गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

24) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*

*२४) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*
🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴

*जहाँ कार्मण काययोग समाप्त होगा उसके अगले ही क्षण से ही मिश्र काययोग प्रारम्भ हो जाता है।*

*०१) गति      ०२/०४*   नरक, देव
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   पंचेन्द्रिय
*०३) काय      ०१/०६*   त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५* वैक्रियकमिश्न काययोग
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनो वेद
      स्त्रीवेद, पुरुषवेद देवो के, नपुंसकवेद नारकी के
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०५/०८* 
      कुमति, कुश्रुत, मति, श्रुत, अवधिज्ञान
*०८) संयम      ०१/०७*  असंयम
*०९) दर्शन      ०३/०४*  तीन दर्शन
      चक्षुदर्शन,अचक्षुदर्शन,अवधिदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
      नारकियो मे ०३ अशुभ, देवो मे ०३ शुभ लेश्या
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०५/०६*  पाँच सम्यक्त्व
मिश्न नहीं होता,औपशमिक मे द्वितीयोपशम होता है
*१३) संज्ञी         ०१/०२*  संज्ञी
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक
*१५) गुणस्थान   ०३/१४*  ०१, ०२, ०४
*१६) जीवसमास  ०१/१९*  सैनी पंचेन्द्रिय
*१७) पर्याप्ति       ०२/०६*  आहार, शरीर पर्याप्ति
*१८) प्राण           ०७/१०*  
      ०५ इन्द्रिय प्राण, कायबल, आयु प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  चारो  संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      ०८/१२* 
       कुमति, कुश्रुत, मति, श्रुत, अवधि, 
       चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन
*२१) ध्यान         १०/१६*  
      आर्त ०४, रौद्र ०४, धर्म ०२
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   ०८ लाख/८४ लाख*  
नारकी ०४ लाख, देवो ०४ लाख 
*२४) कुल-५१ लाख करोड/१९९.५ लाख़ करोड*
नारकी मे २५ लाख करोड, देवो मे २६ लाख करोड
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦

*प्रश्न ७५) वैक्रियिक मिश्रकाययोग किसे कहते हैं?*
उत्तर- जब तक वैक्रियिक शरीर पूर्ण नहीं होता तब तक उसको वैक्रियिक मिश्र कहते हैं और उसके द्वारा होने वाले योग को, आत्मप्रदेश परिस्पन्दन को वैक्रियिकमिश्र काययोग कहते हैं। *(गो. जी.२३४)*

जब यह जीव मनुष्य या तिर्यंच से मरण करके देव और नरक गति की ओर जाता है, तब विग्रहगति मे कार्मण काययोग होता है तथा अनहारक होता है। जहा जन्म लेना होता है, वहा पहुचने पर आहारक पना शरु हो जाता है जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण ना हो तब तक मिश्नपना रहता है। यहा पर वैक्रियक वर्गणाए औऱ कार्मण वर्गणाए दोनो के मिश्नण से आत्मा के प्रदेशो में कंपन होता है इसलिए इसको वैक्रियक मिश्र काययोग कहते है।
यानि आहारक वर्गणा और कार्मण वर्गणा दोनो के निमित्त से जो आत्मा मे कंपन होगा उसे वैक्रियक मिश्र कहेगे तथा शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक रहता है, उसके बाद वैक्रियक काययोग शुरु हो जाता है।

*प्रश्न ७६) वैकियिकमिश्र काययोग में कम-से- कम कितनी कषायें होती हैं?*
उत्तर - वैक्रियिकमिश्र काययोग में कम- से-कम २० कषायें होती हैं- अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन तीनों के क्रोध मान, माया, लोभ। आठ नोकषाय - (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, नपुंसक वेद)।
उपर्युक्त कषायें चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा कही गयी हैं, इसलिए स्त्रीवेद कम करा है। यहाँ नपुसक वेद सम्यग्दर्शन को लेकर प्रथम नरक में जाने वाले की अपेक्षा कहा गया है अन्यथा सम्यग्दृष्टि मरकर नपुंसक वेद वाला नहीं बनता है ।

*प्रश्न ७७) किन- किन जीवों के वैक्रियिकमिश्र काययोग में अवधिज्ञान होता है?*
उत्तर - जो जीव मनुष्य पर्याय में गुणप्रत्यय अवधिज्ञान प्राप्त करते हैं, वे अनुगामी अवधिज्ञान को लेकर जब नरकगति (बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि वा कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा) में जाते हैं तथा मनुष्य-तिर्यंच अनुगामी अवधिज्ञान को लेकर देवगति में जाते हैं तब उनके वैक्रियिकमिश्र काय योग मे स्थित सम्यग्द्रष्टि जीवो के अवधिज्ञान हो सकता है। 

*प्रश्न ७८) वैकियिकमिश्र काययोगी अभव्य जीवों के कितनी लेश्याएँ होती हैं?*
उत्तर - वैक्रियिक मिश्र काययोगी अभव्य जीवों के छहों लेश्याएँ होती हैं – 
तीन अशुभ लेश्याएँ नारकियों  तथा भवनत्रिक की अपेक्षा तथा तीन शुभ लेश्याएँ देवों की अपेक्षा होती हैं। अभव्य जीव के शुक्ल लेश्या भी बन जाती है क्योंकि अभव्य जीव का उत्पाद नवें ग्रैवेयक तक माना गया है। 

*प्रश्न ७९) वैक्रियिक मिश्र काययोगी क्षायिक सम्यग्दृष्टि के कितने वेद होते हैं?*
उत्तर - वैक्रियिक मिश्र काययोगी क्षायिक सम्यग्दृष्टि के दो वेद होते हैं – पुरुषवेद और नपुंसक वेद
*पुरुषवेद* वैमानिक देवों की अपेक्षा । 
*नपुंसक वेद* प्रथम नरक की अपेक्षा ।

*प्रश्न ८०) ऐसा कौन सा सम्यक्त्व है जो वैक्रियिक मिश्र काययोग में तो होता है लेकिन औदारिक मिश्र काययोग में नहीं होता है?*
उत्तर - द्वितीयोपशम सम्यक्त्व श्रेणी में अथवा द्वितीयोपशम सम्यक के साथ मरण की अपेक्षा वैक्रियिकमिश्र काययोग में हो सकता है, लेकिन औदारिक मिश्र काययोग में नहीं हो सकता है, क्योंकि कोई भी देव-नारकी द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता। इसका भी कारण यह है कि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व उपशम श्रेणी के सम्मुख मुनिराज के ही होता है। श्रेणी से उतरते समय अन्य गुणस्थानों में भी हो सकता है ।

*प्रश्न ८१) वैक्रियिकमिश्र काययोग में कितने सम्यक्त्व नहीं होते हैं?*
उत्तर - वैक्रियिकमिश्र काययोग में दो सम्यक नहीं होता है- मिश्र और प्रथमोपशम सम्यक्त्व क्योंकि इसमें मरण नहीं होता है। 
सासादन सम्यक्त्व एवं द्वितीयोपशम सम्यक्त्व देवो की अपेक्षा वैक्रियिकमिश्र काययोग मे बनते है, नारकी की अपेक्षा से नहीं।

*प्रश्न ८२) किन जीवों के वैक्रियिकमिश्र काययोग में क्षयोपशम सम्यक्त्व पाया जाता है?*
उत्तर - वैमानिक देवों में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीव अथवा कृतकृत्य वेदक जीवों के वैक्रियिकमिश्र काययोग में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है।
बद्धायुष्क (जिसने नरकायु को बाँध लिया है) ऐसा  कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि जब प्रथम नरक में जाता है उसके भी वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यक्त्व पाया जाता है। 

*प्रश्न ८३) वैक्रियिक मिश्र काययोग में दो धर्मध्यान किस अपेक्षा कहे हैं?*
उत्तर - वैक्रियिक मिश्र काययोग में दो धर्मध्यान – आज्ञाविचय और अपायविचय देवों की अपेक्षा कहे गये हैं, क्योंकि नारकियों के तो एक आज्ञाविचय धर्मध्यान ही होता है। 

*प्रश्न ८४) वैक्रियिक मिश्र काययोग में कम-से-कम कितने आस्रव के प्रत्यय हो सकते हैं?* 
उत्तर - वैक्रियिकमिश्र काययोग में (सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा) कम-से-कम ३३ आस्रव के प्रत्यय हो सकते हैं- अविरति १२, कषाय २०, योग ०१ (वैक्रियिक मिश्र)।
*(मिथ्यात्व ०५, अनन्तानुबन्धी ०४, स्त्रीवेद तथा १४ योग नहीं होते हैं।)*

*प्रश्न ८५) वैक्रियिकमिश्र काययोगी के दूसरे गुणस्थान में कितनी जातियाँ होती हैं?*
उत्तर - दूसरे गुणस्थान वाले वैक्रियिकमिश्र काययोगी के चार लाख जातियाँ होती हैं, क्योंकि सासादन गुणस्थान को लेकर जीव नरक में नहीं जाता है और वैक्रियिक मिश्रकाययोग में सासादन गुणस्थान उत्पन्न नहीं होता है; इसलिए वहाँ नरकगति सम्बन्धी जातियाँ नहीं पाई जाती हैं। 
इसी प्रकार कुल भी २६ लाख करोड़ ही जानना चाहिए।
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
*शलभ*

गुरुवार, 13 नवंबर 2025

23) वैक्रियिक काययोग में 24 स्थान

23) २४ ठाणा-वैक्रियिक काययोग
https://youtu.be/aCc12m8r9Vc?si=zmiVceaa5cLJQVAJ
🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴

वैक्रियक शरीर के निमित्त से अर्थात वैक्रियक वर्गणा के निमित्त से आत्मा के प्रदेशो मे जो कम्पन होता है उसे वैक्रियक काययोग कहते है। यह योग दो गति के जीवो देव और नारकी में होता हैं।
*जैसे* यहा से कोई मनुष्य या तिर्यंच मरणा कर 
देवगति मे जाते है तो पहले विग्रहगति मे कार्मण काययोग रहेगा उसके बाद शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक वैक्रियक मिश्र काययोग रहेगा, तथा शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद से वैक्रियक काययोग शुरु हो जाता है जो जीवन के अंतिम समय तक रहेगा।

*२४ स्थान वैक्रियक काययोग*
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️

*०१) गति      ०२/०४*   नरक, देव
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   पंचेन्द्रिय
*०३) काय      ०१/०६*   त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५* वैक्रियक काययोग
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनो वेद
         स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०६/०८* 
      मनःपर्यय और केवलज्ञान नही होता
*०८) संयम      ०१/०७*  असंयम
*०९) दर्शन      ०३/०४*  तीन दर्शन
      चक्षुदर्शन,अचक्षुदर्शन,अवधिदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
      नारकियो मे ०३ अशुभ, देवो मे ०३ शुभ लेश्या
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  छह सम्यक्त्व
मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, क्षायिक, क्षायोप
*१३) संज्ञी         ०१/०२*  सैनी
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक
*१५) गुणस्थान   ०४/१४*  ०१, ०२, ०३, ०४
*१६) जीवसमास  ०१/१९*  सैनी पंचेन्द्रिय
*१७) पर्याप्ति       ०६/०६*  छहो पर्याप्ति
*१८) प्राण           १०/१०*  दसो प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  चारो  संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      ०९/१२*  
     केवलदर्शनोपयोग और केवलज्ञानोपयोग नही है
*२१) ध्यान         १०/१६*  
      आर्त ०४, रौद्र ०४, धर्म ०२
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   ०८ लाख/८४ लाख*  
नारकी ०४ लाख, देवो ०४ लाख 
*२४) कुल-५१ लाख करोड/१९९.५ लाख़ करोड*
नारकी मे २५ लाख करोड, देवो मे २६ लाख करोड
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦

*प्रश्न ६७) वक्रियक काययोग किसे कहते हैं?*
उत्तर- नाना प्रकार के गुण और ऋद्धियों से युक्त देव नारकियों के शरीर को वैक्रियिक या विगुर्व कहते हैं और इसके द्वारा होने वाले योग को वैगूर्णिक अथवा वैक्रियिक काययोग कहते हैं। *(गो. जी. २२२)*

*प्रश्न ६८) वैक्रियक शरीर एवं वैक्रियक काययोग में क्या विशेषता है?*
उत्तर-वैक्रियक शरीर एव वैक्रियक काययोग में विशेषता –
*०१)* तेजकायिक तथा वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्यों के भी वैक्रियिक शरीर होता है लेकिन वैक्रियिक काययोग नहीं होता है। देव- नारकियों के वैक्रियिक शरीर भी होता है और वैक्रियिक काययोग भी होता है।
*०२)* मनुष्य-तिर्यंच के वैक्रियिक शरीर में नाना गुणों और ऋद्धियों का अभाव है लेकिन देवों के वैक्रियिक शरीर में नाना गुण और अणिमादि ऋद्धियाँ होती हैं ।
*०३)* अष्टाह्निका में नन्दीश्वर द्वीप में पूजा के लिए, पंचकल्याणक आदि के समय देवों का मूल वैक्रियिक शरीर नहीं जाता है फिर भी यदि उस समय काययोग होता है तो वैक्रियिक काययोग ही होता है।
*०४)* नारकियों के वैक्रियिक शरीर की अपृथक् विक्रिया होती है, देवों के वैक्रियिक शरीर की पृथक तथा अपृथक दोनों विक्रिया होती हैं लेकिन दोनों के वैक्रियिक काययोग ही होता है।
*विशेष* चक्रवर्ती द्वारा अनेक शरीर बना लेने से वैक्रियक शरीर नही है, उसके औदारिक शरीर ही वह विशेष गुण है, शरीर के पन्द्रह भेदो मे से एक औदारिक शरीर मे इस प्रकार की शक्ति है।

*प्रश्न ६९) वैक्रियिक काययोग वालों के .उपशम सम्यक्त्व कितनी बार हो सकता है?*
उत्तर-वैक्रियिक काययोग वालों के अपने जीवन में अनेक बार उपशम सम्यक्त्व हो सकता है क्योंकि एक बार प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल व्यतीत होने पर जीव पुन: प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के योग्य हो जाता है। वैक्रियिक काययोग वालों की उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागरोपम प्रमाण होती है इसलिए उनके अनेक बार उपशम सम्यक्त्व होने में कोई बाधा नहीं है। *(धवला ०५ के आधार से)*

*प्रश्न ७०) वैक्रियक काययोग वालों के पंचमादि गुणस्थान क्यों नहीं होते है?*
उत्तर-वैक्रियक काययोग वालों के पंचमादि गुणस्थान नहीं होने के कारण-
*०१) वैक्रियक काय वालों के अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय का तीव्र उदय पाया जाता है इसलिए उनके संयमासंयम तथा संयम नहीं हो सकता है अर्थात् पंचमादि गुणस्थान नहीं हो सकते ।
*०२)* भोगभूमि में पंचमादि गुणस्थान न होने का कारण भोग की प्रधानता कही गई है फिर देवों में तो भोगभूमि से भी ज्यादा भोग पाये जाते हैं फिर वहाँ सयम कैसे हो सकता है और नारकियों में कषायों की सहज रुप से तीव्रता रहती है, उनके संयम कैसे हो सकता हे?
*०३)* जिनके नियत भोजन है अर्थात् इतने समय के बाद नियम से उनको भोजन करना ही होगा। ऐसी स्थिति में त्याग रूप प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? संभवत: वैक्रियिक काययोग वालों के सयम नहीं होने का एक कारण यह भी माना जा सकता है।

*प्रश्न ७१) वैक्रियिक काययोग वाले देव महीनों/ वर्षों/पक्षों तक भोजन नहीं करते हैं, इसी प्रकार नारकी भी बहुत काल के बाद थोड़ी सी मिट्टी खाते हैं उनके नित्य आहार संज्ञा कैसे कही जा सकती है*
उत्तर-वैक्रियिक काययोग वाले भले ही पक्षों/महीनो तक भोजन नहीं करें फिर भी उनके आहार सज्ञा का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि आहार सज्ञा जिनागम में छठे गुणस्थान तक बताई गई है और उसका अंतरंग कारण असातावेदनीय कर्म का उदय/उदीरणा कहा गया है। ये दोनों ही कारण वैक्रियिक काययोग वालों के पाये जाते हैं इसलिए उनके भी नित्य आहार सज्ञा कहने में कोई विरोध नहीं है।   *(गो. जी. १३५ के आधार से)*

*प्रश्न ७२) वैकियिक काययोग में छहों लेश्याएँ किस अपेक्षा पायी जाती हैं?*
उत्तर-वैक्रियिक काययोग में तीन अशुभ लेश्याएँ नारकियों की अपेक्षा होती हैं तथा तीन शुभ लेश्याएँ देवों की अपेक्षा होती हैं ।

*प्रश्न ७३) वैकियिक काययोगी के तीसरे गुणस्थान में कितने उपयोग होते हैं?*
उत्तर-तीसरे गुणस्थान वाले वैक्रियिक काययोगी के ०६ उपयोग होते हैं-
०३ ज्ञानोपयोग–मिश्रमतिज्ञानो, मिश्रश्रुतज्ञानो तथा मिश्र अवधिज्ञानोपयोग
०३ दर्शनोपयोग–चक्षुदर्शनोपयो अचक्षुदर्शनोपयोग, अवधि दर्शनोपयोग

*प्रश्न ७४) वैकियिक काययोगी सम्यग्दृष्टि के कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?*
उत्तर-वैक्रियिक काययोगी सम्यग्दृष्टि के आसव के ३४ प्रत्यय होते हैं- 
१२ अविरति, २१ कषाय, ०१ योग (वैक्रियिक काययोग) =३४ प्रत्यय 
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

22. चौबीस ठाणा– औदारिकमिश्र काययोग

22. चौबीस ठाणा– औदारिकमिश्र काययोग

https://youtu.be/COfeOOEy1rc?si=oB11sYtVzl6nkbnE
🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴

*२४ स्थान औदारिक मिश्र काययोग*
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️

*०१) गति      ०२/०४*   मनुष्यगति, तिर्यंचगति
*०२) इन्द्रिय    ०५/०५*   सभी पाचो इन्द्रिय मे
*०३) काय      ०६/०६*  पाँचो स्थावर व त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५* औदारिक मिश्रकाययोग
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनो वेद
         स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०६/०८* 
कुमति, कुश्रुत, मति, श्रुत, अवधि, केवलज्ञान
*केवलज्ञान केवली समुद्धात अवस्था मे*
*०८) संयम      ०२/०७*  दो संयम
      असंयम, यथाख्यात संयम समुद्धात अवस्था मे
*०९) दर्शन      ०४/०४*  चारो दर्शन
      चक्षुदर्शन,अचक्षुदर्शन,अवधिदर्शन,केवलदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
        कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०४/०६*  चार सम्यक्त्व
मिथ्यात्व, सासादन, क्षायिक, क्षयोपशमिक (कृतकृत्य वेदक अपेक्षा)
*१३) संज्ञी         ०२/०२*  सैनी और असैनी
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक
*१५) गुणस्थान   ०४/१४*  ०१, ०२, ०४, १३
*१६) जीवसमास  १९/१९*  सभी भेदो में
*१७) पर्याप्ति       ०२/०६*  आहार, शरीर
*१८) प्राण           ०७/१०*  सात प्राण
       इन्द्रिय प्राण ०५, बल ०१, आयु प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  चारो  संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      १०/१२*  
कुअवधिज्ञानोपयोग और मनःपर्ययज्ञानो नही होता
*२१) ध्यान         १०/१६*  
      आर्त ०४, रौद्र ०४, धर्म ०२
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   ७६ लाख/८४ लाख*  
नारकी ०४ लाख, देवो ०४ लाख के बिना
*२४) कुल-१४८.५ ला. करोड/१९९.५ ला. करोड*
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦

*प्रश्न ५६) औदारिकमिश्र काययोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : विग्रहगति के बाद और शरीर पर्याप्ति तक के काययोग को मिश्र काययोग कहते है। मिश्र काय योग तीनो शरीर (औदारिक, वैक्रियक, आहारक) मे होता है।
शरीर पर्याप्ति से पूर्व कार्मण शरीर की सहायता से होने वाले  "औदारिक काययोग"  को  "औदारिक मिश्रकाययोग" कहते है। क्योंकि यह योग औदारिक वर्गणाओं और कार्मणवर्गणाओं इन के निमित्त से होता है। अतएव इसको औदारिक मिश्र काययोग कहते हैं।   *(गो. जी.२३१)*
औदारिकमिश्र वर्गणाओं के अवलम्बन से जो योग होता है वह औदारिकमिश्र काययोग है *(सर्वा.६१)*

*प्रश्न ५७) यदि कार्मण काययोग की सहायता से मिश्रयोग होता है तो ऋजुगति से जाने वाले के मिश्रयोग कैसे बनेगा?*
उत्तर : मूलाचार, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में सात प्रकार की काय वर्गणाएँ बताई गई हैं। उनमें से जो औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र तथा आहारकमिश्र वर्गणाएँ हैं उनको औदारिक मिश्रादि अवस्थाओं में ग्रहण करने से औदारिक मिश्र आदि योग बन जाते हैं। इसमें कोई बाधा नहीं है ।
*नोट*  इसी प्रकार केवली समुद्धात में औदारिक मिश्र काययोग बन जाता है।

*प्रश्न ५८) किन-किन जीवों के औदारिक मिश्र काय योग ही होता है?*
उत्तर :जो जीव ऋजुगति से लब्ध्यपर्यातक मनुष्यों  तिर्यंच मे उत्पन्न होते हैं उनके औदारिक मिश्र काय योग ही होता है क्योंकि वे औदारिक काययोग होने के पहले ही मरणको प्राप्त हो जाते हैं तथा ऋजुगति से आने के कारण कार्मण काययोग नहीं है ।

*प्रश्न ५९) क्या कोई ऐसे जीव भी हैं जिनके औदारिक मिश्र काययोग के समान वैकियिक मिश्र काययोग ही हों?*
उत्तर : नहीं है, संसार में ऐसे कोई जीव नहीं हैं जिनके औदारिकमिश्र काययोग के समान वैक्रियिक मिश्र काययोग ही हो, क्योंकि मनुष्य-तिर्यंचो के समान देव-नारकियों में काई भी जीव शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले मरण को प्राप्त नहीं होते हैं। वहा वैक्रियिक मिश्र काययोग वाले जीव नियम से वैक्रियिक काययोगी बनते ही हैं। इसलिए केवल वैक्रियिक मिश्र काययोगी जीव नहीं हो सकते हैं।

*प्रश्न ६०) औदारिकमिश्र काययोग में कम-से- कम कितनी कषायें हो सकती हैं?*
उत्तर : औदारिक मिश्रकाययोग में कम- से- कम उन्नीस (१९) कषायें हो सकती हैं– अप्रत्याख्यानावरण ०४,  प्रत्याख्यानावरण ०४,  संज्वलन ०४, हास्यादि ०६ नोकषायें तथा पुरुष वेद। ये उन्नीस(१९) कषायें चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव की अपेक्षा कही गई हैं।  पुरुषवेद मे पुरुषवेद नोकषायें, स्त्रीवेद मे स्त्रीवेद नोकषायें, नपुंसकवेद मे नपुंसकवेद नोकषायें होती है।
अर्थात् औदारिकमिश्र योग वाले सम्यग्दृष्टि जीवों के अनन्तानुबन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद तथा नपुंसक वेद नहीं होते हैं। तेरहवें गुणस्थान में भी औदारिकमिश्र काययोग ही है लेकिन वहाँ कषायें नहीं होती हैं।

*प्रश्न ६१) क्या ऐसे कोई औदारिकमिश्र काययोग वाले जीव हैं जो भव्य ही हों?*
उत्तर : हा है, दूसरे, चौथे और तेरहवे (०२-०४-१३) गुणस्थान वाले औदारिकमिश्र काययोगी जीव भव्य ही होते हैं तथा औदारिक मिश्रकाययोगी सादि मिथ्यादृष्टि जीव भी भव्य ही होते।

*प्रश्न ६२) औदारिक मिश्र काययोग में कौन-कौन से सम्यक्त्व नहीं होते हैं?*
उत्तर : औदारिक मिश्र काययोग में दो सम्यक्त्व नहीं होते हैं- सम्यग्मिथ्यात्व और उपशम सम्यक्त्व
क्योंकि इन दोनों सम्यकों में मरण नहीं होता है। यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में मरण होता है लेकिन वे मरकर मनुष्य-तिर्यंच में उत्पन्न नहीं होते हैं जिससे उनके औदारिक मिश्र काययोग बन जावे।

*प्रश्न ६३) औदारिक मिश्र काययोग में क्षायिक सम्यग्दर्शन किस-किस अपेक्षा पाया जाता है?*
उत्तर : औदारिक मिश्रकाययोग में क्षायिक सम्यग्दर्शन की अपेक्षाएँ- 
*०१)*  बद्धायुष्क मनुष्य जब क्षायिक सम्यग्द्रष्टी अथवा कृतकृत्य वेदक बनकर भोगभूमि में जाता है तब उसके औदारिक मिश्र काययोग होता है।
अर्थात जिसने मिथ्यात्व अवस्था में मनुष्यायु या तिर्यंचायु का बंध कर लिया है वह बाद मे क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करे तो वह भोगभूमि मे ही जाएगा तथा वहा पर क्षायिक सम्यग्दर्शन ही रहेगा
*०२)* क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव-नारकी मरकर जब मनुष्य बनते हैं तब उनके औदारिक मिश्र काययोग होता है।
*०३)* तेरहवें गुणस्थान की समुद्धात अवस्था में जब औदारिक मिश्रकाययोग होता है तब भी क्षायिक सम्यक्त्व होता है।

*प्रश्न ६४) औदारिक मिश्र काययोगी सम्यग्दृष्टि के छहों लेश्याएँ कैसे सम्भव हैं?*
उत्तर : छठी पृथ्वी से निकलकर जो अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य पर्याय में आते हैं उनके अपर्याप्तक अवस्था में वेदक सम्यक के साथ कृष्ण लेश्या पाई जाती है।   *(धवला ०२/७५२)*
पहली से छठी पृथ्वी तक के असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी जीव अपने-अपने योग्य कृष्ण, नील, कापोत लेश्या के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। 
उसी प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि देव भी अपने-अपने योग्य पीत, पदम और शुक्ल लेश्याओं के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। 
इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्यों के अपर्याप्त काल में अर्थात्-औदारिक मिश्रकाययोग में छहों लेश्याएँ बन जाती हैं ।

*प्रश्न ६५) औदारिक मिश्र काययोग में कम-से-कम आस्रव के कितने प्रत्यय हैं?*
उत्तर : औदारिक मिश्रकाययोग में कम-से-कम आस्रव का एक प्रत्यय होता है।
तेरहवें गुणस्थान में समुद्धात की अपेक्षा औदारिक मिश्र काययोग सम्बन्धी आस्रव का प्रत्यय पाया जाता है ।

*प्रश्न ६६) औदारिक मिश्र काययोग में कौन- कौन सी जातियों नहीं होती हैं?*
उत्तर : औदारिक मिश्रकाययोग में आठ (०८) लाख जातियाँ नहीं होती हैं– चार (०४) लाख देवों की, चार (०४) लाख नारकियों की ।
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

21. चौबीस ठाणा–औदारिक काययोग

21.  चौबीस ठाणा–औदारिक काययोग*
https://youtu.be/UiRLE4NeqUM?si=uoDsg8_5jWrZ1OjR


*२४ स्थान औदारिक काययोग*
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️

*०१) गति      ०२/०४*   मनुष्यगति, तिर्यंचगति
*०२) इन्द्रिय    ०५/०५*   सभी पाचो इन्द्रिय मे
*०३) काय      ०६/०६*  पाँचो स्थावर व त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५* औदारिक काययोग
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनो वेद
         स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०८/०८* आठो ज्ञान
*०८) संयम      ०७/०७*  सातो संयम
        सा.छे.परिहार.सूक्ष्म.यथा.संयमा.असंमय
*०९) दर्शन      ०४/०४*  चारो दर्शन
      चक्षुदर्शन,अचक्षुदर्शन,अवधिदर्शन,केवलदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
        कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  छहो  (मिथ्यात्त्व, सासादन,मिश्र,औपशमिक,क्षायिक,क्षयोपशमिक)
*१३) संज्ञी         ०२/०२*  सैनी और असैनी
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक
*१५) गुणस्थान   १३/१४*  ०१–१३ तक
        अयोगकेवली गुणस्थान मे नही होता
*१६) जीवसमास  १९/१९*  सभी भेदो में
*१७) पर्याप्ति       ०६/०६*  छहो
आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासोच्छवा,भाषा,मनःपर्याप्ति
*१८) प्राण           १०/१०*  दसो प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  चारो  संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      १२/१२*  सभी उपयोग में
*२१) ध्यान         १५/१६*  
      व्युपरतक्रियानिवृति के बिना
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   ७६ लाख/८४ लाख*  
नारकी ०४ लाख, देवो ०४ लाख के बिना
*२४) कुल-१४८.५ लाख करोड/१९९.५ लाख करोड*
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦

*प्रश्न ४८) औदारिक काययोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : औदारिक शरीर के लिए आत्म प्रदशों की जो कर्म-नोकर्म को आकर्षण करने की शक्ति है उसे ही औदारिक काययोग कहते हैं। ऐसी अवस्था में औदारिक वर्गणा के स्कन्धों का औदारिक काय रूप परिणमन में कारण जो आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द है वह औदारिक काययोग है।   *(गो. जी. २३०)*
उदार या स्थूल में जो उत्पन्न हो उसे औदारिक जानना चाहिए। उदार में होने वाला जो काययोग है वह औदारिककाययोग है।   *(पंच संग्रह प्राकृत)*
औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेशों में परिस्पन्द का कारणभूत जो प्रयत्न होता है औदारिककाययोग कहते है। *(धवला ०१/२९१)*

*प्रश्न ४९) औदारिक काययोग किस-किस के होता है?*
उत्तर : औदारिक काययोग 
*०१)* पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुकायिक के बादर, सूक्ष्म सभी जीवो के औदारिक काययोग होता है।
*०२)* वनस्पति मे–वृक्ष, लता, गुल्म, आम्र, जामफल, लौकी, परवल आदि सब्जियो के भी औदारिक काययोग होता है।
*०३)* गाँय, भैस, हाथी, घोडा, कबुतर, चिडिया, मयूर आदि भी औदारिक काययोग होता है।
*०४)* चीटी, कीडे, भ्रमर, लट, केंचुआ आदि के,
*०५)* भोगभूमिया, कर्मभूमिया, कुभोगभूमिया मनुष्य-तिर्यंचों के.
*०६)* तीर्थंकर भगवान, अरिहंत केवली, ऋद्धि धारक मुनिराज आदि के भी
*०७)* ८५० म्लेच्छ खण्डों में, आर्यखण्डों में तथा समस्त पर्याप्त तिर्यंच-मनुष्यों के औदारिक काययोग होता है ।

*प्रश्न ५०) क्या ऐसे कोई औदारिक काययोगी हैं जिनके कषायें नहीं होती हैं?*
उत्तर : हाँ है, ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान वाले औदारिक काययोगी के कषायें नहीं होती हैं। यद्यपि चौदहवें गुणस्थान में भी कषायें नहीं होती हैं लेकिन वहाँ औदारिक काययोग नहीं होता है।

*प्रश्न ५१) क्या ऐसा कोई औदारिक काययोगी है जिसके मतिज्ञान नहीं होता?*
उत्तर : हाँ है, प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थान में तथा तेरहवें गुणस्थान वाले जीवों के मतिज्ञान नहीं होता है। यद्यपि चौदहवें गुणस्थान में भी मतिज्ञान नहीं है लेकिन वहाँ योग का भी अभाव है।
*◆विशेष* यहा ०१, ०२, ०३ गुणस्थान वाले के मिथ्याज्ञान है कुज्ञान आदि, सुज्ञान नही है यानि मति आदि ज्ञान नही है।

*प्रश्न ५२) औदारिक काययोग में केवलदर्शन किस अपेक्षा से पाया जाता है?*
उत्तर : औदारिक काययोग में केवलदर्शन सयोग केवली भगवान की अपेक्षा होता है। यद्यपि केवलदर्शन अयोगी केवली और सिद्ध भगवान के भी होता है लेकिन उनके कोई योग नहीं होता है इसलिए औदारिक काययोग में केवल तेरहवें गुणस्थान में ही केवलदर्शन कहा है।

*प्रश्न ५३) औदारिक काययोग में कम-से- कम कितनी पर्याप्तियों होती हैं?*
उत्तर : औदारिक काययोग में कम-से-कम चार पर्यातियाँ होती हैं- आहार पर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति तथा श्वासोच्चवास पर्याप्ति । ये चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय की अपेक्षा जाननी चाहिए ।
*◆ विशेष* दो पर्याप्तियाँ भी कह सकते है जब आहारक तथा शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद से औदारिक काययोग प्रारम्भ हो जाता है।

*प्रश्न ५४) औदारिक काययोगी के कितने प्राण होते हैं?*
उत्तर : कम से कम चार प्राण और अधिक से अधिक दस प्राण तथा अपर्याप्तक अवस्था मे कम से कम तीन प्राण और सयोग केवली भगवान के दो प्राण होते है।
औदारिक काययोग में कम-से-कम दों प्राण होते हैं यह तेरहवें गुणस्थान में श्वासोच्चवास तथा वचनयोग का निरोध होने पर उनके (काय बल (औदारिक काययोग) एव आयु प्राण रहते है।
औदारिक काययोग में अधिक-से-अधिक दस प्राण होते हैं-इन्द्रिय प्राण ०५, बलप्राण ०३, श्वासोच्चवास तथा आयु प्राण। ये दस प्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यातक जीवों के होते हैं।

*प्रश्न ५५) क्या औदारिक काययोगी के आठों ज्ञानोपयोग एक साथ हो सकते हैं?*
उत्तर : यद्यपि नाना जीवों की अपेक्षा औदारिक काययोगी के आठों ज्ञानोपयोग एक साथ हो जाते हैं  "लेकिन एक जीव की अपेक्षा"  आठों ज्ञानोपयोग एक साथ नहीं हो सकते हैं। 
क्योंकि अभिव्यक्ति की अपेक्षा एक जीव के एक समय में एक ही ज्ञानोपयोग हो सकता है। फिर भी एक जीव के नाना समयों की अपेक्षा आठों ज्ञानोपयोग एक जीवन में हो सकते हैं। 

औदारिक काययोगी मिथ्यादृष्टि एवं सासादन सम्यग्दृष्टि के तीन कुज्ञान (कुमति, कुश्रुत, कुअवधि)
चौथे, पाँचवें गुणस्थान में तीन ज्ञानो (मति, श्रुत, अवधि), 
छठे से बारहवे गुणस्थान तक चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, और मनःपर्यय ज्ञान), 
तेरहवे गुणस्थान मे औदारिक काययोगी के एक केवलज्ञान हो सकता है।
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

गुरुवार, 18 सितंबर 2025

20. चौबीस ठाणा-असत्य-उभय मनोयोग व वचनयोग

20. चौबीस ठाणा-असत्य-उभय मनोयोग व वचनयोग*
https://youtu.be/fEejyLB-Rdo?si=Vi92arjna1YxqPfO

🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴

*२४ स्थान असत्य-उभय– मनोयोग व वचनयोग*
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️

*०१) गति      ०४/०४*   
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   पंचेन्द्रिय मे
*०३) काय      ०१/०६*  त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५*  सबका अपना अपना
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनों
         स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०७/०८* केवलज्ञान के बिना सातों
*०८) संयम      ०७/०७*  सातो संयम
        सा.छे.परिहार.सूक्ष्म.यथा.संयमा.असंमय
*०९) दर्शन      ०३/०४*  केवलदर्शन को छोडकर
        चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
        कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  छहो  (मिथ्यात्त्व, सासादन,मिश्र,औपशमिक,क्षायिक,क्षयोपशमिक)
*१३) संज्ञी         ०१/०२*  सैनी 
        मन का भी योग है इसलिए असंज्ञी नही होते
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक, 
क्योकि विग्रहगति मे वचन नही होते तो अनाहारक भी नही होते
*१५) गुणस्थान   १२/१४*  ०१–१२ तक
*१६) जीवसमास  ०१/१९*  संज्ञी पंचेन्द्रिय
*१७) पर्याप्ति       ०६/०६*  छहो
आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासोच्छवा,भाषा,मनःपर्याप्ति
*१८) प्राण           १०/१०*  दसो प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  चारो  संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      १०/१२*  
केवलदर्शनोपयोग और केवलज्ञानोपयोग
*२१) ध्यान         १४/१६*  
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति के बिना
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   २६ लाख/८४ लाख*  
नारकी ०४ लाख, तिर्यंच ०४ लाख, देवो ०४ लाख, मनुष्यो १४ लाख
*२४) कुल-१०८.५ ला. करोड/१९९.५ ला. करोड
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦

*प्रश्न ३६) असत्यमनोयोग किसे कहते हें?*
उत्तर : वस्तु जैसी नही है वैसा विचार करना असत्य मन है, तथा इसके निमित्त (भावमन) से आत्मा के प्रदेशो मे कम्पन होना असत्य मनोयोग है।
*जैसे* मरीचिका में जलज्ञान का विषय जल असत्य है। क्योंकि उसमें स्नान-पान आदि अर्थक्रिया का अभाव है । *(गो.जी.)*

*प्रश्न ३७) असत्य वचनयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : वस्तु जैसी नही है उस असत्य का वचनो से कथन करना असत्य वचन तथा इसके निमित्त से आत्मा मे कंपन होना असत्य वचनयोग है
असत्य अर्थ का वाचक वचन असत्यवचन व्यापार रूप प्रयत्न असत्यवचन योग है।  *(गो. जी. २२०)*

*प्रश्न ३८)  उभय मनोयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : जिसमे सत्य भी हो असत्य भी हो ऐसी वस्तु का मन मे विचार उभय मन है।
*जैसे* कमण्डलु को यह घट है, क्योंकि कमण्डलु घट का काम देता है इसलिए कथंचित् सत्य है और घटाकार नहीं है इसलिए कथंचित् असत्य भी है ।
उभय मन के निमित्त से आत्मा मे कम्पन होना उभय मनोयोग है।
सत्य और मृषा रूप योग को असत्यमृषा मनोयोग कहते हैं। *(गो.जी.२१९)*

*प्रश्न ३९) उभयवचनयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : जिसमे सत्य और असत्य दोनो हो वह वस्तु है उभय, उसका कथन करना उभय वचन है।
*जैसे* कमण्डलु में घट व्यवहार की तरह सत्य और असत्य दोनो है।
उभय वचन के निमित्त से आत्मा मे कंपन होना उभय वचन योग है।
अर्थ विधायक वचन व्यापार रूप प्रयत्न उभय वचनयोग है । *(गो. जी. २२०)*

*प्रश्न ४०) प्रमाद के अभाव में श्रेणिगत जीवों के असत्य और उभय मनोयोग एवं वचन योग कैसे हो सकता है?*
उत्तर : प्रमाद पहले से छठे गुणस्थान तक होता है।
श्रेणीगत जीव आठवे से बारहवे गुणस्थान तक है।
आवरण कर्म से युक्त जीवों के विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञान के कारणभूत मन का सद्‌भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। परन्तु इसके सम्बन्ध से क्षपक या उपशमक जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है । *(धवला ०१/२८८)*  
ऐसी शंका व्यर्थ है क्योंकि असत्यवचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है इस अपेक्षा से वहाँ पर असत्य वचन के सद्‌भाव का प्रतिपादन किया है, इसीलिए उभय संयोगज सत्य मृषा वचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है। 
*(धवला ०१/२९१)*

*प्रश्न ४१) ध्यानस्थ अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में वचनयोग या काययोग का सद्‌भाव कैसे हो सकता है?*
उत्तर:ध्यान अवस्था में भी अन्तर्जल्प के लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत सुक्ष्म प्रयत्नरूप काय योग का सत्व अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवर्ती जीवों के पाया ही जाता है इसलिए वहाँ वचनयोग एवं काययोग भी सम्भव ही हैं।    *(धवला ०२/४३४)*    
*अर्थात* ध्यान अवस्था में भी अबुद्धिपूर्वक पूर्वक प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत सुक्ष्म प्रयत्नरूप काययोग चलता रहता है। यहा भी वर्गणाओ का ग्रहण चलता रहता है–भाषा वर्गणा, नोकर्म वर्गणा का ग्रहण होता रहता है उस समय भाषा वर्गणा के ग्रहण से वचन योग तथा नोकर्म वर्गणा के ग्रहण से काययोग होता रहता हैं।
*अन्तर्जल्प=अंतरंग मे अबुद्धिपूर्वक विकल्पो का चलना*

*प्रश्न ४२) संसार में ऐसे कौन-कौन से जीव हैं जिनके मनोयोग नहीं होता है?*
उत्तर: ससार के जीव जिनके मनोयोग नहीं होता है*
*०१)* एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवो के मनोयोग नही होता। 
*०२)* लब्ध्यपर्याप्त तथा जब तक मन:पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक मनोयोग नही होता। 
*०३)* तेरहवें गुणस्थान में केवली समुद्धात तथा छठे गुणस्थान में आहारक समुद्धात में जब तक मन: पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक मनोयोग नही होता। 
*०४)*चौदहवें गुणस्थान में अयोगकेवली जीवो के मनोयोग नही होता। 
*०५)* मनोयोग का निरोध होने के बाद तेरहवें गुणस्थान में मनोयोग नही होता। 
*(यहा केवल सूक्ष्मकाययोग रहता है)*
यह मनोयोग १३ वे गुणस्थान के अंतरमुहूर्त पहले *मनोयोग, वचनयोग, स्थूलकाययोग जाता है यहा केवल सूक्ष्मकाययोग रहता है*

*प्रश्न ४३) क्या लब्ध्यपर्याप्तक सैनी जीवों के भी असत्य वचनयोग होता है?*
उत्तर : नहीं, किसी भी लब्ध्यपर्यातक जीव के औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग ये दो योग को छोड्‌कर अन्य कोई योग नहीं होता है क्योंकि भाषा तथा मनःपर्याप्ति पूर्ण हुए बिना वचन तथा मनोयोग नहीं बन सकता है ।

*प्रश्न ४४) असत्य तथा उभय मन-वचन योग का कारण क्या है?*
उत्तर : आवरण का मन्द उदय होते हुए असत्य की उत्पत्ति नहीं होती अत: असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, उभय मनोयोग, उभय वचनयोग का मूल कारण आवरण के तीव्र अनुभाग का उदय ही है, यह स्पष्ट है। 
इतना विशेष है कि तीव्रतर अनुभाग के उदय से विशिष्ट आवरण असत्य मनोयोग और असत्य वचन योग का कारण है। और तीव्र अनुभाग के उदय से विशिष्ट आवरण उभयमनोग और उभयवचनययोग  का कारण हे । *(गो. जी. २२७)* 

*प्रश्न ४५) यदि सत्य तथा अनुभय मन- वचन योग का कारण आवरणकर्म का तीव्र मन्द अनुभाग होता है तो केवली भगवान के योग कैसे बनेंगे?*
उत्तर : यद्यपि योग का निमित्त आवरणकर्म का मन्द तीव्र अनुभाग का उदय है किन्तु केवली के सत्य और अनुभय योग का व्यवहार समस्त आवरण के क्षय से होता है । *(गो. जी. २२७)* 

*प्रश्न ४६) असत्य वचनयोगी के मनःपर्ययज्ञान कितने गुणस्थानों में होता है?*
उत्तर : असत्य वचनयोगी के मनःपर्ययज्ञान छठे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के सात गुणस्थानों में होता है।

*प्रश्न ४७) असत्य और उभय मनोयोगी के कितने कुल नहीं होते हैं?*
उत्तर : सत्य और अनुभय मनोयोगी के पृथ्वीकायिक आदि के ९१ लाख करोड कुल नही होते है।

पृथ्वीकायिक के     २२ लाख करोड़ 
जलकायिक के      ०७ लाख करोड़
अग्निकायिक के     ०३ लाख करोड़
वायुकायिक के       ०७ लाख करोड़
वनस्पतिकायिक के २८ लाख करोड़  
द्वीन्द्रिय के             ०७ लाख करोड़  
त्रीन्द्रिय के             ०८ लाख करोड़  
चतुरिन्द्रिय के        ०९  लाख करोड़
असत्य और उभय मनोयोग तो संज्ञी जीवो के होता है तथा ये सभी असंज्ञी जीव है, इसलिए जो कुल इनके होते है वे असत्य और उभय मनोयोगी के नही होते है।
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

19. चौबीस ठाणा- अनुभय वचन योग

19. चौबीस ठाणा- अनुभय वचन योग
https://youtu.be/1_9w0rJSf_U?si=SD9ya0wSD0eXvpC7
🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴

*24 स्थान अनुभय वचन योग*
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️

*०१) गति      ०४/०४*   
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति
*०२) इन्द्रिय    ०४/०५*   ऐकेन्द्रिय को छोडकर
*०३) काय      ०१/०६*  त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५*  अनुभय वचन योग
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनों
         स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०८/०८* आठो ज्ञान
*०८) संयम      ०७/०७*  सातो संयम
*०९) दर्शन      ०४/०४*  चारो दर्शन
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
        कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  छहो
    मिथ्यात्त्व, सासादन, मिश्र, औपशमिक, क्षायिक,
    क्षयोपशमिक सम्यक्त्व
*१३) संज्ञी         ०२/०२*  सैनी और असैनी
सैनी-असैनी से रहित के भी होते है।
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक
      (अनाहरक मे वचन योग नही होता)
*१५) गुणस्थान   १३/१४*  ०१-१३ तक
*१६) जीवसमास  ०५/१९*  
द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय, असैनी-सैनी पंचेन्द्रिय 
*१७) पर्याप्ति       ०६/०६*  छहो
आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासोच्छवा,भाषा,मनःपर्याप्ति
*१८) प्राण           १०/१०*  दसो प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  सभी संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      १२/१२*  सभी बारह
*२१) ध्यान         १४/१६*  
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति के बिना
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   ३२ लाख/८४ लाख*  
*२४) कुल–१३२.५ ला. करोड/१९९.५ ला. करोड
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦

*प्रश्न २३) अनुभयवचन योग किसे कहते हैं?*
उत्तर : जो सत्य और असत्य अर्थ को विषय नहीं करता वह असत्यमृषा अर्थ को विषय करने वाला वचन व्यापार रूप प्रयत्न विशेष अनुभयवचन योग है। अर्थात जिस वचन को सत्य भी नही कह सकते और असत्य भी नही कह सकते वह अनुभय वचन योग है।
दो इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की जो अनक्षरात्मक भाषा है तथा संज्ञी पंचेन्द्रियों की जो आमन्त्रण आदि रूप अक्षरात्मक भाषा है
*जैसे* देवदत्त आओ, यह मुझे दो, क्या करूँ आदि सभी अनुभयवचनयोग कहे जाते हैं *(गो.जी.२२१)*
आमान्त्रण आदि नौ प्रकार की भाषा होती है–
*०१) आमंत्रणी* बुलाने रुप–हे देवदत्त तुम आओ
*०२) आज्ञापनी* आज्ञा रुप–तुम यह काम करो
*०३) याज्ञनी*     मांगने रुप–तुम यह मुझको दो
*०४) आपृच्छनी*  प्रश्नरुप–यह क्या है
*०५) प्रज्ञापनी*    विनती रुप–
        हे स्वामी यह मेरी विनती है।
*०६) प्रत्याख्याती*  त्यागरुप–
        मै इसका त्याग करता हूँ।
*०७) संशयवचनी*  संदेहरुप–
        यह बगुलो की पक्ति है या ध्वजा है।
*०८) इच्छानुलोम्नी* इच्छारुप–
         मुझको भी ऐसा ही होना चाहिए।
*०९) अनक्षरगता* 
        द्वीन्द्रियदि असंज्ञी जीवो की भाषा

*प्रश्न २४) उपर्युक्त ”देवदत्त आओ" आदि वचनो को अनुभव वचन योग क्यों कहा गया है?*
उत्तर : ‘देवदत्त आओ’ ‘ आदि वचन श्रोताजनों को सामान्य से व्यक्त और विशेष रूप से अव्यक्त अर्थ के अवयवों को बताने वाले हैं। इससे सामान्य से व्यक्त अर्थ का बोध होता है, इसलिए इन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता और विशेष रूप से व्यक्त अर्थ को न कहने से इन्हें सत्य भी नहीं कहा जा सकता है।  *(गो. जी. २२३)*

*प्रश्न २५) अनक्षरात्मक भाषा में सुव्यक्त अर्थ का अंश नहीं होता है, तब वह अनुभय रूप कैसे हो सकती है?*
उत्तर: अनक्षरात्मक भाषा को बोलने वाले द्वीन्द्रिय आदि जीवों के सुख-दुःख के प्रकरण आदि के आलम्बन से हर्ष आदि का अभिप्राय जाना जा सकता है इसलिए व्यक्तपना सम्भव है। अत: अनक्षरात्मक भाषा भी अनुभय रूप ही है। *(गो. जी. २२६)*

*प्रश्न २६) सयोग केवली के अनुभय एवं सत्यवचन योग की सिद्धि कैसे होती है?*
उत्तर : भगवान की दिव्य ध्वनि के सुनने वालों के श्रोत्र प्रदेश को प्राप्त होने के समय तक अनुभय वचनरूप होना सिद्ध है। उसके अनन्तर श्रोताजनों के इष्ट पदार्थों में संशय आदि को दूर करके सम्यक ज्ञान को उत्पन्न करने से सयोग केवली भगवान के सत्यवचनयोगपना सिद्ध है।   *(गो. जी.)*

*प्रश्न २७) तीर्थंकर तो वीतरागी हैं अर्थात् उनके बोलने की इच्छा का तो अभाव है फिर उनके मात्र सत्य वाणी ही क्यों नहीं खिरी, अनुभय वाणी भी क्यों खिरी?*
उत्तर : तीर्थंकरों के जीव ने पूर्व में ऐसी भावना भायी थी कि संसार के सभी जीवों का कल्याण कैसे हो। उसी भावना से उनके सहज तीर्थंकर गोत्र (प्रकृति) का बंध पड़ गया था।इसी के उदय में वाणी खिरती है। अनादिकाल से जीव अज्ञान के कारण पौद्‌गलिक संबंध अपनी गुण पर्याय के साथ किस प्रकार का है, उसी का ज्ञान कराने के कारण सत्य वाणी खिरी है और जीव की पौद्‌गलिक कर्मों के संयोग से कैसी अवस्था हो रही है अनुभय वाणी खिरी है। यह दोनों प्रकार की वाणी एक साथ सहज खिर रही है। इस वाणी को सुनकर ही गणधर देवों ने सूत्रों की रचना की है।।    *(चा. चक्र)*

*प्रश्न २८) क्या, कोई ऐसे अनुभयवचनयोगी है, जिनके वेद नहीं हो?*
उत्तर: हाँ है,नवम गुणस्थान के अवेद भाग से तेरहवें गुणस्थान तक के अनुभय वचनयोगी वेद रहित होते हैं। इसी प्रकार सत्यादि योगों में भी जानना चाहिए ।

*प्रश्न २९) अनुभय वचनयोगी के कम-से-कम कितनी कषायें होती हैं?*
उत्तर : दसवें गुणस्थान की अपेक्षा अनुभय वचन योगी के कम-से-कम एक कषाय होती है सूक्ष्म योग तथा ग्यारहवें से तेरहवे वें गुणस्थान तक अनुभय वचनयोगी कषाय रहित भी होते हैं ।

*प्रश्न ३०) अनुभयवचन योगी जीव संज्ञी होते हैं या असंज्ञी?*
उत्तर : अनुभय वचनयोगी जीव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं तथा इन दोनों से अतीत अर्थात् सयोग केवली भगवान संज्ञी-असंज्ञीपने से रहित अनुभय वचन योग पाया जाता है जिसे हम अनुसंज्ञी भी कहते है।

*प्रश्न ३१) अनुभय वचनयोगी के अवधिज्ञान में कितने गुणस्थान हो सकते हैं?*
उत्तर : अनुभय वचनयोगी के अवधिज्ञान में चौथे गुणस्थान से बारहवे गुणस्थान तक के नौ गुणस्थान होते हैं।

*प्रश्न ३२) अनुभय वचनयोगी के कौन से संयम में सबसे ज्यादा गुणस्थान होते हैं?*
उत्तर: असंयम में पहले से चौथे तक चार गुणस्थान होते हैं।
सामायिक-छेदोपस्थापना संयम में अनुभय वचन योगी के छठे से नवमे गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते हैं। 
यथाख्यात संयम मे भी १० से १३ गुणस्थान तक मे चार गुणस्थान होते है।

*प्रश्न ३३) क्या ऐसे कोई अनुभय वचनयोगी हैं जिनके मात्र एक ही सम्यक्त्व होता है?*
उत्तर : हाँ है, तेरहवें गुणस्थान में तथा क्षपक श्रेणी के ०८ वें, ०८ वें, १० वें १२ वें गुणस्थान में केवल एक क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है। 
द्वीन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तक के जीवों में भी सम्यक्त्व मर्गणा में से केवल एक मिथ्यात्व ही होता है ।

*प्रश्न ३४) अनुभय वचनयोगी अनाहारक क्यों नहीं होते?*
उत्तर : अनुभय वचनयोग में अनाहारकपना नहीं होने के दो कारण हैं- 
*पहली कारण* मात्र कार्मण काययोग में ही जीव अनाहारक होता है। 
*दूसरी कारण* भाषा पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना वचन योग नहीं होता, अनाहारक अवस्था में भाषा पर्याप्ति पूर्ण होना तो बहुत दूर, प्रारम्भ भी नहीं होती है ।

*प्रश्न ३५) अनुभय मनोयोग में जातियों ज्यादा हैं या अनुभय वचनयोग में?*
उत्तर : अनुभय वचनयोग में जातियाँ ज्यादा हैं क्योंकि वह द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पाया जाता है तथा अनुभय मनोयोग पंचेन्द्रिय से तेरहवें गुणस्थान तक होता है।अर्थात् अनुभय मनोयोग में २६ लाख जातियाँ है और अनुभय वचनयोग में ३२ लाख जातियाँ है।
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

18. चौबीस ठाणा–सत्य मन-वचन, अनुभय मनो योग*

18. चौबीस ठाणा–सत्य मन-वचन, अनुभय मनो योग*

*२४ स्थान सत्यमन, सत्यवचन-अनुभय मनोयोग*
🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️🕳️

*०१) गति      ०४/०४*   
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   संज्ञी पंचेन्द्रिय
*०३) काय      ०१/०६*  त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५*  
जैसे सत्यमनोयोगी के सत्यमनयोग
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनों
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०८/०८* आठो ज्ञान
*०८) संयम      ०७/०७*  सातो संयम
*०९) दर्शन      ०४/०४*  चारो दर्शन
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  छहो
मिथ्यात्त्व, सासादन, मिश्र, औपशमिक, क्षायिक, क्षयोपशमिक सम्यक्त्व
*१३) संज्ञी         ०१/०२*  सैनी
सैनी-असैनी से रहित जीव भी होते है।
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक
*१५) गुणस्थान   १३/१४*  ०१-१३ तक
*१६) जीवसमास  ०१/१९*  संज्ञी पंचेन्द्रिय
*१७) पर्याप्ति       ०६/०६*  छहो
आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासोच्छवा,भाषा,मनःपर्याप्ति
*१८) प्राण           १०/१०*  दसो प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  सभी संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      १२/१२*  सभी बारह
*२१) ध्यान         १४/१६*  
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति के बिना
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   २६ लाख/८४ लाख*  
*२४) कुल–१०८.५ लाख करोड/१९९.५ लाख करोड* 
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦

*प्रश्न १२) सत्य मनोयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : सम्यग्ज्ञान के विषयभूत अर्थ को सत्य कहते हैं। *जैसे* जल ज्ञान का विषय जल सत्य है,क्योंकि स्नान-पान आदि अर्थ क्रिया उसमें पाई जाती हैं सत्य अर्थ का ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति रूप भाव मन सत्य मन है। उस समय मन से उत्पन्न हुआ योग अर्थात् प्रयत्न विशेष सत्य मनोयोग है।
* (गो. जी. जी. २१७-२१८)*

*प्रश्न १३) सत्य वचनयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : सत्य अर्थ का वाचक वचन सत्य वचन है।
स्वर नामकर्म के उदय से प्राप्त भाषा पर्याप्ति से उत्पन्न भाषा वर्गणा के आलम्बन से आत्मप्रदेशों में शक्ति रूप जो भाव वचन से उत्पन्न योग अर्थात् प्रयत्न विशेष है, वह सत्यवचन योग है। 
*(गो. जी. २२० सं. प्र.) 
दस प्रकार के सत्यवचन में वचन वर्गणा के निमित्त से जो योग होता है वह सत्य वचन योग है। 
*(पंच संग्रह प्राकृत)*
*दस प्रकार के सत्य* जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य/आपेक्षिक, व्यवहार, संभावना, भाव और उपमा
यहा बोलने की शक्ति को ही सत्यवचन योग कहाँ है, बोलना जरुरी नही है।

*प्रश्न १४) अनुभय मनोयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : अन=नही,  उभय=दोनो नही
जो मन सत्य और असत्य से युक्त नहीं होता, वह असत्य मृषामन है अर्थात् अनुभय अर्थ के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति रूप भावमन से उत्पन्न प्रयत्न विशेष अनुभय मनोयोग है। अर्थात अनिर्णयत्मक वस्तु  *( गो.जी. २१९)*
किसी वस्तु का निर्णय नही होना कि यह सत्य है या असत्य यह है अनुभय उस अनुभय का विचार करना अनुभयमन और इसके निमित्त से आत्मा के प्रदेशो का कम्पन होना अनुभय मनोयोग है।
अनुभय ज्ञान का विषय अर्थ अनुभय है, उसे न सत्य ही कहा जा सकता है और न असत्य ही कहा जा सकता है। *जैसे* कुछ प्रतिभासित होता है। यहाँ सामान्य रूप से प्रतिभासमान अर्थ अपनी अर्थक्रिया करने वाले विशेष के निर्णय के अभाव में सत्य नहीं कहा जा सकता है और सामान्य का प्रतिभास होने से असत्य भी नहीं कहा जा सकता है। इसलिए जात्यन्तर होने से अनुभय अर्थ स्पष्ट चतुर्थ अनुभय मनोयोग है। *जैसे* किसी को बुलाने पर ‘ हे देवदत्त’ यह विकल्प अनुभय है।   *(गो. जी. २१७)*

*प्रश्न १५) सत्य तथा अनुभय मन- वचन योग का कारण क्या है?* 
उत्तर : सत्य तथा अनुभय मन-वचन योग का मूल कारण (निमित्त) प्रधानकारण पर्याप्त नामकर्म और शरीर नामकर्म का उदय है। (क्योकि ये पर्याप्तक के ही होते है)     *(गो. जी. २२७)*

*प्रश्न १६) सत्य मनोयोगी के क्षायिक सम्यक्त्व में कितने गुणस्थान होते हैं?*
उत्तर : सत्य मनोयोगी के क्षायिक सम्यक्त्व में चौथे से तेरहवें गुणस्थान तक कुल दस (१०) गुणस्थान होते हैं।
*(क्षायिक सम्यक्त्व तो १४ वे गुणस्थान तक होता हैं लेकिन योग केवल १३ वे गुणस्थान तक होता है)*

*प्रश्न १७) सत्य वचनयोगी के केवलदर्शन में कितने गुणस्थान हो सकते हैं?*
उत्तर : सत्य वचनयोगी के केवलदर्शन में एक ही गुणस्थान होता है-तेरहवा (१३) गुणस्थान ।

*प्रश्न १८) सत्य मनोयोगी जीव के कम-से-कम कितने प्राण होते हैं?*
उत्तर : सत्य मनोयोगी जीव के कम-से-कम चार प्राण होते हैं– वचन बल,  कायबल, श्वासोच्चवास और आयु प्राण। (ये चार प्राण सयोग केवली की अपेक्षा कहे गये हैं।)

*प्रश्न १९)केवली भगवान के मनोयोग है तो मनोबल क्यों नहीं कहा गया है?*
उत्तर : अंगोपांग नामकर्म के उदय से हृदयस्थान में जीवों के द्रव्यमन की विकसित खिले हुए अष्टदल कमल के आकार रचना हुआ करती है। यह रचना जिन मनोवर्गणाओं के द्वारा होती है उनका जिनेन्द्र भगवान सयोगी केवली के भी आगमन होता है। इसलिए उनके उपचार से मनोयोग कहा गया है । लेकिन ज्ञानावरण तथा अन्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय हो जाने से उनके मनोबल नहीं होता है। क्योंकि मनोबल की उत्पत्ति ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है।    *(गो. जी. २२९)*

*प्रश्न २०) क्या ऐसे कोई सत्य मनोयोगी हैं जिनके मात्र दो संज्ञाएँ हों?*
उत्तर : है, नवम गुणस्थान के सवेदी मनोयोगी मुनिराज के मात्र दो संज्ञाएँ पाई जाती हैं-मैथुन और परिग्रह सज्ञा। अभेद भाग से परिग्रह संज्ञा होती हैं।

*प्रश्न २१) सत्यादि तीन योगों में चौदह ध्यान ही क्यों होते हैं?*
उत्तर : सत्य मन, सत्य वचन और अनुभय मन इन तीनो मे चार आर्त्तध्यान, चार रौद्रध्यान, चार धर्मध्यान तथा दो शुक्लध्यान होते हैं।
तीसरा शुक्लध्यान जब केवली भगवान मनोयोग तथा वचनयोग को नष्ट कर देते हैं एवं सूक्ष्मकाययोग रह जाता है तब तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान होता है। अर्थात् तीसरा शुक्लध्यान औदारिक काययोग से ही होता है। अतः इन तीनों योगों में १४ ही ध्यान कहे हैं, पन्द्रह नहीं ।

*प्रश्न २२) अनुभय मनोयोगी के आस्रव के कम-से- कम कितने प्रत्यय होते हैं?*
उत्तर : अनुभय मनोयोगी के आस्रव का कम-से-कम एक प्रत्यय हो सकता है। ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थान में केवल एक स्वकीय अर्थात् अनुभय मनोयोग सम्बन्धी आस्रव का प्रत्यय होगा, क्योंकि एक समय में एक ही योग हो सकता है।  *(ईर्यापथ आस्रव)*
🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦🇬🇦
*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

24) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*

*२४) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *जहाँ कार्मण काययोग समाप्त होगा उसके अगले ही क्षण से ही मिश्र काययोग प्रारम्भ हो ...