गुरुवार, 18 सितंबर 2025

20. चौबीस ठाणा-असत्य-उभय मनोयोग व वचनयोग

20. चौबीस ठाणा-असत्य-उभय मनोयोग व वचनयोग*
https://youtu.be/fEejyLB-Rdo?si=Vi92arjna1YxqPfO

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*२४ स्थान असत्य-उभय– मनोयोग व वचनयोग*
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*०१) गति      ०४/०४*   
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति
*०२) इन्द्रिय    ०१/०५*   पंचेन्द्रिय मे
*०३) काय      ०१/०६*  त्रसकाय
*०४) योग   स्वकीय/१५*  सबका अपना अपना
*०५) वेद         ०३/०३*  तीनों
         स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद
*०६) कषाय     २५/२५* कषाय १६ नोकषाय ०९
*०७) ज्ञान        ०७/०८* केवलज्ञान के बिना सातों
*०८) संयम      ०७/०७*  सातो संयम
        सा.छे.परिहार.सूक्ष्म.यथा.संयमा.असंमय
*०९) दर्शन      ०३/०४*  केवलदर्शन को छोडकर
        चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन
*१०) लेश्या      ०६/०६*  छहो लेश्या
        कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पदम और शुक्ल
*११) भव्यक्त्व   ०२/०२*  भव्य और अभव्य
*१२) सम्यक्त्व   ०६/०६*  छहो  (मिथ्यात्त्व, सासादन,मिश्र,औपशमिक,क्षायिक,क्षयोपशमिक)
*१३) संज्ञी         ०१/०२*  सैनी 
        मन का भी योग है इसलिए असंज्ञी नही होते
*१४) आहारक   ०१/०२*  आहारक, 
क्योकि विग्रहगति मे वचन नही होते तो अनाहारक भी नही होते
*१५) गुणस्थान   १२/१४*  ०१–१२ तक
*१६) जीवसमास  ०१/१९*  संज्ञी पंचेन्द्रिय
*१७) पर्याप्ति       ०६/०६*  छहो
आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासोच्छवा,भाषा,मनःपर्याप्ति
*१८) प्राण           १०/१०*  दसो प्राण
*१९) संज्ञा           ०४/०४*  चारो  संज्ञा
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा।
*२०) उपयोग      १०/१२*  
केवलदर्शनोपयोग और केवलज्ञानोपयोग
*२१) ध्यान         १४/१६*  
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरतक्रियानिवृति के बिना
*२२) आस्रव       ४३/५७*  
मिथ्यात्व ०५,अविरति १२,कषाय २५, योग स्वकीय
*२३) जाति   २६ लाख/८४ लाख*  
नारकी ०४ लाख, तिर्यंच ०४ लाख, देवो ०४ लाख, मनुष्यो १४ लाख
*२४) कुल-१०८.५ ला. करोड/१९९.५ ला. करोड
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*प्रश्न ३६) असत्यमनोयोग किसे कहते हें?*
उत्तर : वस्तु जैसी नही है वैसा विचार करना असत्य मन है, तथा इसके निमित्त (भावमन) से आत्मा के प्रदेशो मे कम्पन होना असत्य मनोयोग है।
*जैसे* मरीचिका में जलज्ञान का विषय जल असत्य है। क्योंकि उसमें स्नान-पान आदि अर्थक्रिया का अभाव है । *(गो.जी.)*

*प्रश्न ३७) असत्य वचनयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : वस्तु जैसी नही है उस असत्य का वचनो से कथन करना असत्य वचन तथा इसके निमित्त से आत्मा मे कंपन होना असत्य वचनयोग है
असत्य अर्थ का वाचक वचन असत्यवचन व्यापार रूप प्रयत्न असत्यवचन योग है।  *(गो. जी. २२०)*

*प्रश्न ३८)  उभय मनोयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : जिसमे सत्य भी हो असत्य भी हो ऐसी वस्तु का मन मे विचार उभय मन है।
*जैसे* कमण्डलु को यह घट है, क्योंकि कमण्डलु घट का काम देता है इसलिए कथंचित् सत्य है और घटाकार नहीं है इसलिए कथंचित् असत्य भी है ।
उभय मन के निमित्त से आत्मा मे कम्पन होना उभय मनोयोग है।
सत्य और मृषा रूप योग को असत्यमृषा मनोयोग कहते हैं। *(गो.जी.२१९)*

*प्रश्न ३९) उभयवचनयोग किसे कहते हैं?*
उत्तर : जिसमे सत्य और असत्य दोनो हो वह वस्तु है उभय, उसका कथन करना उभय वचन है।
*जैसे* कमण्डलु में घट व्यवहार की तरह सत्य और असत्य दोनो है।
उभय वचन के निमित्त से आत्मा मे कंपन होना उभय वचन योग है।
अर्थ विधायक वचन व्यापार रूप प्रयत्न उभय वचनयोग है । *(गो. जी. २२०)*

*प्रश्न ४०) प्रमाद के अभाव में श्रेणिगत जीवों के असत्य और उभय मनोयोग एवं वचन योग कैसे हो सकता है?*
उत्तर : प्रमाद पहले से छठे गुणस्थान तक होता है।
श्रेणीगत जीव आठवे से बारहवे गुणस्थान तक है।
आवरण कर्म से युक्त जीवों के विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञान के कारणभूत मन का सद्‌भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। परन्तु इसके सम्बन्ध से क्षपक या उपशमक जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है । *(धवला ०१/२८८)*  
ऐसी शंका व्यर्थ है क्योंकि असत्यवचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है इस अपेक्षा से वहाँ पर असत्य वचन के सद्‌भाव का प्रतिपादन किया है, इसीलिए उभय संयोगज सत्य मृषा वचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है। 
*(धवला ०१/२९१)*

*प्रश्न ४१) ध्यानस्थ अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में वचनयोग या काययोग का सद्‌भाव कैसे हो सकता है?*
उत्तर:ध्यान अवस्था में भी अन्तर्जल्प के लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत सुक्ष्म प्रयत्नरूप काय योग का सत्व अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवर्ती जीवों के पाया ही जाता है इसलिए वहाँ वचनयोग एवं काययोग भी सम्भव ही हैं।    *(धवला ०२/४३४)*    
*अर्थात* ध्यान अवस्था में भी अबुद्धिपूर्वक पूर्वक प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत सुक्ष्म प्रयत्नरूप काययोग चलता रहता है। यहा भी वर्गणाओ का ग्रहण चलता रहता है–भाषा वर्गणा, नोकर्म वर्गणा का ग्रहण होता रहता है उस समय भाषा वर्गणा के ग्रहण से वचन योग तथा नोकर्म वर्गणा के ग्रहण से काययोग होता रहता हैं।
*अन्तर्जल्प=अंतरंग मे अबुद्धिपूर्वक विकल्पो का चलना*

*प्रश्न ४२) संसार में ऐसे कौन-कौन से जीव हैं जिनके मनोयोग नहीं होता है?*
उत्तर: ससार के जीव जिनके मनोयोग नहीं होता है*
*०१)* एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवो के मनोयोग नही होता। 
*०२)* लब्ध्यपर्याप्त तथा जब तक मन:पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक मनोयोग नही होता। 
*०३)* तेरहवें गुणस्थान में केवली समुद्धात तथा छठे गुणस्थान में आहारक समुद्धात में जब तक मन: पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक मनोयोग नही होता। 
*०४)*चौदहवें गुणस्थान में अयोगकेवली जीवो के मनोयोग नही होता। 
*०५)* मनोयोग का निरोध होने के बाद तेरहवें गुणस्थान में मनोयोग नही होता। 
*(यहा केवल सूक्ष्मकाययोग रहता है)*
यह मनोयोग १३ वे गुणस्थान के अंतरमुहूर्त पहले *मनोयोग, वचनयोग, स्थूलकाययोग जाता है यहा केवल सूक्ष्मकाययोग रहता है*

*प्रश्न ४३) क्या लब्ध्यपर्याप्तक सैनी जीवों के भी असत्य वचनयोग होता है?*
उत्तर : नहीं, किसी भी लब्ध्यपर्यातक जीव के औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग ये दो योग को छोड्‌कर अन्य कोई योग नहीं होता है क्योंकि भाषा तथा मनःपर्याप्ति पूर्ण हुए बिना वचन तथा मनोयोग नहीं बन सकता है ।

*प्रश्न ४४) असत्य तथा उभय मन-वचन योग का कारण क्या है?*
उत्तर : आवरण का मन्द उदय होते हुए असत्य की उत्पत्ति नहीं होती अत: असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, उभय मनोयोग, उभय वचनयोग का मूल कारण आवरण के तीव्र अनुभाग का उदय ही है, यह स्पष्ट है। 
इतना विशेष है कि तीव्रतर अनुभाग के उदय से विशिष्ट आवरण असत्य मनोयोग और असत्य वचन योग का कारण है। और तीव्र अनुभाग के उदय से विशिष्ट आवरण उभयमनोग और उभयवचनययोग  का कारण हे । *(गो. जी. २२७)* 

*प्रश्न ४५) यदि सत्य तथा अनुभय मन- वचन योग का कारण आवरणकर्म का तीव्र मन्द अनुभाग होता है तो केवली भगवान के योग कैसे बनेंगे?*
उत्तर : यद्यपि योग का निमित्त आवरणकर्म का मन्द तीव्र अनुभाग का उदय है किन्तु केवली के सत्य और अनुभय योग का व्यवहार समस्त आवरण के क्षय से होता है । *(गो. जी. २२७)* 

*प्रश्न ४६) असत्य वचनयोगी के मनःपर्ययज्ञान कितने गुणस्थानों में होता है?*
उत्तर : असत्य वचनयोगी के मनःपर्ययज्ञान छठे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के सात गुणस्थानों में होता है।

*प्रश्न ४७) असत्य और उभय मनोयोगी के कितने कुल नहीं होते हैं?*
उत्तर : सत्य और अनुभय मनोयोगी के पृथ्वीकायिक आदि के ९१ लाख करोड कुल नही होते है।

पृथ्वीकायिक के     २२ लाख करोड़ 
जलकायिक के      ०७ लाख करोड़
अग्निकायिक के     ०३ लाख करोड़
वायुकायिक के       ०७ लाख करोड़
वनस्पतिकायिक के २८ लाख करोड़  
द्वीन्द्रिय के             ०७ लाख करोड़  
त्रीन्द्रिय के             ०८ लाख करोड़  
चतुरिन्द्रिय के        ०९  लाख करोड़
असत्य और उभय मनोयोग तो संज्ञी जीवो के होता है तथा ये सभी असंज्ञी जीव है, इसलिए जो कुल इनके होते है वे असत्य और उभय मनोयोगी के नही होते है।
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

24) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*

*२४) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *जहाँ कार्मण काययोग समाप्त होगा उसके अगले ही क्षण से ही मिश्र काययोग प्रारम्भ हो ...