शुक्रवार, 13 सितंबर 2024
सोमवार, 19 अगस्त 2024
षोडशकारण व्रत कथा - सोलहकारण व्रत कथा
षोडशकारण भावना व्रतकथा
जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के मगध (बिहार) प्रांत में राजगृही नगर है। वहाँ के राजा हेमप्रभ और रानी विजयावती थी। इस राजा के यहाँ महाशर्मा नामक नौकर था और उनकी स्त्री का नाम प्रियंवदा था। इस प्रियंवदा के गर्भ से कालभैरवी नामक एक अत्यन्त कुरुपी कन्या उत्पन्न हुई कि जिसे देखकर माता-पितादि सभी स्वजनों तक को घृणा होती थी।
एक दिन मतिसागर नामक चारणमुनि आकाशमार्ग से गमन करते हुए उसी नगर में आये, तो उस महाशर्मा ने अत्यन्त भक्ति सहित श्री मुनि को पड़गाह कर विधिपूर्वक आहार दिया और उनसे धर्मोपदेश सुना। पश्चात् जुगल कर जोड़कर विनययुक्त हो पूछा-हे नाथ! यह मेरी कालभैरवी नाम की कन्या किस पापकर्म के उदय से ऐसी कुरुपी और कुलक्षणी उत्पन्न हुई है, सो कृपाकर कहिए? तब अवधिज्ञान के धारी श्री मुनिराज कहने लगे, वत्स! सुनो-
उज्जैन नगरी में एक महिपाल नाम का राजा और उसकी वेगावती नाम की रानी थी। इस रानी से विशालाक्षी नाम की एक अत्यन्त सुन्दर रूपवान कन्या थी, जो कि बहुत रूपवान होने के कारण बहुत अभिमानिनी थी और इसी रूप के मद में उसने एक भी सद्गुण न सीखा। यथार्थ है-अहंकारी (मानी) नरों को विद्या नहीं आती है।
एक दिन वह कन्या अपनी चित्रसारी में बैठी हुई दर्पण में अपना मुख देख रही थी कि इतने में ज्ञानसूर्य नाम के महातपस्वी श्री मुनिराज उसके घर से आहार लेकर बाहर निकले, सो इस अज्ञान कन्या ने रूप के मद से मुनि को देखकर खिड़की से मुनि के ऊपर थूक दिया और बहुत हर्षित हुई। परन्तु पृथ्वी के समान क्षमावान श्री मुनिराज तो अपनी नीची दृष्टि किये हुए ही चले गये। यह देखकर राजपुरोहित इस कन्या का उन्मत्तपना देख उस पर बहुत क्रोधित हुआ और तुरंत ही प्रासुक जल से श्री मुनिराज का शरीर प्रक्षालन करके बहुत भक्ति से वैयावृत्य कर स्तुति की। यह देखकर वह कन्या बहुत लज्जित हुई और अपने किये हुए नीच कृत्य पर पश्चाताप करके श्री मुनि के पास गई और नमस्कार करके अपने अपराध की क्षमा मांगी। श्री मुनिराज ने उसको धर्मलाभ कहकर उपदेश दिया। पश्चात् वह कन्या वहाँ से मरकर तेरे घर यह काल भैरवी नाम की कन्या हुई है। इसने जो पूर्वजन्म में मुनि की निंदा व उपसर्ग करके जो घोर पाप किया है उसी के फल से यह ऐसी कुरुपा हुई है, क्योंकि पूर्व संचित कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है इसलिए अब इसे समभावों से भोगना ही कर्तव्य है और आगे को ऐसे कर्म न बंधे ऐसा समीचीन उपाय करना योग्य है।
अब पुन: वह महाशर्मा बोला-हे प्रभो! आप ही कृपाकर कोई ऐसा उपाय बताइये कि जिससे वह कन्या अब इस दु:ख से छूटकर सम्यक् सुखों को प्राप्त होवे तब श्री मुनिराज बोले-वत्स! सुनो-संसार में मनुष्यों के लिए कोई भी कार्य असाध्य नहीं है, सो भला यह कितना सा दु:ख है? जिनधर्म के सेवन से तो अनादिकाल से लगे हुए जन्म-मरणादि दु:ख भी छूटकर सच्चे मोक्षसुख की प्राप्ति होती है और दु:खों से छूटने की तो बात ही क्या है? वे तो सहज ही में छूट जाते हैं। इसलिए यदि यह कन्या षोडशकारण भावना भावे और व्रत पाले, तो अल्पकाल में ही स्त्रीलिंग छेदकर मोक्ष-सुख को पावेगी। तब वह महाशर्मा बोला-हे स्वामी! इस व्रत की कौन-कौन भावनाएं और विधि क्या है? सो कृपाकर कहिए। तब मुनिराज ने इन जिज्ञासुओंको निम्न प्रकार षोडशकारण व्रत का स्वरूप और विधि बताई।
इन १६ भावनाओं को यदि केवली-श्रुतकेवली के पादमूल के निकट अन्त:करण से चिन्तवन की जाये तथा तदनुसार प्रवर्तन किया जाये तो इनका फल तीर्थंकर नाम कर्म के आश्रव का कारण है। आचार्य महाराज व्रत की विधि कहते हैं-
भादों, माघ और चैत्र वदी एकम् से कुवार, फाल्गुन और वैशाख वदी एकम् तक (एक वर्ष में तीन बार) पूरे एक-एक मास तक यह व्रत करना चाहिए। इन दिनों तेला-बेला आदि उपवास करें अथवा नीरस वा एक, दो, तीन आदि रस त्यागकर ऊनोदरपूर्वक अतिथि या दीन दु:खी नर या पशुओं को भोजनादि दान देकर एकभुक्त करें। अंजन, मंजन, वस्त्रालंकार विशेष धारण न करे, शीलव्रत (ब्रह्मचर्य) रखे, नित्य षोडशकारण भावना भावे और यंत्र बनाकर पूजाभिषेक करे, त्रिकाल सामायिक करे और (ॐ ह्रीं दर्शन-विशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, उपाध्यायभक्ति (बहुश्रुतभक्ति), प्रवचनभक्ति आवश्यकापरिहाणि, मार्ग प्रभावना, प्रवचनवात्सल्यादि षोडशकारणेभ्यो नम:)। इस महामंत्र का दिन में तीन बार १०८ बार जाप करे। इस प्रकार इस व्रत को उत्कृष्ट १६ वर्ष, मध्यम ०५ अथवा ०२ वर्ष और जघन्य ०१ वर्ष करके यथाशक्ति उद्यापन करे अर्थात् सोलह-सोलह उपकरण श्री मंदिरजी में भेंट दे और शास्त्र व विद्यादान करे, शास्त्र भण्डार खोले, सरस्वती मंदिर बनावे, पवित्र जिनधर्म का उपदेश करे और करावे इत्यादि यदि द्रव्य खर्च करने की शक्ति न हो तो व्रत द्विगुणित करे।
इस प्रकार ऋषिराज के मुख से व्रत की विधि सुनकर कालभैरवी नाम की उस ब्राह्मण कन्या ने षोडशकारण व्रत स्वीकार करके उत्कृष्ट रीति से पालन किया, भावना भायी और विधिपूर्वक उद्यापन किया, पीछे वह आयु के अंत में समाधिमरण द्वारा स्त्रीलिंग छेदकर सोलहवें (अच्युत) स्वर्ग में देव हुई। वहाँ से बाईस सागर आयु पूर्ण कर वह देव जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र संबंधी अमरावती देश के गंधर्व नगर में राजा श्रीमंदिर की रानी महादेवी के सीमंधर नाम का तीर्थंकर पुत्र हुआ सो योग्य अवस्था को प्राप्त होकर राज्योचित सुख भोग जिनेश्वरी दीक्षा ली और घोर तपश्चरण कर केवलज्ञान प्राप्त करके बहुत जीवों को धर्मोपदेश दिया तथा आयु के अंत में समस्त अघाति कर्मों का भी नाश कर निर्वाण पद प्राप्त किया।
इस प्रकार इस व्रत को धारण करने से कालभैरवी नाम की ब्राह्मण कन्या ने सुर-नर भवों के सुखों को भोगकर अक्षय अविनाशी स्वाधीन मोक्षसुख को प्राप्त कर लिया, तो जो अन्य भव्यजीव इस व्रत को पालन करेंगे उनको भी अवश्य ही उत्तम फल की प्राप्ति होवेगी।
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आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)
बुधवार, 14 अगस्त 2024
*अकंपनाचार्य मुनि और विष्णुकुमार मुनि कथा*
विष्णुकुमार मुनि
https://youtu.be/JO8lUNM5PRg?si=NrHC-ilGaCB55_Fd
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उज्जैन में राजा श्रीवर्मा राज्य करते थे। उनकी सभा में बलि, वृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि ये चार मंत्री थे जो चारो ही मिथ्यात्वी थे। एक बार दिगम्बर गुरु अकंंपन आचार्य सात सौ मुनियों के संघ के साथ विहार करते हुए उज्जयिनी नगरी के उद्यान में जाकर ठहर जाते हैं। आचार्य अपने निमित्तज्ञान से इस बात को जान लेते हैं कि यहाँ पर संघ के लिए कुछ अनिष्ट की संभावना है। इसलिये अपने शिष्यों से यह कह रखा था कि सब साधु मौन रहें, कोई आवे तो बिलकुल बातचीत नहीं करें न कुछ धर्म चर्चा ही। गुरु की यह आज्ञा सुन कर सब मुनि धर्म ध्यान में लीन हो गये ।
प्रात:काल शहर में मुनिसंघ के आने का समाचार सुनकर श्रावक हाथ में पूजा द्रव्य लेकर अपने-अपने घर से चल पड़ते हैं और गुरुओं की वंदना करते हैं। उसी समय उज्जयिनी के राजा श्रीवर्मा अपने महल की छत पर बैठे हुए थे साथ मे चारों मंत्री बैठे थे। मंत्री राजनीति में निपुण होते हुए भी धर्म के कट्टर शत्रु हैं और दिगम्बर मुनियों के प्रति बहुत ही द्वेष करने वाले हैं। राजा कुतूहलवश मंत्रियों से पूछते हैं कि आज ये सब लोग पूजन सामग्री हाथ में लिए हुए कहाँ जा रहे हैं?’’ मंत्री कहते है अपने शहर के बगीचे में नित्य ही नंगे रहने वाले साधु आए हुए हैं। ये सब लोग उन्हीं के दर्शन करने जा रहे हैं।’’
यह सुनकर राजा ने कहा कि हम भी मुनिराजों के दर्शन करेगें । परन्तु चारो मंत्री जैनमुनियों की निन्दा करने लगे, पर राजा ने उनकी एक न मानी और रनवास सहित बड़े साज बाज से साधु वन्दना को निकले तब तो बेचारे मंत्रियों को भी राजा के साथ जाना पड़ा। राजा ने वहां पहुंच कर उन वीतराग मुनियों की भक्ति सहित वन्दना की, परन्तु किसी मुनि ने उन्हें आर्शीवाद नहीं दिया। जब राजा लौट पड़े तब साथ के मन्त्री उनसे कहने लगे कि ये मुनि मूर्ख हैं, इसी कारण कुछ नहीं बोलते हैं इनको कुछ ज्ञान होता तो अवश्य ही बातचीत करते। अत: अपनी पोल न खुल जाए इसीलिए ये सब ध्यान का ढोंग लेकर बैठ गए हैं।’’
राजा मंत्रियों द्वारा मुनियो की निन्दा की बात को सुनी- अनसुनी करके अपने महल की ओर चले आ रहे थे। उसी समय शहर से श्रुतसागर मुनि आहार लेकर आते दिखे। उन्हें देख मंत्रियों ने कहा, देखिये उस मुनि को बैल जैसा फूला हुआ आ रहा है। इतना सुनते ही मुनिराज समझ जाते हैं कि ये मंत्री वाद-विवाद करने के इच्छुक हैं। मुनिराज को मौन धारण करने की गुरु आज्ञा मालूम नहीं थी क्योंकी वे पहिले ही शहर में चले गये थे। वे मंत्रीयो से शास्त्रार्थ करने लगे और चारो को हरा दिया। राजा प्रसन्नचित्त हो मुनिराज को पुन:-पुन: नमस्कार करके उनके समीचीन ज्ञान की प्रशंसा करते हुए अपने महल वापस आ जाते हैं।
फिर श्रुतसागर मुनि अपने गुरु के पास आये और वहां का हाल सुनाया। तब गुरु कहने लगे कि तुमने यह भला नहीं किया। तुमने अपने हाथों से सारे ही संघ का घात कर लिया, संघ की अब कुशल नहीं है।’ श्रुतसागर जी पूछते हैं— ‘‘गुरुदेव! मेरे से अनजाने में बहुत बड़ा अपराध हो गया है आप उचित प्रायश्चित्त दे दीजिए।’’आचार्य कहते हैं सर्वसंघ की कुशलता के लिए वापस पीछे जाओ जहाँ पर मंत्रियों के साथ शास्त्रार्थ किया है। उसी स्थान पर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान में स्थित हो जाओ।’’ आचार्यदेव की आज्ञा पाकर श्रुतसागर मुनि उसी स्थान पर ध्यान मग्न हो खड़े हो जाते हैं।
मंत्रियों को राजा के सामने हारने से बड़ा क्रोध आया, अपने मान भंग का बदला चुकाने के लिए उन्होनें मुनि संघ को मार डालने की तैयारी की। रात को वे चारों नंगी तलवार लेकर आये और मुनिसंघ को मारने उद्यान की ओर चल पड़ते हैं। रास्ते में श्रुतसागर मुनि को खड़ा देखकर कहने लगे कि इसी ने हमारा अपमान किया है। ‘हाँ, हाँ, सच में दोषी तो यही है और सब बेचारे तो कुछ बोले भी नहीं थे।’’ अतः पहले इसी का काम तमाम करना चाहिये।
चारों ने एक साथ मुनिराज एक साथ तलवार उठाकर गर्दन पर चलाना चाहते हैं परन्तु नगर के देवता का आसन कंपते ही उसी समय वह आकर उन चारों को वैसे ही तलवार उठाये मुद्रा में उसी जगह कील देते हैं और वे तलवार उताए जैसे के तैसे खड़े रह गये। किंंचित् मात्र भी टस से मस नहीं हो पाते हैं। अब वे मन ही मन सोचने लगते हैं— ‘ओह! यह क्या हुआ? प्रात:काल होते ही बिजली की तरह यह खबर सारे शहर में फैल जाती है। सभी लोग एक स्वर में मंत्रियों को धिक्कारते हुए कहते हैं— ‘अरे, रे! इन पापियों को धिक्कार हो, धिक्कार हो!
महाराजा श्रीवर्मा को भी यह हाल मालूम हुआ तब वे भी वहाँ पर आ जाते हैं। राजा ऐसा दृश्य देखकर बहुत ही खेद के साथ कहते हैं— ‘अरे पापियों! तुमने संसार के महा उपकारी और निर्दोष ऐेसे महामुनियों के साथ यह क्या किया? तुम लोगों ने उनको मारने का यह षड्यंत्र क्यों बनाया?……. तभी पुरदेवता उन्हें छोड़ देता हैं और गुरु श्रुतसागर के चरणों की बहुत ही भक्ति से पूजा करता है। राजा मस्तक नीचा किए हुए मंत्रियों से पुन: कहते हैं— ‘अरे दुष्टों! तुम्हारा मुख देखना भी महापाप है। तुम्हें इस मुनि हत्या के महापाप का दण्ड तो मुझ राजा को देना ही चाहिए।
तुम्हारी कितनी ही पीढ़ियाँ मेरे यहाँ मंत्रीपद पर प्रतिष्ठा पा चुकी हैं इसीलिए मैं तुम्हें प्राणों का अभय दे रहा हूँ।’ पुन: राजा अपने कर्मचारियों से कहते हैं— तुम इन चारों को ले जाकर गधे पर बिठाकर इन्हें अपने देश की सीमा से बाहर निकाल दो।’ आचार्यदेव भी इस प्रकार से आने वाली संघ की आपत्ति टल जाने से संतुष्ट दिख रहे हैं और संघ के सभी साधु गुरु के अनुशासन का प्रत्यक्ष सुखद अनुभव प्राप्त कर गुरु के अनुशास्य शिष्य होने से अपने आपको गौरवान्वित कर रहे थे।
तीर्थंकर मल्लिनाथ जी के तीर्थकाल की बात है हस्तिनापुर के राजा चक्रवर्ती महापद्म अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ वन में जाकर महामुनि श्रुतसागर मुनि के सानिध्य में पहुँचकर जाते है। दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करना शुरू कर देते हैं। उधर उज्जयिनी से निकाले जाने पर बलि आदि चारों मंत्री यहाँ हस्तिनापुर आकर वाक् चतुराई से राजा के यहाँ मंत्री पद को प्राप्त कर लेते हैं। किसी समय राजा को चिंतित देख उसका कारण ज्ञातकर राजा से कहते हैं— ‘‘राजन्! कुंभपुर का सिंहबल राजा किस अभिमान में हैं? आप हमें आज्ञा दीजिए, हम उसे जीवित ही पकड़कर आपके सामने उपस्थित कर देंगे।’’
राजा उनकी बातों से प्रसन्न होकर बहुत सी सेना दे देते हैं। वे चारों मंत्री कुम्भपुर नगर पर चढ़ाई कर अपने बुद्धिबल से सिंहबल को जीवित ही पकड़कर बाँधकर हस्तिनापुर लाकर राजा पद्म के सामने खड़ा कर देते हैं। राजा पद्म इन मंत्रियों की इस कार्य कुशलता से प्रसन्न हो उन्हें वर माँगने को कहते हैं तब मंत्रीगण निवेदन करते हैं। अभी हमारा वर आप धरोहर रूप में अपने पास ही रहने दीजिए, आवश्यकतानुसार हम ले लेंगे।’’
इसी समय अकंपनाचार्य महामुनि सात सौ मुनियों के साथ विहार करते हुए हस्तिनापुर के बाहर उद्यान में ठहर जाते हैं और वर्षायोग का नियम ग्रहण कर लेते हैं। श्रावक संघ की उपासना के लिए प्रतिदिन उनकी वंदना, पूजा, भक्ति करना शुरू कर देते हैं। ‘‘श्री अकंपनाचार्य मुनि संघ सहित यहाँ आये हैं’’ यह समाचार मिलते ही मंत्रियों को अपने अपमान की बात याद आ जाती है। वे परस्पर में विचार करते हैं की बदला चुकाने का यही समय उपयुक्त है। इन्हीं दुष्टों के द्वारा कितना दु:ख उठाना पड़ा है ? और उज्जयिनी से अपमानित होकर देश निकाले का दण्ड दिया है।
राजा पद्म इनके परम भक्त हैं, वे इनका अहित कैसे होने देंगे ?’’ बलि मंत्री कहता है— ‘‘सुनो, हमने राजा से जो वर प्राप्त किया था, उसके बदले राजा से सात दिन का राज्य प्राप्त कर लेना चाहिए।’’ उसी समय राजा के पास पहुँच कर निवेदन करते हैं की आपने हमें वर दिया था आज हमें आवश्यकता है।’’ राजा कहते हैं— ‘‘कहो, आप लोगों को क्या चाहिए ? बलि कहता है— ‘‘महाराज! हमें सात दिन के लिए अपना राज्य प्रदान कीजिए।’’ राजा ऐसा सुनते ही अवाक् रह जाते हैं उनके मन में कुछ अनर्थ की आशंका हो जाती है किन्तु अब वे कर ही क्या सकते थे ? वे वचनबद्ध थे अत: उन्हें राज्य देना ही पड़ा।
राजा मंत्रियों को राज्य सौंपकर स्वयं सात दिन के लिए अपने रननिवास पर आकर निवास करने लगे। इधर ये दुष्ट मंत्री राज्य पाकर मुनियों के मारने के लिए महायज्ञ का बहाना रचते हैं जिससे कि सर्व साधारण लोग कुछ न समझ सकेँं। उस समय वे मुनियों को बीच में रखकर उनके चारों तरफ एक बहुत बड़ा मंडप तैयार कराते हैं। उनके चारों तरफ लकड़ियों का ढेर इकट्ठा करवा देते हैं, बकरी, भेड़ें आदि हजारों पशु वहीं बाड़ा बनवाकर बंधवा देते हैं और यह घोषणा करा देते हैं कि देश तथा राज्य की शांति के लिए ‘पशुमेघ’ यज्ञ प्रारंभ किया है।
वेद-वेदांग पारंगत विद्वान यज्ञ कराने लगते हैं और वेद ध्वनि से यज्ञ मण्डप को गुंजायमान कर देते हैं। बेचारे निरपराध पशुओं को निर्र्दयता पूर्वक मारा जा रहा है, आहुतियाँ दी जा रही हैं। देखते-देखते दुर्गंधित धुएं से सारा आकाश परिपूर्ण हो जाता है। श्री अकंपनाचार्य महाराज और सभी सात सौ मुनिगण इस दुर्घटना को देखकर अपने ऊपर उपसर्ग समझ लेते हैं। संयम की रक्षा हेतु आगम विधि के अनुसार सल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं।
उपसर्ग दूर होने पर ही आहार जल ग्रहण करना इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर लेना नियम सल्लेखना है तथा बचने की संभावना न होने पर जीवन भर के लिए चतुराहार त्याग करना यम सल्लेखना है। आध्यात्मिक भावना को भाते हुए वे सभी मुनि पर्वत के समान अकंप होकर निश्चल शरीर करके तिष्ठे हो जाते हैं। इधर बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि ये चारों दुष्टात्मा राज्य को प्राप्त कर फूले नहीं समा रहे हैं और मुनियों को मारने के लिए यज्ञ विधि का आयोजन करके किमिच्छक दान बाँट रहे हैं।
मिथिला नगरी के बाहर उद्यान में श्री श्रुतसागरमुनि रात्रि के समय ध्यान में स्थित हैं। अर्धरात्रि के अनंतर वे ध्यान को विसर्जित कर आकाश की ओर देखते हैं ‘श्रावण नक्षत्र कंंपायमान देखकर अपने निमित्तज्ञान से विचारते हैं और सहसा मुख से बोल पड़ते हैं— ‘हाय! हाय!!’’ पास में ही पुष्पदंत नाम के क्षुल्लक जी बैठे हुए थे, वे गुरु के मुख से सहसा ‘हाय, हाय,’ शब्द सुनकर घबराकर पूछते हैं— ‘भगवन्! क्या हुआ!!’ श्रुतसागरसूरि कहते हैं— ‘हस्तिनापुर में संघ के नायक श्री अकपनाचार्य महामुनि और सात सौ मुनियों पर पापी बिल द्वारा बहुत बड़ा उपसर्ग हो रहा है।’
क्षुल्लक जी पूछने पर की यह उपसर्ग कैसे दूर होगा तो श्रुतसागर मुनि कहते हैं— उज्जयिनी नगरी के बाहर एक गुफा में श्री विष्णुकुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गई है। वे ऋद्धि के बल से इस उपसर्ग का निवारण कर सकते हैं।’’ गुरु की आज्ञा पाकर पुष्पदंत क्षुल्लक आकाशगामी विद्या के बल से मुनि विष्णुकुमार के सानिध्य में पहुँचकर नमोऽस्तु करते हैं और श्री श्रुतसागर मुनि द्वारा कथित समाचार सुना देते हैं। विष्णुकुमार मुनि आश्चर्य से सोचते हैं क्या मुझे विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो चुकी है ?’ वे तत्क्षण ही अपना हाथ पसारते हैं तो वह हाथ गुफा के बाहर पर्वत आदि को भेदन करता हुआ बहुत दूर तक चला जाता है।
विष्णुकुमार मुनि उसी क्षण विक्रियाऋद्धि के द्वारा आकाश मार्ग से चलकर शीघ्र ही हस्तिनापुर मे बड़े भाई राजा पद्म के राजमहल में पहुँच जाते हैं। और कहते हैं— भाई तुम किस नींद में सो रहे हो ? शहर में कितना भारी अनर्थ हो रहा है ? अपने राज्य में तुमने ऐसा अनर्थ क्यों होने दिया ? राजा पदम कहते है।‘भगवन्! मैं क्या करूँ ? मुझे क्या मालूम था कि ये पापी लोग मिलकर मुझे ऐसा धोखा देंगे ? अब मैं वचनबद्ध हो चुका हॅूं, सात दिन तक के लिए अपना राज्य दे चुका हूँ। हे महामुने! अब तो आप ही इस कार्य में समर्थ हैं। आप ही किसी उपाय द्वारा मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिए।
विष्णुकुमार मुनि विक्रिया ऋद्धि से वामन ब्राह्मण का वेष बनाते हैं। कंधे पर जनेऊ लटका कर बगल में वेदशास्त्रों को दबाकर मधुरता से वेद की ऋचाओं का उच्चारण करते हुए वहाँ यज्ञ मंडप में पहुँच जाते हैं। बलि राजा (मंत्री) तो उन पर इतना प्रसन्न हो जाता है कि वह कहता है आपकी जो इच्छा हो, सो माँगिए। वामन ब्राह्मण कहते हैं— ‘मैं गरीब ब्राह्मण हूूँ। मुझे धन-दौलत की आवश्यकता नहीं है। मुझे केवल तीन पैर (पग) पृथ्वी की आवश्यकता है। इसके सिवाय मुझे और कुछ नहीं चाहिए।’ तब बलि कहता है— ‘हे पूज्य! तो आप स्वयं अपने ही पैरों से पृथ्वी माप लीजिए।’
बलि महाराज जल की भरी सुवर्ण झारी उठा कर दान का संकल्प करते हुए वामन ब्राहमण के हाथ में जलधारा डाल देते है। संकल्प होते ही वामन वेषधारी विष्णुकुमार पृथ्वी को मापने के लिए अपना पहला पाँव उठाकर सुमेरु पर्वत पर रखते हैं, दूसरा पैर उठाकर मानुषोत्तर पर्वत पर रखते हैं पुन: तीसरा पैर उठाते हैं और उन्हें आगे बढ़ने की कहीं जगह ही नहीं दिखती है, उसे वे कहाँ रक्खे ? …...तब वह तीसरा पाँव आकाश में ही उठा रह जाता है। उनके इस प्रभाव से सारी पृथ्वी काँप उठती है, सभी पर्वत चलायमान हो जाते हैं, समुद्र मर्यादा तोड़ देते हैं और उनका जल बाहर उद्वेलित होकर बहने लगता है।
देवों के विमान भी टकराने लगते हैं और देवगण सहसा आश्चर्य से चकित हो जाते हैं। पुन: तत्क्षण ही देवगण अपने अवधिज्ञान से सारा समाचार ज्ञातकर वहाँ आकर बलि को बाँधकर मुनि विष्णुकुमार से कहते हैं— ‘प्रभो! क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए!!…. इस प्रकार चारों तरफ से आकाश में उपस्थित देवगण एक साथ शब्दों का उच्चारण करते हुए आकाश को मुखरित कर रहे हैं— ‘जय हो, जय हो, जय हो!! महामुनि अकंपनाचार्य की जय हो, सर्व दिगम्बर मुनियों की जय हो, जैनधर्म की जय हो। महासाधु विष्णुकुमार की जय हो, जय हो, जय हो!!
हे धर्मवत्सल! हे दया सिन्धो, हे धर्म के अवतार! क्षमा करो, क्षमा करो!! दया करो, दया करो!! हम सभी की रक्षा करो, अब आप अपनी विक्रिया समेटो, हे देव! अब आप अपना पैर संकुचित करो। यह सब दृश्य देखकर अतीव भयभीत और काँपता हुआ बलि महाराज के चरणों में गिर पड़ता है और गिड़गिड़ाता हुआ कहता है— मुझे क्षमा कर दीजिए, मैं महापापी हूँ फिर भी अब आपकी शरणागत हूूँ अब आप मेरी रक्षा कीजिए, मेरे ऊपर दया कीजिए’ इसी मध्य बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि तीनों मंत्री भी आकर मुनि के चरणों में साष्टांग पड़कर क्षमा याचना करते हैं और पश्चात्ताप करते हुए अश्रु गिराने लगते हैं।
वामन वेषधारी विष्णुकुमार तत्क्षण ही अपनी विक्रिया समेट लेते हैं और मुनि अवस्था में वहाँ खड़े हो जाते हैं। उसी समय देवगण आकर सभी मुनियों पर हो रहे सारे उपसर्ग को दूर कर देते हैं। यज्ञ मंडप और अग्नि को हटा देते हैं। जो बेचारे निरपराध पशु हवन की आहुति के लिए वहाँ बाँधे गये थे उन्हें छोड़ देते हैं और सभी को अभयदान की घोषणा कर देते हैं। उसी क्षण राजा पद्म भी वहाँ आ जाते हैं और विष्णुकुमार मुनि के चरणों से लिपट जाते हैं। सात सौ मुनियों के ऊपर हो रहे भंयकर उपद्रव को दूर हुआ देख हर्षाश्रु से मुनि विष्णुकुमार के चरणों का मानों प्रक्षालन ही कर रहे हों।
प्रजा में शांति की लहर दौड़ जाती है। एक साथ सारी प्रजा वहाँ दौड़ आती है और गुरुओं की वंदना एवं वैयावृत्ति में लग जाती है। उसी क्षण राजा और चारों मंत्री बड़ी भक्ति से अकंंपनाचार्य की वंदना करने को वहाँ पहँच जाते हैं और उनके चरणों में साष्टांग पड़कर नमस्कार करते हैं।’ पुन: वे चारों मंत्री गुरुदेव से निवेदन करते हैं— ‘हे नाथ! अब हमें आप विश्व हितकारी, परमोपकारी, अहिंसामयी इस जैनधर्म को ग्रहण कराइए।’ इतनी प्रार्थना को सुनकर श्री अकंंपनाचार्य गुरुवर्य उन पर दया करके मिथ्यात्व का त्याग कराकर चारों को सम्यक्त्व तथा अणुव्रत देकर उन्हें दुर्जन से सज्जन बना देते हैं।
सभी देवगण प्रसन्न होकर बहुत ही भक्ति भाव से अष्ट द्रव्य आदि उत्तम-उत्तम सामग्री लेकर श्री विष्णुकुमार मुनि के चरणों की पूजा करते हैं, पुन: अकंंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों की पूजा करते हैं। वे देवगण देवमयी तीन वीणाएँ लाकर उन्हें बजा-बजा कर खूब भक्ति-पूजा करते हैं। पुन: उन तीनों वीणाओं को यहीं मध्यलोक में दे जाते हैैं जिनके द्वारा भक्त लोग सदा ही उन गुरुओं का गुणानुवाद गा-गाकर पुण्य संपादन करते रहे।
पुन: सभी श्रावक श्राविकाएँ विचार करते हैं— ‘‘अहो! इन उपसर्ग विजयी महामुनियों को अग्नि की आँच और धुएं से बहुत क्लेश हुआ है। इनके कंठ रुँध गए हैं और शरीर में भी वेदना हो रही है अत: अब इन्हें ऐसा आहार देना चाहिए कि जिससे ये जले हुए, पीड़ा युक्त कंंठ से सहज में ग्रहण कर सके।’’ तभी सब श्रावक सेमई की खीर को उपयुक्त आहार समझकर घर-घर में वैसा मृदु आहार तैयार करके आहार की बेला में अपने-अपने घर के दरवाजे पर मुनियों के पड़गाहन की प्रतीक्षा में खड़े हो जाते हैं।
सभी मुनि अपनी-अपनी नियम सल्लेखना को विसर्जित कर आचार्यश्री के साथ शरीर को संयम का साधन मानकर उसकी रक्षा हेतु चर्या के लिए निकलते हैं। श्रावक आनंद विभोर हो नवधा भक्ति से पड़गाहन करना शुरू कर देते हैं। जिन श्रावकों को मुनियों का लाभ मिल जाता है वे अपने जीवन को धन्य मान लेते हैं और विधिवत् उन्हें मुदु और सरस सेमई की खीर का आहार देकर अतिशय पुण्य संपादन कर लेते हैं। जिन श्रावकों को कोई उत्तम मुनि-पात्र नहीं मिल पाता है वे भी उस दिन पात्रदान की उत्कट भावना से अन्य व्रती श्रावकों को भोजन कराकर आहार दान की भावना भाते हुए अपने जीवन को सफल करते हैं।
जिस दिन इन सात सौ मुनियों की रक्षा हुई थी वह दिन श्रावण शुक्ला पूूर्णिमा का था। तभी से आजतक सभी श्रावकगण इस दिन को वात्सल्य पर्व के नाम से मनाते चले आ रहे हैं।
इस प्रकार धर्मात्माओं के प्रति परम धर्म के अवतार मुनि श्री विष्णुकुमार ने वात्सल्य भाव को करके जो धर्मात्माओं की रक्षा की है, उसी की स्मृति में इस पर्व को मनाते हुए धर्म और धर्मात्माओं की रक्षा का नियम लेना चाहिए, तभी इस पर्व को मनाने की पूर्ण सार्थकता है।
अनंतर विष्णुकुमार मुनि अपने गुरु के पास जाकर विक्रिया से जो वामनवेष बनाया था उसका प्रायश्चित्त ग्रहण कर घोराघोर तपश्चरण कर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। वे महामुनि विष्णुकुमार तथा अकंंपनाचार्य आदि सात सौ मुनि हम सब की रक्षा करें।
👉 विशेष नोट - त्रिलोकसार जी की गाथा 817 मे आया है कि महापदम चक्रवर्ती जी तीर्थंकर मल्लिनाथ जी के तीर्थंशासन मे हुए है।
।।जिनवाणी माता की जय।।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*
बुधवार, 12 जून 2024
श्रुत पंचमी की कथा । श्रुतावतार
*श्रुत पंचमी*
वैशाख सुदी दशमी के दिन भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्रगट हुआ था, किन्तु गणधर के अभाव में छ्यासठ दिन तक उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी। उस समय इन्द्र ने बुद्धिबल से इन्द्रभूति नामा ब्राह्मण को वहाँ उपस्थित किया। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने पाँच-पाँच सौ शिष्यों के साथ अपने भाई अग्निभूति और वायुभूति के साथ तथा अपने पाँच सौ शिष्यों सहित प्रभु के समवसरण में जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। तत्क्षण ही मनःपर्यय ज्ञान से और सात महाऋद्धियों से सम्पन्न होकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये। पुनः उन्होंने भगवान् से 'जीव है या नहीं'। इत्यादि रूप से अनेकों प्रश्न किए। उस समय भगवान की दिव्यध्वनि खिरने लगी।
गौतम स्वामी ने उसी दिन बारह अंग और चौदह पूर्व रूप ग्रंथों की एक ही मुहूर्त में रचना की। इस तरह श्रावश्रुत और अर्थ पदों के कर्ता तीर्थंकर भगवान महावीर हैं और तीर्थंकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रुतपर्याय से परिणत हुए इसलिए द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं। इस तरह गौतम से ग्रंथ रचना हुई।
गौतम स्वामी ने दोनों प्रकार का ज्ञान लोहार्य को दिया। लोहार्य ने भी जंबूस्वामी को दिया। गौतम स्थविर, लोहार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों ही सप्तर्द्धिसम्पन्न सकलश्रुतधर होकर अंत में केवलज्ञानी होकर निर्वाण को प्राप्त हुए। इसके बाद विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से चौदह पूर्व के धारी हुए। अनंतर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थ स्थविर, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह महामुनि ग्यारह अंग और दश पूर्वों के ज्ञाता हुए तथा शेष चार पूर्वी के एक देश ज्ञाता हुए।
इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पाँचों ही आचार्य ग्यारह अंगों के ज्ञाता हुए और चौदह पूर्वी के एकदेश ज्ञाता हुए। तदनंतर सुभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चारों ही आचार्य सम्पूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंग-पूर्वी के एकदेश के धारक हुए। इसके बाद सभी अंग और पूर्वी का एकदेश ज्ञान आचार्य परम्परा' से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ।
सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चंद्रगुफा में रहने वाले अष्टांग महानिमित्तज्ञानी श्रीधरसेनाचार्य ने 'अंगपूर्वश्रुतज्ञान का विच्छेद न हो जाये' इसलिए महामहिमा अर्थात् पंचवर्षीय साधु सम्मेलन में आये हुए दक्षिणपथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा। लेख को पढ़कर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, नानागुण युक्त, देश, कुल और जाति से शुद्ध ऐसे दो साधुओं को आंध्र देश की वेणानदी के तट से भेजा।
इधर धरसेनाचार्य ने स्वप्न में देखा कि अत्यंत शुभ्र और उन्नत दो बैल हमारी तीन प्रदक्षिणा देकर चरणों में पड़ गये हैं। स्वप्न से संतुष्ट हुए श्री धरसेन भट्टारक ने 'जयतु श्रुतदेवता' ऐसा वाक्य उच्चारण किया और उठ बैठे। उसी दिन प्रातः वे दोनों मुनि श्रीगुरु के पास पहुँचे और विनयपूर्वक कृतिकर्म विधि से उनकी पादवंदना की। अनंतर दो दिन बिताकर तीसरे दिन उन दोनों ने निवेदन किया कि 'हम श्रुत अध्ययन हेतु आपके पादमूल में आये हुए हैं। उनके वचनों को सुनकर गुरु ने 'अच्छा है, कल्याण हो' ऐसा कहकर उन्हें आश्वासन दिया।
शुभ स्वप्न देखने मात्र से ही यद्यपि आचार्य श्री ने उन मुनियों की विशेषता को जान लिया था, तो भी उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया, क्योंकि उत्तम प्रकार की परीक्षा ही हृदय में संतोष को उत्पन्न करती है। इसके बाद आचार्य ने उन दोनों को दो विद्याएँ दीं। उनमें से एक अधिक अक्षर वाली थी और दूसरी हीन अक्षर वाली थी। विद्याएँ देकर उनसे कहा कि बेला करके उनको सिद्ध करो। जब उनको विद्याएँ सिद्ध हो गईं, तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देवताओं को देखा कि एक देवी के दाँत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है।
"विकलांग होना देवताओं का स्वभाव नहीं होता है" इस प्रकार उन दोनों ने विचार कर मंत्र संबंधी व्याकरण शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाली विद्या में अधिक अक्षर मिलाकर और अधिक अक्षर वाली विद्या में से अक्षर निकालकर मंत्र फिर से सिद्ध करना प्रारंभ किया। जिससे ये दोनों विद्या देवताएँ अपने स्वभाव और अपने सुंदररूप में स्थित दिखलाई पड़ी।
तदनंतर भगवान धरसेन के समक्ष आकर उन दोनों ने विनय सहित सारा वृत्तांत निवेदित किया। 'बहुत अच्छा' इस प्रकार संतुष्ट हुए धरसेन भट्टारक ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रंथ पढ़ाना प्रारंभ किया। इस तरह क्रम से व्याख्यान करते हुए धरसेन भगवान से उन दोनों ने आषाढ़ शुक्ला एकादशी के पूर्वाण्ह काल में ग्रंथ समाप्त किया। विनयपूर्वक ग्रंथ समाप्त किया, इसलिए संतुष्ट हुए व्यंतर देवों ने उन दोनों की बड़ी भारी पूजा की। अनंतर धरसेनाचार्य ने एक मुनि का नाम भूतबलि और दूसरे का नाम पुष्पदंत रखा।
तदनंतर उसी दिन वहाँ से भेजे गये उन दोनों ने 'गुरु की आज्ञा अलंघनीय होती है' ऐसा विचार कर आते हुए अंकलेश्वर गुजरात में वर्षाकाल बिताया। वर्षायोग समाप्त कर जिनपालित को देखकर (उसको साथ लेकर) पुष्पदंत आचार्य तो वनवासी देश को चले गये और भूतबली भट्टारक तमिल देश को चले गये। तदनंतर पुष्पदंत आचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर पुनः बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित को पढ़ाकर अनंतर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा।
जिनपालित मुनि को और उनके पास बीस प्ररूपणान्तर्गत सत्प्ररूपणा के सूत्रों को देखकर तथा जिनपालित के मुख से पुष्पदंत आचार्य की अल्पायु जानकर विचार किया कि "महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विच्छेद हो जायेगा, अतः हमें इस कार्य को पूरा करना चाहिए" ऐसा सोचकर भगवान भूतबलि ने 'द्रव्यप्रमाणानुगम" को आदि लेकर ग्रंथ रचना की। इसलिए खंड सिद्धांत की अपेक्षा भूतबलि और पुष्पदंत आचार्य भी श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं। अर्थात् पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य ने जीवस्थान, खुद्दाबंध, बंधस्वामित्व, वेदनाखंड, वर्गणाखण्ड और महाबंध' नामक षट्खण्डागम की रचना की है'।
धवला में षट्खण्डागम की रचना का इतना ही इतिहास पाया जाता है। इससे आगे का वृत्तांत इन्द्रनंदिकृत श्रुतावतार में मिलता है।
'श्री भूतबलि आचार्य ने षट्खण्डागम की रचना पुस्तक बद्ध करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को चतुर्विध संघ के साथ उन पुस्तकों की पूजा की। इसीलिए श्रुत पंचमी तिथि तभी से प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई है और आज तक भी जैन लोग श्रुतपंचमी के दिन श्रुतपूजा करते हैं। फिर भूतबलि ने उन षट्खण्डागम पुस्तकों को जिनपालित के हाथ पुष्पदंत गुरु के पास भेजा। उन्हें देखकर औरचंतित कार्य को सफल जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने भी चातुर्वर्ग संघ सहित सिद्धान्त की पूजा की। यह तो षट्खण्डागम सिद्धान्त की उत्पत्ति कही है।
✍️ विशेष नोट -
1. नंदि-आम्नाय की प्राकृत पद्यावली में लोहाचार्य के अनंतर 'अर्हदद्वबलि, माघनंदि, धरसेन, पुष्पदंत और भूतबली' ऐसा क्रम लिया है एवं इन्द्रनंदि कृत-श्रुतावतार में लोहाचार्य के अनंतर अंगपूर्व के एकदेश ज्ञाता में 'विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त ये चार नाम कहे हैं। पुनः अर्हद्वलि नाम के महान ज्ञानी आचार्य हुए, जिन्होंने पृथक् पृथक् संघ व्यवस्था बनाई। इनके बाद 'माघनंदि' आचार्य हुए हैं, ये भी अंगपूर्व के एकदेश ज्ञाता थे। पुनः धरसेनाचार्य हुए।
2. वर्तमान में मुद्रित धवला की तृतीय पुस्तक से भी भूतबलि आचार्य कृत सूत्र हैं। इसके पूर्व 177 सूत्र रचना पुष्पदंत: आचार्य ने की है।
श्रुत पंचमी पर्व की कथा पूर्ण हुई यह आचार्य इन्द्रनंदी जी के श्रुतावतार के आधार से लिखी है।
।।जिनवाणी माता की जय।।
शुक्रवार, 26 जनवरी 2024
जम्बूवृक्ष-शाल्मली वृक्ष
मध्यलोक मे जम्बूद्वीप के उत्तरकुरु मे, नील पर्वत के समीप, सीता नदी के पूर्व तट पर, सुदर्शन मेरु की ईशान दिशा में जम्बूवृक्ष की स्थली है। जिसके ऊपर जम्बूवृक्ष है जम्बू यानि जामुन का वृक्ष। इसी प्रकार सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर, निषध कुलाचल के समीप, सुदर्शन मेरु की नैऋत्य दिशागत देवकुरु क्षेत्र मे शाल्मली वृक्ष की मनोहारिणी स्थली है। यह वृक्ष अनादिनिधन है किसी ने नही बनाया। इसके ऊपर अकृत्रिम जिन चैत्यालय और व्यंतर देवो का निवास है। यह नाना प्रकार रत्नमयी उपशाखाओं से युक्त, मूँगा के समान वर्ण वाले पुष्प और मृदंग समान फलों से युक्त पृथ्वीकायमय वृक्ष है
✍️जम्बूस्थली
जम्बूस्थली का तल व्यास 500 योजन है। यह स्थली अंत मे अर्थात किनारो पर 1/2 योजन मोटी और मध्य में 8 योजन ऊँची गोल आकार वाली सुवर्णमयी है। जम्बूस्थली के ऊपरीम भाग में एक दुसरे को घेरते हुए 12 अम्बुज वेदिका, जिसकी ऊँचाई आधा योजन व चौडाई योजन का सोलहवा भाग है। ये सभी बारह वेदिया चार चार गोपूर द्वारो से युक्त है
✍️जम्बूपीठ जम्बूवृक्ष का वर्णन
जम्बूस्थली के बीच मे 08 योजन ऊँची, 12 योजन भूव्यास, 04 योजन मुख व्यास वाली जम्बूपीठ है। पीठ के बहुमध्य भाग में पादपीठ सहित मुख्य जम्बूवृक्ष है जिसका मरकत मणिमय स्कंध पीठ से 02 योजन ऊँचा, 01 कोस चौडा, 1/2 योजन नीव सहित है। स्कंध के ऊपर वज्रमय 1/2 योजन चौडी और 06 योजन लम्बी चार शाखाएँ है। शाखाओ मे मरकत, वैडूर्य, इन्द्रनील, स्वर्ण और मूंगे से निर्मित विविध प्रकार के पत्ते हैं। वृक्ष की सम्पूर्ण ऊँचाई 10 योजन, मध्य मे चौडाई 6 योजन और अग्र भाग की चौडाई 04 योजन है। जम्बूवृक्ष की जो शाखा उत्तरकुरुगत नील कुलाचल की ओर गई उस पर एक अकृत्रिम जिनमन्दिर है। यह 3/4 कोस ऊँचा, 1 कोस लम्बा और 1/2 कोस विस्तार वाला अदभुत रत्नमय जिनभवन है। शेष तीन शाखाओ पर यक्ष कुलोत्पन आदर-अनादर देवो के भवन है
✍️ जम्बूवृक्ष के परिवार वृक्षो का विवरण
मुख्य जम्बूवृक्ष की ओर से शुरु करते हुए प्रथम और द्वितीय वेदिका के अन्तराल में परिवार वृक्ष आदि कुछ नही है
तीसरे अन्तराल की आठो दिशाओ में उत्कृष्ट यक्ष आदर-अनादर देवो के 108 जम्बूवृक्ष है
चौथे अन्तराल के पूर्व दिशा में यक्ष देवांगना के 04 जम्बूवृक्ष है
पाँचवे अन्तराल मे वन है और उन वनो मे चौकोर, गोल आकार वाली बावडिया है
छठे अंतराल में कोई रचना नही है
सातवे अंतराल में प्रत्येक दिशा मे चार-चार हजार करके कुल 16000 तनुरक्षकों के जम्बूवृक्ष है। ये यक्षो के अंगरक्षक देवो के वृक्ष है
आठवे अंतराल में ईशान, उत्तर और वायव्य दिशा में सामानिक देवो के चार हजार जम्बूवृक्ष है
नौवे अंतराल में आग्नेय दिशा में अभ्यन्तर पारिषद देवो के 32000 जम्बूवृक्ष है।
दसवे अंतराल की दक्षिण दिशा में मध्यम पारिषद देवो के 40000 जम्बूवृक्ष है।
ग्यारहवे अंतराल की वायव्य दिशा में बाहय पारिषद देवो के 48000 जम्बूवृक्ष है।
बारहवे अन्तराल की पश्चिम दिशा में सेना महत्तरो के सात ही जम्बूवृक्ष है।
परिवार जम्बूवृक्षो का प्रमाण मुख्य जम्बूवृक्ष के प्रमाण का आधा है। परिवार जम्बूवृक्षो की जो शाखाए है उन पर भी आदर-अनादर यक्ष परिवार देवो के आवास है। मुख्य जम्बूवृक्ष से युक्त सम्पूर्ण परिवार वृक्षो की संख्या 140120 है। इसी वृक्ष के कारण हमारे द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है।
✍️शाल्मली वृक्ष
देवकुरु क्षेत्र मे शाल्मली वृक्ष की मनोहारिणी स्थली है जिसका वर्णन जम्बूवृक्ष के जैसा ही है। शाल्मली वृक्ष की दक्षिण शाखा पर जिनमन्दिर है शेष तीन शाखाओं पर गुरुडपति वेणु-वेणुधारी देवो के आवास है। ये अपने परिवार सहित 140120 शाल्मली वृक्ष है जिन पर भी वेणु-वेणुधारी देवो के आवास है।
✍️अन्य द्वीपो के वृक्षो का प्रमाण
जम्बूद्वीप के जम्बूवृक्ष की तरह पूर्व और पश्चिम धातकीखंड द्वीप के चारो कुरुओं मे एक-एक के हिसाब से कुल चार धातकी (आवला) वृक्ष है। इसी धातकीवृक्ष के कारण द्वीप का नाम धातकीखंड द्वीप है। इसका समस्त कथन जम्बूवृक्ष के समान है। धातकीखंड के परिवार वृक्ष 560480 है।
धातकीखंड द्वीप के समान ही पूर्व और पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप के चारो कुरुओं में पुष्कर (कमल) वृक्ष है जिसकी youtubeसंख्या 560480 है। इसी पुष्कर वृक्ष के कारण द्वीप का नाम पुष्करद्वीप है। इसका समस्त विवरण जम्बूवृक्ष के समान है।
*विशेष* शाखाओ की लम्बाई तिलोयपण्णत्ती जी गाथा 2181 के अनुसार 06 योजन लम्बी त्रिलोकसार गाथा 647 अनुसार 08 योजन लम्बी है।
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शलभ
शुक्रवार, 1 सितंबर 2023
गजदंत पर्वत, देवकुरु-उत्तरकुरु भोगभूमि
मध्यलोक के असंख्यात द्वीप व असंख्यात समुद्र के बीच मे जम्बूद्वीप नामक एक लाख योजन विस्तार का एक द्वीप है, जिसके सात क्षेत्रो मे से चौथे क्षेत्र का नाम विदेह है। विदेहक्षेत्र के दक्षिण मे निषध और उत्तर दिशा मे नील कुलाचल है। कुलाचलो की ऊँचाई 400 योजन, नीव 100 योजन व चौडाई 16842 पूर्णांक 2/19 योजन है। विदेह के मध्य मे उत्तरकुरु व देवकुरु दो उत्तम भोगभूमि के मध्य मे सुदर्शन मेरु है। मेरु को स्पर्श करते हुए चार गजदंत पर्वत, चार यमकगिरी, अनाधिनिधन जम्बूवृक्ष और शाल्मलि वृक्ष सीता-सीतोदा महानदी है। यहा 20 सरोवर, सरोवरो के दोनो ओर 200 कांचन पर्वत, 08 दिग्गजेन्द्र पर्वत है।
✍️देवकुरु-उत्तरकुरु
यह उत्कृष्ठ भोगभूमि क्षेत्र है जीव युगल जन्म लेते और युगल ही मरण को प्राप्त होते है। 10 प्रकार के कल्पवृक्ष होने से जीव सुख ही भोगते है। देवकुरु भोगभूमि मे पूर्व और पश्चिम दिशा के अंत से लेकर मेरु पर्वत तक दो गजदंत पर्वत से क्षेत्र धनुषाकार हो गया। उत्तरकुरु भोगभूमि मे पूर्व और पश्चिम दिशा के अंत से लेकर मेरुपर्वत तक दो गजदंत पर्वत से यह क्षेत्र भी धनुषाकार हो जाता है। यहा अनाधिनिधन जम्बूवृक्ष और शाल्मलि वृक्ष, 04 यमकगिरी, सीता-सीतोदा महानदी है। दोनो महानदी संबंधी 10 सरोवर, इन सरोवर के दोनो ओर 100 कांचन पर्वत, 4 दिग्गजेन्द्र पर्वत है।
✍️ गजदंत पर्वत
◆माल्यवान पर्वत उत्तरकुरु भोगभूमि की पूर्व दिशा मे नील पर्वत के दक्षिण की ओर मेरु पर्वत से ईशान दिशा से दक्षिण उत्तर लम्बा, वैडूर्यमणी वर्ण का माल्यवान गजदंत पर्वत है। यह उत्तरी कोने से नील कुलाचल और दक्षिणी कोने से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है। इसके ऊपर नौ कूट है। हरिसिंह, सीता, पूर्णभद्र, रजत, सागर, कच्छा, उत्तरकुरु, माल्यवान तथा सिद्धायतन स्थित है।
◆सोमनस गजदंत पर्वत देवकुरु भोगभूमि की पूर्व दिशा में निषध पर्वत से उत्तर की ओर मेरु पर्वत की आग्नेय दिशा में दक्षिण उत्तर लम्बा रजत वर्ण का सोमनस गजदंत पर्वत है। यह दक्षिण कोने से निषधाचल और उत्तरी कोने से मेरु को स्पर्श करता है। इसके ऊपर सात कूट है। वशिष्ठ, कांचन, विमल, मंगल, देवकुरु, सौमनस, सिद्धायतन कूट स्थित है।
◆विद्युत्प्रभ पर्वत देवकुरु भोगभूमि की पश्चिम दिशा में निषध पर्वत से उत्तर की ओर मेरु पर्वत की नैऋत्य दिशा मे दक्षिण उत्तर लम्बा सुवर्णमई वर्ण का विद्युत्प्रभ गजदंत पर्वत है। यह दक्षिणी कोने से निषध कुलाचल को ओर उत्तरी कोने से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है। इसके ऊपर नौ कूट है। हरि, सीतोदा, सज्जवाल, स्वस्तिक, तपन, पदमवान, देवकुरु, विद्युत्प्रभ तथा सिद्धायतन कूट स्थित है।
◆गंधमादन पर्वत उत्तरकुरु भोगभूमि की पश्चिम दिशा मे नील पर्वत से दक्षिण की ओर मेरु पर्वत से वायव्य दिशा मे दक्षिण उत्तर लम्बा सुवर्णमई वर्ण का गंधमादन गजदंत पर्वत है। यह उत्तरी कोने से नील कुलाचल को दक्षिणी कोने से मेरु पर्वत को स्पर्श करता है। इसके ऊपर सात कूट है। आनन्द, स्फटिक, लोहित, गन्धमालिनी, उत्तरकुरु, गन्धमादन तथा सिद्धायतन कूट है।
✍️गजदंतो का माप
मेरु के ईशान कोण मे माल्यवान पर्वत, आग्नेय दिशा मे सोमनस पर्वत, नैऋत्य मे विद्युत्प्रभ पर्वत और व्याव्य दिशा मे गंधमादन गजदंत पर्वत हैं। चारो गजदंतो की लम्बाई 30209 पूर्णांक 6/19 योजन, चौडाई 500 योजन, ऊँचाई कुलाचल के पास 400 योजन ऊँचे व क्रमशः बढते-बढते मेरु के समीप मे 500 योजन ऊँचा हो जाता है। इनकी नीव अपनी ऊँचाई का चतुर्थ भाग प्रमाण जमीन में है। सभी कूटो पर व्यंतर देविया निवास करती है तथा सिद्धायतन कूट के ऊपर अकृत्रिम जिन चैत्यालय है जो 125 योजन प्रमाण ऊँचे है।
✍️ सीता-सीतोदा नदी
निषध कुलाचल के ऊपर तिगिंछ सरोवर से सीतोदा नदी निकलती है जो कि मेरु के समीप अर्द्ध परिक्रमा करती हुई पश्चिम की और मुड जाती है सीतोदा नदी मे पाँच-पाँच करके कुल 10 सरोवर व प्रत्येक सरोवर के दोनो तरफ 10 कांचन करके 100 कांचन पर्वत है।
निषध कुलाचल की तरह नील कुलाचल पर स्थित केसरी सरोवर से सीता नदी निकलती है जो मेरु के समीप अर्द्ध परिक्रमा करती हुई पूर्व की और मुड जाती है। सीता नदी मे भी 10 सरोवर तथा प्रत्येक सरोवर के दोनो तरफ 10 कांचन करके कुल 100 कांचन पर्वत है।
✍️यमक गिरी (कूट)
निषध और नील कुलाचलो से मेरु पर्वत की ओर 1000 योजन आगे जाकर सीता और सीतोदा नदियो के दोनो तटो पर दो-दो पर्वत है। इनमे से सीता नदी के पूर्व तट पर चित्र पश्चिम तट पर विचित्र नाम पर्वत है। दोनो पर्वतो के बीच मे 500 योजन का अंतराल है जिसके बीच मे सीता नदी बहती है सीतोदा नदी के पूर्व तट पर यमक और पश्चिम तट पर मेघ नामक पर्वत है। इन दोनो पर्वतो के बीच मे 500 योजन का अंतराल है जिसके बीच मे सीतोदा नदी बहती है। इन चारो यमककूट की ऊंचाई 1000 योजन, मूल मे चौडाई 1000 योजन और शिखर पर चौडाई 500 योजन प्रमाण हैं। चारो कूट सुवर्णमयी वर्ण के है। इन कूटो के ऊपर कूटो के नाम वाले चार व्यंतर देव सपरिवार निवास करते है।
✍️सरोवर
यमकगिरि से 500 योजन आगे जाकर सीता और सीतोदा नदी मे 20 सरोवर है जो देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्व भद्रशाल वन और पश्चिम भद्रशाल वन के मध्य पाँच-पाँच के रुप से स्थित है। एक सरोवर से दुसरे सरोवर के बीच मे 500 योजन का अंतर है। इन सरोवर का प्रमाण पदम सरोवर के सदृश्य है। यहा के मुख्य कमल पर नागकुमारी देविया परिवार के साथ निवास करती है।
देवकुरु के पाँच सरावरो के नाम –तिगिंछ सरोवर से शुरु करते हुए–निषध, देवकुरु, सूर, सूलस, विद्युत
उत्तरकुरु के पाँच सरावरो के नाम–केसरी सरोवर से शुरु करते हुए–नील, उत्तरकरु, चन्द्र, ऐरावत, माल्यवान सरोवर
✍️कांचन पर्वत
प्रत्येक सरोवर के पूर्व-पश्चिम तट पर पंक्ति रुप से पाँच पाँच करके दस कांचन पर्वत है। जिससे सभी 20 सरोवरो के पर्वतो की संख्या 200 हो जाती है। कांचन पर्वत ऊंचाई 100 योजन मूल मे चौडाई 100 योजन और शिखर पर चौडाई 50 योजन है। कांचन पर्वत के ऊपर कांचन देवो के निवास है, इन कांचन के ऊपर गंधकुटी अर्थात जिन चैत्यालय बने हुए है। ये पर्वत सुवर्णमयी वर्ण के है।
✍️दिग्गजेन्द्र पर्वत
उत्तरकुरु, देवकुरु भोगभूमि और पूर्व व पश्चिम भद्रशाल वन के मध्य मे सीता और सीतोदा महानदी के दोनो तटो पर दो-दो पर्वत कुल आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत स्थित है।
मेरु की पूर्व मे भद्रशाल वन की सीता नदी के उत्तर दिशा मे पदमोत्तर दक्षिण दिशा मे नीलवान पर्वत है।
मेरु की दक्षिण मे भद्रशाल वन मे सीतोदा नदी के पूर्व दिशा मे स्वास्तिक पश्चिम दिशा मे अंजन पर्वत है।
मेरु की पश्चिम मे भद्रशाल वन मे सीतोदा नदी के दक्षिण दिशा मे कुमुद उत्तर दिशा मे पलास पर्वत है।
मेरु की उत्तर मे भद्रशाल वन की सीता नदी के पश्चिम दिशा पर अवंतस पूर्व दिशा मे रोचन पर्वत है।
आठो पर्वत पर दिग्गजेन्द्र देव का निवास है जिसकी ऊँचाई 100 योजन मूल मे चौडाई 100 योजन तथा शिखर पर चौडाई 50 योजन है
।। जिनवाणी माता की जय।।
शुक्रवार, 25 अगस्त 2023
✍️भरतक्षेत्र
मध्यलोक मे असंख्यात द्वीप व समुद्र है। सभी द्वीप व समुद्र एक दुसरे को घेरे हुए है। द्वीप समुद्रो के सबसे मध्य में जम्बूद्वीप नामक एक लाख योजन का एक द्वीप है। जम्बूद्वीप के सात क्षेत्रो मे से एक भरतक्षेत्र है जो जम्बूद्वीप की दक्षिण दिशा मे स्थित हैं। यह भरत क्षेत्र लवण समुद्र और हिमवान पर्वत के मध्य स्थित है। 100 योजन ऊँचे हिमवान पर्वत के ऊपर स्थित पदम सरोवर से निकलने वाली गंगा, सिंधु नदी और विजयार्ध पर्वत के कारण भरत क्षेत्र के छह भाग हो जाते है जिसमे पाँच म्लेच्छ तथा एक आर्य खण्ड है। इस आर्य खण्ड क्षेत्र से ही अघातिया कर्मो के क्षय से मोक्ष प्राप्त होता है। आर्य खण्ड मे ही वृद्धि और ह्रास के द्वारा षटकाल परिवर्तन होता रहता है।
✍️गंगा-सिंधु नदी
हिमवान पर्वत के पदम सरोवर से तीन नदी गंगा, सिंधु, रोहितास्या निकलती है। इनमे से गंगा-सिंधु नदी भरत क्षेत्र मे बहती है। गंगा व सिंधु नदी पदम सरोवर से 500 योजन बहने के बाद गंगा व सिंधु कुट से आधा योजन पहले अर्ध परिकर्मा करती हुई दक्षिण की ओर मुड़कर 523–28/152 योजन आकर हिमवान पर्वत के दक्षिण तट की और बहती हुई जिव्हिका प्रणालिका को प्राप्त होती है।
✍️वृषभांचल पर्वत
भरत क्षेत्र के उत्तर मे जो म्लेच्छ खण्ड है उसके बहुमध्य भाग में रत्नों से निर्मित वृषभगिरि पर्वत है। इस पर ही चक्रवर्ती अपनी विजय प्रशस्ति लिखने के लिए जाते है। पर्वत अतीत काल के चक्रवर्तीयो के नामो से भरा हुआ है। पर्वत 100 योजन ऊँचा, मूल में 100 योजन, मध्य में 75 योजन, शिखर 50 योजन विस्तृत है। इस पर्वत पर वृषभ नाम का देव अपने परिवार सहित रहता है जिसके भवन में अनादिनिधन जिनमंदिर है। वृषभदेव के रहने के कारण इसका नाम वृषभगिरी भी पर्वत भी है।
✍️जिव्हिका प्रणालिका
जिव्हिका प्रणालिका दो कोस लम्बी, दो कोस ऊँची और सवा छ्ह योजन चौडी वृषभाकार अर्थात गोमुखाकार है। इस प्रणालिका के मुख, कान जीभ, नेत्र का आकार सिंह के समान और भौहे मस्तक आदि आकार गाय के समान है इसीलिये रत्नमय जिव्हिका को ‘वृषभ’ कहते हैं। यहा से दोनो नदियाँ बहती हुई गंगा सिंधु कुण्ड को प्राप्त होती है।
✍️गंगा-सिंधु कुण्ड
गंगा-सिंधु नदी जिव्हिका प्रणालिका से निकलकर हिमवान पर्वत से नीचे गिरती है। यह हिमवान को 25 योजन दूर छोडकर 10 योजन चौडी होकर गंगा सिंधु कुण्ड मे स्थित जिनेन्द्र प्रतिमा के मस्तक पर गिरती है मानो अभिषेक ही कर रही हो। यह कुण्ड 60 योजन व्यास 10 योजन गहरा गोल है। इसके मध्य मे जल से आधा योजन ऊँचा और 8 योजन चौडा एक गोल टापू, जिस पर 10 योजन ऊँचा वज्रमय पर्वत है। इसी पर्वत के ऊपर कमलासन पर जिनेन्द्र प्रतिमा पदमासन से स्थित हैं।
✍️विजयार्ध पर्वत की गुफा
गंगा-सिंधु नदी कुण्डो से निकलकर दक्षिण की ओर बहती हुई 08 योजन चौडी होकर विजयार्ध पर्वत की गुफा में प्रवेश करती है। गंगा नदी खण्डप्रपात मे सिंधु नदी तिमिस्र गुफा मे प्रवेश करती है। दोनो गुफाए की ऊँचाई 08 योजन, चौडाई 12 योजन और लम्बाई 50 योजन है। इसी प्रकार गुफा द्वार की ऊँचाई 08 योजन और चौडाई 12 योजन है।
✍️उन्मगना और निमग्ना नदी
दोनो गुफाओ के मध्य मे अर्थात 25 योजन पर पूर्व और पश्चिम मे दो कुण्ड है। इन कुण्डो से निकलने वाली नदी उन्मगना और निमग्ना है जो दो दो योजन चौडी होकर बहते हुए गंगा और सिंधु नदी मे मिल जाती है। उन्मग्ना नदी का स्वभाव है कि यह अपने जल प्रवाह मे गिरे हुए भारी से भारी द्रव्य को ऊपर ले आती है एवं निमग्ना नदी हल्के से हल्के द्रव्य को नीचे ले जाती है। गुफा से निकलते हुए नदी का विस्तार 8 योजन होता है।
✍️अयोध्या (विनीता) नगरी
भरत क्षेत्र के छह खण्डो मे एक आर्यखण्ड है। इसकी उत्तर-दक्षिण लम्बाई 238–03/19 योजन है। इस आर्यखण्ड मे लवण समुद्र से उत्तर और गंगा-सिंधु नदियों के मध्य भाग में 12 योजन लंबी 09 योजन चौड़ी अयोध्या नगरी है जिसे विनीता नगरी भी कहते है। इसी अयोध्या नगरी मे प्रथम चक्रवर्ती भरत जी हुए थे जिसके नाम से इस क्षेत्र का नाम भरतवर्ष पड़ा है।
✍️गंगा-सिंधु का लवण मे मिलना
गुफा से निकलकर दोनो नदी दक्षिण की ओर बहती हुई गंगा नदी पूर्व और सिंधु नदी पश्चिम की ओर मुड जाती है। वहा पर म्लेच्छ खण्डो मे बहने वाली अपनी अपनी 14 -14 हजार परिवार नदियो को लेकर साढे बासठ (62–01/02)योजन विस्तार के साथ गंगा नदी मागध द्वार से और सिंधु नदी प्रभास द्वार से लवण समुद्र मे समा जाती है।
✍️भरत क्षेत्र का विस्तार
यह जम्बूद्वीप का 190 वा भाग है अर्थात 526 पूर्णाकं 06/19 योजन है। यह भरत क्षेत्र की उत्तर से दक्षिण चौडाई है। भरत क्षेत्र पूर्व से पश्चिम मे 14471 पूर्णांक 05/19 योजन है। इसकी जगती 08 योजन ऊँची, मूल मे 12 योजन चौड़ी घटते घटते ऊपर में 04 योजन चौड़ी होती है। इसकी दाक्षिण दिशा में लवण समुद्र मे जिन प्रतिमओ से युक्त एक राक्षसद्वीप है।*
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।। जिनवाणी माता की जय।।
।। आचार्य भारतभूषणाय नम:।।
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