आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)
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Thursday, 13 February 2025
7. चौबीस ठाणा में मनुष्यगति मार्गणा
Saturday, 25 January 2025
6. चौबीस ठाणा मे तिर्यंचगति मार्गणा
*✍️ 06. चौबीस ठाणा मे तिर्यंचगति मार्गणा*
https://youtu.be/3XQJxYDGbro?si=iAdBgPFtQ1AKbhWU
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देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोडकर शेष सभी तिर्यंच कहलाते हैं। तिर्यंचो की गति को तिर्यंचगति कहते हैं। ये तिर्यंच मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त होते है, इनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) होती है। ये तिर्यंच निकृष्ट अज्ञानी होते है, इनमे अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाता है।
*✍️तिर्यंचगति मे 24 स्थान*
*01) गति* 04 मे से 01 गति तिर्यंचगति,
*02) इन्द्रिय* 05 मे 05 - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय
*03) काय* 06 मे से 06 काय – पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय।
*04) योग* 15 मे से 11 योग
◆ मनोयोग 04 - सत्य, असत्य मनोयोग, उभय, अनुभय मनोयोग,
◆ वचनयोग 04 - सत्य, असत्य वचनयोग, उभय, अनुभय वचनयोग,
◆ काययोग 03 - औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, कार्मण काययोग
*(वैक्रियिकद्विक तथा आहारकद्विक नहीं होतें हैं)*
*05) वेद* 03 मे से 03 – स्त्री, पुरुष, नपुंसकवेद
👉एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव, सम्मूर्च्छन पर्याप्त पंचेन्द्रिय तथा लब्धयपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी नपुंसकवेद वाले ही होते हैं।
*06) कषाय* 25 मे से 25 कषाय होती है
अनन्तानुबन्धी – क्रोध-मान-माया-लोभ
अप्रत्याख्यानावरण – क्रोध-मान-माया-लोभ
प्रत्याख्यानावरण – क्रोध-मान-माया-लोभ
संज्वलन – क्रोध-मान-माया-लोभ
नोकषाय – हास्य-रति-अरति, शोक-भय-जुगुप्सा, स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद
👉अगर सम्यग्द्रष्ठि है अनंतानुबन्धी चतुष्क कम हो जाएगी, पंचम गुणस्थानवर्ती है तो अनंतानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क कम हो जाएगी
*07) ज्ञान* 08 मे से 06 भेद
◆ कुज्ञान 03– कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
◆ सुज्ञान 03– मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान
(मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं होता है)
*08) संयम* 07 मे से 02 भेद असंयम, संयमासंयम
*09) दर्शन* 04 मे से 03 भेद - चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन
*10) लेश्या* 06 मे से 06 भेद - द्रव्य और भाव दोनों
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल लेश्या
👉तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं।
*11) भव्यक्त्व* 02 मे से 02 भेद- भव्य और अभव्य
*12) सम्यक्त्व* 06 मे से 06 - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक (क्षायिक सम्यकत्व भोगभूमि की अपेक्षा होता है)
👉तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में 04 सम्यक्त्व होते हैं - मिथ्यात्व, सासादन, क्षयोपशम, क्षायिक सम्यक्त्व।
*13) संज्ञी* 02 मे से 02 भेद - संज्ञी, असंज्ञी
*14) आहारक* 02 मे से 02 - आहारक, अनाहारक
*15) गुणस्थान* 14 मे से 05 भेद - मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत
👉भोगभूमि तिर्यंच के चार गुणस्थान, कर्मभूमि तिर्यंचों के पाँच गुणस्थान होते है।
*16) जीवसमास* 19 मे से 19
पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, जलकायिक सूक्ष्म-बादर, अग्निकायिक सूक्ष्म-बादर, वायुकायिक सूक्ष्म-बादर, नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय।
*17) पर्याप्ति* 06 मे से 06 - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा, मन:पर्याप्ति
*18) प्राण* 10 मे से 10 भेद
एकेन्द्रिय पर्याप्त के 04 प्राण (स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास)
द्वीन्द्रिय पर्याप्त 06 प्राण (इन्द्रिय 02, वचनबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास)
त्रीन्द्रिय पर्याप्त 07 प्राण (इन्द्रिय 03, वचनबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास)
चतुरिन्द्रिय पर्याप्त 08 प्राण (इन्द्रिय 04, वचनबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास)
असंज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त 09 प्राण (इन्द्रिय 05, वचनबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास)
संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त 10 प्राण (इन्द्रिय 05, बल 03, आयु, श्वासोच्छवास)
👉सभी जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में श्वासोच्छवास, वचनबल तथा मनोबल नही होते हैं।
*19) संज्ञा* 04 मे 04 भेद - आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा
*20) उपयोग* 12 मे से 09 भेद - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान,चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन
*21) ध्यान* 16 मे से 11
◆ आर्तध्यान 04 - इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना, निदान
◆ रौद्रध्यान 04 - हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, परिग्रहानन्दी
◆ धर्मध्यान 03 - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय (संस्थानविचय धर्मध्यान, चारो शुक्लध्यान नही होते)
*22) आस्रव* 57 मे से 53 भेद
◆ मिथ्यात्व 05 विपरीत, एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान
◆ अविरति 12- पाँचो इन्द्रिय और मन को वश में नही करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
◆ कषाय 25 - अनन्तानुबन्धी आदि 16, नोकषाय 09
◆ योग 11- मनोयोग 04, वचनयोग 04, काययोग 03 (औदारिकद्विक काययोग, कार्मण काययोग)
*23) जाति* 84 लाख मे से 62 लाख जातियाँ तिर्यंचो में होती है।
*24) कुल -* 199 –1/2 लाख करोड मे से 134 –1/2 लाख करोड़ कुल होते है
*✍️ तिर्यंंच के प्रकार :-*
तिर्यंचगति के जीव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय के भेद से, शम्बूक, जू, मच्छर आदि विकलेन्द्रिय के भेद से, जलचर, थलचर, नभचर, द्विपद, चतुष्पदादि पंचेन्द्रिय के भेद से बहुत प्रकार के होते हैं।
*(पंचस्तिकाय संग्रह 118)*
∆ जन्म की अपेक्षा तिर्यंच दो प्रकार के होते हैं- गर्भज और सम्मूर्च्छन जन्म वाले *(कार्तिकेय अनु. 130)*
ऐकेन्द्रि से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीवो का जन्म सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है।
*✍️ तिर्यंच जीवो का स्थान :-*
पन्द्रह कर्मभूमियों में भी तिर्यंच रहते हैं *(05 भरत, 05 ऐरावत, 05 विदेह)* ढाईद्वीप की भोगभूमिये मे भी रहते है तथा ढाईद्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप में स्थित सभी भोग भूमियों तथा आधे स्वयंभूरमण द्वीप व स्वयंभूरमण समुद्र में तिर्यंच ही रहते हैं। *विशेष रूप से एकेन्द्रिय तिर्यंच सर्वलोक में ठसाठस भरे हुए हैं।*
*✍️ नपुंसक वेद वाले तिर्यंच :-*
एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव, सम्मूर्च्छन पर्याप्त पंचेन्द्रिय तथा लब्धयपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी नपुंसकवेद वाले ही होते हैं। *(त. सू 2/50)*
*✍️तिर्यंंचो की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में लेश्याएँ :-*
तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं क्योंकि पीत और पदम लेश्या वाले देव यदि तिर्यंचो में उत्पन्न होते हैं तो नियम से उनकी शुभ लेश्याएँ नष्ट हो जाती हैं, इसलिए तिर्यंचो के निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं। *शुभ लेश्या तिर्यंचों के बाद मे हो सकती है* *(धवला 2/473)*
*✍️ तिर्यंचो में क्षायिकसम्यग्दर्शन अपेक्षा :-*
निष्ठापन की अपेक्षा होता है, शुरुवात कर्मभूमिया का मनुष्य करेगा और क्षायिकसम्यक्त्व की प्रक्रिया के चलते बीच मे यदि मरण हो जाए और मरण करके यदि तिर्यंच मे गया तो "क्योकि मिथ्यात्व अवस्था मे तिर्यंचायु बांध ली होगी" भोगभूमि का तिर्यंच बनेगा और भोगभूमि का तिर्यंच बनकर क्षायिक सम्यक्त्व पूर्ण कर लेता है यानि क्षायिक की पूर्णता करेगा, यह निष्ठापन की अपेक्षा होता है।
*(कर्मभूमि तिर्यंचो मे किसी भी अपेक्षा से क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है)*
*👉 क्या बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि मनुष्य के समान बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि तिर्यंच भी भोगभूमि में जा सकता है ?*
∆ नहीं, तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रतिष्ठापक नहीं होता और न कर्मभूमिया तिर्यंचो को क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है, क्योंकि, क्षायिक-सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में करते हैं। तथा *जिसने तिर्यंच, मनुष्य और नरकायु को बाँध लिया है वह मिथ्यात्व के साथ ही मरणकर तिर्यंचादि गतियों में जाता है* क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य *(बद्धायुष्क मनुष्य को छोड्कर)* और तिर्यंच नियम से स्वर्ग में ही जाते हैं।
अर्थात जिन्होने मनुष्य और तिर्यंच ने आयु नही बांधी हो और सम्यक दर्शन प्राप्त करेगे वे देवायु को प्राप्त करते है, अन्य कही नही जाते।
*✍️ बद्धायुष्क :-*
जिसने अगले भव की आयु बाँध ली वह बद्धायुष्क कहलाता है। बद्धायुष्क का कथन क्षायिक एवं कृतकृत्यवेदक की मुख्यता से ही किया गया है ।
*✍️ बद्धायुष्क मुनि भोगभूमिया तिर्यंच बन सकतते है ?*
∆ पहली बात जो मुनि होते है वे एकमात्र देवायु ही हो सकती है, अन्य आयु उनके नही बंधती।
∆ नहीं, जिस मनुष्य ने देवायु को छोड्कर शेष किसी भी आयु का बंध कर लिया है, वह अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता है, ऐसा नियम है। इसलिए बद्धायुष्क मुनि भी भोगभूमि में उत्पन्न नहीं हो सकता है। *(गो. क. 334)*
∆ इसी प्रकार देवायु को छोड़कर शेष आयु बाँधने वाला तिर्यंच भी अणुव्रत धारण नहीं कर सकता है।
*👉 मत्स्य भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो सकता है ?*
◆ नहीं हो सकते, क्योकी मत्स्य नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं और कर्मभूमि के तिर्यंचो को क्षायिक सम्यक्त्व नही होता, एकमात्र भोगभूमि के तिर्यंचो को क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है वो भी इस प्रकार से कि यहा से शुरुवात करके या परिपूर्ण करके गया हो। *(ति.प.4/328)* भोगभूमि मे जलचर जीव नही पाए जाते केवल थलचर और नभचर दो ही प्रकार के तिर्यंच जीव है।
*नोट* इसी प्रकार सम्मूर्च्छन मत्स्य के प्रथमोपशम सम्यक्त्व भी नहीं होता है क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व गर्भज जीवों के ही होता है। *(धवला पु)*
यहा केवल क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो सकता है।
*✍️ सम्मूर्च्छन तिर्यंचो के सम्यक्त्व :-*
यहा उत्पन्न होने की अपेक्षा नही रहने को अपेक्षा है।
◆ सम्मूर्च्छन तिर्यंचो के चार सम्यक्त्व हो सकते हैं-
मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व। *सामान्य तिर्यंच चार प्रकार के होते है*
*∆ मिथ्यात्व* होने मे कोई बाधा नही है,
*∆ सासादन* कोई सासादन से मरण करके आया हो, क्योकि सासादन से मरण करके नरकगति को छोडकर बाकी तीनो गतियो मे जा सकते है।
*∆ क्षायोपशमिक* भी यहा उत्पन्न हो सकता है।
*∆ सम्यग्मिथ्यात्व* भी यहा हो सकता है।
भोगभूमि में सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंच नहीं होते हैं
एकमात्र गर्भज तिर्यंच होते है। कर्मभूमि मे गर्भज और सम्मूर्च्छन दोनों प्रकार के तिर्यंच होते है।
◆ महामत्स्य के सासदन भी उत्पन्न नही हो सकता, क्योकि सासादन तो उपशम से गिरकर होता है, ओर सम्मूर्च्छन जीवो के उपशम सम्यक्त्व नही होता है। लेकिन साथ लेकर आ सकता है।
महामत्स्य के मिथ्यात्व हो सकता है, सम्यग्मिथ्यात्व हो सकता है और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी हो सकता है।
भोगभूमि मे सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंचो नही होते है, इसलिए सम्मूर्च्छन तिर्यंचो में क्षायिक नहीं कहा है ।
*👉 यदि सम्मूर्च्छन जीवों के उपशम-सम्यक्त्व नहीं होता है, तो उनके सासादन-सम्यक्त्व कैसे हो सकता है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व के बिना सासादन सम्यक्त्व नहीं हो सकता है?*
∆ यद्यपि सम्मूर्च्छन जीवों के प्रथमोपशम सम्यक्त्व नहीं होता है फिर भी पूर्व भव से अर्थात् कोई मनुष्य-तिर्यंच सासादन-सम्यक्त्व को लेकर सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होता है तो उसके सासादन-सम्यक्त्व का अस्तित्व बन जाता है।
इसी प्रकार से महामत्स्य के भी हो सकता है लेकिन उसी पर्याय मे सासादन उत्पन्न नही होता है।
*👉 क्या तिर्यंच की निर्वृत्यपर्याप्तक-अवस्था में भी सभी सम्यक्त्व होते हैं?*
◆ नहीं, तिर्यंचो की निर्वृत्यपर्याप्तक-अवस्था में चार सम्यक्त्व होते हैं- मिथ्यात्व, सासादन, क्षयोपशम, क्षायिक सम्यक्त्व। उपशम और मिश्र नहीं होते हैं।
*∆ सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र)* नही हो सकता क्योकी इस गुणस्थान मे मरण नही होता है।
*∆ औपशमिक* नही हो सकता क्योकी उपशम मे मरण नही होता है।
*∆ क्षायोपशमिक* कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा हो सकता है।
*∆ क्षायिक* हो सकता है भोगभूमि के तिर्यच अपेक्षा
*नोट* क्षयोपशम सम्यक्त्व भोगभूमि में जाते समय कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा कहा गया है। क्षायिक- सम्यक्त्व भोगभूमि की अपेक्षा है।
*👉 किन-किन तिर्यंचो के पंचम गुणस्थान नहीं होता है?*
भोगभूमि तिर्यंच के चार गुणस्थान, कर्मभूमि तिर्यंचों के पाँच गुणस्थान होते है।
*०१)* एकेन्द्रियादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक जीवों के पाँचवा गुणस्थान नही होता केवल पहला गुणस्थान
*०२)* संज्ञी पंचेन्द्रिय में भी जो लब्ध्यपर्यातक जीव है उनके भी पाँचवा गुणस्थान नही होता है।
*०३)* भोगभूमिज तथा कुभोगभूमिज तिर्यंच जीवों के पाँचवा गुणस्थान नही होता है। चार तक होते है।
*विशेष* (हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से भगवान आदिनाथ स्वामी के समय में भोगभूमि में ही तीर्थंकर, संयमी, संयमासंयमी आदि हुए थे)
*०४)* म्लेच्छखण्ड में तिर्यंचो में पंचम गुणस्थान प्राप्त करने की योग्यता नहीं है ।
*नोट* म्लेच्छखण्ड से यहाँ आकर हाथी-घोड़ा आदि कोई पंचमगुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं। (मनुष्यों के समान तिर्यंचो का कथन आगम में नहीं आता है)
*👉 क्या भोगभूमि में किसी भी अपेक्षा पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यंच नहीं हो सकते हैं?*
जिसने भोगभूमि मे जन्म लिया हो उसके पंचम गुणस्थान नही होता है।
लेकिन बैर के सम्बन्ध से देवों अथवा दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्यंचो का सब जगह सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए वहाँ पर अर्थात् भोग-भूमि में भी पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यंच का अस्तित्व बन जाता है *(धवला 1/404)*
*नोट* इसी प्रकार संयतासंयत मनुष्य व संयत मुनि भी पाये जा सकते हैं ।
*👉 क्या क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंचो के पांचवा संयतासंयत गुणस्थान हो सकता है?*
◆ नहीं हो सकता, क्योकि क्षायिक सम्यक्त्व कर्मभूमि के जीवो में होता ही नही है, तथा भोगभूमि के तिर्यंचो मे ले जाने की अपेक्षा से होता तो है लेकिन भोगभूमि मे पंचम गुणस्थान नही होता है, भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों की उत्पत्ति नहीं होती है, वहाँ पर अणुव्रत होने में आगम से विरोध है *(ध.1/405)*
*✍️ तिर्यंचो के प्राण*
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*तिर्यंच प्राण*
*निर्वृत्यपर्याप्त पर्याप्त*
*एकेन्द्रिय* 3 4 (स्पर्शनेन्द्रिय, आयु
कायबल, श्वासो.)
*द्वीन्द्रिय* 4 6 (2 इन्द्रिय, वचनबल
कायबल,श्वासो.,आयु)
*त्रीन्द्रिय* 5 7 (3 इन्द्रिय, 2 बल,
आयु, श्वासो.)
*चतुरिन्द्रिय* 6 8 (4 इन्द्रिय, 2 बल
आयु, श्वासो.)
*असैनी पचेन्द्रिय* 7 9 (5 इन्द्रिय, 2 बल
आयु, श्वासो.)
*सैनी पंचेन्द्रिय* 7 10 (5 इन्द्रिय, 3 बल
आयु, श्वासो.)
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
*नोट* सभी जीवों के निर्वृत्यपर्यासक अवस्था में श्वासोच्छवास, वचनबल तथा मनोबल नही होते हैं।
▪️असैनी पर्यन्त जीवों के मनोबल नहीं होता है।
*✍️ सम्यग्दृष्टि तिर्यंचो के आस्रव के प्रत्यय :-*
*1. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती तिर्यंचो के आस्रव के 44 प्रत्यय हो सकते हैं* मिथ्यात्व 00, अविरति 12, कषाय 21 (अनन्तानुबन्धी बिना) तथा 11 योग (4 मनो. 4 वचन. 4 काय.) औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग भोगभूमि की अपेक्षा बन जायेंगे।
∆ यहा कोई जीव क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है और भोगभूमि मे जाता है तो कार्मण काययोग तो होगा, तथा औदारीक मिश्र भी होगा तथा औदारिक काययोग भी होगा।
(भोगभूमि कि अपेक्षा से यहा वैक्रियकद्विक और आहारकद्विक ये चार योग नही होते है)
*2. चौथा गुणस्थानवर्ती सम्यग्द्रष्टि तिर्यंच देवगति मे जाने की अपेक्षा आस्रव के 42 प्रत्यय होते है*
(मिथ्यात्व 00, अविरति 12, कषाय 21, योग 9 (मन 4, वचन 4, औदारिक काययोग)
*3. मिथ्याद्रष्टि तिर्यच के आस्रव के ५३ प्रत्यय होते है* (मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कषाय 25, योग 11)
*✍️ तिर्यंचो की बासठ लाख जातियाँ :-*
नित्यनिगोद 7 लाख
इतरनिगोद 7 लाख
पृथ्वीकायिक 7 लाख
जलकायिक 7 लाख
अग्निकायिक 7 लाख
वायुकायिक 7 लाख
वनस्पतिकायिक 10 लाख
द्वीन्द्रिय 2 लाख
त्रीन्द्रिय 2 लाख,
चतुरिन्द्रिय 2 लाख
पंचेन्द्रिय तिर्यंच 4 लाख
*✍️ तिर्यंचो के 134.5 लाख करोड़ :-*
पृथ्वीकायिक 22 लाख करोड़,
जलकायिक 7 लाख करोड़,
अग्निकायिक 3 लाख करोड़,
वायुकायिक 7 लाख करोड़,
वनस्पतिकायिक 28 लाख करोड़,
द्वीन्द्रिय 7 लाख करोड़,
त्रीन्द्रिय 8 लाख करोड़,
चतुरिन्द्रिय 9 लाख करोड़,
जलचर 12.5 लाख करोड़,
थलचर 19 लाख करोड़,
नभचर 12 लाख करोड़,
*✍️ भोगभूमिया तिर्यंंच के 31 लाख करोड़ कुल :-*
थलचर 19 लाख करोड़ कुल
नभचर 12 लाख करोड़ कुल
भोगभूमि में एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं। इसलिए उनके कुल ग्रहण नहीं किये है।
*नोट* यद्यपि वहाँ एकेन्द्रिय जीव होते हैं, लेकिन वे भोगभूमिया नहीं होते हैं, सामान्य एकेन्द्रिय हैं, इसलिए यहाँ उनके कुलों का ग्रहण नहीं किया है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
Tuesday, 14 January 2025
एक जीव अपेक्षा गुणस्थानो का काल
Sunday, 12 January 2025
मध्यलोक
*✍️ मध्यलोक*
https://youtu.be/HM7UgD_e6Vo?si=dQb_g8Met2NMaHAU
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अनंत अलोकाकाश के मध्य मे लोकाकाश स्थित है। यह 343 धन राजू का है। लोकाकाश के तीन भाग उर्ध्वलोक, मध्यलोक व अधोलोक है। उर्ध्वलोक और अधोलोक के मध्य में स्थित होने के कारण इसे मध्यलोक कहते है। तिरछा फैला हुआ होने के कारण इसे तिर्यग्लोक भी कहते है। इसकी स्थिति त्रस लोक की मुख्यता से यह एक राजू लम्बा, एक राजू चौड़ा और ऊँचाई सुमेरु पर्वत समान एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। विशेष रुप से पूर्व पश्चिम एक राजू तथा उत्तर दक्षिण सात राजू है। यह झालर के समान है।
मध्यलोक में द्वीप समुद्रो की संख्या 25 कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों (अढाई उद्धार सागर) के रोमों के समय प्रमाण संख्या है अर्थात असंख्यात द्वीप और असख्यात समुद्र है। सब द्वीप-समुद्र एक दूसरे को वेष्टित (घेरे) किए हुए हैं, वलयाकार (चूड़ी के समान आकार के) गोलाकार तथा दूने-दूने विस्तार वाले है। इनमें सबसे पहला जम्बूद्वीप और अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र है। इनमें से जो पहला द्वीप वह थाली के समान आकार का तथा अन्य सभी द्वीप और समुद्र चूडी के आकार के है। सभी द्वीप चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित है और सभी समुद्र चित्रा पृथ्वी को खंडित कर वज्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित हैं अर्थात् 1000 योजन गहरे हैं।
*✍️ 32 द्वीप 32 समुद्रो के नाम*
इस मध्यलोक मे द्वीप और समुद्र तो असंख्यात है, लेकिन हमारे पास नाम केवल संख्यात ही है इसलिए एक ही नाम के कई द्वीप और कई समुद्र भी है। आगम मे कुछ 32 द्वीप और 32 समुद्रो के नाम मिले है वे इस प्रकार से है–
*✍️ प्रथम द्वीप और समुद्र से प्रारम्भ करके*
01) जम्बूद्वीप लवण समुद्र
02) घातकीखण्ड द्वीप कालोद समुद्र
03) पुष्करवर द्वीप पुष्करवर समुद्र
04) वारुणीवर द्वीप वारुणीवर समुद्र
05) क्षीरवर द्वीप क्षीरवर समुद्र
06) घृतवर द्वीप घृतवर समुद्र
07) क्षौद्रवर द्वीप क्षौद्रवर समुद्र
08) नंदीश्वर द्वीप नंदीश्वर समुद्र
09) अरुणवर द्वीप अरुणवर समुद्र
10) अरुणाभास द्वीप अरुणाभास समुद्र
11) कुण्डलवर द्वीप कुण्डलवर समुद्र
12) शंखवर द्वीप शंखवर समुद्र
13) रुचकवर द्वीप रुचकवर समुद्र
14) भुजगवर द्वीप भुजगवर समुद्र
15) कुशवर द्वीप कुशवर समुद्र
16) क्रौंचवर द्वीप क्रौंचवर समुद्र
*✍️अन्तिम समुद्र से प्रारम्भ करके 16 द्वीप समुद्रों के नाम*
01) स्वयंभूरमण समुद्र स्वयंभूरमण द्वीप
02) अहीन्द्रवर समुद्र अहीन्द्रवर द्वीप
03) देववर समुद्र देववर द्वीप
04) यक्षवर समुद्र यक्षवर द्वीप
05) भूतवर समुद्र भूतवर द्वीप
06) नागवर समुद्र नागवर द्वीप
07) वैडूर्य समुद्र वैडूर्य द्वीप
08) वज्रवर समुद्र वज्रवर द्वीप
09) कांचन समुद्र कांचन द्वीप
10) रुपयवर समुद्र रुप्यवर द्वीप
11) हिंगुल समुद्र हिंगुल द्वीप
12) अंजनवर समुद्र अंजनवर द्वीप
13) श्याम समुद्र श्याम द्वीप
14) सिंदूर समुद्र सिंदूर द्वीप
15) हरितालसमुद्र हरिताल द्वीप
16) मन:शिल समुद्र मन:शिल द्वीप
*✍️समुद्रो के जल का स्वाद*
लवण समुद्र, वारुणीवर समुद्र, घृतवर समुद्र और क्षीरवर समुद्र इन चारों का जल अपने नामों के अनुसार है अर्थात लवण का जल खारा, वारूणी का जल मद्य के समान, घृतवर का जल घी के समान, क्षीरवर का जल दूध के समान है। इसी क्षीरवर समुद्र के जल से तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है।
◆ कालोदधि समुद्र, पुष्करवर समुद्र और स्वयम्भूरमण समुद्र इन तीनों के जल का स्वाद सामान्य जल के सदृश ही होता है।
◆ शेष सभी समुद्रो (असंख्यात समुद्रो) का जल इक्षुरस यानि गन्ने के रस के समान मधुर है।
◆ जलचर जीव केवल लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र में ही हैं अन्य किसी समुद्र में जलचर जीव नहीं है।
*✍️पहला जम्बूद्वीप*
मध्यलोक के बिल्कुल बीचोंबीच एक लाख योजन विस्तार वाला पहला जम्बूद्वीप है। यह थाली के आकार वाला द्वीप है। यहा अनादिनिधन जम्बू (जामुन) का वृक्ष है, जिसके कारण ही इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा। यह वृक्ष पृथ्वीकायिक है। यहा नाभी के समान सुमेरु पर्वत है। जम्बूद्वीप छ्ह कुलाचल से सात क्षेत्र हो जाते है।
जम्बूद्वीप मे 02 सूर्य और 02 चन्द्रमा है।
जम्बूद्वीप के स्वामी अनादर और सुस्थित व्यंतर देव है।
*✍️ लवण समुद्र*
जम्बूद्वीप को चारों तरफ से घेरे हुए पहला लवण समुद्र है, जो जम्बूद्वीप से दूने विस्तार यानि दो लाख योजन का है। यह सर्वत्र 1000 योजन गहरा है। यहा पर 1008 पाताल है जिसके जल के कारण ही यहा का जल हवा मे उठता रहता है। यही पर रावण वाली राक्षस नगरी है। यहा 96 कुभोगभूमि मे से 48 कुभोगभूमि है।
◆ लवण समुद्र के जम्बूद्वीप के समान 24 खंड हो सकते हैं। इस समुद्र मे 04 सूर्य और 04 चन्द्रमा है।
लवण समुद्र के स्वामी अनादर और सुस्थित व्यंतर देव है।
*✍️दूसरा घातकी खंड द्वीप*
मध्यलोक का दूसरा द्वीप घातकीखंड है जिसका विस्तार 04 लाख योजन है। यहा 02 इश्वाकार पर्वत हैं जिससे घातकीखंड के दो हिस्से पूर्व घातकी खंड और पश्चिम घातकी खंड हो जाते हैं। दोनों ही घातकी खण्डों में जम्बूद्वीप की तरह भरत, ऐरावत आदि क्षेत्र, हिमवान, महाहिमवान आदि कुलाचल पर्वत, गंगा-सिंधु आदि नदियां की रचना है।
पूर्व घातकीखण्ड में विजय मेरु, पश्चिम घातकीखंड में अचल-मेरु स्थित है।
◆ घातकीखंड में जंबूद्वीप के समान 144 खंड हो सकते है। घातकीखण्ड में 12 सूर्य 12 चंद्रमा है। घातकीखण्ड के प्रभास और प्रियदर्शन व्यंतर देव स्वामी है।
*✍️ कालोद-समुद्र*
घातकीखण्ड को चारों तरफ से घेरे हुए 08 लाख योजन विस्तार वाला कालोद समुद्र है। यह सर्वत्र 1000 योजन गहरा है। यहा 96 कुभोगभूमि मे से 48 कुभोगभूमि है।
इसके जम्बूद्वीप के समान 672 खंड हो सकते है।
कालोद समुद्र मे 42 सूर्य और 42 चंद्रमा है।
कालोद-समुद्र के स्वामी काल और महाकाल व्यंतर देव है।
*✍️तीसरा पुष्करवर द्वीप*
कालोद-समुद्र को घेरे हुए 16 लाख योजन विस्तार वाला मध्यलोक का तीसरा पुष्करवर द्वीप है। इसके बीचो-बीच चूड़ी के आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। कालोद-समुद्र से मानुषोत्तर पर्वत तक के आधे क्षेत्र को "पुष्करार्द्ध द्वीप" कहते हैं जो 08 लाख योजन है।
इसमे घातकीखंड द्वीप की तरह ही उत्तर और दक्षिण में 02 इश्वाकार-पर्वत हैं। जिससे पुष्करार्द्ध द्वीप के दो हिस्से हो जाते हैं पूर्व पुष्करार्ध द्वीप और पश्चिम पुष्करार्द्ध द्वीप। पूर्व पुष्करार्द्ध द्वीप में मंदर मेरु, पश्चिम पुष्करार्द्ध द्वीप में विद्युन्माली मेरु स्थित है।
इसमे 72 सूर्य और 72 चन्द्रमा है।
पुष्करार्द्ध द्वीप के स्वामी पदम और पुण्डरीक व्यंतर देव है।
*✍️अढ़ाई-द्वीप*
जम्बू-द्वीप, लवण-समुद्र, घातकीखंड द्वीप, कालोद समुद्र, पुष्करवर-द्वीप के मानुषोत्तर पर्वत तक का भाग (पुष्करार्द्ध द्वीप) अढ़ाई-द्वीप कहलाता है इसका विस्तार 45 लाख योजन है। यहाँ मुक्ति के योग्य 15 कर्मभूमियाँ तथा 30 भोगभूमियाँ है। यहा 05 मेरु, 05 उत्तरकुरु, 05 देव कुरु, 20 गजदंत पर्वत, 30 कुलाचल, 170 विजयार्ध पर्वत, 04 इष्वाकार पर्वत, 01 मानुषोत्तर पर्वत, 170 आर्य खण्ड, 850 म्लेच्छ खण्ड आदि है। इन अढ़ाई-द्वीपों से आगे कोई ऋद्धिधारी विद्याधर या सामान्य मनुष्य भी नहीं जा सकता है। इसके आगे के असंख्यात द्वीपों में जघन्य भोगभूमि हैं, जिनमे त्रिर्यच-युगल रहते हैं। अढाई द्वीप तक 132 सूर्य 132 चन्द्रमा है।
*✍️आंठवा नंदीश्वर द्वीप*
मध्यलोक का आंठवा नंदीश्वर द्वीप है, इसका विस्तार 163 करोड़ 84 लाख योजन है। यहा 52 अकृत्रिम जिनालय है। हर जिनालय में 500 धनुष ऊँची 108-108 अनादिनिधन पद्मासन मुद्रा में अरिहंत भगवान की कुल 5616 प्रतिमाएं विराजमान हैं। तीनो अष्टानिका पर्व के अंतिम आठ दिनों में (अष्ठमी से पूर्णिमा तक) चारो निकाय के देव भक्ति भाव से आठ दिनों तक अखंड रूप से पूजा करते हैं।
इस द्वीप मे 147456 सूर्य, 147456 चन्द्रमा है।
नंदीश्वर द्वीप के स्वामी नन्दि और नन्दिप्रभ व्यंतर देव है।
*✍️ 11 वा कुण्डलवर द्वीप*
मध्यलोक का 11वा कुंडलवर द्वीप है। इसका वलय विस्तार 10485 करोड 76 लाख योजन है। इस द्वीप के मध्य मे एक सुवर्णमई गोलाकार कुण्डलवर पर्वत है। जिसकी ऊँचाई 75000 योजन, नीव 1000 योजन है। इस पर्वत पर स्थित 20 कूटो मे से 04 कूटो पर अकृत्रिम जिन चैत्यालय और बाकी 16 पर व्यंतर देव-देवी के निवास स्थान है।
इस द्वीप मे 9437184 सूर्य और 9437184 ही चन्द्रमा स्थित है।
कुण्डलवर द्वीप के स्वामी कुण्डल और कुण्डलप्रभ व्यंतर देव है।
*✍️ 13 वा रुचकवर द्वीप*
मध्यलोक के 13 वे द्वीप का नाम रुचकवर द्वीप है जो सुवर्ण वर्ण का है। इस का वलय विस्तार 167772 करोड 16 लाख योजन है। इसके मध्य वलयाकार रुचकवर पर्वत स्थित है। यह 84000 योजन ऊँचा, 84000 योजन चौड़ा और 1000 योजन गहरा गोलाकार सुवर्णमई पर्वत है। इस पर्वत के ऊपर स्थित 44 कूटो मे से चारो दिशाओ मे एक एक करके कुल 04 कूटो पर 04 अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं।
इस द्वीप मे 150994944 सूर्य 150994944 ही चंद्रमा हैं।
*✍️अकृत्रिम जिनमंदिर*
जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवर द्वीप तक ही अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, आगे नहीं हैं। इन सब मंदिरों की संख्या 458 है। इसमे से 398 जिनमन्दिर तो मनुष्यलोक मे है। 52 जिनमन्दिर नन्दीश्वर द्वीप मे, 4 जिनमन्दिर कुण्डलवर द्वीप, 04 जिनमन्दिर रुचकवर द्वीप मे है।
*✍️ असंख्यात द्वीपो ने जघन्य भोगभूमि*
मानुषोत्तर पर्वत से लेकर स्वयम्भूरमण द्वीप मे बने कुण्डलाकार स्वयंप्रभ पर्वत तक असंख्य द्वीपो मे जघन्य भोगभूमि है। यहा पर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का निवास स्थान है। ये युगल ही उत्पन्न होते हैं युगल ही मरण को प्राप्त होते है। एक पल्य की उत्कृष्ट आयु, दो हजार धनुष ऊँचे, सुकुमार, कोमल अंगो वाले, फल भोजी, मंद कषायी हैं। अन्त में मरकर देवगति को प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ विकलत्रय जीव नहीं होते हैं।
*✍️अंतिम स्वयम्भूरमण द्वीप*
मध्यलोक का सबसे अंतिम द्वीप स्वयम्भूरमण द्वीप है। इसकी वलय चौडाई राजू के आठवे भाग प्रमाण है। इस स्वयंभूरमण द्वीप के मध्य में चूड़ी के समान आकार वाला स्वयंप्रभ पर्वत है। इस पर्वत के अंतरवर्ती भाग (अन्दर के भाग मे) अन्य द्वीपो के समान तिर्यंच की जघन्य भोगभूमि है। बाहरी भाग मे तिर्यंचो की कर्मभूमि है। यहा दुषमा काल (पंचम काल) है। यहा असंख्यात सूर्य और असंख्यात चन्द्रमा है।
*✍️ सबसे अंतिम स्वयम्भूरमण समुद्र*
मध्यलोक का सबसे अंतिम समुद्र स्वयम्भूरमण समुद्र है। यहा भी कर्मभूमि है, हमेशा पंचम काल (दुषमा काल) ही रहता है। स्वयम्भूरमण समुद्र का वलय विस्तार चौथाई राजू हैं।
यहा असंख्यात सूर्य और असंख्यात चन्द्र है।
*✍️ बाहय के चार कोने*
मध्यलोक मे स्वयम्भूरमण समुद्र के बाद जो चार कोने बचते है वहा हमेशा पंचम काल (दुषमा काल) है, यहा कर्मभूमि मे तिर्यंच पाए जाते है।
*✍️ ज्योतिष देव*
चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारे ये पांच प्रकार के असंख्यात ज्योतिष्क देव इसी मध्यलोक में 790 योजन से 900 योजन तक की ऊँचाई कुल 110 योजन के बीच में रहते हैं।
◆ मध्यलोक का सामान्य वर्णन पूर्ण हुआ
।।जिनवाणी माता की जय।।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
Thursday, 9 January 2025
05. चौबीस ठाणा से नरकगति मार्गणा
Wednesday, 8 January 2025
01. चौबीस ठाणा के नाम, उनके उत्तर भेद
01. चौबीस ठाणा के नाम, उनके उत्तर भेद*
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https://youtu.be/WiAu4Pj-CQs?si=UgggOsI-kLkSu-kJ
*चौबीस = चौबीस, ठाणा = स्थान*
*जहाँ चौबीस स्थानो मे जीव का विशेष वर्णन किया गया है उसे चौबीस ठाणा कहते है।*
बोधिदुर्लभ भावना का चिंतन करने के लिए चौबीस ठाणा का अध्ययन करना चाहिए। अपने उपयोग के चौबीस स्थान के उत्तर भेदो मे लगाना चाहिए और विचार करना चहिए कि किस-किस स्थान पर रत्नत्रय प्राप्त किया जा सकता है। हम कितने कितने स्थानो को छोड़कर यहाँ आ गये है। सब कुछ अनुकुलता मिल जाने पर भी यदि हम रत्नत्रय धारण नही कर पाये तो सबकुछ व्यर्थ है। लोक भावना भाने के लिए भी चौबीस ठाणा समझना चाहिए।
*✍️चौबीस ठाणा (स्थान) के नाम :-
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यक्त्व, सम्यक्तव, संज्ञी, आहार, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग, ध्यान, आस्रव, जाति और कुल।
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*✍️चौबीस ठाणा (स्थानो) के उत्तर भेद :-
*०१) गति –०४*
नरक गति, तिर्यंचगति, मनुष्य गति और देवगति।
*०२) इन्द्रिय –०५*
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय।
*०३) काय –०६*
पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय।
*०४) योग –१५*
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग,
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०७* औदारिक-औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक-वैक्रियिक मिश्रकाययोग, आहारक - आहारकमिश्र काययोग, कार्मण काययोग
*०५) वेद –०३*
स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद।
*०६) कषाय –२५*
*१६ कषाय*
*०४ अनन्तानुबन्धी* क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ अप्रत्याख्यानावरण* क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ प्रत्याख्यानावरण* क्रोध-मान-माया-लोभ
*०४ संज्वलन* क्रोध-मान-माया-लोभ
*०९ नोकषाय* हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद।
*०७) ज्ञान –०८*
*कुज्ञान ०३* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
*सुज्ञान ०५* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान
*०८) संयम –०७*
असंयम, संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय, यथाख्यात,
*०९) दर्शन –०४*
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन।
*१०) लेश्या –०६*
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल लेश्या।
*११) भव्यक्त्व –०२* भव्य और अभव्य।
*१२) सम्यक्त्व –०६*
मिथ्यात्व,सासादन,मिश्र,उपशम,क्षयोपशम, क्षायिक
*१३) संज्ञी –०२* संज्ञी और असंज्ञी।
*१४) आहारक –०२* आहारक और अनाहारक।
*१५) गुणस्थान –१४*
मिथ्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र), अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्य साम्पराय, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली जिन, अयोगकेवली जिन।
*१६) जीवसमास–१९*
पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, जलकायिक सूक्ष्म-बादर, अग्निकायिक सूक्ष्म-बादर, वायुकायिक सूक्ष्म-बादर, नित्यनिगोद सूक्ष्म-बादर, इतरनिगोद सूक्ष्म-बादर, सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय।
*१७) पर्याप्ति –०६*
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा तथा मन:पर्याप्ति।
*१८) प्राण –१०*
*इन्द्रिय ०५* स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण
*बल ०३* कायबल, वचन बल और मनोबल प्राण
आयु प्राण और श्वासोच्छवास प्राण
*१९) संज्ञा –०४*
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग –१२*
*ज्ञानोपयोग- ०८* मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानोपयोग + कुमति, कुश्रुत कुअवधि
*दर्शनोपयोग ०४* चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शनोपयोग
*२१) ध्यान –१६*
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी।
*धर्मध्यान ०४* आज्ञाविचय,अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय।
*शुक्ल ०४* पृथक्त्ववितर्क वीचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति।
*२२) आस्रव –५७*
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति १२* ०५ इन्द्रिय और मन को वश में नही करना तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २५* १६ अनन्तानुबन्धीआदि ०९नोकषाय
*योग १५* मनोयोग ०४ वचनयोग ०४ काययोग ०७
*२३) जाति –८४ लाख*
*नित्यनिगोद* ०७ लाख
*इतरनिगोद* ०७ लाख
*पृथ्वीकायिक* ०७ लाख
*जलकायिक* ०७ लाख
*अग्निकायिक* ०७ लाख
*वायुकायिक* ०७ लाख
*वनस्पतिकायिक* १० लाख
*द्वीन्द्रिय* ०२ लाख
*त्रीन्द्रिय* ०२ लाख,
*चतुरिन्द्रिय* ०२ लाख
*पंचेन्द्रिय तिर्यंच* ०४ लाख,
*नारकी* ०४ लाख
*देव* ०४ लाख
*मनुष्य* १४ लाख
*२४) कुल–१९९.५ लाख करोड*
*पृथ्वीकायिक* २२ लाख करोड़,
*जलकायिक* ०७ लाख करोड़,
*अग्निकायिक* ०३ लाख करोड़,
*वायुकायिक* ०७ लाख करोड़,
*वनस्पतिकायिक* २८ लाख करोड़,
*द्वीन्द्रिय* ०७ लाख करोड़,
*त्रीन्द्रिय* ०८ लाख करोड़,
*चतुरिन्द्रिय* ०९ लाख करोड़,
*जलचर* १२.५ लाख करोड़,
*थलचर* १९ लाख करोड़,
*नभचर* १२ लाख करोड़,
*नारकी* २५ लाख करोड़,
*देव* २६ लाख करोड़,
*मनुष्य* १४ लाख करोड़
*कुल जोड=* १९९-१/२ लाख करोड़ कुल।
*जीवकाण्ड जी गाथा ११६ अनुसार मनुष्यों के १२ लाख करोड़ कुल बताये हैं इस अपेक्षा से कुल १९७-१/२ लाख करोड़ कुल होते हैं।*
*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन )*
04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा
*04. चौबीस ठाणा मे गतिमार्गणा*
https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC
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*जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।*
गति नाम कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपने को प्राप्त होता उसे गति कहते है।
जिसके उदय से जीव भावान्तर को जाता है वह गति नामकर्म हैं। *(मूलाचार १२३६)*
गति नाम कर्म के उदय से जीव की पर्याय को अथवा चारो गति मे गमन करने को गति कहते है।
*(गो. जी १४६)*
*गति जीव विपाकी प्रकृति हैं इसमे जीवो के भावो की मुख्यता रहती है*
गति अपेक्षा जीवो का परिचय होना गति मार्गणा है।
*गति मार्गणा के चार भेद –नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति हैं-सिद्धगति में भी जीव होते हैं*
नरकगति द्वारा नारकी जीवो की खोज होती हैं।
तिर्यंचगति द्वारा तिर्यंच जीवो की खोज होती हैं।
मनुष्यगति द्वारा मनुष्यो की खोज होती हैं।
देवगति द्वारा देवो की खोज होती हैं।
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*✍️नरकगति*
जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में स्वय तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारक कहते हैं। नारक की गति को नरकगति कहते हैं।
*(गो.जी. १४७)*
द्रव्य मे–यानि नरक मे जितनी भी वस्तुए है, या शरीर हैं उसमे नही रमते, उन्हे वहा कोई भी वस्तु अच्छी नही लगती
क्षेत्र मे–नारकी को वहा का क्षेत्र भी अच्छा नही लगता है।
काल मे- नारकी को वहा का काल भी अच्छा नही लगता है।
भाव मे–नारकी को वहा का भाव भी अच्छा नही लगता, वहा कभी अच्छे भाव नही होते है। हर समय लडना, मारना, काटना, एक् दुसरे को तकलीप देने के भाव होते है।
परस्पर मे–प्रीति को प्राप्त नही होते, कभी भी एक दूसरे से दोस्ती नही होती हैं। जब भी नया नारकी आता है तो अन्य सभी नारकी आते है और सभी मिलकर उसे मारते काटते है।
नीचे अधोलोक में घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा तथा माघवी नामक सात पृथिवियाँ हैं *ये उनके रुढी नाम है* तथा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि गुणनाम है *सार्थक नाम है* यथा नाम वैसा ही वहा का काम है। जैसे जहा रत्नो जैसी प्रभा है उसका नाम रत्नप्रभा है। यहा नारकी जीव रहते है।
ये नारकी क्षेत्रजनित, मानसिक, शारीरिक और असुरकृत दुख, परस्परकृत दुख आदि अनेक प्रकार के दुःखों को दीर्घ काल तक भोगते हैं, उसकी गति को नरकगति कहते है।
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*✍️तिर्यंचगति*
देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोड्कर शेष सभी तिर्यंच कहलाते हैं। तिर्यंचो की गति को तिर्यंचगति कहते हैं। *(त. सू ०४/२७)*
*०१)* मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त हो।
*०२)* जिनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) हो । *०३)* जो निकृष्ट अज्ञानी हो ।
*०४)* जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय वे तिर्यंच है
इन तिर्यंच की गति को तिर्यंचगति कहते हैं।
*(गो. जी. १४८)*
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*✍️मनुष्यगति*
जिनके मनुष्यगति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते है। *(गो.जी. १४९)*
*०१)* जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे
हेय=छोडने योग्य, उपादेय=ग्रहण करने योग्य
हमे क्या चीज छोडनी चाहिए क्या ग्रहण करना चाहिए इसका पता चलता है।
तत्त्व=वस्तु स्वरुप का, अतत्त्व=जैसा स्वरुप नही है
उसे अच्छे से जानता है।
आप्त=इष्ट देव का पता होना, अनाप्त=जो इष्टदेव नही है का पता होता है।
धर्म मे क्या है, अधर्म मे क्या है का विचार होता है उसको मनुष्य कहते है।
*०२)* जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके,
*०३)* जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो,
*०४)* शिल्प-कला आदि में कुशल हो तथा
*०५)* जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं। उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं।
*(गो. जी. १४९)*
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*✍️देवगति*
देवगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न गति को देवगति कहते है। देव चार प्रकार के होते है–भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष और वमानिक देव।
*०१)* जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों,
*०२)* अणिमादि गुणों से सदा अप्रतिहत (बिना रोक-टोक) विहार करते हो,
*०३)* जिनका रूप-लावण्य सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं। उन देवों की गति को देवगति कहते है।
*(गो. जी. १५१)*
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*✍️सिद्धगति*
यद्यपि सिद्ध भगवान के किसी गति नामकर्म का उदय नहीं है फिर भी आठ कर्मों का नाश करके सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग में गमन करते हैं ।
*०१)* जो एकेन्द्रिय आदि जाति, बुढ़ापा, मरण तथा भय से रहित हों,
*०२)* जो इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग से रहित हों,
*०३)* जो आहारादि संज्ञाओं से रहित हों,
*०४)* रोग, आधि-व्याधि से रहित हों, वे सिद्ध भगवान हैं, उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं।
*(गो. जी. १५२)*
जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूप अमृत के अनुभव करने वाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भाव कर्म रूपी अंजन से रहित हैं, नित्य हैं, जिनके सम्यक्क्तवादि भाव रूप मुख्य गुण प्रकट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं और उनकी गति को सिद्धगति कहते है। *(गो. जी. ६८)*
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
7. चौबीस ठाणा में मनुष्यगति मार्गणा
*✍️ मनुष्यगति में चौबीस ठाणा* https://youtu.be/zC4edAGojCs?si=w9wU8fxsCnEIxFEt 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 जिनके मनुष्य गति नामकर्म का उदय पाया जाता ...
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*05. चौबीस ठाणा से नरकगति मार्गणा* https://youtu.be/4dRL_o8GGMA?si=LJsrNvPj4yHo7kKC 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *✍️ नरकगति मे 24 ठाणा*...
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*✍️ एक जीव अपेक्षा गुणस्थानो का काल* https://youtu.be/0J0qMbTMdGY?si=4VNNjjiY-kh7wVb2 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 मोह और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति ...
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*✍️ 06. चौबीस ठाणा मे तिर्यंचगति मार्गणा* https://youtu.be/3XQJxYDGbro?si=iAdBgPFtQ1AKbhWU 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 देव, नारकी तथा मनुष्यों को ...