10. चौबीस ठाणा-इन्द्रिय मार्गणा
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जिससे जीवो की पहचान हो उसे इन्द्रिय कहते हैं।
शरीर के चिन्ह विशेष जो आत्मा को ज्ञान कराने मे निमित्त होते है वे इन्द्रिय है, या आत्मा का ज्ञान कराने मे निमित्त होते है वे इन्द्रिय है।
जीव मे जो क्षयोपशम रुप शाक्ति पाई जाती है उस शाक्ति का नाम इन्द्रिय है।
जो इन्द्र की भाँती हो उसे इन्द्रिय कहते है।
जो आज्ञा ऐश्वर्य वाला है उसे इन्द्र कहते है।
*जैसे* अहमिन्द्र होते है एक दुसरे की अपेक्षा नही रखते उसी प्रकार इन्द्रिय एक दुसरे की अपेक्षा नही रखती अपना-अपना काम करती है इस प्रकार इन्द्र की भाँती चीजो को परिणामो को इन्द्रिय कहते है।
तथा आत्मा का चिन्ह इन्द्र है इस आत्मा को जानने मे जिससे मदद लेता है उस आत्मा के चिन्ह को इन्द्रिय कहते है। *(गो. जी.१६४)*
जो सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान कराता है उसे लिंग यानि चिन्ह कहते है।
जिस लिंग के द्वारा आत्मा का अस्तिव जाना जाता है उसे इन्द्रिय कहते है।
जैसे---धुए से अग्नि का ज्ञान होता है उसी प्रकार दिखने वाली चीजो से न दिखने वाली चीजो का ज्ञान कर लेते है।धुआ कहलाता है लिंग साधु हेतु उसके द्वारा जाना जाता है सूक्ष्म पदार्थ अग्नि जैसा
✍️ इन्द्रिय के प्रकार :-
इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती हैं –द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय *द्रव्येन्द्रिय* शरीर के चिन्ह विशेष को द्रव्येन्द्रि कहते है। या पुद्गल द्रव्य रूप इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय है अथवा निर्वृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं
*भावेन्द्रिय* मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई विशुद्धि को भावेन्द्रिय कहते है। ड्सके
लब्धि और उपयोग दो भेद है। *(त.सू ०२/१८)*
*लब्धि* =शक्ति, मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विशुद्धि लब्धि है।
*उपयोग* लब्धि का प्रयोग होना अर्थात लब्धि से प्राप्त जानने की शक्ति को उपयोग कहते है
✍️ निर्वृत्ति के प्रकार :-
निर्वृत्ति दो प्रकार की है- बाह्य निर्वृत्ति, आभ्यंतर निर्वृत्ति।
*◆ बाह्म निर्वृत्ति :-
इन्द्रियकार रचना विशेष को निर्वृत्ति कहते हैं। चक्षु आदि में मसूर आदि के आकार रूप बाह्य निर्वृत्ति है *(सु. बो. ९४)*
इन्द्रिय नाम वाले आत्मप्रदेशों में प्रतिनियत आकार रूप और नामकर्म के उदय से विशेष अवस्था को प्राप्त जो पुद्गल प्रचय होता है, उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं. *(सर्वा. २९४)*
◆ आभ्यन्तर निर्वृत्ति :-
आत्म प्रदेशो का आकार अभ्यंतर निर्वृत्ति है।
उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण विशुद्ध आत्मप्रदेशों की चक्षुरादि के आकाररूप से रचना होना आभ्यन्तर निर्वृत्ति है। *(रा. वा. ०३)*
✍️ उपकरण :-
जिसके द्वारा निर्वृत्ति का उपकार किया जाए उसे उपकरण कहते है। यह निर्वृत्ति मे उपकारी है।
उपकरण दो प्रकार के होते हैं –बाह्य उपकरण और अभ्यन्तर उपकरण।
*बाह्य उपकरण* इन्द्रियो की रक्षा करते है उसे बहिरंग उपकरण कहते हैै।
*जैसे* आँखो के लिए पलके, दोनों बरौनी आदि बाह्य उपकरण हैं ।
*अभ्यन्तर उपकरण* जो इन्द्रियो के बहुत नजदीक हो उसे अभ्यंतर उपकरण कहते है। *जैसे* नेत्र मे काला सफेद मण्डल का होना *(श्लो. ०५/१३९)*
✍️ इन्द्रियाँ (द्रव्येन्द्रि) :-
इन्द्रियाँ पाँच होती हैं– स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन्द्रियाँ
✍️ इन्द्रिय मार्गणा किसे कहते हैं?*
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि सत्व, भूत और प्राणियों’ में जीवों की खोज करने को इन्द्रिय मार्गणा कहते हैं।
*भूत= वनस्पतिकायिक भूत है, प्राण= विकलत्रय प्राण है, सत्व=पृथ्वी आदि वायु पर्यंत सत्व है*
✍️ इन्द्रिय मार्गणा के प्रकार :-
इन्द्रिय मार्गणा पाँच प्रकार की है-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय *(बृ.द्र.सं.१३ टीका)*
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तथा अनीन्द्रिय जीव होते हैं। *(धवला ०१/२३३ )*
*प्रश्न ०८) यहाँ इन्द्रिय मार्गणा में कौनसी इन्द्रिय को ग्रहण करना चाहिए?*
यहाँ आस्रव के कारण प्राण आदि स्थानों पर भावेन्द्रिय को ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, यहाँ पर भावेन्द्रियों की अपेक्षा पंचेन्द्रियपना स्वीकार किया है । *(धवला ०१/२६५)*
✍️ अनीन्द्रिय जीव :-
जो नियम से इन्द्रियों के उन्मीलन (खुलाना) आदि व्यापार से रहित है’ वे अशरीरी हैं, उनके इन्द्रिय व्यापार का कारण जाति नामकर्म आदि कर्मों का अभाव है, इसी से अवग्रह आदि क्षायोपशमिक ज्ञानों के द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते हैं। तथा इन्द्रिय और विषय के सम्बन्ध से होने वाले सुख से भी युक्त नहीं हैं, वे जिन और सिद्ध नामधारी जीव अनीन्द्रिय अनन्तज्ञान और सुख से युक्त होते हैं, क्योंकि उनका ज्ञान और सुख शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि से उत्पन्न हुआ है। *(गो. जी. १७४ टीका)*
✍️ अनीन्द्रिय जीव :-
तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान वाले तथा सिद्ध भगवान अनीन्द्रिय होते हैं । यद्यपि तेरहवें- चौदहवें गुणस्थान वाले जीवों के द्रव्येन्द्रियाँ पाई जाती हैं परन्तु उनके भावेन्द्रियाँ नहीं पाई जाती हैं, क्योंकि उनके मति ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षयोपशम नहीं पाया जाता
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*