राज्य में तुमने ऐसा अनर्थ क्यों होने दिया ? राजा पदम कहते है।‘भगवन्! मैं क्या करूँ ? मुझे क्या मालूम था कि ये पापी लोग मिलकर मुझे ऐसा धोखा देंगे ? अब मैं वचनबद्ध हो चुका हॅूं, सात दिन तक के लिए अपना राज्य दे चुका हूँ। हे महामुने! अब तो आप ही इस कार्य में समर्थ हैं। आप ही किसी उपाय द्वारा मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिए। 

विष्णुकुमार मुनि विक्रिया ऋद्धि से वामन ब्राह्मण का वेष बनाते हैं। कंधे पर जनेऊ लटका कर बगल में वेदशास्त्रों को दबाकर मधुरता से वेद की ऋचाओं का उच्चारण करते हुए वहाँ यज्ञ मंडप में पहुँच जाते हैं। बलि राजा (मंत्री) तो उन पर इतना प्रसन्न हो जाता है कि वह कहता है आपकी जो इच्छा हो, सो माँगिए। वामन ब्राह्मण कहते हैं— ‘मैं गरीब ब्राह्मण हूूँ। मुझे धन-दौलत की आवश्यकता नहीं है। मुझे केवल तीन पैर (पग) पृथ्वी की आवश्यकता है। इसके सिवाय मुझे और कुछ नहीं चाहिए।’ तब बलि कहता है— ‘हे पूज्य! तो आप स्वयं अपने ही पैरों से पृथ्वी माप लीजिए।’

बलि महाराज जल की भरी सुवर्ण झारी उठा कर दान का संकल्प करते हुए वामन ब्राहमण के हाथ में जलधारा डाल देते है। संकल्प होते ही वामन वेषधारी विष्णुकुमार पृथ्वी को मापने के लिए अपना पहला पाँव उठाकर सुमेरु पर्वत पर रखते हैं, दूसरा पैर उठाकर मानुषोत्तर पर्वत पर रखते हैं पुन: तीसरा पैर उठाते हैं और उन्हें आगे बढ़ने की कहीं जगह ही नहीं दिखती है, उसे वे कहाँ रक्खे ? …...तब वह तीसरा पाँव आकाश में ही उठा रह जाता है। उनके इस प्रभाव से सारी पृथ्वी काँप उठती है, सभी पर्वत चलायमान हो जाते हैं, समुद्र मर्यादा तोड़ देते हैं और उनका जल बाहर उद्वेलित होकर बहने लगता है। 

देवों के विमान भी टकराने लगते हैं और देवगण सहसा आश्चर्य से चकित हो जाते हैं। पुन: तत्क्षण ही देवगण अपने अवधिज्ञान से सारा समाचार ज्ञातकर वहाँ आकर बलि को बाँधकर मुनि विष्णुकुमार से कहते हैं— ‘प्रभो! क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए!!…. इस प्रकार चारों तरफ से आकाश में उपस्थित देवगण एक साथ शब्दों का उच्चारण करते हुए आकाश को मुखरित कर रहे हैं— ‘जय हो, जय हो, जय हो!! महामुनि अकंपनाचार्य की जय हो, सर्व दिगम्बर मुनियों की जय हो, जैनधर्म की जय हो। महासाधु विष्णुकुमार की जय हो, जय हो, जय हो!!

हे धर्मवत्सल! हे दया सिन्धो, हे धर्म के अवतार! क्षमा करो, क्षमा करो!! दया करो, दया करो!! हम सभी की रक्षा करो, अब आप अपनी विक्रिया समेटो, हे देव! अब आप अपना पैर संकुचित करो। यह सब दृश्य देखकर अतीव भयभीत और काँपता हुआ बलि महाराज के चरणों में गिर पड़ता है और गिड़गिड़ाता हुआ कहता है— मुझे क्षमा कर दीजिए, मैं महापापी हूँ फिर भी अब आपकी शरणागत हूूँ अब आप मेरी रक्षा कीजिए, मेरे ऊपर दया कीजिए’ इसी मध्य बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि तीनों मंत्री भी आकर मुनि के चरणों में साष्टांग पड़कर क्षमा याचना करते हैं और पश्चात्ताप करते हुए अश्रु गिराने लगते हैं। 

वामन वेषधारी विष्णुकुमार तत्क्षण ही अपनी विक्रिया समेट लेते हैं और मुनि अवस्था में वहाँ खड़े हो जाते हैं। उसी समय देवगण आकर सभी मुनियों पर हो रहे सारे उपसर्ग को दूर कर देते हैं। यज्ञ मंडप और अग्नि को हटा देते हैं। जो बेचारे निरपराध पशु हवन की आहुति के लिए वहाँ बाँधे गये थे उन्हें छोड़ देते हैं और सभी को अभयदान की घोषणा कर देते हैं। उसी क्षण राजा पद्म भी वहाँ आ जाते हैं और विष्णुकुमार मुनि के चरणों से लिपट जाते हैं। सात सौ मुनियों के ऊपर हो रहे भंयकर उपद्रव को दूर हुआ देख हर्षाश्रु से मुनि विष्णुकुमार के चरणों का मानों प्रक्षालन ही कर रहे हों। 

प्रजा में शांति की लहर दौड़ जाती है। एक साथ सारी प्रजा वहाँ दौड़ आती है और गुरुओं की वंदना एवं वैयावृत्ति में लग जाती है। उसी क्षण राजा और चारों मंत्री बड़ी भक्ति से अकंंपनाचार्य की वंदना करने को वहाँ पहँच जाते हैं और उनके चरणों में साष्टांग पड़कर नमस्कार करते हैं।’ पुन: वे चारों मंत्री गुरुदेव से निवेदन करते हैं— ‘हे नाथ! अब हमें आप विश्व हितकारी, परमोपकारी, अहिंसामयी इस जैनधर्म को ग्रहण कराइए।’ इतनी प्रार्थना को सुनकर श्री अकंंपनाचार्य गुरुवर्य उन पर दया करके मिथ्यात्व का त्याग कराकर चारों को सम्यक्त्व तथा अणुव्रत देकर उन्हें दुर्जन से सज्जन बना देते हैं। 

सभी देवगण प्रसन्न होकर बहुत ही भक्ति भाव से अष्ट द्रव्य आदि उत्तम-उत्तम सामग्री लेकर श्री विष्णुकुमार मुनि के चरणों की पूजा करते हैं, पुन: अकंंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों की पूजा करते हैं। वे देवगण देवमयी तीन वीणाएँ लाकर उन्हें बजा-बजा कर खूब भक्ति-पूजा करते हैं। पुन: उन तीनों वीणाओं को यहीं मध्यलोक में दे जाते हैैं जिनके द्वारा भक्त लोग सदा ही उन गुरुओं का गुणानुवाद गा-गाकर पुण्य संपादन करते रहे। 

पुन: सभी श्रावक श्राविकाएँ विचार करते हैं— ‘‘अहो! इन उपसर्ग विजयी महामुनियों को अग्नि की आँच और धुएं से बहुत क्लेश हुआ है। इनके कंठ रुँध गए हैं और शरीर में भी वेदना हो रही है अत: अब इन्हें ऐसा आहार देना चाहिए कि जिससे ये जले हुए, पीड़ा युक्त कंंठ से सहज में ग्रहण कर सके।’’ तभी सब श्रावक सेमई की खीर को उपयुक्त आहार समझकर घर-घर में वैसा मृदु आहार तैयार करके आहार की बेला में अपने-अपने घर के दरवाजे पर मुनियों के पड़गाहन की प्रतीक्षा में खड़े हो जाते हैं। 

सभी मुनि अपनी-अपनी नियम सल्लेखना को विसर्जित कर आचार्यश्री के साथ शरीर को संयम का साधन मानकर उसकी रक्षा हेतु चर्या के लिए निकलते हैं। श्रावक आनंद विभोर हो नवधा भक्ति से पड़गाहन करना शुरू कर देते हैं। जिन श्रावकों को मुनियों का लाभ मिल जाता है वे अपने जीवन को धन्य मान लेते हैं और विधिवत् उन्हें मुदु और सरस सेमई की खीर का आहार देकर अतिशय पुण्य संपादन कर लेते हैं। जिन श्रावकों को कोई उत्तम मुनि-पात्र नहीं मिल पाता है वे भी उस दिन पात्रदान की उत्कट भावना से अन्य व्रती श्रावकों को भोजन कराकर आहार दान की भावना भाते हुए अपने जीवन को सफल करते हैं।

जिस दिन इन सात सौ मुनियों की रक्षा हुई थी वह दिन श्रावण शुक्ला पूूर्णिमा का था। तभी से आजतक सभी श्रावकगण इस दिन को वात्सल्य पर्व के नाम से मनाते चले आ रहे हैं।
इस प्रकार धर्मात्माओं के प्रति परम धर्म के अवतार मुनि श्री विष्णुकुमार ने वात्सल्य भाव को करके जो धर्मात्माओं की रक्षा की है, उसी की स्मृति में इस पर्व को मनाते हुए धर्म और धर्मात्माओं की रक्षा का नियम लेना चाहिए, तभी इस पर्व को मनाने की पूर्ण सार्थकता है। 

अनंतर विष्णुकुमार मुनि अपने गुरु के पास जाकर विक्रिया से जो वामनवेष बनाया था उसका प्रायश्चित्त ग्रहण कर घोराघोर तपश्चरण कर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। वे महामुनि विष्णुकुमार तथा अकंंपनाचार्य आदि सात सौ मुनि हम सब की रक्षा करें।
👉 विशेष नोट - त्रिलोकसार जी की गाथा 817 मे आया है कि महापदम चक्रवर्ती जी तीर्थंकर मल्लिनाथ जी के तीर्थंशासन मे हुए है।
।।जिनवाणी माता की जय।।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

24) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*

*२४) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *जहाँ कार्मण काययोग समाप्त होगा उसके अगले ही क्षण से ही मिश्र काययोग प्रारम्भ हो ...