*✍️ 06. चौबीस ठाणा मे तिर्यंचगति मार्गणा*
https://youtu.be/3XQJxYDGbro?si=iAdBgPFtQ1AKbhWU
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देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोडकर शेष सभी तिर्यंच कहलाते हैं। तिर्यंचो की गति को तिर्यंचगति कहते हैं। ये तिर्यंच मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त होते है, इनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) होती है। ये तिर्यंच निकृष्ट अज्ञानी होते है, इनमे अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाता है।
*✍️तिर्यंचगति मे 24 स्थान*
*01) गति* 04 मे से 01 गति तिर्यंचगति,
*02) इन्द्रिय* 05 मे 05 - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय
*03) काय* 06 मे से 06 काय – पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय।
*04) योग* 15 मे से 11 योग
◆ मनोयोग 04 - सत्य, असत्य मनोयोग, उभय, अनुभय मनोयोग,
◆ वचनयोग 04 - सत्य, असत्य वचनयोग, उभय, अनुभय वचनयोग,
◆ काययोग 03 - औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, कार्मण काययोग
*(वैक्रियिकद्विक तथा आहारकद्विक नहीं होतें हैं)*
*05) वेद* 03 मे से 03 – स्त्री, पुरुष, नपुंसकवेद
👉एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव, सम्मूर्च्छन पर्याप्त पंचेन्द्रिय तथा लब्धयपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी नपुंसकवेद वाले ही होते हैं।
*06) कषाय* 25 मे से 25 कषाय होती है
अनन्तानुबन्धी – क्रोध-मान-माया-लोभ
अप्रत्याख्यानावरण – क्रोध-मान-माया-लोभ
प्रत्याख्यानावरण – क्रोध-मान-माया-लोभ
संज्वलन – क्रोध-मान-माया-लोभ
नोकषाय – हास्य-रति-अरति, शोक-भय-जुगुप्सा, स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद
👉अगर सम्यग्द्रष्ठि है अनंतानुबन्धी चतुष्क कम हो जाएगी, पंचम गुणस्थानवर्ती है तो अनंतानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क कम हो जाएगी
*07) ज्ञान* 08 मे से 06 भेद
◆ कुज्ञान 03– कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
◆ सुज्ञान 03– मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान
(मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं होता है)
*08) संयम* 07 मे से 02 भेद असंयम, संयमासंयम
*09) दर्शन* 04 मे से 03 भेद - चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन
*10) लेश्या* 06 मे से 06 भेद - द्रव्य और भाव दोनों
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल लेश्या
👉तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं।
*11) भव्यक्त्व* 02 मे से 02 भेद- भव्य और अभव्य
*12) सम्यक्त्व* 06 मे से 06 - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक (क्षायिक सम्यकत्व भोगभूमि की अपेक्षा होता है)
👉तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में 04 सम्यक्त्व होते हैं - मिथ्यात्व, सासादन, क्षयोपशम, क्षायिक सम्यक्त्व।
*13) संज्ञी* 02 मे से 02 भेद - संज्ञी, असंज्ञी
*14) आहारक* 02 मे से 02 - आहारक, अनाहारक
*15) गुणस्थान* 14 मे से 05 भेद - मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत
👉भोगभूमि तिर्यंच के चार गुणस्थान, कर्मभूमि तिर्यंचों के पाँच गुणस्थान होते है।
*16) जीवसमास* 19 मे से 19
पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, जलकायिक सूक्ष्म-बादर, अग्निकायिक सूक्ष्म-बादर, वायुकायिक सूक्ष्म-बादर, नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय।
*17) पर्याप्ति* 06 मे से 06 - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा, मन:पर्याप्ति
*18) प्राण* 10 मे से 10 भेद
एकेन्द्रिय पर्याप्त के 04 प्राण (स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास)
द्वीन्द्रिय पर्याप्त 06 प्राण (इन्द्रिय 02, वचनबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास)
त्रीन्द्रिय पर्याप्त 07 प्राण (इन्द्रिय 03, वचनबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास)
चतुरिन्द्रिय पर्याप्त 08 प्राण (इन्द्रिय 04, वचनबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास)
असंज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त 09 प्राण (इन्द्रिय 05, वचनबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास)
संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त 10 प्राण (इन्द्रिय 05, बल 03, आयु, श्वासोच्छवास)
👉सभी जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में श्वासोच्छवास, वचनबल तथा मनोबल नही होते हैं।
*19) संज्ञा* 04 मे 04 भेद - आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा
*20) उपयोग* 12 मे से 09 भेद - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान,चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन
*21) ध्यान* 16 मे से 11
◆ आर्तध्यान 04 - इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना, निदान
◆ रौद्रध्यान 04 - हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी
◆ धर्मध्यान 03 - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय (संस्थानविचय धर्मध्यान, चारो शुक्लध्यान नही होते)
*22) आस्रव* 57 मे से 53 भेद
◆ मिथ्यात्व 05 विपरीत, एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान
◆ अविरति 12- पाँचो इन्द्रिय और मन को वश में नही करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
◆ कषाय 25 - अनन्तानुबन्धी आदि 16, नोकषाय 09
◆ योग 11- मनोयोग 04, वचनयोग 04, काययोग 03 (औदारिकद्विक काययोग, कार्मण काययोग)
*23) जाति* 84 लाख मे से 62 लाख जातियाँ तिर्यंचो में होती है।
*24) कुल -* 199 –1/2 लाख करोड मे से 134 –1/2 लाख करोड़ कुल होते है
*✍️ तिर्यंंच के प्रकार :-*
तिर्यंचगति के जीव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय के भेद से, शम्बूक, जू, मच्छर आदि विकलेन्द्रिय के भेद से, जलचर, थलचर, नभचर, द्विपद, चतुष्पदादि पंचेन्द्रिय के भेद से बहुत प्रकार के होते हैं।
*(पंचस्तिकाय संग्रह 118)*
∆ जन्म की अपेक्षा तिर्यंच दो प्रकार के होते हैं- गर्भज और सम्मूर्च्छन जन्म वाले *(कार्तिकेय अनु. 130)*
ऐकेन्द्रि से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीवो का जन्म सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है।
*✍️ तिर्यंच जीवो का स्थान :-*
पन्द्रह कर्मभूमियों में भी तिर्यंच रहते हैं *(05 भरत, 05 ऐरावत, 05 विदेह)* ढाईद्वीप की भोगभूमिये मे भी रहते है तथा ढाईद्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप में स्थित सभी भोग भूमियों तथा आधे स्वयंभूरमण द्वीप व स्वयंभूरमण समुद्र में तिर्यंच ही रहते हैं। *विशेष रूप से एकेन्द्रिय तिर्यंच सर्वलोक में ठसाठस भरे हुए हैं।*
*✍️ नपुंसक वेद वाले तिर्यंच :-*
एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव, सम्मूर्च्छन पर्याप्त पंचेन्द्रिय तथा लब्धयपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी नपुंसकवेद वाले ही होते हैं। *(त. सू 2/50)*
*✍️तिर्यंंचो की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में लेश्याएँ :-*
तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं क्योंकि पीत और पदम लेश्या वाले देव यदि तिर्यंचो में उत्पन्न होते हैं तो नियम से उनकी शुभ लेश्याएँ नष्ट हो जाती हैं, इसलिए तिर्यंचो के निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं। *शुभ लेश्या तिर्यंचों के बाद मे हो सकती है* *(धवला 2/473)*
*✍️ तिर्यंचो में क्षायिकसम्यग्दर्शन अपेक्षा :-*
निष्ठापन की अपेक्षा होता है, शुरुवात कर्मभूमिया का मनुष्य करेगा और क्षायिकसम्यक्त्व की प्रक्रिया के चलते बीच मे यदि मरण हो जाए और मरण करके यदि तिर्यंच मे गया तो "क्योकि मिथ्यात्व अवस्था मे तिर्यंचायु बांध ली होगी" भोगभूमि का तिर्यंच बनेगा और भोगभूमि का तिर्यंच बनकर क्षायिक सम्यक्त्व पूर्ण कर लेता है यानि क्षायिक की पूर्णता करेगा, यह निष्ठापन की अपेक्षा होता है।
*(कर्मभूमि तिर्यंचो मे किसी भी अपेक्षा से क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है)*
*👉 क्या बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि मनुष्य के समान बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि तिर्यंच भी भोगभूमि में जा सकता है ?*
∆ नहीं, तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रतिष्ठापक नहीं होता और न कर्मभूमिया तिर्यंचो को क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है, क्योंकि, क्षायिक-सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में करते हैं। तथा *जिसने तिर्यंच, मनुष्य और नरकायु को बाँध लिया है वह मिथ्यात्व के साथ ही मरणकर तिर्यंचादि गतियों में जाता है* क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य *(बद्धायुष्क मनुष्य को छोड्कर)* और तिर्यंच नियम से स्वर्ग में ही जाते हैं।
अर्थात जिन्होने मनुष्य और तिर्यंच ने आयु नही बांधी हो और सम्यक दर्शन प्राप्त करेगे वे देवायु को प्राप्त करते है, अन्य कही नही जाते।
*✍️ बद्धायुष्क :-*
जिसने अगले भव की आयु बाँध ली वह बद्धायुष्क कहलाता है। बद्धायुष्क का कथन क्षायिक एवं कृतकृत्यवेदक की मुख्यता से ही किया गया है ।
*✍️ बद्धायुष्क मुनि भोगभूमिया तिर्यंच बन सकतते है ?*
∆ पहली बात जो मुनि होते है वे एकमात्र देवायु ही हो सकती है, अन्य आयु उनके नही बंधती।
∆ नहीं, जिस मनुष्य ने देवायु को छोड्कर शेष किसी भी आयु का बंध कर लिया है, वह अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता है, ऐसा नियम है। इसलिए बद्धायुष्क मुनि भी भोगभूमि में उत्पन्न नहीं हो सकता है। *(गो. क. 334)*
∆ इसी प्रकार देवायु को छोड़कर शेष आयु बाँधने वाला तिर्यंच भी अणुव्रत धारण नहीं कर सकता है।
*👉 मत्स्य भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो सकता है ?*
◆ नहीं हो सकते, क्योकी मत्स्य नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं और कर्मभूमि के तिर्यंचो को क्षायिक सम्यक्त्व नही होता, एकमात्र भोगभूमि के तिर्यंचो को क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है वो भी इस प्रकार से कि यहा से शुरुवात करके या परिपूर्ण करके गया हो। *(ति.प.4/328)* भोगभूमि मे जलचर जीव नही पाए जाते केवल थलचर और नभचर दो ही प्रकार के तिर्यंच जीव है।
*नोट* इसी प्रकार सम्मूर्च्छन मत्स्य के प्रथमोपशम सम्यक्त्व भी नहीं होता है क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व गर्भज जीवों के ही होता है। *(धवला पु)*
यहा केवल क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो सकता है।
*✍️ सम्मूर्च्छन तिर्यंचो के सम्यक्त्व :-*
यहा उत्पन्न होने की अपेक्षा नही रहने को अपेक्षा है।
◆ सम्मूर्च्छन तिर्यंचो के चार सम्यक्त्व हो सकते हैं-
मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व। *सामान्य तिर्यंच चार प्रकार के होते है*
*∆ मिथ्यात्व* होने मे कोई बाधा नही है,
*∆ सासादन* कोई सासादन से मरण करके आया हो, क्योकि सासादन से मरण करके नरकगति को छोडकर बाकी तीनो गतियो मे जा सकते है।
*∆ क्षायोपशमिक* भी यहा उत्पन्न हो सकता है।
*∆ सम्यग्मिथ्यात्व* भी यहा हो सकता है।
भोगभूमि में सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंच नहीं होते हैं
एकमात्र गर्भज तिर्यंच होते है। कर्मभूमि मे गर्भज और सम्मूर्च्छन दोनों प्रकार के तिर्यंच होते है।
◆ महामत्स्य के सासदन भी उत्पन्न नही हो सकता, क्योकि सासादन तो उपशम से गिरकर होता है, ओर सम्मूर्च्छन जीवो के उपशम सम्यक्त्व नही होता है। लेकिन साथ लेकर आ सकता है।
महामत्स्य के मिथ्यात्व हो सकता है, सम्यग्मिथ्यात्व हो सकता है और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी हो सकता है।
भोगभूमि मे सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंचो नही होते है, इसलिए सम्मूर्च्छन तिर्यंचो में क्षायिक नहीं कहा है ।
*👉 यदि सम्मूर्च्छन जीवों के उपशम-सम्यक्त्व नहीं होता है, तो उनके सासादन-सम्यक्त्व कैसे हो सकता है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व के बिना सासादन सम्यक्त्व नहीं हो सकता है?*
∆ यद्यपि सम्मूर्च्छन जीवों के प्रथमोपशम सम्यक्त्व नहीं होता है फिर भी पूर्व भव से अर्थात् कोई मनुष्य-तिर्यंच सासादन-सम्यक्त्व को लेकर सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होता है तो उसके सासादन-सम्यक्त्व का अस्तित्व बन जाता है।
इसी प्रकार से महामत्स्य के भी हो सकता है लेकिन उसी पर्याय मे सासादन उत्पन्न नही होता है।
*👉 क्या तिर्यंच की निर्वृत्यपर्याप्तक-अवस्था में भी सभी सम्यक्त्व होते हैं?*
◆ नहीं, तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्याप्तक-अवस्था में चार सम्यक्त्व होते हैं- मिथ्यात्व, सासादन, क्षयोपशम, क्षायिक सम्यक्त्व। उपशम और मिश्र नहीं होते हैं।
*∆ सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र)* नही हो सकता क्योकी इस गुणस्थान मे मरण नही होता है।
*∆ औपशमिक* नही हो सकता क्योकी उपशम मे मरण नही होता है।
*∆ क्षायोपशमिक* कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा हो सकता है।
*∆ क्षायिक* हो सकता है भोगभूमि के तिर्यच अपेक्षा
*नोट* क्षयोपशम सम्यक्त्व भोगभूमि में जाते समय कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा कहा गया है। क्षायिक- सम्यक्त्व भोगभूमि की अपेक्षा है।
*👉 किन-किन तिर्यंचो के पंचम गुणस्थान नहीं होता है?*
भोगभूमि तिर्यंच के चार गुणस्थान, कर्मभूमि तिर्यंचों के पाँच गुणस्थान होते है।
*०१)* एकेन्द्रियादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक जीवों के पाँचवा गुणस्थान नही होता केवल पहला गुणस्थान
*०२)* संज्ञी पंचेन्द्रिय में भी जो लब्ध्यपर्यातक जीव है उनके भी पाँचवा गुणस्थान नही होता है।
*०३)* भोगभूमिज तथा कुभोगभूमिज तिर्यंच जीवों के पाँचवा गुणस्थान नही होता है। चार तक होते है।
*विशेष* (हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से भगवान आदिनाथ स्वामी के समय में भोगभूमि में ही तीर्थंकर, संयमी, संयमासंयमी आदि हुए थे)
*०४)* म्लेच्छखण्ड में तिर्यंचो में पंचम गुणस्थान प्राप्त करने की योग्यता नहीं है ।
*नोट* म्लेच्छखण्ड से यहाँ आकर हाथी-घोड़ा आदि कोई पंचमगुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं। (मनुष्यों के समान तिर्यंचो का कथन आगम में नहीं आता है)
*👉 क्या भोगभूमि में किसी भी अपेक्षा पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यंच नहीं हो सकते हैं?*
जिसने भोगभूमि मे जन्म लिया हो उसके पंचम गुणस्थान नही होता है।
लेकिन बैर के सम्बन्ध से देवों अथवा दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्यंचो का सब जगह सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए वहाँ पर अर्थात् भोग-भूमि में भी पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यंच का अस्तित्व बन जाता है *(धवला 1/404)*
*नोट* इसी प्रकार संयतासंयत मनुष्य व संयत मुनि भी पाये जा सकते हैं ।
*👉 क्या क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंचो के पांचवा संयतासंयत गुणस्थान हो सकता है?*
◆ नहीं हो सकता, क्योकि क्षायिक सम्यक्त्व कर्मभूमि के जीवो में होता ही नही है, तथा भोगभूमि के तिर्यंचो मे ले जाने की अपेक्षा से होता तो है लेकिन भोगभूमि मे पंचम गुणस्थान नही होता है, भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों की उत्पत्ति नहीं होती है, वहाँ पर अणुव्रत होने में आगम से विरोध है *(ध.1/405)*
*✍️ तिर्यंचो के प्राण*
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*तिर्यंच प्राण*
*निर्वृत्यपर्याप्त पर्याप्त*
*एकेन्द्रिय* 3 4 (स्पर्शनेन्द्रिय, आयु
कायबल, श्वासो.)
*द्वीन्द्रिय* 4 6 (2 इन्द्रिय, वचनबल
कायबल,श्वासो.,आयु)
*त्रीन्द्रिय* 5 7 (3 इन्द्रिय, 2 बल,
आयु, श्वासो.)
*चतुरिन्द्रिय* 6 8 (4 इन्द्रिय, 2 बल
आयु, श्वासो.)
*असैनी पचेन्द्रिय* 7 9 (5 इन्द्रिय, 2 बल
आयु, श्वासो.)
*सैनी पंचेन्द्रिय* 7 10 (5 इन्द्रिय, 3 बल
आयु, श्वासो.)
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
*नोट* सभी जीवों के निर्वृत्यपर्यासक अवस्था में श्वासोच्छवास, वचनबल तथा मनोबल नही होते हैं।
▪️असैनी पर्यन्त जीवों के मनोबल नहीं होता है।
*✍️ सम्यग्दृष्टि तिर्यंचो के आस्रव के प्रत्यय :-*
*1. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती तिर्यंचो के आस्रव के 44 प्रत्यय हो सकते हैं* मिथ्यात्व 00, अविरति 12, कषाय 21 (अनन्तानुबन्धी बिना) तथा 11 योग (4 मनो. 4 वचन. 4 काय.) औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग भोगभूमि की अपेक्षा बन जायेंगे।
∆ यहा कोई जीव क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है और भोगभूमि मे जाता है तो कार्मण काययोग तो होगा, तथा औदारीक मिश्र भी होगा तथा औदारिक काययोग भी होगा।
(भोगभूमि कि अपेक्षा से यहा वैक्रियकद्विक और आहारकद्विक ये चार योग नही होते है)
*2. चौथा गुणस्थानवर्ती सम्यग्द्रष्टि तिर्यंच देवगति मे जाने की अपेक्षा आस्रव के 42 प्रत्यय होते है*
(मिथ्यात्व 00, अविरति 12, कषाय 21, योग 9 (मन 4, वचन 4, औदारिक काययोग)
*3. मिथ्याद्रष्टि तिर्यच के आस्रव के ५३ प्रत्यय होते है* (मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कषाय 25, योग 11)
*✍️ तिर्यंचो की बासठ लाख जातियाँ :-*
नित्यनिगोद 7 लाख
इतरनिगोद 7 लाख
पृथ्वीकायिक 7 लाख
जलकायिक 7 लाख
अग्निकायिक 7 लाख
वायुकायिक 7 लाख
वनस्पतिकायिक 10 लाख
द्वीन्द्रिय 2 लाख
त्रीन्द्रिय 2 लाख,
चतुरिन्द्रिय 2 लाख
पंचेन्द्रिय तिर्यंच 4 लाख
*✍️ तिर्यंचो के 134.5 लाख करोड़ :-*
पृथ्वीकायिक 22 लाख करोड़,
जलकायिक 7 लाख करोड़,
अग्निकायिक 3 लाख करोड़,
वायुकायिक 7 लाख करोड़,
वनस्पतिकायिक 28 लाख करोड़,
द्वीन्द्रिय 7 लाख करोड़,
त्रीन्द्रिय 8 लाख करोड़,
चतुरिन्द्रिय 9 लाख करोड़,
जलचर 12.5 लाख करोड़,
थलचर 19 लाख करोड़,
नभचर 12 लाख करोड़,
*✍️ भोगभूमिया तिर्यंंच के 31 लाख करोड़ कुल :-*
थलचर 19 लाख करोड़ कुल
नभचर 12 लाख करोड़ कुल
भोगभूमि में एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं। इसलिए उनके कुल ग्रहण नहीं किये है।
*नोट* यद्यपि वहाँ एकेन्द्रिय जीव होते हैं, लेकिन वे भोगभूमिया नहीं होते हैं, सामान्य एकेन्द्रिय हैं, इसलिए यहाँ उनके कुलों का ग्रहण नहीं किया है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*