Thursday, 13 February 2025

7. चौबीस ठाणा में मनुष्यगति मार्गणा

*✍️ मनुष्यगति में चौबीस ठाणा*
https://youtu.be/zC4edAGojCs?si=w9wU8fxsCnEIxFEt
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जिनके मनुष्य गति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं। उनकी गति को मनुष्य गति कहते है।   *(गो.जी.149)*
01) जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे वे मनुष्य है।  हेय=छोडने योग्य, उपादेय=ग्रहण करने योग्य,    हमे क्या चीज छोडनी चाहिए क्या ग्रहण करना चाहिए इसका पता चलता है। 
तत्त्व=वस्तु स्वरुप का, अतत्त्व=जैसा स्वरुप नही है उसे अच्छे से जानता है। 
आप्त=इष्ट देव का पता होना, अनाप्त=जो इष्टदेव नही है का पता होता है। 
धर्म मे क्या है, अधर्म मे क्या है का विचार होता है उसको मनुष्य कहते है। 
02) जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके वे मनुष्य है। 
03) जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो वे मनुष्य है। 
04) शिल्प-कला आदि में कुशल हो वे मनुष्य है। 
05) जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं। 
*(गो. जी. 149)*

*✍️मनुष्य गति मे 24 स्थान*
*01) गति*    04 मे से 01 मनुष्य गति,    
*02) इन्द्रिय* 05 मे से 01 पंचेन्द्रिय जीव   
*03) काय*   06 मे से 01 त्रसकाय 
*04) योग*   15 मे से 13 योग 
◆ मनोयोग 04 – सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग, 
◆ वचनयोग 04 – सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग, 
◆ काययोग 05 – औदारिकद्विक काययोग, आहारकद्विक काययोग, कार्मण काययोग 
   ( वैक्रियिकद्विक काययोग नही होता है ) 
*05) वेद* 03 मे से 03  स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद 
*06) कषाय*    25 मे से 25 कषाय होती है 
अनन्तानुबन्धी 04         क्रोध-मान-माया-लोभ 
अप्रत्याख्यानावरण 04   क्रोध-मान-माया-लोभ 
प्रत्याख्यानावरण 04      क्रोध-मान-माया-लोभ 
संज्वलन 04                 क्रोध-मान-माया-लोभ 
नोकषाय 09  हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद। 
*07) ज्ञान*      08 मे से 08 भेद 
◆ कुज्ञान 03 - कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान  
◆ सुज्ञान 05 - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान 
*08) संयम*    07 मे 07 भेद - असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय, यथाख्यात संयम 
*09) दर्शन*    04 मे 04 भेद - चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन, केवलदर्शन 
*10) लेश्या*    06 मे 06 भेद - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम, शुक्ल लेश्या 
*11) भव्यक्त्व* 02 मे से 02 भेद - भव्य और अभव्य 
*12) सम्यक्त्व* 06 मे से 06 - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक 
*13) संज्ञी*      02 मे से 01 भेद - संज्ञी होते है 
*14) आहारक* 02 मे से 02 - आहारक, अनाहारक 
*15) गुणस्थान* 14 मे 14 भेद - सभी गुणस्थान 
*16) जीवसमास* 19 मे से 01 संज्ञी पंचेन्द्रिय 
*17) पर्याप्ति*    06 मे 06 - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा, मन:पर्याप्ति 
*18) प्राण* 10 मे से 10 भेद- 
इन्द्रिय 05 - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण 
बल 03 - कायबल, वचनबल और मनोबल प्राण, आयुप्राण और श्वासोच्छवास प्राण 
*19) संज्ञा*     04 मे से 04 भेद - आहार, भय,  मैथुन, परिग्रह संज्ञा 
*20) उपयोग*     12 मे 12 भेद - मति, श्रुत, अवधिज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन 
*21) ध्यान*        16 मे से 16 
◆ आर्तध्यान 04 - इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान ध्यान। 
◆ रौद्रध्यान 04 - हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी। 
◆ धर्मध्यान 04 - आज्ञाविचय,अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय। 
◆ शुक्ल 04 - पृथक्त्ववितर्क वीचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति 
*22) आस्रव*     57 मे से 55 भेद 
◆ मिथ्यात्व 05  विपरीत, एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान 
◆ अविरति 12- पाँचो इन्द्रिय और मन को वश में नही करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना 
◆ कषाय 25 - अनन्तानुबन्धी आदि 16, नोकषाय की 07 कषाय 
◆ योग 13 - मनोयोग 04, वचनयोग 04, काययोग 05 
*23) जाति* 84 लाख मे से 14 लाख जाति मनुष्यो मे होती है। 
*24) कुल* - 199–01/02 लाख करोड मे से 14 लाख करोड़ कुल मनुष्यो के होते है।         


✍️ मनुष्य :-
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- आर्य मनुष्य, म्लेच्छ मनुष्य           *(त. सू. ०३/३६)*
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- कर्मभूमिज मनुष्य, भोग भूमिज मनुष्य (  *नि. सा. 96)*
मनुष्य तीन प्रकार के हैं- पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्यातक,  लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य   *(ति. प. 4/2979)*
मनुष्य चार प्रकार के हैं-कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तरद्बीपज, सम्मूर्च्छन  *(भ.आ. 780 क्षेपक)*

✍️ आर्य आदि मनुष्य किसे कहते हैं।?
*∆ आर्य मनुष्य*  गुण और गुणवानों से जो सेवित हैं वे आर्य कहलाते हैं।       *(रा. वा. 3/36)*
*∆ म्लेच्छ मनुष्य* पाप क्षेत्र में जन्म लेने वाले म्लेच्छ कहलाते हैं। उनका आचार खान- पान आदि असभ्य होता है।   *(नि. सा. 96)*
*∆ कर्मभूमिज* जहाँ शुभ और अशुभ कर्मों का आस्रव हो उसे कर्मभूमि कहते हैं। वहाँ उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्मभूमिज कहलाते हैं *(स.सि. 3)* 
*∆ भोगभूमिज* भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों को भोगभूमिज कहते हैं।   *(भ. आ.)* 
*∆ पर्याप्तक* जिन जीवो की अपनी अपनी पर्याप्तिया पूर्ण हो गई है वे जीव पर्याप्तक कहलाते है।
*∆ निर्वृत्यपर्यातक* जो जीव अपनी पर्याप्तिया पूर्ण करेगा, लेकिन जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नही होती है तब तक उस जीव को निर्वत्यापर्याप्तक कहते है।
*∆ लब्ध्यपर्याप्तक* जो जीव श्वास के अठारहवें भाग में मर जाते है वे लब्ध्यपर्याप्तक जीव हैं  *(गो. जी. १२२)*
*∆ अंतर्द्वीपज* जो मनुष्य अंतर्द्वीपों में उत्पन्न होते हैं अंतर्द्वीपज मनुष्य कहलाते हैं *(सर्वा.सि.3/39)*
*∆ सम्मूर्च्छनज* जो मनुष्य सब और से वातावरण से उत्पन्न होते है वे सम्मूर्च्छनज मनुष्य है।
*विशेष नोट* सभी सम्मूर्च्छन जीव लब्ध्यपर्याप्तक नही होते है लेकिन जो मनुष्यो मे सम्मूर्च्छन मनुष्य होते है वे सभी लब्ध्यपर्याप्तक होते है तथा संज्ञी होते है।

✍️ मनुष्य के पेट में जो कीड़े पाये जाते हैं वे भी मनुष्य हैं?*
नहीं, वे मनुष्य नही होते है वे तो द्वीन्द्रिय त्रस जीव है और तिर्यंच जीव है।
मनुष्य के पेट, घाव आदि में पड़ने वाले कीड़े मनुष्य नहीं हैं यद्यपि मनुष्य के पेट में पड़ने वाले कीड़े, पटार आदि औदारिक शरीर, मल-मूत्र, भोजन आदि में उत्पन्न होते हैं लेकिन वे द्विन्द्रिय ही होते हैं इसलिए वे तिर्यंचगति के जीव ही हैं, मनुष्य गति के जीव नहीं ।

*✍️ किन-किन मनुष्यों को केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है?*
*०१)* लब्ध्यपर्यातक मनुष्य
*०२)* आठ वर्ष अंर्तमुहूर्त से कम उम्र वाले मनुष्य
*०३)* 126 भोगभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य
*०४)* पाँचवें व छठे नरक से आये हुए जीव जो मनुष्य तो बने है, लेकिन वे भी केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते
*०५)* सूक्ष्म निगोद से आये हुए जीव जो मनुष्य तो है लेकिन वे भी केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते।
यह जीव दीक्षा तो ले सकता है लेकिन मोक्ष प्राप्त नही कर सकता, तथा बादर निगोद से भी जीव मनुष्य बन सकता है तथा वह केवलज्ञान को प्राप्त करते मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
*०६)* अभव्य तथा अभव्यसम भव्य जीव (दूरानुदूर भव्य) भी केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते
*०७)* वज्र वृषभनाराच संहनन को छोड्‌कर शेष पाँच सहनन वाले जीव केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते
*०८)* बद्धायुष्क मनुष्य भी केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते है। बद्धायुष्क यानि अगले भव की आयु का बंध करना
*०९)* द्रव्य स्त्री और द्रव्य नपुंसक वेद वाले भी केवलज्ञान प्राप्त नही कर सकते
*विशेष* भोगभूमि की स्त्रीयो मे एकमात्र वज्र वृषभ नाराच संहनन ही होता है।

*✍️ एक सौ छब्बीस भोगभूमियाँ :-
10 जघन्य भोगभूमि (5 हैमवत, 5 हैरण्यवत क्षेत्र)
10 मध्यम भोगभूमि (5 हरिवर्ष, 5 रम्यक क्षेत्र)
10 उत्तम भोगभूमि  (5 देवकुरु, 5 उत्तरकुरु)
96 अन्तरद्वीपज में पाई जाने वाली कुभोगभूमियाँ
*(10 + 10 + 10 + 96 = 126 भोगभूमियाँ)*
इनमें मनुष्य भी रहते हैं।
शेष ढाई द्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में जघन्य भोगभूमियाँ हैं,वहाँ केवल तिर्यंच ही रहते है। ये स्थाई भोगभूमियाँ है। 
◆ 126 भोगभूमि मे इनमे 1 से 4 तक गुणस्थान हो सकते है।
◆ तिर्यंचों की जघन्य भोगभूमि अंतिम स्वयम्भूरमण द्वीप के आधे भाग तक पाई जाती है। इन तिर्यंचो की भोगभूमि मे दो गति के जीव तिर्यंचगति और देवगति के जीव रहते है।

✍️ क्या कुभोगभूमियों में तिर्यंच भी पाये जाते हैं?*
हाँ पाए जाते है, *(ति.प. 4/2595)*
यद्यपि इन भोगभूमियो मे किस-किस आकृति वाले तिर्यंच रहते हैं, क्या खाते हैं आदि वर्णन जिस प्रकार मनुष्यों के बारे में आता है, वैसा तिर्यंचो के बारे में नहीं मिलता है, फिर भी वहाँ तिर्यंच पाये जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है क्योंकि आचार्य यतिवृषभ महाराज तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ के चौथे अध्याय की 2515 वीं गाथा में कहते हैं कि इन द्वीपों में जिन मनुष्य-तिर्यंचो ने सम्यग्दर्शन रूप रत्न को ग्रहण किया है वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं तथा मिथ्याद्रष्टि मरण करके भवनत्रिक मे उत्पन्न होते है। इससे सिद्ध है वहाँ तिर्यंच भी पाये जाते हैं। 

✍️ क्या अंधे, काने, लूले-लँगड़े मनुष्य को भी केवलज्ञान हो सकता है?*
हाँ हो सकता है, अंधे, काले, लूले, लँगड़े आदि मनुष्यों को भी केवलज्ञान हो सकता है। यद्यपि अंधा, काणा, लूला, लँगड़ा व्यक्ति दीक्षा की पात्रता नहीं रखता और दीक्षा लिये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, लेकिन यदि कोई मनुष्य दीक्षा लेने के बाद अर्थात् मुनि बनने के बाद आँख फूटने के कारण से काना, मोतियाबिन्द आदि के कारण अंधा हो जावे, लकवा आदि के कारण लूला-लँगडा हो जावे तो केवलज्ञान होने में कोई बाधा नहीं है। कभी कभी उपसर्गादि के कारण भी ऐसा हो सकता है। केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए तो वज्रवृषभ नाराच संहनन, द्वितीय शुक्ल ध्यान, चार घातिया कर्मों का क्षय होना आवश्यक है। केवलज्ञान होने पर शरीर सांगोपांग हो जाता है।

*✍️ क्या कुबड़े-बौने आदि को भी केवलज्ञान हो सकता है?*
हाँ हो सकता है, कुबड़े-बौने आदि बेडौल शरीर वाले को भी केवलज्ञान हो सकता है, 13 वे गुणस्थान तक छहों संस्थानों का उदय पाया जाता है *(गो. क.)*   फिर भी मुनि बनने योग्य संस्थान होना आवश्यक है 

✍️ किन मनुष्यों के कौन-कौन सी लेश्याएँ :-*
*०१) कर्मभूमि पर्याप्तक*   सभी छहो लेश्या
*०२) कर्मभूमि निवृत्यापर्याप्तक* सभी छहो लेश्या
*०३) लब्ध्यपर्याप्तक*        कृष्ण, नील, कापोत
*०४)भोगभूमि सम्यक्तव निवृत्यापर्याप्तक* कापोत
*नोट* जो जीव भोगभूमि मे सम्यग्द्रष्टि बनेगा वह कर्मभूमि का ही मनुष्य होगा तिर्यंच नही, जो तिर्यंच होगा सम्यग्द्रष्टि कर्मभूमि का वह मरण करके देवगति मे ही जाता है।
*०५) भोगभूमि मिथ्याद्रष्टि निवृत्यापर्याप्तक*
        तीनो अशुभ लेश्या–कृष्ण, नील, कापोत
*०६) भोगभूमि सासादन निवृत्यापर्याप्तक*
        तीनो अशुभ लेश्या–कृष्ण, नील, कापोत
*०७) भोगभूमि पर्याप्तक* पीत, पदम, लेश्या*
*नोट* यहा जीव के निवृत्यपर्याप्तक अवस्था मे तीनो अशुभ लेश्या थी तथा शरीर पर्याप्ति पूर्ण करने के बाद लेश्या शुभ हो जाती है। निवृत्यपर्याप्तक अवस्था मे सम्यग्द्रष्टि होगा तो कापोत लेश्या होगी, सासादन अथवा मिथ्याद्रष्टि होगा तो तीनो अशुभ लेश्या होगी।
*०८) कुभोगभूमि निवृत्यपर्याप्तक*
        तीनो अशुभ लेश्या–कृष्ण, नील, कापोत
*नोट* यहा जीव मिथ्यात्व सहित ही जन्म लेता है।
*०९) कुभोगभूमि पर्याप्तक*         पीत लेश्या
*१०) अन्तरद्वीपज मल्लेच्छ* 
         कृष्ण, नील, कापोत,पीत
*११) कर्मभूमि मल्लेच्छ* (पाँच मल्लेच्छ खण्ड)
         *सभी छहो लेश्या*
*१२) विद्याधरो पर्याप्तापर्याप्त* सभी छहो लेश्या

✍️ म्लेच्छ खण्ड के मनुष्यों को सम्यग्दर्शन ? :-
हाँ हो सकता है, दिग्विजय के लिए गये हुए चक्रवर्ती के स्कन्धावार (कटक सेना) के साथ जो म्लेच्छ राजा आदिक आर्यखण्ड में आ जाते हैं, और उनका यहाँ (आर्यखण्ड) वालों के साथ विवाहादि सम्बन्ध हो जाता है, तो उनके संयम धारण करने में कोई विरोध नहीं है।
अथवा चक्रवर्ती आदि को विवाही गई म्लेच्छ कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न हुई सन्तान की मातृपक्ष की अपेक्षा यहाँ  ‘अकर्मभूमिज’  पद से विवक्षा की गई है, क्योंकि अकर्मभूमिज सन्तान को दीक्षा लेने की योग्यता का निषेध नहीं पाया जाता है *(ध.पु)*
अन्तर्द्वीपों में रहने वाले म्लेच्छों को भी सम्यग्दर्शन होता है, वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं।   *(ति. प. 4/2595)*

✍️ पाँच वर्ष के कर्मभूमि बच्चे को सम्यक्त्व मार्गणा का कौन-कौन सा स्थान हो सकता है?*
पाँच वर्ष के कर्मभूमि बच्चे को सम्यक्त्व मार्गणा के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मिथ्यात्व, क्षयोपशम और क्षायिक ये चार सम्यक्त्व हो सकते है।
*मिथ्यात्व हो सकता है* क्योकी जन्म मिथ्यात्व सहित ही होता है।
*सासादन नही हो सकता* क्योकि औपशमिक नही हो सकता तो सासादन भी नही होगा।
*औपशमिक सम्यक्त्व नही होगा* क्योकी आठ वर्ष अंतरमुहूर्तं मे ही होता है, तथा साथ लेकर भी नही आया हो सकता क्योकी औपशमिक का अधिकत्तम काल अन्तरमुहूर्त है।
*प्रथमोपशम सम्यक भी नही हो सकता है*
*द्वितीयोपशम सम्यक भी नही हो सकता है*
*सम्यक्त्व मिथ्यात्व हो सकता है* जैसे देवगति का जीव क्षायोपशमिक लेकर यहा आए और पाँच वर्ष का होने पर क्षायोपशमिक छुटकर तीसरे सम्यक्त्व मिथ्यात्व गुणस्थान मे आ सकता है।
*क्षयोपशम सम्यक्त्व* उत्पत्ती अपेक्षा नहीं होता, लेकिन साथ लेकर आने की अपेक्षा हो सकता है।
*क्षायिक सम्यक्त्व* हो सकता है क्योकि साथ लेकर आया हो सकता है।

*✍️ यदि पाँच वर्ष का बालक स्त्री या नपुंसक है तो उसके सम्यक्तव मार्गणा का कौन सा भेद होगा*
पाँच वर्ष का बालक स्त्री या नपुंसक है तो उसके मात्र मिथ्यात्व ही होगा, क्योकि सम्यग्द्रष्टि स्त्री तथा नपुंसक नही बनते।

◆ यादि पाँच वर्ष का बालक सादि मिथ्यादृष्टि है तो उसके सम्यक मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आने पर वह सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान तथा सम्यक प्रकृति का उदय आ जावे वह क्षयोपशम सम्यग्द्रष्टि बन सकता है, लेकिन उपशम सम्यग्द्रष्टि नही बन सकता, क्योकि उपशम सम्यग्द्रर्शन की प्राप्ति के लिए कम से कम आठ वर्ष अंतरमुहूर्त की उम्र होना जरुरी है।
इसी प्रकार सासादन सम्यग्द्रष्टि भी नही बन सकता क्योकी उपशम सम्यक्त्व के काल मे से ही उत्कृष्ठ छ्ह आवली जघन्य एक समय रहने पर ही सासादन सम्यक्त्व होता है।
*इसी प्रकार आठ वर्ष अंतरमुहूर्त की आयु वाले कर्म भूमि मनुष्यो को जानना चाहिए।*
*विशेषता* यह है कि इनके निर्वत्यपर्याप्तक अवस्था मे सासादन सम्यक्त्व हो सकता है, क्योकि सासादन मे मरण करके नरक को छोडकर बाकी तीन गतियो मे जीव जा सकता है।
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*◆ भोगभूमि के पाँच वर्ष के बालक-बालिका के सम्यक मार्गणा कौन कौन से स्थान हो सकते है*
भोगभूमि का पाँच वर्ष के बालक या बालिका के क्षायिक सम्यक्त्व को छोडकर शेष पाँचो स्थानों हो सकते है। तथा केवल बालक के साथ लेकर आने की अपेक्षा से क्षायिक सम्यक्त्व भी हो सकने के कारण सभी छहो भेद भी हो सकते है।

*◆ पाँच सम्यक्त्व होने का विश्लेषण :-*
मिथ्यात्व के साथ तो जन्म होता ही है। तथा उत्कृष्ठ भोगभूमि मे 21 दिन मे, मध्य भोगभूमि मे 35 दिन मे तथा जघन्य भोगभूमि मे 49 दिन मे प्रथमोपश्म सम्यक्त्व उत्पन्न करने की योग्यता आ जाती है।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व छुटने के बाद जीव सासादन मे भी आ सकता है, तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व बदलकर क्षायोपशमिक भी हो सकता है।
क्षायोपशमिक से गिरकर जीव सम्यग्मिथ्यात्व हो सकता है। अगर जीव सादि मिथ्याद्रष्टि है तो भी सम्यग्मिथ्यात्व हो सकता है।
*विशेष* भोगभूमि के बालक के साथ लेकर आने की अपेक्षा से क्षायिक सम्यक्त्व भी हो सकता है।

*✍️ पंचम काल के पुरुष अथवा स्त्रीयो को  सम्यक्त्व मार्गणा के भेद :-
*मिथ्यात्व* हो सकता है 
*सासादन*  हो सकता है
*सम्यग्मिथ्यात्व* हो सकता है। 
*औपशमिक* हो सकता है। 
*क्षायोपशमिक* हो सकता है। 
*क्षायिक सम्यक्त्व* नही हो सकता

*✍️ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य सैनी होते है?*
हॉ सैनी होते है। *(द्रव्यसंग्रह टीका 12 वी गाथा)*
मनोबल प्राण द्रव्यमन और भावमन दो प्रकार का होता है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य के भावमन तो है क्योकी *नोइन्द्रियवरण कर्म का क्षयोपशम* रुप भावमन पाया जाता है इसलिए सैनी कहा गया है, लेकिन द्रव्यमन के अभाव मे वे अपना मनः संवंधी काम करने मे समर्थ नही होते है। मनःपर्याप्ति पूर्ण होने पर ही द्रव्यमन की पूर्णता होती है।

*✍️ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य कहाँ कहाँ पाए जाते है?*
*(गो.जी.जी-92)*  *(भ.आ.विजयोदिया टीका)*
कर्मभूमियाँ स्त्रीयो की कांख, योनि स्थान, स्तनो के मूल मे तथा चक्रवर्ती की पटरानी के सिवाए अन्य स्त्रीयो के मूत्र, विष्टा आदि अशुचि स्थानो मे लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य उत्पन्न होते है। अर्थात स्त्रीयो के गुप्तांगो मे उत्पन्न होते है।
चक्रवर्ती, बलभद्र आदि बडे-बडे राजाओं की सेना जहाँ मल मूत्र क्षेपण करती है ऐसे स्थानो पर वीर्य, नाक का मल, कफ, कान और दांत का मल तथा अत्यन्त अपवित्र प्रदेश इनमे तत्काल सम्मूर्च्छन मनुष्य उत्पन्न होते है।
∆ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य यदि वे पर्याप्त होकर कबूतर के आकार के बराबर अपना शरीर बना ले तो तीन लोक मे भी नही समाएगे (असंख्यात है)
*विशेष* 
*०१)* भोगभूमि तथा म्लेच्छ खण्ड मे लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य नही होते है।
*०२)* लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य का पल्य के असंख्यात वे भाग प्रमाण काल तक अंतर भी पडता है। अर्थात इतने समय तक कोई लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य ना हो      *(गो.जी.143)*
*०३)* गति अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्तक जीव देव और नारक गति मे भी उत्पन्न नही होते है।

*✍️ क्या सभी मनुष्यो के दस प्राण होते है?*
नही, सभी मनुष्यो के दस प्राण नही होते है।
पर्याप्ति पूर्ण होने पर ही दस प्राण पाए जाते है। चाहे वो गर्भ मे स्थित मनुष्य हो
∆ चाहे कोई गुंगा व्यक्ति हो तो भी उसके वचनबल होता है, क्योकि उसके स्वर नामकर्म का उदय तो होता ही है। स्वर नामकर्म का उदय दो इन्द्रिय जीवो के शुरू हो जाता है।
∆ पागल व्यक्ति के भी मनोबल प्राण होता है क्योकि उसके अनिइन्द्रियवरण कर्म का क्षयोपशम पाय जाता है।
∆ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य के सात प्राण ही पाए जाते है, क्योकि वे पर्याप्ति पूर्ण होने से पहले मरण को प्राप्त हो जाते है। (मनबल, वचनबल, श्वासोच्छवास प्राण नही होते है)
∆ निवृत्यापर्याप्तक मनुष्यो के सात प्राण पाए जाते है, क्योकी श्वासोच्छवास आदि पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना श्वासोच्छवास प्राण आदि प्राण नही होते है।
*नोट* गूंगे, पागल आदि व्यक्तियो के इन्द्रियो की विकलता (सही रचना नही) होने के कारण वे अपना काम नही कर पाती है। 

*✍️ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य के इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नही होती है अतः उनके इन्द्रिय प्राण कैसे हो सकते है*
पाँच इन्द्रिय प्राण द्रव्येन्द्रिय अपेक्षा नही होते,आपितु भावेन्द्रिय अपेक्षा होते है। इसलिए लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य के पाँचो इन्द्रियवरण का क्षयोपशम होता है इसलिए पाचो इन्द्रिय प्राण होते है। 
(आयु और काय प्राण उदय होने से होते है)
*नोट* इसी प्रकार सभी लब्ध्यपर्याप्तक / निवृत्यापर्याप्तक तथा कार्मण काययोग जीवो के जानना चाहिए।

*✍️ मनुष्यो में ध्यान :-
            *मनुष्यो मे                      ध्यान*
*1. कर्मभूमि पर्याप्तक*    सभी 16 ध्यान
*2. कर्मभूमि निवृत्यापर्याप्तक* 12 ध्यान (आर्त 4, रौद्रध्यान 4, धर्मध्यान 4)
आहारक मिश्न की अपेक्षा तीसरा चौथा धर्मध्यान
*3. भोगभूमियाँ*  10 ध्यान (आर्त 4, रौद्रध्यान 4, धर्मध्यान 2)
*4. विद्याधर (विद्या सहित)*  11 ध्यान (आर्त 4, रौद्रध्यान 4, धर्मध्यान 3)
*5. विद्याधर (विद्या छोड़कर)*  सभी 16 ध्यान 
*6. म्लेच्छ मनुष्यो के*  8 ध्यान (आर्तध्यान 4, रौद्रध्यान 4)
*7. लब्ध्यपर्याप्तक*  8 ध्यान (आर्तध्यान 4, रौद्रध्यान 4)

*✍️ भोगभूमिया जीवो मे गुणस्थान अपेक्षा से आस्रव के कितने प्रत्यय :-
*भोगभूमि मिथ्यात्व मे 52 आस्रव प्रत्यय* 
मिथ्यात्व 5, 
अविरति 12, 
कषाय 24 (नपुंसक वेद छोडकर), 
योग 11 प्रत्यय हैं (मन 4, वचन 4 काय के 3)
*◆ भोगभूमि सासादन मे 47 आस्रव प्रत्यय* 
मिथ्यात्व के भेद नही होते, 
अविरति के 12 हाते है, 
कषाय के 24 प्रत्यय होते हैं (नपुंसक वेद नही होता)
योग के 11 प्रत्यय होते है (वैक्रियिकद्विक और आहारकद्विक नही होते)
*◆ भगभूमि मिश्न गुणस्थान मे 41 आस्रव प्रत्यय* 
मिथ्यात्व 00, 
अविरति सभी 12 होगे,
कषाय 20 होगे (अनंतानुबंधी चतुष्क और नपुंसक वेद को छोडकर), 
योग के 9 प्रत्यय होगे (मन 4, वचन 4, औदारिक काययोग)
*◆ भोगभूमि चौथे गुणस्थान मे 43 आस्रव प्रत्यय* 
मिथ्यात्व 00, 
अविरति 12, 
कषाय 20, 
योग 11 (मन 4, वचन 4, अगर सम्यक्त्व लेकर आ रहा है तो काय के 3 आस्रव के प्रत्यय होते है)

*✍️ सामान्य मनुष्यो की अपेक्षा भोगभूमि मनुष्यो मे क्या विशेषता :-
  *सामान्य मनुष्य          भोगभूमि मनुष्य*
1. योग/15       आहारकद्विक नही होता
2. वेद/3           नपुंसकवेद नही होता
3. कषाय/25     नपुंसकवेद नोकषाय नही है।
4. ज्ञान/8          ज्ञान 6 होते है।
                        (मनःपर्यय,केवलञान नही होता)
5. संयम/7        असंयम ही होता है
6. दर्शन/4         दर्शन 3 (केवलदर्शत नही)
7. लेश्या/6       पर्याप्त अवस्था मे शुभ लेश्या
                              (निर्वत्यापर्याप्तक मे कापोत)
8. गुणस्थान/14   आदि के चार गुणस्थान
9. उपयोग/12     उपयोग 9 होते है।
         (मनःपर्ययज्ञान,केवलदर्शन, केवलज्ञान नही)
10. ध्यान/16        ध्यान 10 भेद होते है।
                            (धर्म 2, शुक्ल 4 नही होते)
11. आस्रव/57     आस्रव 54 प्रत्यय होते है।
                 (आहारकद्विक और नपुंसक नही होते)

*✍️ भोगभूमि जीवो को पर्याप्तक अवस्था मे अशुभ लेश्या क्यो नही होती हैं ?*
तीव्र कषाय का अभाव होने से भोगभूमियाँ जीवो के पर्याप्तक अवस्था मे अशुभ लेश्या नही होती है।
*(तत्त्वार्थसार २० टीका)*

*✍️ सामान्य मनुष्यो से लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यो मे क्या विशेषता है ?*
*लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य*
*०१) योग 2*     
कार्मण काययोग और औदारिक मिश्न काययोग
*०२) वेद 1*      
नपुंसक वेद (स्त्रीवेद और पुरुषवेद नही होता)
*०३) कषाय 23* 
स्त्रीवेद नोकषायऔर पुरुषवेद नोकषाय नही होती
*०४) ज्ञान 2* कुमतिज्ञान–कुश्रुतज्ञान होता है
(कुअवधिज्ञान और पाँचो सम्यक ज्ञान नही होते)
*०५) संयम 1* असंयम ही होता है।
*०६) दर्शन 2* चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन होता है
*०७) लेश्या 3* कृष्ण,नील,कापोत लेश्या होती है
*०८) सम्यक्त्व 1* मिथ्यात्व ही होता है।
*०९) गुणस्थान 1* मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।
*१०) पर्याप्ति ००*   पर्याप्तियाँ एक भी नही होती
*११) प्राण 7*     पाँचो इन्द्रिय प्राण, कायबल आयु प्राण होता है।
*१२) उपयोग 4* कुमति, कुश्रुत, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन होता है।
*१३) ध्यान 8*   आर्तध्यान 4, रौद्रध्यान 4 है।
*१४) आस्रव 2* कार्मणकाययोग, औदारिक मिश्र  काययोग होता है।

*✍️ सामान्य मनुष्यो से विद्याधरो मे विशेषताऍ*
विद्या छोडने के बाद विद्याधर मनुष्यो का सब कथन सामान्य मनुष्यो के समान ही जानना चाहिए।
*◆ अगर विद्याधर विद्या सहित हो तो–*
*०१) योग 11*  आहारकद्विक और वैक्रियकद्विक योग नही है।
*०२) ज्ञान 6* मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान नही होता।
*०३) संयम 2* असंयम और संयमासंयम है, बाकी पाँच नही है।
*०४) दर्शन 3* चक्षु, अचक्षु,अवधिदर्शन होता है (केवलदर्शन नही)
*०५) गुणस्थान 5* 1 से 5गुणस्थान तक होते है।
*०६) उपयोग 9*  मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान केवलदर्शन नही होते है।
*०७) ध्यान 11* आर्तध्यान 4, रौद्रध्यान 4, धर्मध्यान 3 होते है। (संस्थान विचय धर्मध्यान और चारो शुक्ल ध्यान नही होते है)
*०८) आस्रव 53* मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कषाय 25, योग 11 कुल 53 आस्रव के प्रत्यय है।
(योग मे आहारकद्विक व वैक्रियकद्विक नही होते)
अब चौबीस ठाणा मे मनुष्य गति मार्गणा पूर्ण हुआ 
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

Saturday, 25 January 2025

6. चौबीस ठाणा मे तिर्यंचगति मार्गणा

 *✍️ 06. चौबीस ठाणा मे तिर्यंचगति मार्गणा*

https://youtu.be/3XQJxYDGbro?si=iAdBgPFtQ1AKbhWU

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देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोडकर शेष सभी तिर्यंच कहलाते हैं। तिर्यंचो की गति को तिर्यंचगति कहते हैं। ये तिर्यंच मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त होते है, इनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) होती है। ये तिर्यंच निकृष्ट अज्ञानी होते है, इनमे अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाता है। 


*✍️तिर्यंचगति मे 24 स्थान*

*01) गति* 04 मे से 01 गति तिर्यंचगति, 

*02) इन्द्रिय* 05 मे 05 - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय

*03) काय* 06 मे से 06 काय – पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। 

*04) योग* 15 मे से 11 योग 

◆ मनोयोग 04 - सत्य, असत्य मनोयोग, उभय, अनुभय मनोयोग, 

◆ वचनयोग 04 - सत्य, असत्य वचनयोग, उभय, अनुभय वचनयोग, 

◆ काययोग 03 - औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग,  कार्मण काययोग 

*(वैक्रियिकद्विक तथा आहारकद्विक नहीं होतें हैं)*


*05) वेद* 03 मे से 03 – स्त्री, पुरुष, नपुंसकवेद 

👉एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव, सम्मूर्च्छन पर्याप्त पंचेन्द्रिय तथा लब्धयपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी नपुंसकवेद वाले ही होते हैं। 

*06) कषाय* 25 मे से 25 कषाय होती है 

अनन्तानुबन्धी –       क्रोध-मान-माया-लोभ 

अप्रत्याख्यानावरण – क्रोध-मान-माया-लोभ 

प्रत्याख्यानावरण –    क्रोध-मान-माया-लोभ 

संज्वलन –             क्रोध-मान-माया-लोभ 

नोकषाय – हास्य-रति-अरति, शोक-भय-जुगुप्सा, स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद 

👉अगर सम्यग्द्रष्ठि है अनंतानुबन्धी चतुष्क कम हो जाएगी, पंचम गुणस्थानवर्ती है तो अनंतानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क कम हो जाएगी 


*07) ज्ञान* 08 मे से 06 भेद 

◆ कुज्ञान 03– कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान 

◆ सुज्ञान 03– मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान 

(मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं होता है) 

*08) संयम* 07 मे से 02 भेद असंयम, संयमासंयम 

*09) दर्शन* 04 मे से 03 भेद - चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन 

*10) लेश्या* 06 मे से 06 भेद - द्रव्य और भाव दोनों  

कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल लेश्या 

👉तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं। 


*11) भव्यक्त्व* 02 मे से 02 भेद- भव्य और अभव्य  

*12) सम्यक्त्व* 06 मे से 06 - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक (क्षायिक सम्यकत्व भोगभूमि की अपेक्षा होता है) 

👉तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में 04 सम्यक्त्व होते हैं - मिथ्यात्व, सासादन, क्षयोपशम, क्षायिक सम्यक्त्व। 


*13) संज्ञी* 02 मे से 02 भेद - संज्ञी, असंज्ञी 

*14) आहारक* 02 मे से 02 - आहारक, अनाहारक 

*15) गुणस्थान* 14 मे से 05 भेद - मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत   

👉भोगभूमि तिर्यंच के चार गुणस्थान, कर्मभूमि तिर्यंचों के पाँच गुणस्थान होते है। 


*16) जीवसमास* 19 मे से 19 

पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, जलकायिक सूक्ष्म-बादर, अग्निकायिक सूक्ष्म-बादर, वायुकायिक सूक्ष्म-बादर, नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय।

*17) पर्याप्ति* 06 मे से 06 - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा, मन:पर्याप्ति 


*18) प्राण* 10 मे से 10 भेद 

एकेन्द्रिय पर्याप्त के 04 प्राण (स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास) 

द्वीन्द्रिय पर्याप्त 06 प्राण (इन्द्रिय 02, वचनबल,  कायबल, आयु, श्वासोच्छवास) 

त्रीन्द्रिय पर्याप्त 07 प्राण (इन्द्रिय 03, वचनबल,  कायबल, आयु, श्वासोच्छवास) 

चतुरिन्द्रिय पर्याप्त 08 प्राण (इन्द्रिय 04, वचनबल,  कायबल, आयु, श्वासोच्छवास) 

असंज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त 09 प्राण (इन्द्रिय 05, वचनबल,  कायबल, आयु, श्वासोच्छवास) 

संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त 10 प्राण (इन्द्रिय 05, बल 03, आयु, श्वासोच्छवास) 

👉सभी जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में श्वासोच्छवास, वचनबल तथा मनोबल नही होते हैं। 


*19) संज्ञा* 04 मे 04 भेद - आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा,  मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा 

*20) उपयोग* 12 मे से 09 भेद - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान,चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन 


*21) ध्यान* 16 मे से 11 

◆ आर्तध्यान 04 - इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना, निदान 

◆ रौद्रध्यान 04 - हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी 

◆ धर्मध्यान 03 - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय (संस्थानविचय धर्मध्यान, चारो शुक्लध्यान नही होते) 


*22) आस्रव* 57 मे से 53 भेद 

◆ मिथ्यात्व 05  विपरीत, एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान 

◆ अविरति 12- पाँचो इन्द्रिय और मन को वश में नही करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना 

◆ कषाय 25 - अनन्तानुबन्धी आदि 16, नोकषाय 09  

◆ योग 11- मनोयोग 04, वचनयोग 04, काययोग 03 (औदारिकद्विक काययोग, कार्मण काययोग) 


*23) जाति* 84 लाख मे से 62 लाख जातियाँ तिर्यंचो में होती है।

*24) कुल -* 199 –1/2 लाख करोड मे से 134 –1/2 लाख करोड़ कुल होते है 


*✍️ तिर्यंंच के प्रकार :-*

तिर्यंचगति के जीव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय के भेद से, शम्बूक, जू, मच्छर आदि विकलेन्द्रिय के भेद से, जलचर, थलचर, नभचर, द्विपद, चतुष्पदादि पंचेन्द्रिय के भेद से बहुत प्रकार के होते हैं।

*(पंचस्तिकाय संग्रह 118)* 

∆ जन्म की अपेक्षा तिर्यंच दो प्रकार के होते हैं- गर्भज और सम्मूर्च्छन जन्म वाले *(कार्तिकेय अनु. 130)*

ऐकेन्द्रि से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीवो का जन्म सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है।


*✍️ तिर्यंच जीवो का स्थान :-*

पन्द्रह कर्मभूमियों में भी तिर्यंच रहते हैं *(05 भरत, 05 ऐरावत, 05 विदेह)* ढाईद्वीप की भोगभूमिये मे भी रहते है तथा ढाईद्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप में स्थित सभी भोग भूमियों तथा आधे स्वयंभूरमण द्वीप व स्वयंभूरमण समुद्र में तिर्यंच ही रहते हैं। *विशेष रूप से एकेन्द्रिय तिर्यंच सर्वलोक में ठसाठस भरे हुए हैं।*


*✍️ नपुंसक वेद वाले तिर्यंच :-*

एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव, सम्मूर्च्छन पर्याप्त पंचेन्द्रिय तथा लब्धयपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी नपुंसकवेद वाले ही होते हैं।      *(त. सू 2/50)*


*✍️तिर्यंंचो की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में लेश्याएँ :-*

तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं क्योंकि पीत और पदम लेश्या वाले देव यदि तिर्यंचो में उत्पन्न होते हैं तो नियम से उनकी शुभ लेश्याएँ नष्ट हो जाती हैं, इसलिए तिर्यंचो के निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं। *शुभ लेश्या तिर्यंचों के बाद मे हो सकती है*              *(धवला 2/473)*


*✍️ तिर्यंचो में क्षायिकसम्यग्दर्शन अपेक्षा :-*

निष्ठापन की अपेक्षा होता है, शुरुवात कर्मभूमिया का मनुष्य करेगा और क्षायिकसम्यक्त्व की प्रक्रिया के चलते बीच मे यदि मरण हो जाए और मरण करके यदि तिर्यंच मे गया तो  "क्योकि मिथ्यात्व अवस्था मे तिर्यंचायु बांध ली होगी"  भोगभूमि का तिर्यंच बनेगा और भोगभूमि का तिर्यंच बनकर क्षायिक सम्यक्त्व पूर्ण कर लेता है यानि क्षायिक की पूर्णता करेगा, यह निष्ठापन की अपेक्षा होता है। 

*(कर्मभूमि तिर्यंचो मे किसी भी अपेक्षा से क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है)*


*👉 क्या बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि मनुष्य के समान बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि तिर्यंच भी भोगभूमि में जा सकता है ?*

∆ नहीं, तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रतिष्ठापक नहीं होता और न कर्मभूमिया तिर्यंचो को क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है, क्योंकि, क्षायिक-सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में करते हैं। तथा *जिसने तिर्यंच, मनुष्य और नरकायु को बाँध लिया है वह मिथ्यात्व के साथ ही मरणकर तिर्यंचादि गतियों में जाता है* क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य *(बद्धायुष्क मनुष्य को छोड्‌कर)* और तिर्यंच नियम से स्वर्ग में ही जाते हैं।

अर्थात जिन्होने मनुष्य और तिर्यंच ने आयु नही बांधी हो और सम्यक दर्शन प्राप्त करेगे वे देवायु को प्राप्त करते है, अन्य कही नही जाते।


*✍️ बद्धायुष्क :-*

जिसने अगले भव की आयु बाँध ली वह बद्धायुष्क कहलाता है। बद्धायुष्क का कथन क्षायिक एवं कृतकृत्यवेदक की मुख्यता से ही किया गया है ।


*✍️ बद्धायुष्क मुनि भोगभूमिया तिर्यंच बन सकतते है ?*

∆ पहली बात जो मुनि होते है वे एकमात्र देवायु ही हो सकती है, अन्य आयु उनके नही बंधती।

∆ नहीं, जिस मनुष्य ने देवायु को छोड्‌कर शेष किसी भी आयु का बंध कर लिया है, वह अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता है, ऐसा नियम है। इसलिए बद्धायुष्क मुनि भी भोगभूमि में उत्पन्न नहीं हो सकता है। *(गो. क. 334)* 

∆ इसी प्रकार देवायु को छोड़कर शेष आयु बाँधने वाला तिर्यंच भी अणुव्रत धारण नहीं कर सकता है।


*👉 मत्स्य भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो सकता है ?*

◆ नहीं हो सकते, क्योकी मत्स्य नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं और कर्मभूमि के तिर्यंचो को क्षायिक सम्यक्त्व नही होता, एकमात्र भोगभूमि के तिर्यंचो को क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है वो भी इस प्रकार से कि यहा से शुरुवात करके या परिपूर्ण करके गया हो। *(ति.प.4/328)* भोगभूमि मे जलचर जीव नही पाए जाते केवल थलचर और नभचर दो ही प्रकार के तिर्यंच जीव है। 

*नोट* इसी प्रकार सम्मूर्च्छन मत्स्य के प्रथमोपशम सम्यक्त्व भी नहीं होता है क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व गर्भज जीवों के ही होता है। *(धवला पु)*

यहा केवल क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो सकता है।


*✍️ सम्मूर्च्छन तिर्यंचो के सम्यक्त्व :-*

यहा उत्पन्न होने की अपेक्षा नही रहने को अपेक्षा है।

◆ सम्मूर्च्छन तिर्यंचो के चार सम्यक्त्व हो सकते हैं-

मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व। *सामान्य तिर्यंच चार प्रकार के होते है*

*∆ मिथ्यात्व* होने मे कोई बाधा नही है,

*∆ सासादन* कोई सासादन से मरण करके आया हो, क्योकि सासादन से मरण करके नरकगति को छोडकर बाकी तीनो गतियो मे जा सकते है।

*∆ क्षायोपशमिक* भी यहा उत्पन्न हो सकता है।

*∆ सम्यग्मिथ्यात्व* भी यहा हो सकता है।

भोगभूमि में सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंच नहीं होते हैं

एकमात्र गर्भज तिर्यंच होते है। कर्मभूमि मे गर्भज और सम्मूर्च्छन दोनों प्रकार के तिर्यंच होते है।


◆ महामत्स्य के सासदन भी उत्पन्न नही हो सकता, क्योकि सासादन तो उपशम से गिरकर होता है, ओर सम्मूर्च्छन जीवो के उपशम सम्यक्त्व नही होता है। लेकिन साथ लेकर आ सकता है।

महामत्स्य के मिथ्यात्व हो सकता है, सम्यग्मिथ्यात्व हो सकता है और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी हो सकता है।

भोगभूमि मे सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंचो नही होते है, इसलिए सम्मूर्च्छन तिर्यंचो में क्षायिक नहीं कहा है । 


*👉 यदि सम्मूर्च्छन जीवों के उपशम-सम्यक्त्व नहीं होता है, तो उनके सासादन-सम्यक्त्व कैसे हो सकता है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व के बिना सासादन सम्यक्त्व नहीं हो सकता है?*

∆ यद्यपि सम्मूर्च्छन जीवों के प्रथमोपशम सम्यक्त्व नहीं होता है फिर भी पूर्व भव से अर्थात् कोई मनुष्य-तिर्यंच सासादन-सम्यक्त्व को लेकर सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होता है तो उसके सासादन-सम्यक्त्व का अस्तित्व बन जाता है।

इसी प्रकार से महामत्स्य के भी हो सकता है लेकिन उसी पर्याय मे सासादन उत्पन्न नही होता है।


*👉 क्या तिर्यंच की निर्वृत्यपर्याप्तक-अवस्था में भी सभी सम्यक्त्व होते हैं?*

◆ नहीं, तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्याप्तक-अवस्था में चार सम्यक्त्व होते हैं- मिथ्यात्व, सासादन, क्षयोपशम, क्षायिक सम्यक्त्व। उपशम और मिश्र नहीं होते हैं।

*∆ सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र)* नही हो सकता क्योकी इस गुणस्थान मे मरण नही होता है।

*∆ औपशमिक* नही हो सकता क्योकी उपशम मे मरण नही होता है।

*∆ क्षायोपशमिक* कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा हो सकता है।

*∆ क्षायिक* हो सकता है भोगभूमि के तिर्यच अपेक्षा

*नोट* क्षयोपशम सम्यक्त्व भोगभूमि में जाते समय कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा कहा गया है। क्षायिक- सम्यक्त्व भोगभूमि की अपेक्षा है।


*👉 किन-किन तिर्यंचो के पंचम गुणस्थान नहीं होता है?*

भोगभूमि तिर्यंच के चार गुणस्थान, कर्मभूमि तिर्यंचों के पाँच गुणस्थान होते है।

*०१)* एकेन्द्रियादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक जीवों के पाँचवा गुणस्थान नही होता केवल पहला गुणस्थान

*०२)* संज्ञी पंचेन्द्रिय में भी जो लब्ध्यपर्यातक जीव है  उनके भी पाँचवा गुणस्थान नही होता है।

*०३)* भोगभूमिज तथा कुभोगभूमिज तिर्यंच जीवों के पाँचवा गुणस्थान नही होता है। चार तक होते है।

*विशेष* (हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से भगवान आदिनाथ स्वामी के समय में भोगभूमि में ही तीर्थंकर, संयमी, संयमासंयमी आदि हुए थे)

*०४)*  म्लेच्छखण्ड में तिर्यंचो में पंचम गुणस्थान प्राप्त करने की योग्यता नहीं है ।

*नोट* म्लेच्छखण्ड से यहाँ आकर हाथी-घोड़ा आदि कोई पंचमगुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं। (मनुष्यों के समान तिर्यंचो का कथन आगम में नहीं आता है)


*👉 क्या भोगभूमि में किसी भी अपेक्षा पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यंच नहीं हो सकते हैं?*

जिसने भोगभूमि मे जन्म लिया हो उसके पंचम गुणस्थान नही होता है। 

लेकिन बैर के सम्बन्ध से देवों अथवा दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्यंचो का सब जगह सद्‌भाव होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए वहाँ पर अर्थात् भोग-भूमि में भी पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यंच का अस्तित्व बन जाता है  *(धवला 1/404)*

*नोट* इसी प्रकार संयतासंयत मनुष्य व संयत मुनि भी पाये जा सकते हैं ।


*👉 क्या क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंचो के पांचवा संयतासंयत गुणस्थान हो सकता है?*

◆ नहीं हो सकता, क्योकि क्षायिक सम्यक्त्व कर्मभूमि के जीवो में होता ही नही है, तथा भोगभूमि के तिर्यंचो मे ले जाने की अपेक्षा से होता तो है लेकिन भोगभूमि मे पंचम गुणस्थान नही होता है, भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों की उत्पत्ति नहीं होती है, वहाँ पर अणुव्रत होने में आगम से विरोध है *(ध.1/405)*


*✍️ तिर्यंचो के प्राण*

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*तिर्यंच                   प्राण*

               *निर्वृत्यपर्याप्त    पर्याप्त*

*एकेन्द्रिय*       3            4 (स्पर्शनेन्द्रिय, आयु

                                            कायबल, श्वासो.)

*द्वीन्द्रिय*         4          6 (2 इन्द्रिय, वचनबल

                                      कायबल,श्वासो.,आयु)

*त्रीन्द्रिय*         5            7 (3 इन्द्रिय, 2 बल, 

                                                  आयु, श्वासो.)

*चतुरिन्द्रिय*     6           8 (4 इन्द्रिय, 2 बल 

                                                  आयु, श्वासो.)

*असैनी पचेन्द्रिय* 7       9 (5 इन्द्रिय, 2 बल 

                                                  आयु, श्वासो.)

*सैनी पंचेन्द्रिय*   7         10 (5 इन्द्रिय, 3 बल 

                                                  आयु, श्वासो.)

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 *नोट* सभी जीवों के निर्वृत्यपर्यासक अवस्था में श्वासोच्छवास, वचनबल तथा मनोबल नही होते हैं।

▪️असैनी पर्यन्त जीवों के मनोबल नहीं होता है।


*✍️ सम्यग्दृष्टि तिर्यंचो के आस्रव के प्रत्यय :-*

*1. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती तिर्यंचो के आस्रव के 44 प्रत्यय हो सकते हैं* मिथ्यात्व 00, अविरति 12, कषाय 21 (अनन्तानुबन्धी बिना) तथा 11 योग (4 मनो. 4 वचन. 4 काय.) औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग भोगभूमि की अपेक्षा बन जायेंगे।

∆ यहा कोई जीव क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है और भोगभूमि मे जाता है तो कार्मण काययोग तो होगा, तथा औदारीक मिश्र भी होगा तथा औदारिक काययोग भी होगा।

(भोगभूमि कि अपेक्षा से यहा वैक्रियकद्विक और आहारकद्विक ये चार योग नही होते है)

*2. चौथा गुणस्थानवर्ती सम्यग्द्रष्टि तिर्यंच देवगति मे जाने की अपेक्षा आस्रव के 42 प्रत्यय होते है*

(मिथ्यात्व 00, अविरति 12, कषाय 21, योग 9 (मन 4, वचन 4, औदारिक काययोग)

*3. मिथ्याद्रष्टि तिर्यच के आस्रव के ५३ प्रत्यय होते है* (मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कषाय 25, योग 11)


*✍️ तिर्यंचो की बासठ लाख जातियाँ :-*

नित्यनिगोद        7 लाख   

इतरनिगोद         7 लाख 

पृथ्वीकायिक      7 लाख 

जलकायिक        7 लाख 

अग्निकायिक      7 लाख 

वायुकायिक        7 लाख 

वनस्पतिकायिक  10 लाख  

द्वीन्द्रिय                 2 लाख 

त्रीन्द्रिय                 2 लाख,          

चतुरिन्द्रिय             2 लाख

पंचेन्द्रिय तिर्यंच      4 लाख


*✍️ तिर्यंचो के 134.5 लाख करोड़ :-*

पृथ्वीकायिक       22 लाख करोड़, 

जलकायिक          7 लाख करोड़, 

अग्निकायिक        3 लाख करोड़, 

वायुकायिक          7 लाख करोड़, 

वनस्पतिकायिक   28 लाख करोड़, 

द्वीन्द्रिय                7 लाख करोड़, 

त्रीन्द्रिय                8 लाख करोड़, 

चतुरिन्द्रिय            9 लाख करोड़, 

जलचर          12.5 लाख करोड़, 

थलचर              19 लाख करोड़,

नभचर               12 लाख करोड़,


*✍️ भोगभूमिया तिर्यंंच के 31 लाख करोड़ कुल :-*

थलचर    19 लाख करोड़ कुल

नभचर     12 लाख करोड़ कुल

भोगभूमि में एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं। इसलिए उनके कुल ग्रहण नहीं किये है।

*नोट* यद्यपि वहाँ एकेन्द्रिय जीव होते हैं, लेकिन वे भोगभूमिया नहीं होते हैं, सामान्य एकेन्द्रिय हैं, इसलिए यहाँ उनके कुलों का ग्रहण नहीं किया है। 

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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*


Tuesday, 14 January 2025

एक जीव अपेक्षा गुणस्थानो का काल

*✍️ एक जीव अपेक्षा गुणस्थानो का काल*
https://youtu.be/0J0qMbTMdGY?si=4VNNjjiY-kh7wVb2
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मोह और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अंतरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार चढ़ाव का नाम गुणस्थान है। परिणाम यद्यपि अनंत हैं, परंतु उत्कृष्ट मलिन परिणामों से लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों तक तथा उससे ऊपर जघन्य वीतराग परिणाम से लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणाम तक की अनंतों वृद्धियों के क्रम को वक्तव्य बनाने के लिए उनको 14 श्रेणियों में विभाजित किया गया है। वे 14 गुणस्थान कहलाते हैं। 

मिथ्यादृष्टि, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत,अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांत कषाय, क्षीणकषाय, सयोग केवली, अयोग केवली । 
यहां हम जीव का जो गुणस्थान है वह जीव उस गुणस्थान में कितने समय तक रह सकता है उसके बारे मे जानेगें

*01. मिथ्यात्व गुणस्थान :-*
जघन्य - अन्तर्मुहूर्त,  उत्कृष्ट - अनादि अनंत, अनादि सांत, सादि सान्त 
∆ सादि मिथ्याद्रष्टि का उत्कृष्ठ काल किंचित न्युन अर्द्धपुदग्ल परावर्तन काल
∆ अभव्य जीवो का अनादि अनंत
∆ अभव्य सम भव्य जीवो का अनादि अनंत
👉 अनादि अनंत वाले जीवो कभी सम्यक्त्व को प्राप्त नही होगे इसलिए इनका मिथ्यात्व कभी छुटता नही

*02. सासादन सम्यक्तव गुणस्थान :-*
जघन्य 01 समय, उत्कृष्ट 06 आवली

*03. सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान :-*
जघन्य अन्तर्मुहूर्त (लघु अन्तर्मुहूर्त)  
उत्कृष्ट - अन्तर्मुहूर्त (02 समय कम 01 मुहूर्त)

*04. अविरत गुणस्थान :-*
*◆ उपशम सम्यग्द्रष्टि :-*
जघन्य से छह आवली कम एक अन्तर्मुहूर्त
उत्कृष्ट से यथायोग्य अन्तर्मुहूर्त
*◆ क्षयोपशम सम्यग्द्रष्टि :-*
जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से 66 सागर
*◆ क्षायिक सम्यग्द्रष्टि :-*
जघन्य से अन्तर्मुहूर्त
उत्कृष्ट से 09 अंतरमुहूर्त कम 01 पूर्व कोटी अधिक + एक समय कम 33 सागर

*05. देशविरत गुणस्थान :-*
जघन्य से अन्तर्मुहूर्त,  
उत्कृष्ट - मनुष्य अपेक्षा 08 वर्ष अंतरमुहूर्त कम 01 पूर्व कोटी
सम्मूर्च्छन तिर्यंच अपेक्षा उत्कृष्ठ 03 अन्तर्मुहूर्त कम 01 पूर्वकोटि  

*06. प्रमत्तसंयत गुणस्थान :-*
जघन्य से अंतर्मुहूर्त, मरण अपेक्षा 01 समय  
उत्कृष्ट - अंतर्मुहूर्त 

*07. अप्रमत्तसंयत :-*
जघन्य  मरण अपेक्षा 01 समय
उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त (06 वे गुणस्थान से आधा)  

*08. अपूर्वकरण गुणस्थान :-*
जघन्य मरण अपेक्षा 01 समय,  उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त
👉 विशेष - अपूर्वकरण गुणस्थान मे चढते समय प्रथम समय मे मरण नही होता दूसरे समय मे हो सकता है।

*09. अनिवृतिकरण गुणस्थान :-*
जघन्य मरण अपेक्षा 01 समय 
उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त

*10. सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान :-*
जघन्य - मरण अपेक्षा 01 समय 
उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त

*11. उपशान्तमोह गुणस्थान :-*
जघन्य - आयु क्षय के कारण 01 समय भी
उत्कृष्ट - अन्तर्मुहूर्त (02 क्षुद्रभव यानि 1/12 सेकण्ड)

*12. क्षीणमोह गुणस्थान :-*
काल - अन्तर्मुहूर्त (04 क्षुद्रभव (1/6 सेकण्ड)

*13. सयोगकेवली :-*
जघन्य - अन्तर्मुहूर्त
उत्कृष्ट - 08 वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम 01 पूर्व कोटी

*14. अयोगकेवली गुणस्थान :-*
05 ह्रस्व अक्षरों अ, इ, उ, ऋ, लृ का उच्चारण काल जितना
एक जीव अपेक्षा गुणस्थानो का काल का वर्णन पूर्ण हुआ 
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*



Sunday, 12 January 2025

मध्यलोक

 *✍️ मध्यलोक*

https://youtu.be/HM7UgD_e6Vo?si=dQb_g8Met2NMaHAU

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अनंत अलोकाकाश के मध्य मे लोकाकाश स्थित है। यह 343 धन राजू का है। लोकाकाश के तीन भाग उर्ध्वलोक, मध्यलोक व अधोलोक है। उर्ध्वलोक और अधोलोक के मध्य में स्थित होने के कारण इसे मध्यलोक कहते है। तिरछा फैला हुआ होने के कारण इसे तिर्यग्लोक भी कहते है। इसकी स्थिति त्रस लोक की मुख्यता से यह एक राजू लम्बा, एक राजू चौड़ा और ऊँचाई सुमेरु पर्वत समान एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। विशेष रुप से पूर्व पश्चिम एक राजू तथा उत्तर दक्षिण सात राजू है। यह झालर के समान है।

मध्यलोक में द्वीप समुद्रो की संख्या 25 कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों (अढाई उद्धार सागर) के रोमों के समय प्रमाण संख्या है अर्थात असंख्यात द्वीप और असख्यात समुद्र है। सब द्वीप-समुद्र एक दूसरे को वेष्टित (घेरे) किए हुए हैं, वलयाकार (चूड़ी के समान आकार के) गोलाकार तथा दूने-दूने विस्तार वाले है। इनमें सबसे पहला जम्बूद्वीप और अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र है। इनमें से जो पहला द्वीप वह थाली के समान आकार का तथा अन्य सभी द्वीप और समुद्र चूडी के आकार के है। सभी द्वीप चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित है और सभी समुद्र चित्रा पृथ्वी को खंडित कर वज्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित हैं अर्थात् 1000 योजन गहरे हैं। 


*✍️ 32 द्वीप 32 समुद्रो के नाम* 

इस मध्यलोक मे द्वीप और समुद्र तो असंख्यात है, लेकिन हमारे पास नाम केवल संख्यात ही है इसलिए एक ही नाम के कई द्वीप और कई समुद्र भी है। आगम मे कुछ 32 द्वीप और 32 समुद्रो के नाम मिले है वे इस प्रकार से है– 

*✍️ प्रथम द्वीप और समुद्र से प्रारम्भ करके* 

01) जम्बूद्वीप               लवण समुद्र 

02) घातकीखण्ड द्वीप   कालोद समुद्र 

03) पुष्करवर द्वीप      पुष्करवर समुद्र 

04) वारुणीवर द्वीप     वारुणीवर समुद्र 

05) क्षीरवर द्वीप         क्षीरवर समुद्र 

06) घृतवर द्वीप          घृतवर समुद्र 

07) क्षौद्रवर द्वीप         क्षौद्रवर समुद्र 

08) नंदीश्वर द्वीप         नंदीश्वर समुद्र 

09) अरुणवर द्वीप       अरुणवर समुद्र 

10) अरुणाभास द्वीप    अरुणाभास समुद्र 

11) कुण्डलवर द्वीप      कुण्डलवर समुद्र 

12) शंखवर द्वीप           शंखवर समुद्र 

13)  रुचकवर द्वीप         रुचकवर समुद्र 

14)  भुजगवर द्वीप         भुजगवर समुद्र 

15) कुशवर द्वीप           कुशवर समुद्र 

16) क्रौंचवर द्वीप           क्रौंचवर समुद्र 


*✍️अन्तिम समुद्र से प्रारम्भ करके 16 द्वीप समुद्रों के नाम* 

01) स्वयंभूरमण समुद्र   स्वयंभूरमण द्वीप 

02) अहीन्द्रवर समुद्र    अहीन्द्रवर द्वीप 

03) देववर समुद्र       देववर द्वीप 

04) यक्षवर समुद्र      यक्षवर द्वीप 

05) भूतवर समुद्र      भूतवर द्वीप 

06) नागवर समुद्र      नागवर द्वीप 

07) वैडूर्य समुद्र         वैडूर्य द्वीप 

08) वज्रवर समुद्र       वज्रवर द्वीप 

09) कांचन समुद्र       कांचन द्वीप 

10) रुपयवर समुद्र      रुप्यवर द्वीप 

11) हिंगुल समुद्र        हिंगुल द्वीप 

12) अंजनवर समुद्र    अंजनवर द्वीप 

13) श्याम समुद्र         श्याम द्वीप 

14) सिंदूर समुद्र         सिंदूर द्वीप 

15) हरितालसमुद्र       हरिताल द्वीप 

16) मन:शिल समुद्र     मन:शिल द्वीप 


*✍️समुद्रो के जल का स्वाद*

लवण समुद्र, वारुणीवर समुद्र, घृतवर समुद्र और क्षीरवर समुद्र इन चारों का जल अपने नामों के अनुसार है अर्थात लवण का जल खारा, वारूणी का जल मद्य के समान, घृतवर का जल घी के समान, क्षीरवर का जल दूध के समान है। इसी क्षीरवर समुद्र के जल से तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। 

◆ कालोदधि समुद्र, पुष्करवर समुद्र और  स्वयम्भूरमण समुद्र इन तीनों के जल का स्वाद सामान्य जल के सदृश ही होता है। 

◆ शेष सभी समुद्रो (असंख्यात समुद्रो) का जल इक्षुरस यानि गन्ने के रस के समान मधुर है। 

◆ जलचर जीव केवल लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र में ही हैं अन्य किसी समुद्र में जलचर जीव नहीं है। 


*✍️पहला जम्बूद्वीप* 

मध्यलोक के बिल्कुल बीचोंबीच एक लाख योजन विस्तार वाला पहला जम्बूद्वीप है। यह थाली के आकार वाला द्वीप है। यहा अनादिनिधन जम्बू (जामुन) का वृक्ष है, जिसके कारण ही इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा। यह वृक्ष पृथ्वीकायिक है। यहा नाभी के समान सुमेरु पर्वत है। जम्बूद्वीप छ्ह कुलाचल से सात क्षेत्र हो जाते है। 

जम्बूद्वीप मे 02 सूर्य और 02 चन्द्रमा है। 

जम्बूद्वीप के स्वामी अनादर और सुस्थित व्यंतर देव है। 


*✍️ लवण समुद्र*

जम्बूद्वीप को चारों तरफ से घेरे हुए पहला लवण समुद्र है, जो जम्बूद्वीप से दूने विस्तार यानि दो लाख योजन का है। यह सर्वत्र 1000 योजन गहरा है। यहा पर 1008 पाताल है जिसके जल के कारण ही यहा का जल हवा मे उठता रहता है। यही पर रावण वाली राक्षस नगरी है। यहा 96 कुभोगभूमि मे से 48 कुभोगभूमि है। 

◆ लवण समुद्र के जम्बूद्वीप के समान 24 खंड हो सकते हैं।  इस समुद्र मे 04 सूर्य और 04 चन्द्रमा है।

लवण समुद्र के स्वामी अनादर और सुस्थित व्यंतर देव है। 


*✍️दूसरा घातकी खंड द्वीप* 

मध्यलोक का दूसरा द्वीप घातकीखंड है जिसका विस्तार 04 लाख योजन है। यहा 02 इश्वाकार पर्वत हैं जिससे घातकीखंड के दो हिस्से पूर्व घातकी खंड और पश्चिम घातकी खंड हो जाते हैं। दोनों ही घातकी खण्डों में जम्बूद्वीप की तरह भरत, ऐरावत आदि क्षेत्र, हिमवान, महाहिमवान आदि कुलाचल पर्वत, गंगा-सिंधु आदि नदियां की रचना है। 

पूर्व घातकीखण्ड में विजय मेरु, पश्चिम घातकीखंड में अचल-मेरु स्थित है। 

◆ घातकीखंड में जंबूद्वीप के समान 144 खंड हो सकते है। घातकीखण्ड में 12  सूर्य 12 चंद्रमा है। घातकीखण्ड के प्रभास और प्रियदर्शन व्यंतर देव स्वामी है। 


*✍️ कालोद-समुद्र* 

घातकीखण्ड को चारों तरफ से घेरे हुए 08 लाख योजन विस्तार वाला कालोद समुद्र है। यह सर्वत्र 1000 योजन गहरा है। यहा 96 कुभोगभूमि मे से 48 कुभोगभूमि है। 

इसके जम्बूद्वीप के समान 672 खंड हो सकते है। 

कालोद समुद्र मे 42 सूर्य और 42 चंद्रमा है। 

कालोद-समुद्र के स्वामी काल और महाकाल व्यंतर देव है। 


*✍️तीसरा पुष्करवर द्वीप* 

कालोद-समुद्र को घेरे हुए 16 लाख योजन विस्तार वाला मध्यलोक का तीसरा पुष्करवर द्वीप है। इसके बीचो-बीच चूड़ी के आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। कालोद-समुद्र से मानुषोत्तर पर्वत तक के आधे क्षेत्र को "पुष्करार्द्ध द्वीप" कहते हैं जो 08 लाख योजन है। 

इसमे घातकीखंड द्वीप की तरह ही उत्तर और दक्षिण में 02 इश्वाकार-पर्वत हैं। जिससे पुष्करार्द्ध द्वीप के दो हिस्से हो जाते हैं पूर्व पुष्करार्ध द्वीप और पश्चिम पुष्करार्द्ध द्वीप। पूर्व पुष्करार्द्ध द्वीप में मंदर मेरु, पश्चिम पुष्करार्द्ध द्वीप में विद्युन्माली मेरु स्थित है। 

इसमे 72 सूर्य और 72 चन्द्रमा है। 

पुष्करार्द्ध द्वीप के स्वामी पदम और पुण्डरीक व्यंतर देव है। 


*✍️अढ़ाई-द्वीप* 

जम्बू-द्वीप, लवण-समुद्र, घातकीखंड द्वीप, कालोद समुद्र, पुष्करवर-द्वीप के मानुषोत्तर पर्वत तक का भाग (पुष्करार्द्ध द्वीप) अढ़ाई-द्वीप कहलाता है इसका विस्तार 45 लाख योजन है। यहाँ मुक्ति के योग्य 15 कर्मभूमियाँ तथा 30 भोगभूमियाँ है। यहा 05  मेरु, 05 उत्तरकुरु, 05 देव कुरु, 20 गजदंत पर्वत, 30 कुलाचल, 170 विजयार्ध पर्वत, 04 इष्वाकार पर्वत, 01 मानुषोत्तर पर्वत, 170 आर्य खण्ड, 850 म्लेच्छ खण्ड आदि है। इन अढ़ाई-द्वीपों से आगे कोई ऋद्धिधारी विद्याधर या सामान्य मनुष्य भी नहीं जा सकता है। इसके आगे के असंख्यात द्वीपों में जघन्य भोगभूमि हैं, जिनमे त्रिर्यच-युगल रहते हैं। अढाई द्वीप तक 132 सूर्य 132 चन्द्रमा है। 


*✍️आंठवा नंदीश्वर द्वीप* 

मध्यलोक का आंठवा नंदीश्वर द्वीप है, इसका विस्तार 163 करोड़ 84 लाख योजन है। यहा 52 अकृत्रिम जिनालय है। हर जिनालय में 500 धनुष ऊँची 108-108 अनादिनिधन पद्मासन मुद्रा में अरिहंत भगवान की कुल 5616 प्रतिमाएं विराजमान हैं। तीनो अष्टानिका पर्व के अंतिम आठ दिनों में (अष्ठमी से पूर्णिमा तक) चारो निकाय के देव भक्ति भाव से आठ दिनों तक अखंड रूप से पूजा करते हैं। 

इस द्वीप मे 147456 सूर्य, 147456 चन्द्रमा है। 

नंदीश्वर द्वीप के स्वामी नन्दि और नन्दिप्रभ व्यंतर देव है। 


*✍️ 11 वा कुण्डलवर द्वीप* 

मध्यलोक का 11वा कुंडलवर द्वीप है। इसका वलय विस्तार 10485 करोड 76 लाख योजन है। इस द्वीप के मध्य मे एक सुवर्णमई गोलाकार कुण्डलवर पर्वत है। जिसकी ऊँचाई 75000 योजन, नीव 1000 योजन है। इस पर्वत पर स्थित 20 कूटो मे से 04 कूटो पर अकृत्रिम जिन चैत्यालय और बाकी 16 पर व्यंतर देव-देवी के निवास स्थान है। 

इस द्वीप मे 9437184 सूर्य और 9437184 ही चन्द्रमा स्थित है। 

कुण्डलवर द्वीप के स्वामी कुण्डल और कुण्डलप्रभ व्यंतर देव है। 


*✍️ 13 वा रुचकवर द्वीप* 

मध्यलोक के 13 वे द्वीप का नाम रुचकवर द्वीप है जो सुवर्ण वर्ण का है। इस का वलय विस्तार 167772 करोड 16 लाख योजन है। इसके मध्य वलयाकार रुचकवर पर्वत स्थित है। यह 84000 योजन ऊँचा, 84000 योजन चौड़ा और 1000 योजन गहरा गोलाकार सुवर्णमई पर्वत है। इस पर्वत के ऊपर स्थित 44 कूटो मे से चारो दिशाओ मे एक एक करके कुल 04 कूटो पर 04 अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं। 

इस द्वीप मे 150994944 सूर्य 150994944 ही चंद्रमा हैं। 


*✍️अकृत्रिम जिनमंदिर* 

जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवर द्वीप तक ही अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, आगे नहीं हैं। इन सब मंदिरों की संख्या 458 है। इसमे से 398 जिनमन्दिर तो मनुष्यलोक मे है। 52 जिनमन्दिर नन्दीश्वर द्वीप मे, 4 जिनमन्दिर कुण्डलवर द्वीप, 04 जिनमन्दिर रुचकवर द्वीप मे है। 


*✍️ असंख्यात द्वीपो ने जघन्य भोगभूमि* 

मानुषोत्तर पर्वत से लेकर स्वयम्भूरमण द्वीप मे बने कुण्डलाकार स्वयंप्रभ पर्वत तक असंख्य द्वीपो मे जघन्य भोगभूमि है। यहा पर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का निवास स्थान है। ये युगल ही उत्पन्न होते हैं युगल ही मरण को प्राप्त होते है। एक पल्य की उत्कृष्ट आयु, दो हजार धनुष ऊँचे, सुकुमार, कोमल अंगो वाले, फल भोजी, मंद कषायी हैं। अन्त में मरकर देवगति को प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ विकलत्रय जीव नहीं होते हैं। 


*✍️अंतिम स्वयम्भूरमण द्वीप* 

मध्यलोक का सबसे अंतिम द्वीप स्वयम्भूरमण द्वीप है। इसकी वलय चौडाई राजू के आठवे भाग प्रमाण  है। इस स्वयंभूरमण द्वीप के मध्य में चूड़ी के समान आकार वाला स्वयंप्रभ पर्वत है। इस पर्वत के अंतरवर्ती भाग (अन्दर के भाग मे) अन्य द्वीपो के समान तिर्यंच की जघन्य भोगभूमि है। बाहरी भाग मे तिर्यंचो की कर्मभूमि है। यहा दुषमा काल (पंचम काल) है। यहा असंख्यात सूर्य और असंख्यात चन्द्रमा है। 


*✍️ सबसे अंतिम स्वयम्भूरमण समुद्र* 

मध्यलोक का सबसे अंतिम समुद्र स्वयम्भूरमण समुद्र है। यहा भी कर्मभूमि है, हमेशा पंचम काल (दुषमा काल) ही रहता है। स्वयम्भूरमण समुद्र का वलय विस्तार चौथाई राजू हैं। 

यहा असंख्यात सूर्य और असंख्यात चन्द्र है। 


*✍️ बाहय के चार कोने* 

मध्यलोक मे स्वयम्भूरमण समुद्र के बाद जो चार कोने बचते है वहा हमेशा पंचम काल (दुषमा काल) है,  यहा कर्मभूमि मे तिर्यंच पाए जाते है। 


*✍️ ज्योतिष देव* 

चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारे ये पांच प्रकार के असंख्यात ज्योतिष्क देव इसी मध्यलोक में 790 योजन से 900 योजन तक की ऊँचाई कुल 110 योजन के बीच में रहते हैं। 

◆ मध्यलोक का सामान्य वर्णन पूर्ण हुआ

  ।।जिनवाणी माता की जय।। 

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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*


Thursday, 9 January 2025

05. चौबीस ठाणा से नरकगति मार्गणा

*05. चौबीस ठाणा से नरकगति मार्गणा*
https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC
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*✍️  नरकगति मे 24 ठाणा*
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*०१) गति       ०१/०४*   नरक गति
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   पंचेन्द्रिय जीव
*०३) काय       ०१/०६*   त्रसकाय
*०४) योग        ११/१५*  
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग, 
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०३*  वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग,  कार्मण काययोग
*०५) वेद      ०१/०३*   नपुंसक वेद।
*०६) कषाय  २३/२५*  स्त्रीवेद, पुरुषवेद नही होता
*०७) ज्ञान     ०६/०८*  
*कुज्ञान ०३* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
*सुज्ञान ०३* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान
*०८) संयम       ०१/०७*  असंयम
*०९) दर्शन       ०३/०४*  चक्षु, अचक्षु,अवधिदर्शन
*१०) लेश्या       ०३/०६*  कृष्ण, नील, कापोत
*११) भव्यक्त्व  ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  
मिथ्यात्व,सासादन,मिश्र,उपशम,क्षयोपशम,क्षायिक
*१३) संज्ञी        ०१/०२*  संज्ञी 
*१४) आहारक   ०२/०२*  आहारक, अनाहारक
*१५) गुणस्थान   ०४/१४*  
मिथ्यात्व,सासादन,सम्यग्मिथ्यात्व,अविरतसम्यग्दृष्टि
*१६) जीवसमास  ०१/१९*   संज्ञी पंचेन्द्रिय।
*१७) पर्याप्ति        ०६/०६* आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा  मन:पर्याप्ति।
*१८) प्राण           १०/१०*  
*इन्द्रिय ०५* स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण
*बल ०३* कायबल, वचन बल और मनोबल प्राण
आयु प्राण और श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा         ०४/०४*  
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      ०९/१२*  
मति, श्रुत, अवधि, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन 
*२१) ध्यान         ०९/१६*  
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।  *धर्मध्यान ०१* आज्ञाविचय,।
*२२) आस्रव       ५१/५७*  
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति १२* ०५ इन्द्रिय और मन को वश में करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २३* अनन्तानुबन्धीआदि १६ नोकषाय ०७
*योग ११* मनोयोग-०४, वचनयोग-०४, 
काययोग ०३ (वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग,  कार्मण काययोग)
*२३) जाति   –८४ लाख*    नारकी ०४ लाख
*२४) कुल–१९९.५ लाख करोड* २५ लाख करोड़
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*प्रश्न ०१) अधोलोक मे कितनी नरक पृथ्वीया है?*
अधोलोक मे सात नरक पृथ्वीया है–रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमःप्रभा। ये गुण नाम है।
*(ति.प.01/152)* *(त्रिलोकसार 144)*
घम्मा (धर्मा), वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा, माघवी ये रुढी नाम है गोत्र नाम है। *(ति.प. 1/153)* *(त्रिलोकसार 145)*

*प्रश्न ०२) नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं तो वहाँ कीड़ों से भरी नदी कैसे बताई गई है?*
यह सत्य है कि नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव तिर्यंचगति में ही पाये जाते हैं। नरकों में जो वैतरणी नदी को कीड़ों से भरी हुई बतलाया है वे कीड़े स्वय नारकी अपनी विक्रिया के बल से बनते है। उनका कीड़ों का आकार आदि होने पर भी वे नारकी ही होते हैं क्योंकि उनके नरकगति, नरकायु आदि प्रकृतियों का उदय होता है। 
*जैसे* नारकी हांडी, वसूला, करीत, भाला आदि रूप विक्रिया कर लेने से अजीव नहीं हो जाते, गाय आदि की विक्रिया कर लेने से गाय आदि के समान दूध देने में समर्थ नहीं हो जाते हैं वैसे ही कीड़ों के बारे में भी समझना चाहिए।
*(ति.प. 02/318 - 322 के आधार से)*

*प्रश्न ०३) क्या नरक में स्थावर जीव नहीं पाये जाते हैं?*
सूूूूक्ष्म स्थावर जीव सर्व लोक में ठसाठस भरे हुए हैं । *(गो. जी.184)* अत: यदि नरकों में स्थावर जीव होवे तो कोई आश्चर्य नहीं है, लेकिन वे स्थावर जीव नरक की भूमि में रहने मात्र से नारकी नहीं हो जाते और न वे नरकगति के जीव ही कहला सकते हैं, क्योंकि नारकी तो वही होता है जिसके नरकायु आदि का उदय होता है।इन स्थावरों के इन प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। अत: वे नरक भूमि में रहकर भी नारकी नहीं कहलाते हैं। 
*जैसे* असुरकुमार आदि देव भी नरक में जाते हैं। कुछ समय तक वहाँ रुकते भी है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे नारकी हो जाते हैं क्योंकि उनके देवगति नामकर्म का उदय है ।

*प्रश्न ०४) नारकियों के कार्मण-काययोग में कौन- कौन सा गुणस्थान हो सकता है?*
नारकियों के कार्मण काययोग में 02 गुणस्थान हो सकते है - मिथ्यात्व और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
जब कोई जीव मनुष्यगति या तिर्यंचगति से मरण करके नरक मे जन्म लेने जा रहा हो तो विग्रहगति मे कार्मण काययोग ही हो सकता है।
यहा कार्मण शरीर से ही कर्मो का ग्रहण होता है, इसे अनहारक भी कहते है। क्योकि इस समय कर्मों द्वारा ही आत्मा के प्रदेशो मे कंपन हो रहा है इसलिए यह कार्मण काय योग है।
जब जीव नरक मे पहुच जाता हैं उस समय आहार वर्गणाओ का ग्रहण शुरु करता है उस समय जीव आहारक कहलाता है।
*मिथ्यात्व* यहा से जो मिथ्याद्रष्टि मरण करके नरक जा रहे हैं उनके विग्रहगति (कार्मण काययोग) में पहला मिथ्यात्व गुणस्थान होता है
*सासादन* वाला नरक मे नही जा सकता, क्योकि जो नरक मे जा रहा है उसको सासादन गुणस्थान नही होता, तथा जिसको सासादन होता है उसके नरक गति नही होती  *(धवला पुस्तक 01)*
*मिश्र* मे मरण ही नही होता तो कार्मण काययोग मे हो ही नही सकता
*अविरत* सम्यग्द्रष्टि जीव जिसने मिथ्यात्व अवस्था मे नरकायु का बंध कर लिया हो बाद मे सम्यक्त्व हो जाए वह जीव सम्यक्त्व सहित नरक मे जा सकता है और कार्मण काययोग (विग्रहगति) मे चौथा अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान हो सकता है। यह मात्र प्रथम नरक की कार्मण काय अवस्था में ही होता है, अन्य नरकों में नहीं।

*प्रश्न ०५) नारकियों के निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में सासादन गुणस्थान क्यों नहीं होता?*
सासादन गुणस्थान वाला नरक में उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि सासादन गुणस्थान वाले के नरकायु का बन्ध नहीं होता है। जिसने पहले नरकायु का बन्ध कर लिया है, ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि नरकायु का बन्ध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण नहीं होता है। 
*(धवला 02/325-326)*

*✍️ नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में योग*
नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में 01योग ही होता है वह है वैकियिकमिश्रकाय योग। क्योंकि कार्मण-काययोग विग्रहगति में तथा शेष योग पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं।

*✍️ नारकियों के आहारक अवस्था मे योग :-*
नारकियों के आहारक अवस्था में 10 योग होते हैं – मनोयोग- 04, वचनयोग- 04,  काययोग- 02 (वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग)

*प्रश्न ०८) नारकियों के नपुंसक वेद ही क्यों होता है?*
नरकगति पाप के उदय से प्राप्त होती है। वहाँ जीवों को दुःख ही दुःख होते है। स्त्रीवेद वाला पुरुष के साथ तथा पुरुषवेद वाला स्त्री के साथ रमण करके सुख प्राप्त कर लेता है। नपुंसकवेद वाले की वासना स्त्री-पुरुष वेद वालों की अपेक्षा कई गुणी होती है, लेकिन वह न पुरुष के साथ रम सकता है और न स्त्री के साथ इसलिए वह वासनाओं से संतप्त रहता है। नरकों में यदि स्त्री-पुरुष वेद होगा तो उन्हें सुख मिल जायेगा। परन्तु वहाँ पंचेन्द्रिय जनित विषयों से उत्पन्न कोई सुख नहीं होता है, शायद इसीलिए उनके नपुंसक वेद ही होता है। 
निरन्तर दुःखी होने के कारण उनके दो (स्त्री-पुरुष) वेद नहीं होते हैं। *(धवला 01/347)*

*✍️ चतुर्थ नरक के नारकियों के कषायें :-*
चतुर्थ नरक के नारकियों के अधिक से अधिक 23 कषायें होती है।
अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, संज्वलन चतुष्क तथा स्वीवेद-पुरुषवेद के बिना हास्यादि सात नोकषाय।
∆ कम-से-कम 19 कषायें होती हैं
उपरिम 23 मे से अनन्तानुबन्धी चतुष्क का अभाव होने से जीव के 19 कषायें होती हैं। ये सम्यग्दृष्टि जीव के होती है।
*नोट* इसी प्रकार सभी नरकों में जानना चाहिए

*प्रश्न १०) क्या कोई ऐसा सम्यग्दृष्टि नारकी है जिसके अवधिज्ञान नहीं होता है?*
हाँ है, जो सम्यग्दृष्टि जीव (मनुष्य) अवधिज्ञान लेकर नरक में नहीं जाता है, उस सम्यग्दृष्टि नारकी के विग्रहगति में निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तथा पर्याप्त अवस्था में जब तक अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता तब तक उस सम्यग्दृष्टि नारकी के अवधिज्ञान नहीं होता है ।

*✍️ नारकियो में ज्ञान :-*
नारक के छहों ज्ञान होते है - सम्यग्दृष्टि नारकी के तीन सुज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान होते है तथा मिथ्यादृष्टि तथा सासादन सम्यग्दृष्टि के तीन कुज्ञान होते है - कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान 
*∆ मिश्र गुणस्थानवर्ती* नारकी के तीनों ही ज्ञान मिश्र रूप होते हैं।

*✍️ नारकियो में लेश्याएँ ;-*
सभी नरकों में अलग- अलग लेश्याएँ होती हैं –
*क्रम      नरक              लेश्या*
*०१)* रत्नप्रभा         जघन्य कापोत
*०२)* शर्कराप्रभा      मध्यम कापोत
*०३)* बालुकाप्रभा    उत्कृष्ट कापोत-जघन्य नील
*०४)* पंकप्रभा         मध्यम नील
*०५)* धूमप्रभा         उत्कृष्ट नील–जघन्य कृष्ण
*०६)* तमःप्रभा         मध्यम कृष्ण
*०७)* महातमःप्रभा   उत्कृष्ट कृष्ण

*प्रश्न १३) नारकियों के अशुभ लेश्या ही क्यों होती है?* नारकियों के नित्य संक्लेश परिणाम ही होते हैं, इसलिए उनके अशुभ लेश्याएँ ही होती हैै।

*प्रश्न १४) क्या नारकियों के द्रव्य और भाव से अशुभ लेश्या ही होती है?*
हाँ, नारकियों मे द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या अशुभ ही होती है। नारकियों के शरीर नियम से हुण्डक संस्थान वाले ही होते हैं, सभी नारकियों के पर्याप्त अवस्था में द्रव्य से कृष्ण लेश्या ही होती है। 
*(धवला 02/450)*
*नारकानित्याशुभ (त. सू 3/3)* के अनुसार उनके भाव भी हमेशा अशुभतर ही रहते हैं इसलिए उनके भाव से भी अशुभ लेश्या ही होती है।

*✍️ नारकियों की अपर्याप्त-अवस्था में सम्यक्त्व मार्गणा*
नारकियों की अपर्याप्त-अवस्था में तीन सम्यक्त्व होते हैं - मिथ्यात्व, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व

मिथ्याद्रष्टि मरण करके नरक जा रहा है तो अपर्याप्त-अवस्था मे *मिथ्यात्व गुणस्थान* होगा।
क्षायिक सम्यक्त्व वाला भी मरण करके नरक जा रहा है तो उसके भी अपर्याप्त-अवस्था मे *क्षायिक सम्यक्त्व* होता है।
*क्षायोपशमिक सम्यक्त्व* भी कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा समझना चाहिए
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*∆ कृतकृत्यवेदक जीव* जो क्षयोपशम सम्यक्त्व वाला है वह क्षायिक की प्रोग्रेस के लगा हुआ है, उसने मिथ्यात्व का नाश कर दिया, फिर सम्यक मिथ्यात्व को भी नष्ट कर दिया अब उसके एकमात्र सम्यक प्रकृति शेष रही इस जीव को शास्त्रो मे *कृतकृत्यवेदक क्षायोपशमिक जीव* कहा है। यह क्षायिक तो तब बनेगा तब वह सम्यक प्रकृति को भी नष्ट कर देगा। इस अपेक्षा से भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाला भी नारकियो की निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे पाया जाता है।
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*∆ ०१)* धर्मा नरक की अपर्याप्त अवस्था में तीनों सम्यक्त्व होते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा समझना चाहिए। वंशा आदि माघवी पर्यन्त नरकों की अपर्याप्त अवस्था में केवल एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता हैं।
*विशेष* जो दूसरी तीसरी नरक पृथ्वी मे तीर्थंकर वाले जीव जाते है उनका सम्यक्त्व एक अंतरमुहूर्त तक के लिए छूट जाता है और मिथ्यात्व अवस्था मे वे दूसरी या तीसरी पृथ्वी मे जाते है, फिर एक अंतरमुहूर्त बाद वे पर्याप्तक होकर उनको सम्यक्त्व हो जाता है। *निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे तो मिथ्यात्व ही रहता है दूसरी से सातवी पृथ्वी तक*
*∆ ०२)* बद्धायुष्क तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला जीव भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को लेकर प्रथम नरक में नहीं जा सकता है। *क्योंकि बद्धायुष्क कृतकृत्य वेदक तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि को छोड्‌कर शेष कोई भी जीव सम्यग्दर्शन को लेकर नरक में नहीं जा सकता है।*
*∆ ०३)* प्रथमोपशम सम्यक्त्व तथा मिश्र सम्यक्त्व में मरण नहीं होता और सासादन को लेकर जीव नरक में नहीं जाता इसलिए नारकियों की अपर्याप्त अवस्था में ये तीनों सम्यक्त्व नहीं होते हैं । 
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*✍️निष्कर्ष*
*०१) निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे पहली नरक पृथ्वी* मे सम्यकत्व मार्गणा के तीन भेद मिथ्यात्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कृतकृत्यवेदक, क्षायिक है।
*०२) निर्वत्यापर्याप्तक अवस्था मे दूसरी से सातवी पृथ्वी* मे सम्यकत्व मार्गणा का एक भेद मिथ्यात्व है
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*✍️ नारकियो मे उत्पन्न करने योग्य सम्यक्त्व :-*
नारकी दो सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकते हैं– प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन।
नारकी क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं कर सकते; क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही करते हैं। कृतकृत्य वेदक वहाँ जाकर सम्यक् प्रकृति का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दर्शन का निष्ठापन कर सकता है।
*नोट* सम्यक्त्व मार्गणा में से नारकी मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, प्रथमोपशम, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते है।

*✍️ प्रतिष्ठापन-निष्ठापन*
प्रतिष्ठापन य़ानि शुरुवात क्षायिक सम्यक की शुरुवात, यह कर्मभूमि का मनुष्य ही करता है केवली या श्रुतकेवली के पादमूल मे लेकिन बीच मे ही मरण हो जाए और अगर नरकायु बांधी हुई है तो नरक जाकर अंतरमुहूर्त मे वह उसी प्रक्रिया को पूर्ण कर लेता है उसे कहते है निष्ठापन पूर्णता

*✍️ नारकियों की पर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्व*
*∆ प्रथम नरक के* नारकियों की पर्याप्त अवस्था में सभी सम्यक्त्व यानि छहो भेद होते है।
*∆ दूसरे से सातवें नरक तक* क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नरक से आगे नहीं जाता है। *अर्थात* प्रथम नरक में सभी सम्मयक्तव होते हैं और शेष नरकों में क्षायिक सम्यक्त्व के बिना पाँच ही सम्यक्त्व होते हैं।

*प्रश्न १८) नारकियों में पंचमादि गुणस्थान क्यों नहीं होते?*
अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित हिंसा में आनन्द मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दुःखों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दस गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं।
 *(नि.प. 02/275-276)*
प्रथमादि चार गुणस्थानों के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्‌भाव नहीं है; क्योंकि संयमासंयम और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है।  *(धवला 1/208)*

*✍️ नारकियों में आर्तध्यान का कारण*
*इष्ट वियोगज* नारकी जब अपनी विक्रिया से शस्रादि बनाते हैं, उसको यदि दूसरे नारकी छीन ले, ध्वस्त (नष्ट) कर दे तो इष्ट वियोग हो जाता है। तीसरे नरक तक कोई देव किसी को सम्बोधन करने गया। वह जब संबोधन करके चला जाता है उसके वियोग में नारकी को इष्टवियोग आर्त्तध्यान हो सकता है।
*अनिष्ट संयोगज* एक नारकी को जब दूसरे नारकी मारते हैं, दुःख देते हैं तो उन्हें दूर करने के लिए बार- बार विचार उत्पन्न होते हैं तब उस नारकी के अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान हो सकता है । 
*वेदना आर्तध्यान* नारकियों के शीत-उष्ण आदि वेदनाओं को दूर करने की भावनाओं से वेदना आर्त्तध्यान संभव है।
*निदान आर्तध्यान* नारकी जातिस्मरण से भोगों को जानकर भावी भोगों की आकांक्षा कर सकते हैं। 
तीसरे नरक तक आये हुए देवों के वैभव को देखकर निदान कर सकते हैं। नारकियों में ऐसे ही और भी आर्त्तध्यान हो सकते हैं।

*प्रश्न २०) नारकी जीव भगवान के दर्शन, पूजा, स्वाध्याय, गुरुओं की भक्ति, आहारदान आदि कुछ नहीं कर सकता है, तो उसके धर्मध्यान कैसे हो सकता है?*
∆ भगवान की पूजा,दर्शनादि कार्य एकान्त से धर्मध्यान नहीं हैं। पूजा आदि कार्य धर्मध्यान प्राप्त करने की पूर्व भूमिका है। इन सब कार्यों को करते हुए भी मिथ्यादृष्टि जीव के धर्मध्यान नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि नारकी के ”जो जिनेन्द्र भगवान ने सच्चे देव-शास्त्र -गुरु, तत्त्व,  द्रव्य, मोक्षमार्ग आदि का स्वरूप बताया है वही सच्चा है,उसी से मेरा कल्याण अर्थात् मुझे शाश्वत सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है " इस प्रकार की श्रद्धा (आज्ञा सम्यक्त्व) होती है और इसी रूप में नारकी के एक आज्ञाविचय धर्मध्यान होता है।

*✍️ सम्यग्दृष्टि नारकी के आस्रव के प्रत्यय*
*∆ प्रथम नरक में सम्यग्दृष्टि नारकी के आस्रव के 42 प्रत्यय हैं* 12 अविरति, 19 कषाय (अनन्तानुबन्धी चतुष्क तथा स्त्रीवेद पुरुषवेद रहित) तथा 11 योग (औदारिकद्विक तथा आहारकद्विक बिना)। 
*∆ प्रथम नरक में मिथ्याद्रष्ठि* के 52 आस्रव के प्रत्यय है *(12 अविरति + 23 कषाय + 11 योग=51)*

∆ दूसरे आदि नरकों में वैक्रियिक मिश्र तथा कार्मण काय योग सम्बन्धी आसव के प्रत्यय भी निकल जाने से ४० प्रत्यय ही होते हैं। ये सम्यग्द्रष्टि नारकी है इन्होने नरक जाकर ही सम्यक प्राप्त करा है।
∆ पहली नरक पृथ्वी मे सम्यक्त्व मार्गणा के सभी छहो भेद हो सकते है।
∆ दूसरी नरक पृथ्वी सातवी नरक पृथ्वी मे सम्यक्त्व मार्गणा के क्षायिक सम्यक्त्व को छोडकर पाँचो भेद हो सकते है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

Wednesday, 8 January 2025

01. चौबीस ठाणा के नाम, उनके उत्तर भेद

 

01. चौबीस ठाणा के नाम, उनके उत्तर भेद*
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https://youtu.be/WiAu4Pj-CQs?si=UgggOsI-kLkSu-kJ

*चौबीस = चौबीस,   ठाणा = स्थान*
*जहाँ चौबीस स्थानो मे जीव का विशेष वर्णन किया गया है उसे चौबीस ठाणा कहते है।*
बोधिदुर्लभ भावना का चिंतन करने के लिए चौबीस ठाणा का अध्ययन करना चाहिए। अपने उपयोग के चौबीस स्थान के उत्तर भेदो मे लगाना चाहिए और विचार करना चहिए कि किस-किस स्थान पर रत्नत्रय प्राप्त किया जा सकता है। हम कितने कितने स्थानो को छोड़कर यहाँ आ गये है। सब कुछ अनुकुलता मिल जाने पर भी यदि हम रत्नत्रय धारण नही कर पाये तो सबकुछ व्यर्थ है। लोक भावना भाने के लिए भी चौबीस ठाणा समझना चाहिए।

*✍️चौबीस ठाणा (स्थान) के नाम :-
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यक्त्व, सम्यक्तव, संज्ञी, आहार, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग, ध्यान, आस्रव, जाति और कुल।
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*✍️चौबीस ठाणा (स्थानो) के उत्तर भेद :-
*०१) गति       –०४* 
नरक गति, तिर्यंचगति, मनुष्य गति और देवगति।
*०२) इन्द्रिय    –०५* 
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय।
*०३) काय       –०६* 
पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय।
*०४) योग        –१५* 
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग,
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०७* औदारिक-औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक-वैक्रियिक मिश्रकाययोग, आहारक - आहारकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग
*०५) वेद          –०३* 
स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद।
*०६) कषाय      –२५* 
*१६ कषाय*
*०४ अनन्तानुबन्धी*        क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ अप्रत्याख्यानावरण* क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ प्रत्याख्यानावरण*     क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ संज्वलन*                क्रोध-मान-माया-लोभ
*०९ नोकषाय* हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद।
*०७) ज्ञान         –०८* 
*कुज्ञान ०३* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
*सुज्ञान ०५* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान
*०८) संयम       –०७* 
असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय, यथाख्यात,
*०९) दर्शन        –०४* 
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन।
*१०) लेश्या       –०६* 
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल लेश्या।
*११) भव्यक्त्व   –०२*   भव्य और अभव्य।
*१२) सम्यक्त्व   –०६* 
मिथ्यात्व,सासादन,मिश्र,उपशम,क्षयोपशम, क्षायिक
*१३) संज्ञी         –०२*  संज्ञी और असंज्ञी।
*१४) आहारक   –०२*  आहारक और अनाहारक।
*१५) गुणस्थान  –१४* 
मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र), अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्य साम्पराय, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली जिन, अयोगकेवली जिन।
*१६) जीवसमास–१९* 
पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, जलकायिक सूक्ष्म-बादर, अग्निकायिक सूक्ष्म-बादर, वायुकायिक सूक्ष्म-बादर, नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय।
*१७) पर्याप्ति    –०६* 
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा तथा मन:पर्याप्ति।
*१८) प्राण         –१०* 
*इन्द्रिय ०५* स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण
*बल ०३* कायबल, वचन बल और मनोबल प्राण
आयु प्राण और श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा         –०४* 
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      –१२* 
*ज्ञानोपयोग- ०८* मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानोपयोग + कुमति, कुश्रुत कुअवधि
*दर्शनोपयोग ०४* चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शनोपयोग
*२१) ध्यान         –१६* 
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।
*धर्मध्यान ०४* आज्ञाविचय,अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय।
*शुक्ल ०४* पृथक्त्ववितर्क वीचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति।
*२२) आस्रव       –५७* 
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति १२* ०५ इन्द्रिय और मन को वश में नही करना तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २५* १६ अनन्तानुबन्धीआदि ०९नोकषाय
*योग १५* मनोयोग ०४ वचनयोग ०४ काययोग ०७
*२३) जाति –८४ लाख* 
*नित्यनिगोद* ०७ लाख  
*इतरनिगोद* ०७ लाख
*पृथ्वीकायिक* ०७ लाख
*जलकायिक* ०७ लाख
*अग्निकायिक* ०७ लाख
*वायुकायिक* ०७ लाख
*वनस्पतिकायिक* १० लाख 
*द्वीन्द्रिय* ०२ लाख
*त्रीन्द्रिय* ०२ लाख,         
*चतुरिन्द्रिय* ०२ लाख
*पंचेन्द्रिय तिर्यंच* ०४ लाख,   
*नारकी* ०४ लाख
*देव* ०४ लाख                      
*मनुष्य* १४ लाख
*२४) कुल–१९९.५ लाख करोड* 
*पृथ्वीकायिक* २२ लाख करोड़,
*जलकायिक*   ०७ लाख करोड़,
*अग्निकायिक*  ०३ लाख करोड़,
*वायुकायिक*    ०७ लाख करोड़,
*वनस्पतिकायिक* २८ लाख करोड़,
*द्वीन्द्रिय*           ०७ लाख करोड़,
*त्रीन्द्रिय*            ०८ लाख करोड़,
*चतुरिन्द्रिय*         ०९ लाख करोड़,
*जलचर*           १२.५ लाख करोड़,
*थलचर*              १९ लाख करोड़,
*नभचर*               १२ लाख करोड़,
*नारकी*               २५ लाख करोड़,
*देव*                   २६ लाख करोड़,
*मनुष्य*               १४ लाख करोड़
*कुल जोड=* १९९-१/२ लाख करोड़ कुल।
*जीवकाण्ड जी गाथा ११६ अनुसार मनुष्यों के १२ लाख करोड़ कुल बताये हैं इस अपेक्षा से कुल १९७-१/२ लाख करोड़ कुल होते हैं।*


*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन )*



04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा

 *04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा*

https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC

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*जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।*

गति नाम कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।

जिसके उदय से जीव भावान्तर को जाता है वह गति नामकर्म हैं। *(मूलाचार १२३६)*

गति नाम कर्म के उदय से जीव की पर्याय को अथवा चारो गति मे गमन करने को गति कहते है। 

*(गो. जी १४६)*

*गति जीव विपाकी प्रकृति हैं इसमे जीवो के भावो की मुख्यता रहती है*

गति अपेक्षा जीवो का परिचय होना गति मार्गणा है।

*गति मार्गणा के चार भेद –नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति हैं-सिद्धगति में भी जीव होते हैं*

नरकगति द्वारा नारकी जीवो की खोज होती हैं।

तिर्यंचगति द्वारा तिर्यंच जीवो की खोज होती हैं।

मनुष्यगति द्वारा मनुष्यो की खोज होती हैं।

देवगति द्वारा देवो की खोज होती हैं।

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*✍️नरकगति*

जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में स्वय तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारक कहते हैं। नारक की गति को नरकगति कहते हैं।

*(गो.जी. १४७)*

द्रव्य मे–यानि नरक मे जितनी भी वस्तुए है, या शरीर हैं उसमे नही रमते, उन्हे वहा कोई भी वस्तु अच्छी नही लगती

क्षेत्र मे–नारकी को वहा का क्षेत्र भी अच्छा नही लगता है।

काल मे- नारकी को वहा का काल भी अच्छा नही लगता है।

भाव मे–नारकी को वहा का भाव भी अच्छा नही लगता, वहा कभी अच्छे भाव नही होते है। हर समय लडना, मारना, काटना, एक् दुसरे को तकलीप देने के भाव होते है।

परस्पर मे–प्रीति को प्राप्त नही होते, कभी भी एक दूसरे से दोस्ती नही होती हैं। जब भी नया नारकी आता है तो अन्य सभी नारकी आते है और सभी मिलकर उसे मारते काटते है।

नीचे अधोलोक में घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा तथा माघवी नामक सात पृथिवियाँ हैं *ये उनके रुढी नाम है* तथा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि गुणनाम है *सार्थक नाम है* यथा नाम वैसा ही वहा का काम है। जैसे जहा रत्नो जैसी प्रभा है उसका नाम रत्नप्रभा है। यहा नारकी जीव रहते है।

ये नारकी क्षेत्रजनित, मानसिक, शारीरिक और असुरकृत दुख, परस्परकृत दुख आदि अनेक प्रकार के दुःखों को दीर्घ काल तक भोगते हैं, उसकी गति को नरकगति कहते है।

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*✍️तिर्यंचगति*

देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोड्‌कर शेष सभी तिर्यंच कहलाते हैं। तिर्यंचो की गति को तिर्यंचगति कहते हैं। *(त. सू ०४/२७)*

*०१)* मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त हो। 

*०२)* जिनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) हो । *०३)* जो निकृष्ट अज्ञानी हो ।

*०४)* जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय वे तिर्यंच है

इन तिर्यंच की गति को तिर्यंचगति कहते हैं।

*(गो. जी. १४८)*

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*✍️मनुष्यगति*

जिनके मनुष्यगति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते है।  *(गो.जी. १४९)*

*०१)* जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे

हेय=छोडने योग्य, उपादेय=ग्रहण करने योग्य

हमे क्या चीज छोडनी चाहिए क्या ग्रहण करना चाहिए इसका पता चलता है।

तत्त्व=वस्तु स्वरुप का, अतत्त्व=जैसा स्वरुप नही है

उसे अच्छे से जानता है।

आप्त=इष्ट देव का पता होना, अनाप्त=जो इष्टदेव नही है का पता होता है।

धर्म मे क्या है, अधर्म मे क्या है का विचार होता है उसको मनुष्य कहते है।

*०२)* जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके,

*०३)* जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो,

*०४)* शिल्प-कला आदि में कुशल हो तथा

*०५)* जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं।

*(गो. जी. १४९)*

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*✍️देवगति*

देवगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न गति को देवगति कहते है। देव चार प्रकार के होते है–भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष और वमानिक देव।

*०१)* जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों,

*०२)*  अणिमादि गुणों से सदा अप्रतिहत (बिना रोक-टोक) विहार करते हो,

*०३)* जिनका रूप-लावण्य सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं। उन देवों की गति को देवगति कहते है।

*(गो. जी. १५१)*

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*✍️सिद्धगति*

यद्यपि सिद्ध भगवान के किसी गति नामकर्म का उदय नहीं है फिर भी आठ कर्मों का नाश करके सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग में गमन करते हैं ।

*०१)* जो एकेन्द्रिय आदि जाति, बुढ़ापा, मरण तथा भय से रहित हों,

*०२)* जो इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग से रहित हों,

*०३)* जो आहारादि संज्ञाओं से रहित हों,

*०४)* रोग, आधि-व्याधि से रहित हों, वे सिद्ध भगवान हैं, उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं।

*(गो. जी. १५२)*

जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूप अमृत के अनुभव करने वाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भाव कर्म रूपी अंजन से रहित हैं, नित्य हैं, जिनके सम्यक्क्तवादि भाव रूप मुख्य गुण प्रकट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं और उनकी गति को सिद्धगति कहते है। *(गो. जी. ६८)*

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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*


7. चौबीस ठाणा में मनुष्यगति मार्गणा

*✍️ मनुष्यगति में चौबीस ठाणा* https://youtu.be/zC4edAGojCs?si=w9wU8fxsCnEIxFEt 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 जिनके मनुष्य गति नामकर्म का उदय पाया जाता ...