23) २४ ठाणा-वैक्रियिक काययोग
https://youtu.be/aCc12m8r9Vc?si=zmiVceaa5cLJQVAJ
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वैक्रियक शरीर के निमित्त से अर्थात वैक्रियक वर्गणा के निमित्त से आत्मा के प्रदेशो मे जो कम्पन होता है उसे वैक्रियक काययोग कहते है। यह योग दो गति के जीवो देव और नारकी में होता हैं।
*जैसे* यहा से कोई मनुष्य या तिर्यंच मरणा कर
देवगति मे जाते है तो पहले विग्रहगति मे कार्मण काययोग रहेगा उसके बाद शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक वैक्रियक मिश्र काययोग रहेगा, तथा शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद से वैक्रियक काययोग शुरु हो जाता है जो जीवन के अंतिम समय तक रहेगा।
*२४ स्थान वैक्रियक काययोग*
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*०१) गति ०२/०४* नरक, देव
*०२) इन्द्रिय ०१/०५* पंचेन्द्रिय
*०३) काय ०१/०६* त्रसकाय
*०४) योग स्वकीय/१५* वैक्रियक काययोग
*०५) वेद ०३/०३* तीनो वेद
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान ०६/०८*
मनःपर्यय और केवलज्ञान नही होता
*०८) संयम ०१/०७* असंयम
*०९) दर्शन ०३/०४* तीन दर्शन
चक्षुदर्शन,अचक्षुदर्शन,अवधिदर्शन
*१०) लेश्या ०६/०६* छहो लेश्या
नारकियो मे ०३ अशुभ, देवो मे ०३ शुभ लेश्या
*११) भव्यक्त्व ०२/०२* भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व ०६/०६* छह सम्यक्त्व
मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, क्षायिक, क्षायोप
*१३) संज्ञी ०१/०२* सैनी
*१४) आहारक ०१/०२* आहारक
*१५) गुणस्थान ०४/१४* ०१, ०२, ०३, ०४
*१६) जीवसमास ०१/१९* सैनी पंचेन्द्रिय
*१७) पर्याप्ति ०६/०६* छहो पर्याप्ति
*१८) प्राण १०/१०* दसो प्राण
*१९) संज्ञा ०४/०४* चारो संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग ०९/१२*
केवलदर्शनोपयोग और केवलज्ञानोपयोग नही है
*२१) ध्यान १०/१६*
आर्त ०४, रौद्र ०४, धर्म ०२
*२२) आस्रव ४३/५७*
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति ०८ लाख/८४ लाख*
नारकी ०४ लाख, देवो ०४ लाख
*२४) कुल-५१ लाख करोड/१९९.५ लाख़ करोड*
नारकी मे २५ लाख करोड, देवो मे २६ लाख करोड
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*प्रश्न ६७) वक्रियक काययोग किसे कहते हैं?*
उत्तर- नाना प्रकार के गुण और ऋद्धियों से युक्त देव नारकियों के शरीर को वैक्रियिक या विगुर्व कहते हैं और इसके द्वारा होने वाले योग को वैगूर्णिक अथवा वैक्रियिक काययोग कहते हैं। *(गो. जी. २२२)*
*प्रश्न ६८) वैक्रियक शरीर एवं वैक्रियक काययोग में क्या विशेषता है?*
उत्तर-वैक्रियक शरीर एव वैक्रियक काययोग में विशेषता –
*०१)* तेजकायिक तथा वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्यों के भी वैक्रियिक शरीर होता है लेकिन वैक्रियिक काययोग नहीं होता है। देव- नारकियों के वैक्रियिक शरीर भी होता है और वैक्रियिक काययोग भी होता है।
*०२)* मनुष्य-तिर्यंच के वैक्रियिक शरीर में नाना गुणों और ऋद्धियों का अभाव है लेकिन देवों के वैक्रियिक शरीर में नाना गुण और अणिमादि ऋद्धियाँ होती हैं ।
*०३)* अष्टाह्निका में नन्दीश्वर द्वीप में पूजा के लिए, पंचकल्याणक आदि के समय देवों का मूल वैक्रियिक शरीर नहीं जाता है फिर भी यदि उस समय काययोग होता है तो वैक्रियिक काययोग ही होता है।
*०४)* नारकियों के वैक्रियिक शरीर की अपृथक् विक्रिया होती है, देवों के वैक्रियिक शरीर की पृथक तथा अपृथक दोनों विक्रिया होती हैं लेकिन दोनों के वैक्रियिक काययोग ही होता है।
*विशेष* चक्रवर्ती द्वारा अनेक शरीर बना लेने से वैक्रियक शरीर नही है, उसके औदारिक शरीर ही वह विशेष गुण है, शरीर के पन्द्रह भेदो मे से एक औदारिक शरीर मे इस प्रकार की शक्ति है।
*प्रश्न ६९) वैक्रियिक काययोग वालों के .उपशम सम्यक्त्व कितनी बार हो सकता है?*
उत्तर-वैक्रियिक काययोग वालों के अपने जीवन में अनेक बार उपशम सम्यक्त्व हो सकता है क्योंकि एक बार प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल व्यतीत होने पर जीव पुन: प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के योग्य हो जाता है। वैक्रियिक काययोग वालों की उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागरोपम प्रमाण होती है इसलिए उनके अनेक बार उपशम सम्यक्त्व होने में कोई बाधा नहीं है। *(धवला ०५ के आधार से)*
*प्रश्न ७०) वैक्रियक काययोग वालों के पंचमादि गुणस्थान क्यों नहीं होते है?*
उत्तर-वैक्रियक काययोग वालों के पंचमादि गुणस्थान नहीं होने के कारण-
*०१) वैक्रियक काय वालों के अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय का तीव्र उदय पाया जाता है इसलिए उनके संयमासंयम तथा संयम नहीं हो सकता है अर्थात् पंचमादि गुणस्थान नहीं हो सकते ।
*०२)* भोगभूमि में पंचमादि गुणस्थान न होने का कारण भोग की प्रधानता कही गई है फिर देवों में तो भोगभूमि से भी ज्यादा भोग पाये जाते हैं फिर वहाँ सयम कैसे हो सकता है और नारकियों में कषायों की सहज रुप से तीव्रता रहती है, उनके संयम कैसे हो सकता हे?
*०३)* जिनके नियत भोजन है अर्थात् इतने समय के बाद नियम से उनको भोजन करना ही होगा। ऐसी स्थिति में त्याग रूप प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? संभवत: वैक्रियिक काययोग वालों के सयम नहीं होने का एक कारण यह भी माना जा सकता है।
*प्रश्न ७१) वैक्रियिक काययोग वाले देव महीनों/ वर्षों/पक्षों तक भोजन नहीं करते हैं, इसी प्रकार नारकी भी बहुत काल के बाद थोड़ी सी मिट्टी खाते हैं उनके नित्य आहार संज्ञा कैसे कही जा सकती है*
उत्तर-वैक्रियिक काययोग वाले भले ही पक्षों/महीनो तक भोजन नहीं करें फिर भी उनके आहार सज्ञा का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि आहार सज्ञा जिनागम में छठे गुणस्थान तक बताई गई है और उसका अंतरंग कारण असातावेदनीय कर्म का उदय/उदीरणा कहा गया है। ये दोनों ही कारण वैक्रियिक काययोग वालों के पाये जाते हैं इसलिए उनके भी नित्य आहार सज्ञा कहने में कोई विरोध नहीं है। *(गो. जी. १३५ के आधार से)*
*प्रश्न ७२) वैकियिक काययोग में छहों लेश्याएँ किस अपेक्षा पायी जाती हैं?*
उत्तर-वैक्रियिक काययोग में तीन अशुभ लेश्याएँ नारकियों की अपेक्षा होती हैं तथा तीन शुभ लेश्याएँ देवों की अपेक्षा होती हैं ।
*प्रश्न ७३) वैकियिक काययोगी के तीसरे गुणस्थान में कितने उपयोग होते हैं?*
उत्तर-तीसरे गुणस्थान वाले वैक्रियिक काययोगी के ०६ उपयोग होते हैं-
०३ ज्ञानोपयोग–मिश्रमतिज्ञानो, मिश्रश्रुतज्ञानो तथा मिश्र अवधिज्ञानोपयोग
०३ दर्शनोपयोग–चक्षुदर्शनोपयो अचक्षुदर्शनोपयोग, अवधि दर्शनोपयोग
*प्रश्न ७४) वैकियिक काययोगी सम्यग्दृष्टि के कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?*
उत्तर-वैक्रियिक काययोगी सम्यग्दृष्टि के आसव के ३४ प्रत्यय होते हैं-
१२ अविरति, २१ कषाय, ०१ योग (वैक्रियिक काययोग) =३४ प्रत्यय
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*