गुरुवार, 20 मार्च 2025

8 चौबीस ठाणा से देवगति मार्गणा*

 

*08 चौबीस ठाणा से देवगति मार्गणा*
https://youtu.be/Ypo6qz88Qkg?si=0c0Y-yrC-qZ_jxb5
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✍️ देवगति मे २४ स्थान
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1) गति       ०१/०४*   देवगति
2) इन्द्रिय    ०१/०५*   पंचेन्द्रिय जीव
3) काय       ०१/०६*   त्रसकाय
4) योग        ११/१५* 
*मनोयोग ०४* सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग,
*वचनयोग ०४* सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग,
*काययोग ०३*  कार्मण काययोग, वैक्रियिकद्विक
5) वेद      ०२/०३*   स्त्रीवेद, पुरुषवेद
6) कषाय  २४/२५*  नपुंसकवेद नोकषाय नही
7) ज्ञान     ०६/०८*  ०३ कज्ञान, ०३ सुज्ञान
*कुज्ञान ०३* कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान
*सुज्ञान ०३* मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान
मिथ्याद्रष्ठियो को कुज्ञान, सम्यग्द्रष्टि को सुज्ञान
8) संयम       ०१/०७*  असंयम
9) दर्शन       ०३/०४*  चक्षु, अचक्षु,अवधिदर्शन
10) लेश्या       ०६/०६*  सभी लेश्या
शुभ लेश्या वैमानिक देवो, अशुभ भवनत्रिक देवो में
11) भव्यक्त्व  ०२/०२*  भव्य और अभव्य
12) सम्यक्त्व   ०६/०६* 
मिथ्यात्व,सासादन,मिश्र,उपशम,क्षयोपशम,क्षायिक
13) संज्ञी        ०१/०२*  संज्ञी
14) आहारक   ०२/०२*  आहारक, अनाहारक
15) गुणस्थान   ०४/१४*  ०१ से ०४ तक
मिथ्यात्व,सासादन,सम्यग्मिथ्यात्व,अविरतसम्यग्दृष्टि
16) जीवसमास  ०१/१९*   संज्ञी पंचेन्द्रिय।
17) पर्याप्ति        ०६/०६* आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा  मन:पर्याप्ति।
18) प्राण           १०/१०* 
*इन्द्रिय ०५* स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण
*बल ०३* कायबल, वचन बल और मनोबल प्राण
आयु प्राण और श्वासोच्छवास प्राण
19) संज्ञा         ०४/०४* 
आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा।
20) उपयोग      ०९/१२* 
मति,श्रुत,अवधि, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञानोपग चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन
21) ध्यान         १०/१६* 
*आर्तध्यान ०४* इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान।
*रौद्रध्यान ०४* हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी। 
*धर्मध्यान ०२* आज्ञाविचय, अपायविचय
22) आस्रव       ५२/५७* 
*मिथ्यात्व०५* विपरीत,एकान्त,विनय,संशय,अज्ञान
*अविरति १२* ०५ इन्द्रिय और मन को वश में करने तथा षट्काय के जीवों की रक्षा नहीं करना
*कषाय २४* अनन्तानुबन्धीआदि १६ नोकषाय ०८
*योग ११* मनोयोग-०४, वचनयोग-०४,
काययोग ०३ (वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग,  कार्मण काययोग)
23) जाति   –८४ लाख*    देवगति ०४ लाख
24) कुल–१९९.५ लाख करोड* २६ लाख करोड़
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*प्रश्न 01) देवों के कितने भेद हैं?*
देव चार प्रकार के होते हैं–भवनवासी, व्यन्तरदेव, ज्योतिष और वैमानिक
*भवनवासी देव* भवनो मे रहना जिनका स्वभाव है
*व्यन्तरदेव* जिनका नाना देशो मे निवास है।
*ज्योतिष देव* जो ज्योतिमर्य होते है, वे ज्योतिषक देव है। ज्योतिष देव 790 योजन से 909 योजन तक के क्षेत्र मे निवास स्थान है।
*वैमानिक* जो विमानो मे रहते है, वे वैमानिक देव
*(सर्वा. ४६१–४३)*

*प्रश्न 02) देवो के कितने कुल (उत्तर भेद) है?*
*भवनवासी देव -10* असुरकुमार, नागकुमार, विद्युतकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिककुमार, द्वीपकुमार,दिक्कुमार
*व्यन्तरदेव - 08* किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच।
*ज्योतिष देव - 05* सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारे।
*वैमानिक देव* 02 प्रकार के होते है-कल्पोपपन्न और कल्पातीत
*कल्पोपपन्न* सौधर्मादि सोलहवे स्वर्ग पर्यन्त के देव कल्पोपपन्न कहलाते है।
*कल्यातीत* नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर कल्यातीत विमान है

*प्रश्न 03) सम्यग्दृष्टि भूत-पिशाच के कितने योग हो सकते हैं?*
सम्यग्दृष्टि भूत-पिशाच के नौ योग हो सकते हैं।
मनोयोग 04, वचनयोग 04, वैक्रियिक काययोग।
वैक्रियिक मिश्र और कार्मण काययोग नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव भवनत्रिक में उत्पन्न नहीं होते हैं। *(आराधना समुच्चय 34)*

*प्रश्न 04) देवगति में ऐसे कौन से स्थान है जहां स्त्रीवेद नहीं पाया जाता है?*
सोलहवें स्वर्ग से ऊपर नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानो में तथा लौकांतिक देवों में स्त्रीवेद नहीं पाया जाता है। *(त.सू.04/09)*

*प्रश्न 05) देवो मे नपुंसक देव क्यो नही होता है?*
संसार मे विषयभोग की द्रष्टि से सबसे ज्यादा सुख देवगति में है। वहा यदि नपुंसकवेद होगा तो वे दुख़ी हो जावेगे। फिर पुण्यशाली जीव ही देवो मे जाते है। अनके नपुंसक देव कैसे हो सकता है, नही होता है।
*(देवायु का बंध संक्लेश परिणामो से नही होता है इसलिए पुण्यशाली को ही देव-गति प्राप्त होती है)*

*प्रश्न 06) सर्वार्थसिद्धि देवों की अनाहारक अवस्था (विग्रहगति) में कितने ज्ञानोपयोग होते हैं?*
सर्वार्थ सिद्धि के देवों की अनाहारक अवस्था में तीन ज्ञानोपयोग हो सकते है-मतिज्ञानोपयोग, श्रुत ज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग। तीनो कुज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानोपयोग नही होता है क्योंकि सर्वार्थसिद्धि विमान मे सम्यग्दृष्टि जीव ही जाते हैं।
*(सौधर्मकल्प मे ज्ञानोपयोग के छह भेद हो सकतेहै मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञानोपयोग नही होता है)*

*प्रश्न: 07) देवों के छहों लेश्या किस अपेक्षा से कही गई है?*
देवों के पर्याप्त अवस्था में तीन शुभ लेश्या ही होती है और भवनत्रिक देवों के अपर्याप्त अवस्था यानि निवृत्यापर्याप्तक में तीन अशुभ लेश्या होती है।
इस अपेक्षा से देवों के छहों लेश्या कही है।
*सर्वार्थसिद्धि के देवो की निवृत्यापर्याप्तक अवस्था मे शुक्ल लेश्या ही होती है।*
*प्रथम और द्वितीय गुणस्थानवर्ती देव भी मरण के समय शुभ लेश्या से च्युत होकर अशुभ लेश्या मे आ जाते है।*       *(धवला ०२/६५६)*

*प्रश्न ०८) देवो में कौन कौन सी लेश्या होती है?*
*देव                      पर्याप्तापर्याप्त*
*सौधर्म-ईशान      पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*      पीत
*सानत-माहेन्द्र      पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*
उत्कृष्ट पीत और जघन्य पदम लेश्या
*ब्रह्मब्रह्मोत्तर,लान्तवकापिष्ठ पर्याप्त निर्वृत्यार्याप्त*  मध्यम पदम लेश्या
*शुक्रमहाशुक्र,शतार-सहस्रार पर्याप्तनिर्वृत्यपर्याप्त*  उत्कृष्ट पदम और जघन्य शुक्ल लेश्या
*आनत आदि चारो कल्प    पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*
मध्यम शुक्ल लेश्या
*नवग्रैवेयक                     पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*
मध्यम शुक्ल लेश्या
*नव अनुदिश                  पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*
उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या
*पांच अनुत्तर                  पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त*
उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या
*भवनत्रिक देवों              निर्वृत्यपर्याप्त*
तीनो अगुभ (कृष्ण नील कापोत) लेश्या
*भवनत्रिक देवों              पर्याप्तक*   पीत लेश्या                   *(रा.वा. 04/22)*

*प्रश्न ०९) देवियो मे कौन सी लेश्या होती है?*
*भवनत्रिक देवियाँ   निर्वृत्यपर्याप्त*  तीनो अशुभ
*भवनत्रिक देवियाँ   पर्याप्तक*        पीत लेश्या
*सौधर्म से सोलहवें स्वर्ग पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त*
मध्यम पीत लेश्या होती है।
क्योंकि वैमानिक देवियों का उपपाद सौधर्म ऐशान स्वर्ग में ही होता है। सोलहवें स्वर्ग से आगे देवियां नहीं होती है।    *(त.सा.20 टीका)*

*प्रश्न १०)  देवों की अपर्याप्त अवस्था में कौन सा सम्यक्त्व हो सकता है?*
*01)* भवनत्रिक देव, भवनत्रिक देविया तथा वैमानिक देविया की अपर्याप्तक अवस्था मे दो सम्यक्त्व हो सकते है–मिथ्यात्व और सासादन। क्योकि सम्यग्द्रष्टि जीव इन पर्यायो मे उत्पन्न नही होता अर्थात सम्यग्द्रष्टि की देव दुर्गति नही होती है
*02)* वैमानिक देवो मे सौधर्म स्वर्ग से नव ग्रैवेयक पर्यन्त देवो को अपर्याप्त अवस्था मे पाँच सम्यक्त्व हो सकते है। *मिथ्यात्व, सासादन, उपशम, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व।* क्योकि नव ग्रैवेयक तक मिथ्याद्रष्टि उत्पन्न हो सकता है।
*03)* नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर देवो की अपर्याप्तक अवस्था मे तीन सम्यक्त्व द्वितीयोपशम, क्षायोपश्म और क्षायिक सम्यक्त्व।
*द्वितीयोपशम सम्यक्त्व उपशम श्रेणी मे मरण अपेक्षा से होता है*
*04)* लौकान्तिक देवो मे सभी सम्यग्द्रष्टि ही उत्पन्न होते है इसलिए उनकी अपर्याप्तक अवस्था मे भी तीन सम्यक्तव द्वितीयोपशम, क्षयोपशम और क्षायिक सम्यक्त्व होते है।
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*देवो की पर्याप्तक अवस्था मे छहो सम्यक्त्व के भेद होते सकता है*
*मिथ्यात्व* हो सकता है। यहा से लेकर जाने की अपेक्षा से भी और देवगति मे भी उत्पन्न होता है।
*सासादन* हो सकता है।यहा औपशमिक सम्यक्त्व हो और अनंतानुबंधी का उदय आने से सासादन भी हो सकता है। यहा से साथ लेकर जा सकता है।
*सम्यग्मिथ्यात्व* हो सकता है, देवगति मे उत्पन्न होता है। साथ  जाने की अपेक्षा से नही होता।
*औपशमिक सम्यक्त्व* हो सकता है।प्रथमोपशम की अपेक्षा देवगति मे उत्पन्न हो सकता है, तथा द्वितीयोपशम अपेक्षा यहा से भी ले जा सकता है।
*क्षायोपशमिक* हो सकता है। यह साथ लेकर भी जा सकते है तथा देवगति मे भी हो सकता है।
*क्षायिक सम्यक्त्व* हो सकता है लेकर देवगति मे उत्पन्न नही होता है। यहा से साथ लेकर जाने की अपेक्षा से होता है। जीव ने यहाँ (कर्मभूमि) क्षायिक की शुरुवात करी और बीच मे मरण हो जाता है तो देवगति मे उसका निष्ठापन हो सकता है।

*प्रश्न:11) वैमानिक देवों के अपर्याप्त अवस्था में उपशम सम्यक्त्व कैसे हो सकता है क्योकि उपशम मे तो मरण नही होता?*
हाँ, प्रथमोपश्म मे मरण नही होता लेकिन द्वितीयोपशम मे मरण होने मे कोई बाधा नही है क्योकि उपशम श्रेणी मे चढने वाले और उतरने वाले जीवो का आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग को छोड़कर अन्य समय तथा अन्य गुणस्थानों में जब मरण होता है तो वे नियम से वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होते हैं। वहां उनके निवृत्यपर्याप्त अवस्था में उपशम सम्यक्त्व का सद्भाव बन जाता है। इसलिए देवो की अपर्याप्तक अवस्था मे उपशम सम्यक्त्व कहॉ है।

*प्रश्न 12) क्या भूत, राक्षस, चंद्रमा, शानि आदि देवो को भी सम्यग्दर्शन हो सकता है*
हो सकता है, यद्यपि भवनत्रिक देवो को देवदुर्गति माना गया है इसलिए वहा कोई भी सम्यग्दर्शन सहित उत्पन्न नही हो सकता है, फिर भी वहा जाकर जाति स्मरण, जिनमहिमा दर्शन, देवऋद्धि दर्शन, धर्मोपदेश रुप निमित्तो से प्रथमोपशम सम्यक्तव प्राप्त कर सकते है। यहाँ सादि मिथ्याद्रष्टि क्षयोपशम भी प्राप्त कर सकता है लेकिन क्षायिक सम्यग्दर्शन किसी भी रुप मे नही हो सकता है।
*भवनत्रिक मे सम्यक्तव मार्गणा के छह भेदो मे से पाँच स्थान प्राप्त कर सकता है–मिथ्यात्व,सासादन, मिश्र, उपशम, क्षयोपशम*
*नोट* इसी प्रकार सभी देवियो मे जानना चाहिए।

*प्रश्न 13) देवदुर्गति किसे कहते हैं?*
देवो मे जो स्थान अच्छे नही माने जाते उन स्थानो मे जन्म होना देवदुर्गति है।
वैमानिक देवों में भी कन्दर्प,आभियोग्य, किल्विष, सम्मोहत्व आदि नीच योनि मे उत्पन्न होने वाले जो देव है उनकी गति को देवदुर्गति कहते हैं *(मू.प्र.)*
भवनत्रिक तो देवदुर्गति में है ही लेकिन वैमानिक देवों में भी कन्दर्प,आभियोग्य आदि नीच जाति भी देवदुर्गति मे आती है।

*प्रश्न 14) ऐसा कौन सा जीव हैं जो देवगति में जाकर नियम से सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है?*
शची इन्द्राणी मिथ्यात्व सहित उत्पन्न होती है क्योकि सम्यग्द्रष्टि जीव स्त्रीयो मे उत्पन्न नही होता है लेकिन वहा स्वर्ग में जाकर तीर्थंकर के जन्मकल्याणक आदि के निमित्त से तीर्थंकर बालक को देखकर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेती है।

*प्रश्न 15) किन-किन देवो मे प्रथमोपशम सम्यक्त्व नही हो सकता है?*
जिनको प्रथमोपशम सम्यक्त्व नही हो सकता है वे देव है –
*1)* लौकान्तिक देव, *2)* नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानो *3)* सभी क्षायिक सग्यग्दृष्टि देव मे प्रथमोपशम सम्यक्त्व नही हो सकता है।
क्योकि इन तीन स्थानो मे सम्यग्द्रष्टि जीव ही उत्पन्न होते है। क्षयोपशम सम्यग्द्रष्टि जीव सम्यक्त्व छोडकर मिथ्याद्रष्टि होकर(उद्वेलना काल बीतने पर) प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते है।
*01) लौकान्तिक देव* भी सभी मनुष्यगति के मुनिराज होते है तथा मरण करके लौकान्तिक देव बनते है तथा वो पहले से ही सम्यक्त्व सहित होते है और साथ लेकर जन्मते है इसलिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त नही करते है।
*02) नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानो* के देवो को प्रथमोपशम सम्यक्त्व नही होता है, क्योकि वे वहा सम्यक्त्व सहित जाते है। सभी नियम से सम्यक्त्व सहित होते है और जीवन भर के लिए जो क्षयोपशम सहित गये उनके जीवन भर क्षयोपशम रहता है। जो द्वितीयोपशम सहित गये है उनका सम्यक्त्व बदलकर क्षयोपशम हो जाएगा। जो क्षायिक को लेकर जाते है वे क्षायिक सम्यक्त्व सहित रहते है। लेकिन प्रथमोपशम के लिए कोई स्थान नही है नव अनुदिश और पाँच अनुत्तरो मे।
इन तीन स्थानो पर रहने वाले जीव सम्यक्त्व से च्युत नही होते है।     *(धवला 02/566 के आधार से)*
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*कौन कौन प्रथमोपशम उत्पन्न कर सकता हैं*
*01)* सातो नरक पृथ्वी के नारकी प्रथमोपशम  उत्पन्न कर सकता हैं।
*02)* तिर्यंचगति के संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव चाहे गर्भज हो या सम्मूर्च्छन जीव लेकिन पर्याप्तक हो तो उसके भी प्रथमोपशम हो सकता हैं।
*03)* मनुष्यगति के पर्याप्तक जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं।
*०४)* देवगति मे भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते हैं।

*प्रश्न १६) किन-किन देवो (जीव) के क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है?*
*01)* सर्व देवियाँ तथा भवनत्रिक देवो मे क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है।
*02)* अभियोग, कल्विषक प्रकीर्णक वैमानिक देवो मे क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है। क्योकी एक तो दर्शनमोह की क्षपणा नही होती है, दुसरे जिन्होने पूर्व पर्याय मे दर्शनमोह का क्षय कर दिया है उनकी भवनवासी आदि अधम देवो मे और सभी देवियो मे उत्पत्ती नही होती है। *(धवला ०१/३३९, ४०८)*
*◆नारकी* नारकियो मे दूसरी नरक पृथ्वी से सातवी नरक पृथ्वी तक के नारकी को क्षायिक सम्यक्त्व नही होता, पहली नरक पृथ्वी मे केवल या तो मनुष्यलोक से लेकर गया हो या कृत्यकृतवेदक होकर गया हो तो पहली नरक पृथ्वी मे होता है।
*◆तिर्यंच* कर्मभूमि के किसी भी तिर्यंच को क्षायिक सम्यक्त्व नही हो सकता, भोगभूमि के तिर्यंच मे हो सकता है अगर वह यहा से लेकर गया हो।भोगभूमि के मनुष्यो मे भी निष्ठापन की अपेक्षा से होता है, कोई यहा से लेकर गया हो।
*◆कर्मभूमि मनुष्यो* मे क्षयिक सम्यक्त्व हो सकता है, लेकिन यहा भी काल भी अपेक्षा लगेगी, अवसर्पिणी के चौथे काल मे तथा उत्सर्पिणी के तीसरे काल मे हो सकता है
*03)* प्रथमोपशम सम्यग्द्रष्टि, क्षयोपशम सम्यग्द्रष्टि (कृतकृत्यवेदक को छोडकर), मिथ्याद्रष्टि, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व वालो को भी क्षयिक नही होता है।

*प्रश्न 17) देवगति उत्तम मानी गयी है वहाँ पंचमादि गुणस्थान क्यो नही होते है?*
अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय सहित, विषयो मे आनंद से युक्त, नाना प्रकार की राग क्रियाओ मे निपुण उन देवो के देशविरत आदिक उपरितन दस गुणस्थान के हेतुभूत जो विशुद्घ परिणाम है वे कदापि नही होते है।  *(ति.प. ०३/१८५-१८६)*
*नोट* इसी प्रकार अन्य देव-देवियो के भी पंचमादि गुणस्थान नही होते है।

*प्रश्न 18) ऐसा कौन सा गुणस्थान है जो चारो गतियों की अनहारक अवस्था मे नही पाया जाता*
तीसरा सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थान अनहारक अवस्था मे नही होता क्योकि इस गुणस्थान मे मरण नही होता तो अनहारक अवस्था कैसे होगी*

*प्रश्न 19) देवांगनाओ के कितने आस्रव के प्रत्यय होते है?*
*मिथ्यात्व गुणस्थान - 51*
मिथ्यात्व ०५, अविरति १२, कषाय २३ (पुरुषवेद, नपुंसकवेद नही होते), योग ११ (आहारकद्विक और औदारिकद्विक नही होते)
*सासादन - 46*
मिथ्यात्व ००, अविरति १२, कषाय २३ (पुरुषवेद, नपुंसक वेद नही होते), योग ११ (आहारकद्विक और औदारिकद्विक नही होते)
*मिश्र - 40*
मिथ्यात्व ००, अविरति १२, कषाय १९ (पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अनंतानुबंधी चतुष्क नही होते), योग ०९ (मन ०४, वचन ०४, वैक्रियक काययोग)
(कार्मण काययोग, वैक्रियक मिश्र, आहारकद्विक और औदारिकद्विक नही होते)
*अविरत - 4०*
मिथ्यात्व ००, अविरति १२, कषाय १९ (पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अनंतानुबंधी चतुष्क नही होते), योग ०९ (मन ०४, वचन ०४, वैक्रियक काययोग)
(कार्मण काययोग, वैक्रियक मिश्र, आहारकद्विक और औदारिकद्विक नही होते)
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*आगम के परिपेक्ष में (शलभ जैन)*

24) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग*

*२४) चौबीस ठाणा वैक्रियिक मिश्र काययोग* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 *जहाँ कार्मण काययोग समाप्त होगा उसके अगले ही क्षण से ही मिश्र काययोग प्रारम्भ हो ...